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Full text of "Kundalini Shakti Kaise Jagrat Kare Vivek Kaushik"

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च्छैसखे जागृत क्छ 


स्व से परम बनने की चमत्कारी साधना 
`. कुण्डलिनी जागरण मं सावधानियां 
कुण्डलिनी के आवश्यक सुच 

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कुण्डलिनी शक्ति 
केसे जागत करे 





प्रस्तुत पुस्तक मे कुण्डलिनी महाविद्या का विस्तृत सचित्र एवं 
सरल विवरण है । पुस्तक में कुण्डलिनी परिचय, कुण्डलिनी 
जागरण के उपाय, अषएरंग योग, ध्यान योग, हठयोग, सभी 
मुद्राएं एवं तत्र एवं मंत्र द्वारा कुण्डलिनी जागरण पर विस्तृत 
प्रकाशर डाला गया है । प्रस्तुत पुस्तक पढ़कर कुण्डलिनी जागृत 
कर अब आप भी उन चमत्कारी एवं अलौकिक शक्तियों को 
प्राप्तकर सकते है जो स्व का परम से मिलन का मार्ग प्रशस्त 
करती है। 


















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कुण्डलिनी शक्ति 
कसे जागत करे 
चमत्कार कृ ण्डलिनौ शकत के गुप्त रहस्य का 
सरल, एवं एरागाणिक विवर्ण 


प्रस्तुति | 
विवेक श्री कौशिक "विश्वमित्र' 





तुक 
4537, दाईवाडा, नई सड़क, दिल्ली -110006 


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© सर्वाधिकार प्रकाशकाधीन 


भारतीय कँपीराइट एक्ट के अन्तर्गत इस पुस्तक मे समाहित समस्त सामग्री 
टाइटिल-डिजाइन, अन्दर का मेटर आदि के सर्वाधिकार "पवन पोँकंट बुक्सः 
के पास सुरक्षित है. इसलिए कोई व्यक्ति ^ संस्था ^ समूह इस पुस्तक की 


पाद्य सामग्री को आंशिक या पूर्ण रूप से, तोड़-मरोडकर या किसी अन्य 
भाषा मे प्रकाशित नहीं कर सकता । उल्लंघन करने वाले कानूनी तौर पर 
हर्ज-खर्चे व हानि के जिम्मेदार स्वयं होंगे | 





प्रकाशक : 
पवन पोकट बुक्स 

4537, दाईवाडा, नई सडक, दिल्ली- 110006 
दूरभाष : 23918311, 23912515 


लेखक : वी.बी.जोशी 
लयः 
दी रुपये मात्र (00) 


मद्रक : 
डी.जी. प्रिंटर्स, शाहदरा, दिल्ली- 32 


अनुक्रमणिका 


| 


11. 


1.2. 


13. 


14. 


15. 


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प्राणायाम, पहला नाडी शोधकं प्राणायाम, दूसरा नाडी शोधक प्रणायाम, 
लाभ, विघ व अवधि सहित। अजपा गायत्री प्राणायाम, त्रिविध 








आपस को बात 
प्राक्कथन 
. कुण्डलिनी : एक परिचय 19 
चक्रों का परिचय 23 
. मूलाधार चक्र 25 
. स्वाधिष्ठान चक्र 29 
. मणिपूरक चक्र 33 
. अनाहत चक्र 38 
विशुद्ध चक्र 42 
. आज्ञा चक्र 46 
. सहस्रार चक्र 53 
. नाड्यां एवं कुण्डलिनी 59 
प्राणवाहक प्रमुख नाड्यां 
क्या है कुण्डलिनी ? 63 
कुटिल आकार करा कारण 
अभ्यास खण्ड- सफलता के लिए आवश्यक 79 
प्रात्रता, संकल्प, लगन व धैर्य, सजगता व दिशाबोध, सत्संग, चिन्तन 
व स्वाध्याय, आहार व शुचिता, साधनों को, स्थान कौ शुचिता 
कुण्डलिनी जागरण का मार्ग-( अष्टग योग ) 94 
(योग हे क्या? योग के 8 अंग-यम, नियम, आसन, प्राणायाम, 
प्रत्याहार, धारणा, ध्यान ओर समाधि; अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, 
अपरिग्रह; शोच, संतोष, तप, स्वाध्याय, ईश्वर प्रणिधान) आसनं के 
भेद व उपयोगिता, ध्यान योग्य आसन । प्राणायाम- प्रक्रियाः प्रणाली, 
भेद व लाभ, त्रिविध बन्धः उपयोगिता, विधि व लाभ। प्रत्याहार 
अर्थ, महत्त्व, उपयोगिता। धारणा, ध्यान तथा समाधि के विषय में 
भेद, प्रकार, महत्व, उपयोगिता, लाभ आदि को संक्षिप्त चर्चा । समाधि 
सम्बन्धी प्रमुख प्रश्नो का समाधान । योग के 6 अंगों कौ व्याख्या तथा 
प्रारम्भिक दो भूमिकात्मक अंगों का महत्व ।) 
कुण्डलिनी जागरण के उपाय 120 
कुह महत्त्वपूर्णं तथ्य, व्याख्या, 16 आधारो का प्रयोग 
ध्यान योग व हठयोग सम्बन्धी उपाय 128 





16. 


18. 
19. 
20. 
21. 
22. 
23. 
24. 


` प्राणायाम, कुम्भक प्राणायाम, सहित व केवल । वायुनिरोधभ्यास, 


भसिका प्राणायाम, काकीमुद्रा प्राणायाम । विधि, लाभ, सावधानियों 
तथा विभेदों सहित । आसन, बंध, मुद्रा व सावधानियां । सिद्धासन, 
पद्यासन-- विधि, लाभ आदि । त्रारिक, पंचमुद्रा, मूलबन्ध, उड़यान 
बन्ध, जालन्धर बन्ध- विधि व लाभ। मुद्रा, महामुद्रा/महाबन्ध-- 
विधि व लाभ।) | 
मुद्रा-महामुद्रा/महाबन्ध, नभोमुद्राखेचरी मुद्रा-लाभ, विधि एवं 
सावधानी सहित । विपरीत करणी मुद्रा- विधि, लाभ, व प्रभाव तथा 
सावधानी । शक्तिचालन तथा शक्तिचालिनी मुद्रा- विधि, व्याख्या । 
अश्विनी मुद्रा। बिन्दु ओर रज को, चन्द्र व सूर्य को, प्राण व अपान 
को मिलाना। प्रणवाभ्यास-- प्रणव का विवेचन, अर्थं व मानसिक 
जप। 

ध्यान, धारणा ओर समाधि- सम्पूर्ण विवेचन 

ध्यान-- पृथ्वी तत्व को, जल तत्व कौ, वायु तत्त्व को, अग्नि तत्त्व 
की तथा आकाश तत्व कौ धारणा। विधि एवं प्रभाव । विभिन्न चक्रों 
आदि पर ध्यान फल, सगुण व निर्गुण ध्यान, भावना का प्रभाव। 
समाधि-सम्प्रलात व असम्प्रलात समाधि, कर्मबन्धन मुक्ति, मोक्ष ।) 


. तन्त्र एवं मत्र सम्बन्धी उपाय 


मन्त्र की वैज्ञानिकता तथा प्रभाव का विवेचन । कुण्डलिनी जागरण 
को मन्त्र प्रक्रियाएं प्रथम) गुरु-गणेश वंदन, संकल्प, पूजन, विनियोग, 
ऋषि-न्यास, करन्यास, षडगन्यास, ध्यान, जप तथा उसके सम्बन्ध 
में आवश्यक तथ्य क्षमा प्रार्थना मंत्र। शिवपुराण में वर्णित एक 
अन्यविधि । कुण्डलिनी स्तुति, उदघाटन कवच, कुण्डलिनी अष्टक, 
कुण्डलिनी कवच, कुण्डलिनी स्तोत्र व अन्य । मानसिक मन्त्र जाप 
(अन्य विधि) । रुद्रायमल तंत्र मे वर्णित विधि-- न्यास ध्यान सहित। 
सिद्धिदायक कवच व स्तोत्र । ज्ञानेश्वरी गीता' में कुण्डलिनी जागरण 
प्रक्रिया का वर्णन। मन्त्र प्रयोग मे सावधानियां तथा पूर्व तैयारियां 
सिद्िदायक कवच व स्तोत्र 

योगी कौ चर्या व साधना मे सावधानियां 

कुण्डलिनी स्तुति 
कुण्डलिनी अष्टक 

सप्तचक्रं की युक्ति संगतता 
योगासन समय-तालिका 
उपसंहार एवं निष्कर्षं 


171 


186 


201 
201 
21: 
219 
241 
249 
252 








आपस की बात 


अपनी पिछली पुस्तक ' सम्पूर्णं योग शास्त्र' (गोल्ड बुक्स 'इण्डिया' से ही 
प्रकाशित) में मैने पाठकों से वादा किया था कि, यदि वे इच्छा करेगे तो योग के शेष 
अंगों, आध्यात्मिक ओर कुण्डलिनी शक्ति पर अगली किसी पुस्तक में विस्तार से 
चर्या करूगा। प्रसन्नता का विषय है कि पाठकों ने इस विषय पर एक स्वतन्त्र 
पुस्तक कौ अत्यन्त जोरदार मांग प्रकाशक से कौ है । आपके द्वारा भेजे गए प्रशंसा 
ओर प्रतिक्रियाओं के ढेरों पत्रों में से अधिकांश में कुण्डलिनी ओर योग विद्या पर 
एक सम्पूर्ण पुस्तक की मांग भी शामिल थी- जो एक अभिभूत ओर गद्गद्‌ हो जाने 
का विषय है (कम से कम मेरे लिए) । क्योकि यह विषय रोचक होते हुए भी इतना 
सृक्ष्म, गहन, विशद, अथाह, महत्त्वपूर्ण, रहस्यमय, ज्ञानमय ओर उलङ्चा हुजाहे कि 
वर्षो से गुप्त ओर रहस्यपूर्ण रहा है । इसीलिए विभिन्न पुराणों व ग्रन्थो में इसे ` गुप 
विद्या" के नाम से भी पुकारा गया है। यह एक सुखद आश्चर्य है कि भारतम भी 
एसे जिज्ञासु, ज्ञानार्थी ओर जागरूक बुद्धिजीवी है जो अध्यात्म ओर साधना में इतनी 
रुचि रखते हें । 

मैने आमतौर पर विदेशियों को ही एसे गूढ़ व शुद्ध भारतीय विषयों मे अधिक 
रुचि लेते देखा हे । प्रायः भारतीय व्यक्ति तो अपनी ही संस्कृति ओर देश में निखरे 
ज्ञान ओर विद्याओं की अपेक्षा धन कमाने में अथवा विदेशी संस्कृतियों मे ही 
अधिक रुचि लेते हैँ या फिर हल्के-फुल्के मनोरंजन मे, किन्तु पाठको द्वारा प्रकारक 
को भेजे गए ढेरों पत्न इस बात का खुला एेलान है कि भारतीय जनमानस मे काफौ 
परिवर्तन आया है, ओर हिन्दी के पाठकों की रुचि बहुत परिष्कृत हो चुको है । 
भारतीय पाठकों में आई यह चेतना, यह जागृति, यह क्रांति अभिभूत कर देने बाली 
ओर स्वागत के योग्य है। बुद्धिजीवी पाठकों कौ इस तीव्र इच्छा का सम्मान करते 
हए, मे पाठकों के सम्मुख कुण्डलिनी शवित महाविद्या के रहस्यों को लेकर उपस्थित 
हू ओर इस गूढ विषय को सहजता के साथ किन्तु सम्मूर्णता के साथ इस पुस्तक मं 
मैने संयोजित किया है, साथ ही प्रामाणिकता ओर सारगर्भिता अथवा मूल तत्त्व 
पुस्तक को सरल व रोचक बनाने के प्रयास मेँ नष्ट न हो जाएं अथवा विकृत होकर 
अपना वास्तविक रूप व अर्थ न खो वैटे--इस मामले मेँ भी मेने पूरी सावधानी 
बरती है ओर मेरी धारणा है कि मै इसमे सफल रहा हू | 


7 


सम्भवतः इस विषय पर पाठकों को खोजने पर कुछ अन्य पुस्तक भी मिल 
जाएं, परन्तु यह मेरा दावा है कि पाठक इस पुस्तक को ज्ञान व जानकारी के विषय 
मे अधिक सरल व रोचक पाएंगे । इससे अधिक कुछ कहना--अपनी ही पुस्तक के 
विषय मे-- खुद मियां मिदर बनना होगा। ओर शायद इससे अधिक कहने कौ 
जरूरत भी नहीं है । क्योकि समञ्लदार को इशारा ही बहुत होता है । 

इस गहन विषय पर जो कुक भी कहने-लिखने का साहस कर पाया हं सब 
अपने आदरणीय, परमपूज्य, योगी, महाविद्वान ओर चिन्तक पिता श्री डो. केशव 
कौशिक के प्रसाद के प्रभाव से-जो प्रत्येक क्षेत्र में सदा ही मेरे पथप्रदर्शक ओर 
प्रेरणा स्तम्भ रहे हे । प्रस्तुत पुस्तक जेसे गहन, क्लिष्ट ओर रहस्यपूर्णं विषय"तो बिना 
उनकी कृपा ओर स्नेह के मेँ कभी इतना न समञ्ञ पाता कि इस पर कुछ लिख भी 
सक । 

-आभारी हूं अपने प्रकाशंक मित्र श्री बादल शर्मा का भी जिन्होने एक अत्यंत 

महत्त्वपूर्ण विषय पाठकों तक पहुंचाने का बीड़ा उठाया ओर मुञ्ञे इस योग्य समञ्चा 
कि इस विषय पर अधिकार पूर्वक कह सक्ू । 


समस्त विश्व के कल्याण कौ शुभेच्छा के साथ- 
| ' विश्वसित्र' 


प्राक्कथन 

ईश्वर द्वारा मनुष्य को दिए गए उपहारो या ताकतों में बुद्धि का विशेष महत्त्व 
हे । जिज्ञासा बुद्धि का प्रधान लक्षण है, बुद्धि है ओर सही तरह काम कर रही है तो 
मनुष्य ज्ञान प्राप्त किए बिना रुक नहीं सकता। जानकारियां जुटाना बुद्धि का प्रथम 
मूल कार्य है । प्राप्त जानकारी का विश्लेषण करना भी बुद्धि ही का कार्य है ओर 
कसौरियों पर कस कर प्रमाण जुटाना अथवा तथ्य को सिद्ध कर लेना भी बुद्धि के 
ही कार्यं क्षेत्र में आता है । यह बात अलहदा है कि बुद्धि ही मनुष्य को माया में 
उलञ्ा भी देती हे, लेकिन यह भी सत्य है कि बुद्धि ही ब्रह्म की ओर जाने का-ग्रथम 
सोपान भी हेै। 

बहरहाल-- जीवन हे, तो बुद्धि है । बुद्धि है तो जिज्ञासा है । जिन्लासा है तो ज्ञान 
हे । सान ही जीवन्‌ का. मधुरतम फल हे । ज्ञान से पूर्णता ओर शांति उत्पन्न होती है-- 
जो वैराग्य उत्पनन करते है । वैराग्य माया को नष्ट करता है । माया के प्रभाव से मुक्ति 
ब्रह्म तक पहुंचने का ठोस आधार है । अतः अपना हित चाहने वाले को सदेव ज्ञान 
प्राप्त करने का प्रयास करते रहना चाहिए। 

जिस प्रकार विश्व को जीतने की इच्छा रखने वाले को सर्वप्रथम स्वयं को 
जीतना चाहिए ( क्योकि खुद को जीत लेने के बाद कु भी जीतने को शेष नहीं रह 
जाता), उसी प्रकार ज्ञान चाहने वाले व्यक्ति को सर्वप्रथम अपने बारे में जानना 
चाहिए- अपने शरीर के विषय में नहीं, अपने ' स्व ' अपनी आत्मा के विषय मे । 
दूसरे शब्दों मे उसे अध्यात्म विद्या का ज्ञान प्राप्त करना चाहिए (क्योकि आध्यात्मिक 
सान पालेने के बाद किसी ओर ज्ञान को पाना शेष नहीं रह जाता) । इसीलिए 
अध्यात्म विद्या को महाविद्या या गुह्यविद्या (गुप्त विद्या) कहा गया हे । इसे गुप्त रखा 
भी गया हे- क्योकि एक तो यह इतनी गहन, गूढ, क्लिष्ट, महत्त्वपूर्ण, उलज्ञाव पूर्ण 
ओर रहस्यमयी है कि जन सामान्य की रुचि इसमें सहज ही उत्पनन नहीं होती । 
दूसरे इस विद्या का साधक एेसी चमत्कारिक ओर विलक्षण, दिव्य शक्तियां सहज 
ही प्राप्त कर लेता है, जो किसी अपात्र को मिल जाएं तो शक्तियों का दुरुपयोग होने 
से अनर्थं हो जाए। इन्दं कारणों से इस विद्या को गुप्त रखा गया। सुयोग्य गुरु से 
सुपात्र शिष्य का मेल होने पर ही इस विद्या को अगे सौपा गया। 

हम इस विद्या को जन सामान्य में प्रचारित ब प्रसारित कर है । इस सम्भावना 
के बावजुद कि अपात्र पर भी विद्या जा सकती है ओर उसका दुरुपयोग भी हो 





9 


सकता हे । एसा करने का भी एक ठोस तर्क हे । वह यह कि लाखों लोगों मे से कुछ 
हजार परमात्मा या अध्यात्म के विषय में सोचते अथवा चर्चा करते है । उन हजारों 
मे से कुछ सौ इस विषय पर पुस्तक पढकर अथवा अपने से अधिक योग्य जनों से 
उपदेश लेकर इसे समञ्चने का प्रयास करने ओर इस दिशा में साधना करने को प्रेरित 
होते है।उनसौमेंसे भी दस व्यक्ति इस प्रेरणा ओर प्राप्त ज्ञान के आधार पर दढ 
संकल्प होकर साधना आरम्भ करते हैँ अथवा इस दिशा पर अग्रसर होते हैँ । उन दस 
मे कोई एक ही एेसा होता है जो मन को जीत कर, पक्की लगन के साथ, धेर्यपूर्वकः 
मार्गं को विषमताओं, कठिनाइयों व बाधाओं को लांघकर नियमपूर्वक चलता हुआ 
या साधना करता हुआ लक्ष्य तक पहुंचता है । उसी को ' लाखों में एक ' कहते है । 
इस प्रकार हम पाते हैं कि अयोग्य, अपात्र या अधकचरा व्यक्ति तो इस क्षत्र 
मं रुचि ही नहीं लेता, रुचि लेता है तो मात्र चर्चा के लिए, जिज्ञासा शांति के लिए । 
वह साधना के लिए प्रेरित नहीं होता, प्रेरित हो जाए तो संकल्प नहीं करता । संकल्प 
भी कर ले तो धैर्यपूर्वक नियमित साधना नहीं कर पाता, नीच में ही छोड देता हे । 
ओर अगर एेसा न होकर वह लक्ष्य को प्राप्त कर लेता है तो वह अवश्य ही एक 
सुयोग्य व सुपात्र होता है । क्योकि इतनी कसौरियोँ पर खरा उतरकर समस्त विघ्- 
बाधाओं व कठिनाइयों को जीतता हुआ जो अन्ततः विजय प्राप्त कर लेता है, वह 
लाखों में एक- भला अपात्र या अयोग्य केसे हो सकता है ? 
फिर जसा कि श्री अरविन्द ने कहा भी है -- “116 ५110 {185 1100565 1#€ 
५1116, 125 0९९1) 6100561 0\/ {11€ ५ ५116€ 0016."--511। 4110060 ( वह 
जिसने परमात्मा को चुना है, परमात्मा द्वारा पहले ही चुना जा चुका हे ।) 
ओर जैसा कि गोस्वामी तुलसीदास जी ने भी कहा है कि! जिनु हरिकृपा 
मिलहि नहि संता।' अथवा- 
बिनु सत्संग विबेक न होडं। 
राम कृपा बिनु सुलभ न सोडं॥ 
अर्थात्‌-बिना सत्संग के (बिना संतो, विद्वानों अथवा ज्ञानियों के साथ चर्चा 
किए) विवेक नहीं होता। (विवेक के बिना कल्याण सम्भव नर्ही, क्योकि ज्ञान ही 
प्रकाश का कारक है) ओर सत्संग राम कौ कृपा के बिना नहरी होता । बिना परमत्मा 
कौ कृपा के साधक को सन्त या गुरु या मार्गदर्शक नहीं मिलता। अतः परमात्मा 
जिसका कल्याण करना चाहता है उसे ही सत्संग का लाभ देता है, ताकि वह ज्ञान 
प्राप्त करके जागृत हो ओर सत्य का साक्षात्कार कर सके। (यहां ध्यान दीजिए कि 
एक अच्छी पुस्तक भी इकतरफा सत्संग ही है । क्योकि पुस्तक लेखक कौ वाणी है । 
पाठकों के लिए ज्ञानवर्धक, प्रेरक व मार्गदर्शक है । इसीलिए पुस्तकों को मानव का 
सर्वोत्तम मित्र कहा गया है । किन्तु पुस्तक के चयन मेँ सावधानी आवश्यक हे ।) 
सृष्टि शरीर के बाहर भी है । सृष्टि शरीर के भीतर भी है । बाहर कौ ओर अनन्त 
हे । कोई छोर नहीं हे । भीतर कौ ओर केन्द्र है । साधक की यात्रा शीघ्र ही लक्ष्य को. 
10 


प्राप्त करती हे । दूसरे शब्दों में बाहर शून्य है ओर भीतर बिन्दु हे । महाशून्य ओर बिन्दु 
दोनों ही विराट ह । दोनों ही अपरिमेय है अतः एक ही सिक्के के दो पहलू हैँ । 
परमाणु मेँ भी उतनी ही शक्ति ओर ऊर्जा छिपी है, जितनी विराट या अनन्त में। 
(सभी जानते ह कि परमाणु को तोडने से उत्पन्न विस्फोट कितना शक्तिशाली ओर 
विध्वंसक होता है । परमाणु बम इसी सिद्धांत पर क्रियान्वित होता हे) । बिन्दु ओर 
मपहाशुन्य दोनों की परिभाषा एक है । दोनों का अस्तित्व है किन्तु उसे नापा नहीं जा 
सकता। वे अपरिमेय हैँ, असीमरहै। 

अतः बिन्दु कोपालेनाविराटकोपालेनाहै। या विराट को जान लेना, बिन्दु 
को जान लेना है । बाहर कौ ओर (शरीर से बाहर को ओर) की यात्रा विज्ञान है । यह 
बहिर्मुखी प्रगति करता है । अन्दर कौ ओर (शरीर से भीतर को ओर) कौ-यात्रा योग 
हे । यह अन्तर्मुखी है । विज्ञान भौतिक प्रणाली है, जो उपकरणों, यन्त्रो व साधनों पर 
निर्भर है । योग जबकि आध्यात्मिक प्रणाली है जिसमें बाह्य या भोतिक उपकरणों या 
साधनों की आवश्यकता नहीं है । वैज्ञानिक को प्रयोगशाला कौ जरूरत होती हे । 
योगी के लिए उसका शरीर ही प्रयोगशाला को भूमिका निभाता है । दोना ही सत्य 
की खोज करते है, दोनों ही चमत्कारिक उपलब्धियां प्राप्त करते हैँ । किन्तु बहिर्मुखी 
प्रगति में अधिक समय, श्रम व साधनों कौ आवश्यकता पडती है । अधिक बाधाएं 
व अनिश्चितताएं रहती है ओर दिशाभ्रम कौ पूरी सम्भावना रहती है । जबकि 
अन्तर्मुखी प्रगति कम समय, श्रम व साधनों के साथ हो जाती हे । अवरोध भी कम 
होते है ओर निश्चितता भी रहती है । दिशाभ्रम कौ सम्भावनाएं होती ही नहीं । 

वृत्त की त्रिज्या या व्यास पर चलता हुआ आदमी निश्चित रूप से केन्द्र पर जा 
पहुंचता है । किन्तु यदि त्रिज्या पर नहीं चल रहा अपितु परिधि पर घूम रहाहे, या 
परिधिः की ओर चल रहा है, तो वह तमाम जीवन भी चलता रहकर केन्द्र को प्राप्त 
नहीं कर सकता । 

विज्ञान कौ प्रगति इसीलिए कई युगो में, निरंतर पीदी-दर-पीटी शोध के बाद 
होती हे । इसके बावजूद अक्सर निश्चित सिद्धांत पर पहुंचा नहीं जाता । न्यूटन के 
सिद्धात को आईस्टीन फेल कर देता हे । विज्ञान के शोध द्वारा बनाए गए सिद्धात 
अक्सर वास्को डिगामा कौ भारत की खोज सिद्ध होते हैँ । यह अनिश्चितता ओर 
भ्रम युगो तक कौ गई मेहनत से प्राप्त उपलब्धियों मे शामिल रहते हँ । एेसा भी होता 
है कि किसी ओर पदार्थ या सत्ता की खोज में कोई ओर पदार्थं या सत्ता अकस्मात्‌ 
सामने आ जाती है। यू अंधे के हाथ बटेर लग जाने कौ कहावत चरितार्थं होती है । 
बहरहाल, इस प्रगति में प्राप्त लक्ष्य या उपलबल्धिया प्रायः आकस्मिक (एक्सीडेरल) 
होती है अथवा अनिश्चित, अपूर्णं या भ्रमात्मक ओर वह भी पीदी-दर-पीदी संघर्ष 
के बाद । जबकि योगी अपने जीवन में ही (कुछ वर्षो में ही) लक्ष्य प्राप्त करता हे । 

वह सिद्धांत अवश्य ही भ्रमात्मक व अपूर्णं है जो बदला जा सके । अथवा 
जिसे बदलने को जरूरत महसूस हो । दरसल वह सिद्धांत कहा जाने का हकदार 

| 11 


ही नहीं होता, अलबत्ता उसे नियम कहा जा सकता हे । सिद्धांत तो हर काल मे, हर 
परिस्थिति में, हर दशा में एक-सा रहता है, वह अपरिवर्तनीय हे । सिद्धांत का अर्थं 
ही यह है- सिद्ध+अंत, यानी अन्त सिद्ध हो जिसका अथवा अन्त तक सिद्ध 
हो जो। अतः उसके बदलने का सवाल ही नही उठता । नियम अलबत्ता, देश, 
काल, पात्र ओर स्थिति के अनुसार बदल जाते हैँ । जेसे, ' गरम कपडे पहनने 
चाहिए । इनसे सुख मिलता है ।'- यह एक नियम है । अथवा ^ धूप सुहावनी होती 
है ।' यह एक नियम है, क्योकि सर्दियों के लिए यह फिट है, मगर गर्मियों के लिए 
नहीं । जबकि ' सूर्य से प्रकाश व ऊर्जा मिलती है ।' यह सिद्धांत हे । क्योकि सर्दी - 
गर्मी, देश-विदेश हर जगह फिट है । इस बात को पाठकों को ध्यान से समञ्चना 
चाहिए । | 

विज्ञान में नियम को सिद्धांत समञ्च लेने को बड़ी भूलें होती हैँ । इसलिए 
अनिश्चितताएं ओर भ्रम ओर भी बढ़ जाते है-इतने कि वैज्ञानिक ही नहीं, पूरा 
समाज दिशा श्रमित हो जाता है ओर कई बार शताब्दियों तक भ्रमित ही रहता है । 
` उदाहरणार्थ" सफेदे का पेड लगाओ।* नीति प्रारम्भ में कितने जोरों पर थी, सभी 
जानते हैँ । यूक्लिप्टस या सफेदा जल्द बदृता हे, मंहगा बिकता हे, इसे उगाने में 
अधिक ज्ञमेले या रख-रखाव कौ जरूरत नहीं पडती, सुरक्षा को भी जरूरत नहीं 
पडती, क्योकि पशु-पक्षी इसे खाते नही, आदमी इसे (आम, अमरूद, गन्ना आदि 
की तरह) चुराता नर्ही। अतः तब सबने खून सफेदा उगाया। किसानों ने अपने 
अमोंँ के बाग या गन्नों के खेत सफेदे के जंगलो में तब्दील कर लिए । पचास-साठ 
वर्षो तक यह सब चला। फिर पता चला कि सफेदा पानी सोख लेता है । भूमि की 
उर्वरा शक्ति कम कर देता है । जमीन बंजर हो जाती है । आस-पास कौ जमीन में 
भूमिगत जल का स्तर भी नीचे गिर जाता हे । तब सफेद प्रतिबन्धित कर दिया गया। 

इस प्रकार के बहुत से मामले हैँ । यहां तक कि बहुत-सी दवाएं जो शुरू में 
लाभकारी समञ्चकर प्रचारित व प्रसारित की गई थी, बाद में साइड इफैक्ट्ूस पता 
चलने पर प्रतिबन्धित कर दी गई। इसी प्रकार शुरू मेँ प्लास्टिक का प्रचलन ओर 
प्लास्टिक को बेजोड मानकर प्रो्ैगडा बढाया गया ओर आजकल प्लास्टिक, 
पाँलीथीन को प्रतिबन्धितं करने की दिशा में प्रचार हो रहा है । एसे अनगिनत मामले 
हे जिन्हे यहां गिनाना व्यर्थं ही कलेवर बढाना होगा । 

मगर यह सब हआ क्यों ? नियम को सिद्धांत समञ्ञ लेने के भ्रम के कारण। 
अधुर ज्ञान के कारण अदूरदर्शिता ओर जल्दबाजी के कारण । यह सब विज्ञान को 
दुर्बलताओं की स्पष्ट घोषणा है । । 

इन बातों को गिनाने की जरूरत यूं पड़ी कि अध्यात्म के महत्व को पाठक 
भली प्रकार समञ्च सके ओर यह भी जान सके कि अध्यात्म का विरोधी दिखाई 
पड़ने वाला विज्ञान वास्तव मेँ प्रणाली के विरोधी होने से विरोधी लगता है । अन्यथा 
लक्ष्य दोनों ही का समान है- सत्य को खोज । 

12 


अध्यात्म का महत्त्व समञ्चाना युं जरूरी है, कि परम ज्ञान आध्यात्मिक ज्ञान ही 
हे । योग आध्यात्मिक प्रणाली है ओर कुण्डलिनी जागरण योग का अति विशिष्ट 
पहलू है, बल्कि योग के लक्ष्यो में से एक है । अतः यदि कुण्डलिनी शक्ति कौ बात 
करनी है, तो पहले इन सब बातों को समञ्चना होगा । जड को जान लेने के बाद ही 
तने व शाखाओं से होते हुए फूल, फल, पत्तियों पर आया जाएगा । अतः पाठक _-- 
पुस्तक के इस भाग को महतत्वहीन या असम्बद्ध समञ्चने की गलती न करें । पुस्तक 
को ठीक-ठीक समञ्चन के लिए सदैव पुस्तक की भूमिका को, प्राक्कथन को पहले 
ठंग से पढना, समञ्चना जरूरी होता है । 

शरीर विज्ञान शरीर की संरचना पर प्रकाश डालता है । त्वचा, मांसपेशियां 
अस्थियां, नाडियां, धमनियां, शिराएं, तत्रिकाए, ऊतक, कोशिकाएं, विभिन्न अवयव, 
अंग ओर विभिन संस्थान, उनकी कार्यप्रणाली आदि यह सब शरीर रचना विज्ञान 
के अर्न्तगत आते हैँ । किन्तु यह सभी स्थूल हैँ, भोतिक हैँ । इनसे हम शरीर के विषय 
में ज्ञान प्राप्त करते हैँ, परन्तु अधूरा । क्योकि बहुत से रहस्य यहां अनसुलञ्चे रह जाते 
है ओर बहत कुक एेसा बाकी रह जाता है-जिस पर यह विज्ञान प्रकाश ही नहीं डाल 
पाता, क्योकि वह सब सूक्ष्म है । कुछ सृक्ष्मातिसृक्ष्म है । इसके विषय में शरीर रचना 
विज्ञान न केवल मौन है, बल्कि इसके अस्तित्व के विषय में भी संदिग्ध है । क्योकि 
विज्ञान केवल प्रत्यक्ष को ही प्रमाण मानता है, ओर प्रत्यक्ष की अपनी सीमाएं हे । 
सभी कुछ प्रत्यक्ष कर पाना सम्भव नहीं होता। 

शरीर में हदय ओर मस्तिष्क के अलावा मन भी होता हे । किन्तु विज्ञान मन 
नाम की किसी सत्ता को देह मेँ मानता ही नहीं । उसे मस्तिष्क का ही एक हिस्सा 
मान लिया जाता है जिसका सम्बन्ध विचारों से न होकर भावों से होता है । जबकि 
एेसा नहीं है । सभी जानते हैँ कि पशुओं में बुद्धि नहीं होती, विचार नहीं होते, किन्तु 
भावनाएं होती हैँ ओर वे भावों को समञ्जते ओर व्यक्त करते हैँ । वे प्रेमपूर्वक किए 
गए स्पर्श में स्नेह का भाव महसूस करते है । संगीत में शब्दों का अर्थ न समञ्ते हुए 
भी वे भाव समञ्चन के कारण वशीभूत हो जाते हैँ । पशु तो पशु, पेड़-पौधे तक भावं 
को समञ्ते हैँ। वे स्पर्श ओर संगीत के प्रभाव को महसूस करते हैँ ओर अपनी 
प्रतिक्रिया को भी व्यक्त करते हैँ । फिर भला मन के अस्तित्व से इन्कार कैसे किया 
जा सकता हे । | 

मन के अलावा आत्मा, प्राण, चेतना आदि बहुत-सी अन्य सत्ताएं भी है जो 
विज्ञान के अनुसार विवादित रही है । इसके अलावा इन्द्रियां, पांच जञनेन्द्रिया ओर 
पांच कर्मन्दियां यद्यपि विज्ञान स्वीकार करता है किन्तु भ्रमपूर्वक क्योकि वह इन 
इन्द्रियों के उपकरणों को ही इन्द्रियां मानता है । उदाहरणार्थ- आंख को एक ज्ञानेन्द्रिय 
विज्ञान मानता है । परन्तु वास्तव मे आंख तो दृश्येन्द्रिय का *एप्रैटस है, उपकरण हे । 
आंख का कार्य देखना है । यदि आंख बन्द हो अथवा खराब हो तो व्यक्ति देख नहीं 
सकता। मगर हम आंख बन्द करके भी देख लेते हैँ । कल्पना या स्वप्न मे, बिना 

13 


कुछ देखे भी सब कुछ चलचित्र कौ भाति देखते हैँ । आंख बन्द होने पर भी प्रकाश 
ओर अंधकार का अनुभव कर लेते है । यह कैसे सम्भव है ? अगर आंख ही दृश्य- 
इन्द्रिय है तो ? वास्तव में दृश्येन्द्िय तो अतिसूक्ष्म सत्ता है । स्थूल रूप से दिखाई देने 
वाली आंख तो दृश्येन्द्रिय का माध्यम या उपकरण है । उपकरण खराब हो जाए, तो 
बदला जा सकता है । आंख खराब हो जाती हे, तो बदलकर नई आंख लगाई जाती 
है, किन्तु उस आंख के माध्यम से देखता कोई ओर है, ओर यही दृश्येन्दिय हे । इसी 
प्रकार से अन्य इनद्धियों का विचार करना चाहिए। 
इसके अलावा समस्त सृष्टि पंचमहाभूतों से बनी है । शरीर भी पंच महाभूतो से 
निर्मित है। विज्ञान पंचमहाभूतों का अस्तित्व नहीं मानता। महाभूतो कौ अपनी 
तन्मात्राएं हैँ ओर उनको अपनी इन्दियां । उदाहरणार्थं आकाश, वायु, अग्नि, जल 
ओर पृथ्वी क्रमशः पांच महाभूत हँ । शब्द, स्पर्श, रूप या दृश्य, रस ओर गंध इनको 
क्रमशः तन्मात्राएं या गुण हें । ओर कान, त्वचा, नेत्र, जिह्वा तथा नासिका इनकी 
क्रमशः इन्द्रियां (यानि इन्द्रियों के उपकरण हँ । स्थूल रूप से समञ्चने ओर व्यवहार 
मे सरलता के लिए उपकरणों को ही इद्धिय के नाम से सम्बोधित कर लिया जाता 
हे।) 
महाभूत का अर्थ तत्व (एलीमेन्ट) से हे । तत्तव बिना किसी मिश्रण का शुद्ध, 
स्वतन्त्र पदार्थ या सत्ता होती है । तत्त्वों से यौगिको (कम्पाउन्द्स) का निर्माण होता 
हे । यही सृष्टि का ' रो मैरीरियल ' होते हें । विज्ञान 31 तत्त्वो को मानता था फिर शनैः 
शनैः शोध के साथ आज तत्वों कौ संख्या 100 से ऊपर मानी जाती है। जो 
कन्फ्युजिंग है । सीधी सी बात यह है कि पांच ही ज्ञानेन्दरियां (सन्स) हैँ । अतः 
किसी भी सत्ता, गुण या पदार्थं की पहचान, लक्षण या प्रकार मूलतः पांच ही हो 
सकते हैँ । इससे अधिक या तो मिश्रण होगे अथवा उपभेद । मूल भेद पांच ही होगे 
जो भारतीय अध्यात्म दर्शन बताता है। (यहां यह भी ध्यान रखना चाहिए कि 
व्यवहार के लिए- आकाश, वायु, अग्नि, जल, पृथ्वी नाम रखा गया है । आकाश 
का मतलब 5॥ या जल का मतलब ५५1६8 नहीं है । सभी जानते हँ कि-- 
/^7157 एेलीमेन्र नहीं कम्पाउण्ड है । यह हाईडोजन ओर ओंक्सीजन का 
मिश्रण-11.0 है । अतः इनका मतलब प्रचलित अर्थो या पर्याय से नहीं लिया जाना 
चाहिए । इनका मतलब इनके गुणो या तन्मात्राओं के आधार पर लिया जाना चाहिए। 
अन्यथा अर्थं का अनर्थं हो जाएगा । जैसे अग्नि महाभूत का गुण दृश्य है । यानि 
जहां-जहां रूप है वहां-वहां अग्नि महाभूत है। अग्नि का मतलब 7176 नहीं है । 
इसी प्रकार गन्ध जहां है, वहां पृथ्वी महाभूत है, किन्तु पृथ्वी का अर्थ ६८.नि।+ नहीं 
हे । ठीक इसी प्रकार शब्द का होना यह सिद्ध करता है कि वहां आकाश महाभूत 
उपस्थित है, किन्तु आकाश का अर्थं ऽ।<# नहीं है ।) 
इस बात को थोडा ओर समले । व्यवहार के लिए, पहचान के लिए किसी 
वस्तु या सत्ता का नाम होना आवश्यक है। नाम का "दत्त्व इतना ही हे । नाम 
14 


कोई शब्द ही होगा। शब्द सार्थक भी होते है । बहुत से शब्द बहुअर्थी भी होते हँ | 
शब्द पर्यायवाची भी होते हे-- यहां से * कन्पयूजन ' शुरू हो जाता है । * सोना" का 
अर्थ 6010 भी है, किन्तु ' सोना" का अर्थ ऽ। &&2॥५06 भी है । गो ' माने गाय भी 
हे, ' गो' माने जीभ भी है ओर गो ' माने इन्द्रिय भी है, जबकि ६1५01151 भाषा में 
“गो ' का अर्थ 'जाना' हो जाता है। अब कहां किस अर्थ का प्रयोग करना है यह 
बुद्धि का विषय हे । ठीक इसी प्रकार जहां- जहां सृष्टि में "रस ' या ' स्वाद ' है, वहां- 
वहां जल महाभूत उपस्थित है । (महाभूत को देखा नहीं जा सकता, उसे उसकी 
तन्मात्रा/गुण८लक्षण के आधार पर ही जाना जा सकता है।) इसकी अनुभूति सिद्ध 
करती है, जल महाभूत को उपस्थिति । रस तन्मात्रा वाले महाभूत का नाम व्यवहार 
मे सुविधा को दृष्टि से "जल ' रख दिया गया किन्तु जल का अभिप्राय \/^758 से 
लेते है तो अनर्थ हो जाता हे। 'जल' (महाभूत) एक *एलीमेन्ट' है । जबकि 
८५7६१ एक कम्पाउण्ड है । अतः इस नाजुक मामले को बहुत ध्यान से समञ्जने 
की आवश्यकता है । अन्यथा सारा दर्शन (फिलोसोफी) ही उलटी हो जाएगी । 
तो शरीर रचना विज्ञान शरीर में पंच महाभूतो की उपस्थिति नहीं स्वीकारता । 
इसी प्रकार अपना एक स्वभाव, गुण या प्रकृति प्रत्येक शरीर को होती है । भारतीय 
अध्यात्म दर्शन इसे सतोगुण, रजोगुण, तमोगुण- मूलतः तीन भागों में नांटता हे । 
किन्तु विज्ञाने के पास इन गुणों को मापने का कोई पैमाना नहीं है । वह इनकी सत्ता 
अस्वीकारता है । इसी प्रकार अहंकार, संस्कार, विकार आदि बहुत से सूक्ष्म तत्त्व 
विज्ञान अस्वीकारता है ओर उनके विकसित या विकृत होकर बाद में प्रकट होने 
वाले स्थूल स्वरूप या लक्षणों को ही मान्यता देता है । 
आत्मा के अस्तित्व को विवादित रूप से अधूरा ही स्वीकारने वाला विज्ञान- 
` आत्मा, जीवात्मा ओर परमात्मा के भेद को तो खैर क्या समञ्चेगा ? इसी प्रकार बहुत 
सी सत्ताओं को आधुनिक विज्ञान न जानता है, न ही मानता है । ' प्राण ' का अस्तित्व 
विज्ञान नही मानता, जबकि अध्यात्म दर्शन दस प्राणों का अस्तित्व शरीर में स्वीकारता 
है, समञ्ञाता है जिनमें पांच प्रमुख होते हैँ । इन्हीं विवादित सत्ताओं मे एक कुण्डलिनी 
भी हे । शरीर रचना विज्ञान में यह रहस्य हल नहीं हो सकते । कुण्डलिनी शविति, 
प्राण शक्ति, जीव, चक्र आदि सब शरीर रचना विज्ञान में दृढे नहीं मिलेंगे । इन्हे 
समञ्चने के लिए अध्यात्म दर्शन को समञ्लना होगा | 
इस पुस्तक के सीमित पृष्टो मे भूमिका के ओर भी सीमित भाग में विज्ञान ओर 
अध्यात्म के इस अन्तर को समञ्चाना ओर मनवाना असम्भव सा है, किन्तु विज्ञान 
की सीमाएं बताए बिना ओर अध्यात्म का परिचय दिए बिना ही कुण्डलिनी को 
चर्चा भस के अगे बीन बजाने जैसा निरर्थक होगा । क्योकि आवश्यक है कि जिस 
स्तर की बात कौ जा रही है पाठक का मस्तिष्क भी उसी धरातल पर उसे 'रिसीव ' 
करे । वह मनोवैज्ञानिक ओर मानसिक रूप से अर्थ ग्रहण के लिए तैयार हो, एक 
सकारात्मक दृष्टिकोण के साथ। एेसा नहीं होगा तो उसके अपने संस्कार, अनी 
15 


विचारधारा, अपनी हठधर्भिता, अपनी आस्था. ओर अपना नजरिया अर्थ ग्रहण में 
बाधक व अवरोधक होगा, साहयचार्य नहीं करेगा । तर्क- वितर्क, शंकाएं तथा अविश्वास 
(पूर्वाग्रही होने के कारण) सकारात्मकता को दबा लेगा ओर पाठक पूर्ण लाभ नहीं 
उठा पाएंगे । हमारा विज्ञान से विरोध नहीं है । किन्तु विज्ञानवादी होने के दंभ में यदि 
हम सूक्ष्म ज्ञान को ग्रहण करने से हिचकेगे या उसके प्रति अनास्था रखेंगे तो 
गंगाजल को बहता पानी या हीरों को ठीकरे समञ्च लेने कौ गलतफहमी में स्वयं ही 
एक बडे लाभ से वंचित रह जाएंगे। 
यह ठीक हे कि प्रत्यक्ष सर्वोत्तम प्रमाण है। यह भी ठीक हे कि तथ्यों को तर्क 
या युक्ति कौ कसौटी पर परखा जाना चाहिए । किन्तु यह भी सत्य है कि प्रत्यक्ष कौ 
अपनी सीमाएं ह । जरा से जीवन में सभी कुक प्रत्यक्ष नहीं किया जा सकता। ओर 
ज्ञानार्जन के लिए, विचार-विमर्शं के लिए तर्क ठीक है, किन्तु विवाद के लिए 
अथवा हठधर्मिता या पूर्वाग्रह के कारण कुतर्क ठीक नहीं । क्योकि कोरा तर्क दुधारी 
तलवार होती है, किसी विद्वान ने कहा है- 
सृष्टि के अरबों खरबों वर्षो के जीवन के आगे मानव के एक जन्म कौ आयु 
गिनती ही क्या रखती है। उस एक जन्म में सृष्टि के अनन्त विस्तार, ब्रह्मांड के 
असंख्य रहस्य, विषयों कौ बेशुमार शाखाए, ज्ञान के अकूत भंडार में से क्या-क्या 
^ प्रत्यक्ष किया जा सकता हे 2 आदमी अपनी ही आंख में पडा हुआ बाल नहीं देख 
सकता। अपने ही आधे शरीर को (सिर, कमर, नितम्ब, गर्दन आदि) खुद नहीं देख 
सकता। अपने शरीर के भीतर नर्ही देख सकता। आखिर वह सब कु प्रत्यक्ष केसे 
कर सकता है ? 
देखने कौ सीमा है । दो किलोमीटर, दस किलोमीटर । आई साइड वीक हो तो 
उसमें भी टोटा । दूरबीन लगा कर सौ, दो सौ, पांच सौ । खगोल बीन से हजार, दस. 
हजार किलोमीटर। मगर ब्रह्मांड तो अनन्त है । कोई कितना देखेगा 2 ओर कब 
तक ? छोरी वस्तुओं को देखने के लिए लस चाहिए ओर छोरियों के लिए सृक्ष्मदशी, 
` मगर सृष्टि में तो ओर भी छोटे जीव व सत्ताएं है । सृष्टि सृक्ष्मदर्शी या खगोलबीन पर 
ही खत्म नहीं हो जाती । | 
इसके अलावा दृश्येन्धिय स्वस्थ हो, मौसम साफ हो, रोशनी कौ व्यवस्था 
समुचित हो, देखने वाला स्थिर हो, जिसे देखा जा रहा है वह भी स्थिर हो, साफ हो, 
नीच में कोई अडचन, पर्दा या दीवार न हो-तब कहीं जाकर आदमी कु प्रत्यक्ष 
देख पाता है। इतनी सीमाएं ओर शर्ते हैँ प्रत्यक्ष करने कौ । सब प्रत्यक्ष करना 
असम्भव है । 
आखिर हमे अनुमान का सहारा लेना पडता हे । दूसरे व्यक्ति द्वारा किए गए 
अनुभव का सहारा लेना पडता हे । शब्दों व पुस्तकों का, उपदेशों का सहारा लेना 
पडता दै । हम सब कुछ खुद प्रत्यक्ष नहीं कर सकते । यह विज्ञान कौ सीमा है । इतने 
16 कुण्डलिनी शक्ति केसे जागृत करे- 1 





सहारे लेने के बाद भी बहुत से मामले अनक्खुए ही रह जाते हे । जिनका कोई अन्त 
नहीं । अनन्त हैँ, अथाह हें । 

किन्तु योग द्वारा सब कु प्रत्यक्ष कर लिया जाना सम्भव है । ऋषियों ने किया 
हे, करके लिखा हे । क्योकि योगी कालद्रष्टा हो जाता है । वह समय के पार देखता 
हे । भूत- भविष्य सब वर्तमान के समान स्पष्ट हो जाता हे । दूरी बाधक नहीं होती । 
समस्त असम्भव कार्य सम्भव कर सकता हे । क्योकि वह कुण्डलिनी को जागृत कर 
लेता हे । अपने चक्रों को सक्रिय कर लेता हे । अपनी शक्तियों को ब्रह्म या परमशक्तिमान 
के साथ चैनेलाइज्ड कर लेता है । महाभूतो के, भूतों के, आत्मा, जीवात्मा के-- यहां 
तक कि परमात्मा से साक्षात्कार कर लेता है । ओर यह सब कपोल कल्पना नहीं 
ठोस विज्ञान है । इसे हम अगे चर्चा में लेंगे । पूरी पुस्तक में यही चर्चा का विषय है । 
पाठक अपने सभी सम्भावित प्रश्नों का हल इस पुस्तक में पाएंगे । 

यह भूमिका आवश्यक थी । पाठकों की मनः स्थिति तैयार करने के लिए, 
उनका पूवग्रह नष्ट करने के लिए, अध्यात्म दर्शन के प्रति जिज्ञासा को उत्कठित 
करने के लिए ओर मानसिक रूप से उन्हें इस धरातल पर ले आने के लिए कि 
विषय कौ जटिलताओं ओर रहस्यों को वे भली प्रकार समञ्ञ सके, बात सिर के 
ऊपर से न चली जाए। गणित की कोई समस्या एेसे व्यक्ति को समञ्ञाने के लिए, 
जिसे गणित न आता हो, पहले उसे गिनती, पहाडे बताने ही पडते हैँ । 

पाठक मेरे द्वारा दिए गए उपर्युक्त उदाहरण को अन्यथा न लँ । बहुत से पाठक 
आध्यात्मिक धरातल पर काफी सुहृद भी होगे । शायद कुछ मर्म को मुञ्चसे अधिक 
भी जानते हों । अथवा बहुतो के लिए मेरे द्वारा बनाए इस “ प्लेरफ़ार्म' की आवश्यकता 
नहीं भी होगी । लेकिन बहुत से एेसे भी होगे जिनके लिए इसकी सख्त जरूरत 
होगी । अपने उन्हीं पाठकों का हित ध्यान में रखते हुए मैने यह प्रयास किया है| 
आशा हे प्रबुद्ध पाठक इसे गर्वोक्ति न समङ्खेगे। 

, जब तक ' संगति" न हो, रस उत्पन्न नहीं होता । रस के उत्यनन हुए विना 
विभोरता नहीं होती। ओर विभोर हुए बिना न तो आनन्द ही आतादहे, न 
तन्मयता ८ कन्सन्देणन ) ही बनती है । प्रस्तुत विषय एेसा है कि बिना एकाग्रता 
ओर तन्मयता के ओर बिना सकारात्मक ठंग से जिज्ञासु हुए मर्म को समञ्च नहीं जा 
सकता। अतः सभी पाठक पुस्तक के माध्यम से मेरे साथ 'संगति' कर सके, यही 
इस भूमिका का उदेश्य है । ' संगति का अर्थं ही है- साथ-साथ गति करना।' 
कोई आगे पीछे रह जाए तो अवरोध पैदा होता है ओर रस भंग होता है । ताल, लय 
सब लिपट कर चलने चाहिए ओर 'सम' से बंधे होने चाहिएं। तभी सफलता 
सम्भव हे । पाठक अवश्य मेरे मत से सहमत होगे । 


17 







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कुण्डलिनी शक्ति स्वरूपा मां ललिता देकी“श्रिपुर सुंदरी 
18 


र (1) 
---- -# कुण्डिन - छक कर्रवय 


मनुष्य के भीतर कितनी ही प्रकार कौ शवितयां छिपी पडी हे ! बहत-सी दढ 
ली गई हें । बहुत-सी खोजी जा रही हँ ओर्‌ बहुत-सी एेसी भी हैँ जिन विषय में 
हम जानते ही नहीं हं । शारीरिक शवित, बौद्धिक सक्ति, विचार शवित, इच्छा शक्ति, 
प्राणशक्ति, आत्मिक शक्ति, विश्लेषण जकित्ि, स्मरणं शक्ति, कल्पना शकि, 
प्रतिभाशक्ति, पाचों ज्ञानेद्धियों को शक्तिर्या. क्रि यालक्ति, सानणच्ति, पाचन जचक्ति, 
निर्णय शक्ति, प्रभाव शक्ति, वशीकरण किति, जीवनी शकित्त, जीदेषणा शक्ति, 
प्रजनन शकवित्त, रोग प्रतिरोधात्मक शक्ति, संघर्ष शक्ति, केद्धियकरण शक्ति, नियंत्रण 
शक्ति, धारणा शक्ति, कंठस्थ करने कौ शवित्त, भाषणं शक्ति, पूर्वाभास शक्त्त, 
मनोभाव जानने कौ शक्ति, प्रेमशक्ति, ऊर्जा प्रवाहन शकत, वैचारिक सम्पर्क शक्ति 
आदि असंख्य शक्तियां हैँ जिनमें बहुत सी सिद्ध हँ, बहुत-सी विवादित हँ (अभी 
शोध के अर्न्तगत हँ) । बहुत-सी अभी समञ्ली जानी बाकी हें! 

डिस्कवरी चैनल पर प्रसारित होने वाले कार्यक्रम-- 1६ ‰0!{40. के अन्तर्गत 
एक बार बताया गया था कि दुनिया के श्रेष्ठतम नुद्धिजीवी, विचारक्छ, दर्णनिक 
आदि भी अपने दिमाग के एक लाखदे हिष्दे से भी कम व्छी शच्स्ति च्छा प्रयोग 
अपने जीवन मे कर पाते हैं । ओर यह आश्चर्यं जनक सत्य है । इस वैस्ानिक 
निष्कर्ष से मस्तिष्क कौ विराट शक्तियों का एक अंदाजा सहज ही होतः है । किन्तु 
मानव शरीर मे एकमात्र मस्तिष्क ही नहीं है जो विलक्षण आर अनन्त शक्तियों सै 
सम्पन्न हे।मनभीहे, प्राण ५ | प्रन हे, प्राण भीदहै, ऊजा शी, चक्र भीं हं, जो मस्तिष्क के 
मुकाबले अधिक सूक्ष्म, अधिक शक्तिशाली, अधिक अद्भुत ओर अधिक रहस्यपूर्ण 
हे । फिर भला पूरी शक्तियों को गिनाया जा सकना किस प्रकार सम्भव हौ सकता है ? 

इन समस्त सृक्ष्म ओर स्थूल शक्तियों को प्रसारित ओर चैनेलाइज्ड करने कौ 
प्रणाली ही योग है। जैसा कि नामदहीसेस्पष्टहो जाताटहै। योग का अर्थ है जोड़ना 


या बहाना। 
इन समस्त शक्तियों में व अत्यंत विलक्षण ह कुण्डलिनी । कुण्डलिनी 
शक्ति को जागृत कर उपर्युक्त वर्णित ओर इनके अलावा भी समस्त शक्तियों को 
सहज ही बढाया जा सकता है । इनमे से कोई भी शक्ति कुण्डलिनी शक्ति के 
समकक्ष नहीं । कुण्डलिनी अकेली ही इन सनसे कहीं आगे, कहीं ऊँची, कहीं 
व्यापक ओर करीं अधिक प्रभावशाली हे, अद्वितीय है । 
नाभि शरीर का केन्द्र है। यहीं से सभी नस नाडियां परे शरीर मेँ फैलती है । 
19 














हस्र यन् 


सहस टल तद 
दिटल य्न र लायक 
१ 


लखोडक्दल वद्य <> ८ 








वि्याट्‌यक्र 





द्रादशदल चद ४१ 7 न्पहत क्र 
टदश्दल थद ~न ^ 0 
< ({ 1) | | मलिक यन 
-ट || भ < क 
न || (1 . “ यमने 





य तर्दल ८ 
पल्ल पड्म ९ ८ सूलाद्यार चक्र 











ग्रारीर मे चक्रक स्थान व स्थिति 


यहीं से गर्भ माता के साथ जुड़ा होता है ओर वृद्धि पाता हे। यह अत्यंत महत्त्वपूर्ण 
स्थान हे । रावण की नाभि में अमृत होने का कूट संकेत नाभि को सर्वाधिक नाजुक 
मर्म सिद्ध करता हे । आयुर्वेद में भी नाभि के महत्त्व व मर्म होने को स्वीकारा गया 
हे । कुगपर नामक युद्धकला में विपक्षी के मर्म पर प्रहार करते समय अंतिम व 
निर्णायक (मृत्युदायक) प्रहार नाभि पर ही किया जाता हे। अतः नाभि अत्यंत 
महत्त्वपूर्ण हे । | 

नाभि के बाद हदय ओर मस्तिष्क भी महत्त्व रखते हँ । क्योकि रक्त संचरण 
(ऊर्जा सप्लाई) तथा नियंत्रण, संचालन आदि के कार्यं क्रमशः हदय व मस्तिष्क ही 
करते हे । शरीर-रचना कौ दृष्टि से भी नस नाड्यो का सर्वाधिक जमावड़ा इन्हीं तीन 
केन्द्र नाभि, हदय व मस्तिष्क में होता हे। 

इन तीनों के अलावा कण्ठ भी अत्यंत महत्त्वपूर्ण है । क्योकि इसी संकौर्णं 


20 





चतरो 


ग्ररीर मे सात चक्र 


की स्थिति व चक्र की योन नाड्यो का चित्रण 


21 











सथान से मस्तिष्क ओर समस्त ज्ञानेन्द्रियो को रुधिर पहुंचाने वाली नाड्यां गुजरती 
हं । नाक, कान, आंख, जिह्वया ये चारो लानेद्धियां कंठ से ऊपर हें । ( केवल एक त्वचा 
ज्ञनेद्धिय समस्त शरीर में उपस्थित रहती हे ।) इन सभी अत्यंत महत्त्वपूर्णं घरक 
करो ऊर्जा, रक्त व संदेश पहुचाने का मार्ग कंटहीदहै।कंठही से श्वांस, जल व 
भोजन आदि नीचे आकर समस्त शरीर को प्राप्त होता हे । कंठ मस्तिष्क व ज्ञानेद्दरियों 
को शरीर से जोड रखने वाला सेतु हे अतः महत्त्वपूर्णं होने के साथ-साथ शरीर का 
एक मर्म भी हे। 
गुदा ओर जननेन्धिय के मध्य का स्थान, शरीर का केन्द्रिय आधार होने से 
"मूलाधार ' भी कहा जाता हे । प्रजनन सामर्थ्य कौ दृष्टि से भी यह भाग अत्यंत 
महत्वपूर्णं हे । मर्म ही गुरुत्वाकर्षण के सीधे सम्पर्क मँ आने वाला आधार हे। 
पुस्तक में शरीर के इन मर्म को गिनाने का विशेष कारण हे । शरीर में स्थित 
सातो चक्र इन्हीं मर्मो क बीच स्थित हें । इन सभी को परस्पर सम्बद्ध करने का कार्य 
करता हे मेरुदण्ड (रीट्‌ कौ हड़ी) जिस पर पूर्णं शरीर का संतुलन व संचालन 
आधारित रहता हे । इसका आरम्प मूलाधार के निकट से होकर अन्त मस्तिष्क के 
निकट तक होता हे । अतः यह रीट कौ हड् भी अत्यंत महत्वपूर्ण है । योग विद्या या 
कुण्डलिनी जागरण की क्रिया में तो यह निहायत ही महत्त्वपूर्ण हे । क्योकि यही 
कुण्डलिनी का मार्ग भी है । (इस विषय में आगे चर्चा करेगे) । अतः छारीर रचना 
विज्ञान, अध्यात्म विज्ञान ओर योग विद्या आदि समस्त दृष्टयो से मूलाधार, 
नाभि, हदय, कंठ, मस्तिष्क ओर मेरुदण्ड अत्यंत प्रमुखता से महत्वपूर्ण हैँ । 
शरीर में स्थित सातोँ चक्र इन्हीं के मध्य स्थित है ओर यही कुण्डलिनी शक्ति 
ठ प्रवाह का मार्ग भी दहे! इस विषय को ओर बेहतर समने के लिए हम चित्र का 
सहारा लगे । पीठे दिये गये चित्र मं सातो चक्रों का स्थान तथा कुण्डलिनी शक्ति 
संचालन का मार्ग आप स्पष्ट देख सकते हे । इन चक्रों के संक्षिप्त परिचय के बाद हम 
कुण्डलिनी कौ चर्चा करगे । 
110) 


22 


चक्का परिचय 


जेसा कि पाठकगण प्रस्तुत चित्र मेँ चक्रों का स्थान, नाम व संख्या जान चुके 
ह मूलाधार चक्र, स्वाधिष्ठान चक्र, मणिपूर चक्र, अनाहत चक्र, विशुद्ध चक्र, 
आज्ञा चक्र ओर सहस्रार चक्र- ये सात चक्र हें । जिस प्रकार स्थूल दृष्टिसे नाडी 
नसों के सर्वाधिक जमावड़ा होने के कारण (जंक्शन होने के कारण) नाभि, हदय व 
मस्तिष्क महत्त्वपूर्ण हँ उसी प्रकार सूक्ष्म दृष्टि से ये चक्र भी महत्त्वपूर्णं हें । क्योकि 
ये शक्ति, ऊर्जा व प्राण के सूक्ष्म किन्तु अत्यंत महत्त्वपूर्णं जंक्शन ही नहीं बल्कि 
शरीर के विभिन्न ' पोवर स्टेशन ' हँ । इनमें से प्रत्येक को अपनी निश्चित शव्तियां, 
अपने निश्चित प्रभाव ओर अपने निश्चित अधिकार हें । किन्तु ये ' पोंवर स्टेशन ' 
सोए हुए या निष्क्रिय रहते हें । बिल्कुल उसी प्रकार मानो समस्त यन्त्रो, साधनों 
उपकरणों तथा संचालन व्यवस्था आदि से सम्पनन ओर हर दृष्टि से समर्थं किसी 
बिजलीघर या ' पवर स्टेशन कौ बिजली चली जाए ओर उसको समस्त शक्तियां व 
संचालन बिजली के आने तक निष्प्राण रह जाए ।' | 

ये जो बिजली/करट/ऊर्जा या शक्ति है- जिसके अभाव में हर दृष्टि से 
सम्पनन व समृद्ध होते हए भी हमारे शरीर के सातों चक्र/पोंवर स्टेशन मृतप्राय रहते 
है, यही कुण्डलिनी शक्ति है । बिजली कौ सप्लाई जिस-जिस उपकरण में हो जाती 
हे, वही उपकरण क्रियाशील हो जाता है। ठीक इसी प्रकार जिस-जिस चक्र या 
' पावर स्टेशन ' पर यह कुण्डलिनी शक्ति पहुंच जाती है, वही सक्रिय हो जाता हे । 
किसी विशिष्ट चक्र में कुण्डलिनी शक्ति का प्रवेश ओर वहां से आगे८ऊपर बटुकर 
क्रमशः अगले चक्र में प्रवेश ' चक्र भेदन ' कहा जाता हे । (इस विषय में हम आगे 
विस्तार से चर्चा करेगे) । इस प्रकार ' षट्चक्र भेदन ' (छह चक्रों को भेद कर) 
कुण्डलिनी को सातवें चक्र में स्थित किया जाता है। सातवें चक्र का भेदन कर 
कुण्डलिनी शविति मोक्ष के समय परमात्मा में विलीन होकर स्वयं परमात्म स्वरूप 
हो जाती है। 

यह भी एक विलक्षण तथ्य है कि सप्त चक्रों ही कौ भांति कुण्डलिनी शक्ति 
भी मनुष्यो में सुप्तनिष्क्रिय अवस्था में ही रहती है । योग द्वारा उसे साधक को 
जगाना पडता है । योग के अतिरिक्त कुण्डलिनी जागरण के मन्त्रादि अन्य विधान भी 
कहे गए है । हम जगे यथासम्भव प्रकाश सभी विधानं पर डालेंगे, किन्तु पुस्तक मे 





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कुण्डलिनी एवं सपचक्र 


मूल रूप से योगपद्धति(योगविधान कौ ही चर्चा करेगे । क्योकि यही सर्वमान्य, 
विवाद रहित, पूर्ण प्रामाणिक तथा अपेक्षाकृत सहज प्रणाली है । ओर इन सबसे बड़ी 
बात यह कि यही प्रणाली बोधगम्य भी हे तथा मेरी वर्णन सामर्थ्य के भीतर भीतो 
सबसे पहले सप्त चक्रं के विषय में जानते ह अगले पृष्ठो पर । 


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24 





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इस चक्र को कुछ ग्रन्थों में ' आधार चक्र' भी कहा गया हे । कोटक में दिया 
गया नाम इस चक्र का पर्याय नहीं हे, किन्तु इसका स्थान ठीक-टठीक समञ्च पाने में 
पाठकों के लिए सहायक होगा, अतः लिख दिया गया हे । इस चक्र का नाम आधार 
या मृल आधार इसलिए है, क्योकि यह चक्र सुषुनना के मूल में अवस्थित हे । यही 
भाग शरीर का आधार भी है ओर समस्त चक्रों के मूल में यही सर्वप्रथम हे । 








सामने 


मूलाधार चक्र 
योग विद्या या कुण्डलिनी की दृष्टि से यह चक्र न केवल अति अधिक 
महत्त्वपूर्णं हे अपितु सम्पूर्ण योग प्रणाली का मूल या आधार भी हे। कारण-- 


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है (इस विषय मे हम आगे विस्तार 


क प्रारम्भिक सातवें वर्षो में बालक को चे्ाएं प्रायः इसी चक्र से 


प्रभावित होती हैँ । स्वयं में ही रत रहना तथा असुरक्षा बोध से ग्रस्त रहना इसका 


कुण्डलिनी शक्ति इसी 
से पगे ) । जीवन 


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26 








प्रबल प्रमाण हे । मूलाधार चक्र के विशिष्ट प्रभाव में आया हुआ मनुष्य प्रायः दस से 
बारह घंटे तक रत्र मे पे के बल सोता हे । मोह, क्रोध, ईर्ष्या, घृणा, द्वेष, कामुकता, 
प्रजनन एवं माया-इसी चक्र के प्रभाव के ही अरन्तगत आते हैँ । स्वास्थ्य, बल, 
बुद्धि, स्वच्छता तथा पाचन शक्ति भी इसी चक्र से सम्बन्धित हे । शरीर को धातुओं, 
उपधातुओं व चैतन्य शक्ति को इसी चक्र से बल मिलता है । शारीरिक मलिनता का 
इस चक्र कौ अशुद्धि से सीधा सम्बन्ध है । सांसारिक प्रगति ओर चैतन्यता का मूल 
यह चक्र मनुष्य के देवत्व की ओर किए जाने वाले विकास का आधार है। 

मूलाधार चक्र का स्थान सुषुम्ना मूल मे गुदा से दो अंगुल आगे व उपस्थ से 
दो अंगुल पीछे ' सीवनी ' के मध्य में हे । मूलबन्ध लगाते समय इसी प्रदेश को पैर 
को एडी से दबाया जाता हे । नीचे कौ ओर चलने वाली अपान वायु का यह मुख्य 
स्थान है । इसका सम्बन्धित लोक ' भूलोक ' हे । पंच महाभूतो मे यह पृथ्वी तत्त्व का 
प्रतिनिधित्व करता है, क्योकि यह चक्र पृथ्वी तत्त्व का मुख्य स्थान हे । पृथ्वी तत्त्व 
से सम्बन्धित होने के कारण इसका प्रधान ज्ञान अथवा गुण "गन्ध ' है । अतः इसको 
कर्मेन्िय गुदा ओर ज्ञानेद्िय नासिका है। इसका तत्त्वरूप चतुष्कोण चतुर्भुज 
( वर्गाकार ) है, जो सुनहरे अथवा भूमिपीत वर्णं का है । इसकी यन्त्राकृति पीत वर्ण 
चतुष्कोण है, जो रक्त वर्णं से प्रकाशित चार पंखुडियो/द्लों से युक्त है । सुरक्षा, 
शरण ओर भोजन इस चक्र के प्रधान भौतिक गुण हं । ध 

इस चक्र का तत्व बीच ' लं ' हे, जो इसकी बीज ध्वनि का सूचक है । कमल 
दल ध्वनियां क्रमशः वं, शं, षं ओर सं हँ जो इसकी पंखुडियों के अक्षर है । इसके ` 
तत्व बीज का वाहन एेरावत हाथी है । (जिस पर इन्द्र विराजमान हैँ) । जो इसका 
सामने की ओर कौ बीजगति को दर्शाता है । इस चक्र के अधिपति देवता चतुर्भुज 
ब्रह्मा है, ओर उनकी शक्ति चतुर्भुज डाकिनी भी साथ हैँ जो चक्र कौ शक्ति का 
सूचक है । इस चक्र के अधिकारी गणेश हैँ तथा इसका बीज वर्णं स्वणिम हे । अतः 
यन्त्राकृति व तत्तवरूप में पीतवर्ण के साथ स्वर्ण-सी आभा भी रहती हे । इस चक्र पर 
ध्यान के समय प्रयुक्त होने वाली कर मुद्रा मे अंगूठे तथा कनिष्ठा अंगुली के सिरो 
को दबाया जाता है, जिसके प्रभाव में चैतन्य का मानवीकरण होता हे। 

ध्यान के समय जब मूलाधार कौ तत्त्वनीज ध्वनि ' लं ' का शुद्ध रूप से ल 
बार उच्चारण किया जाता है तो ' लं ' उच्चारण से उत्पन होने वाली विशेष तरं 
मूलाधार की नाडयो को उत्तेजित करती हैँ तथा उर्ध्वं मस्तिष्क को तरंगित करती हँ 
परिणामस्वरूप शविति के अधोगति में अवरोध उत्पन होकर शक्ति उर्ध्वगति (ऊपर 
की ओर गति करने वाली) होती है जिससे मूल आधार के प्रभावो--असुरक्षा, भय 
आदि का लोप होता है तथा मनोबल कौ प्राति होती हे । कुछ विद्वान इसे  यौनचक्र 
भी कहते हे - 

योग मार्गं पर न जाने वाले साधकं के लिए भी मूलबन्ध का अभ्यास 

27 


लाभकारी है (इस विषय मेँ हम बन्ध प्रकरण में विस्तार से चर्चा करेगे) । किन्तु 
एडी द्वारा सीवन को दबाते समय मूलबंध दृढता से लगा रहे तथा लंगोट कसी रहे 
क्योकि सीवनी मर्मस्थान हे। शोर्यकला कुंग के सिद्धांतानुसार यहां पर किया 
प्रहार, आघात अथवा अनुचित दबाव नपुंसकत्व उत्पन्न करता है । 
मूलाधार के अधिपति देवता ब्रह्मा ही क्यों हँ 2 शक्ति डाकिनी ही क्योँ हे 2 
अधिकारी गणेश ही क्यों हं 2 आदि तत्त्वों कौ मीमांसा भी की जा सकती हे, किन्तु 
उससे न केवल पुस्तक के कलेवर में वृद्धि होगी, अपितु यह चर्चा मूल विषय कौ 
सुगम्यता ओर लयबद्ध प्रस्तुति में बाधक भी होगी । तिस पर इस चर्चा से योगमार्गं 
के साधकं अथवा कुण्डलिनी जागरण के इच्छुक पाठकों को कोई लाभ नहीं होगा, 
बल्कि वे कन्फ्यूज हो सकते हं । अतः केवल पाण्डित्य सिद्ध करने के लिए एेसी 
चेष्टा युक्ति संगत नहीं होगी-एेसा सोचकर इस विषय मे चर्चा नहीं कर रहा हू | 
इच्छक पाठक पत्र व्यवहार से अपनी शंकाओं का समाधान प्राप्त कर सकते हें । 
वेसे तो चक्रों के स्वरूप का विराटता से वर्णन करना भी आवश्यक नहीं था, 
क्योकि कार चलाना सीखने के लिए इजन के सभी पुर्ज का पूर्ण ज्ञान पाना अनिवार्य 
नहीं होता। आवश्यक भी नहीं होता, तथापि जिज्ञासा शांति के अलावा कुण्डलिनी 
जागरण के मन्त्र उपाय की चर्चा के समय इन तमाम जानकारियों को आवश्यकता 
पाठकों को पडगी अतः पहले ही प्रसंगवश पूर्णं विवरण प्रस्तुत कर दिया गया हे । 
बात मूलाधार चक्र कौ चल रही थी । मूलाधार चक्र से होकर ही योग मार्ग या 
कुण्डलिनी यात्रा आरम्भ होती हे । यही इस यात्रा का मूल उद्गम ओर प्रथम सोपान 
ठे । अतः इसे ध्यान से समदं । 
| 120 


28 


(4. 


स्वाधिष्ठान चक्छ 


कुण्डलिनी कौ रहस्यमयी ओर विलक्षण यात्रा का दूसरा पड़ाव, मानव शरीर 
में स्थित दूसरा प्रमुख चक्र स्वाधिष्ठान हे । जननेन्द्रिय के ऊपर तथा नाभि के नीचे 
' पेद ' मे यह चक्र अवस्थित हे । यह पुरुषों के वीर्य व स्त्रियों मेँ रज का स्थान कहा 
जाता है । पंच महाभूतो में यह !जल ' तत्त्व का प्रतिनिधित्व करता हे । अर्थात्‌ जल 








नीचे 
स्वाधिष्ठान चक्र 


तत्व का यह मुख्य स्थान है । जल ततव का प्रतिनिधि होने के कारण इसका प्रधान 
जान या गुण 'रस ' है (जो जल तत्त्व कौ तन्मात्रा है) । इसलिए इसका ज्ञानेन्द्रिय 


28 








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` रसना८जिह्ा ओर कर्मेद्रिय लिंग व योनि (जननांग) हँ । इसका रूप चन्द्राकार हे । 
जो सफेद रंग का है । इसके यन्त्र का रूप अर्धचन्द्र युक्त वृत्ताकार है जो श्वेत है । 
रक्ताभ हिंगुल वर्णं (सिंदूरी रग) से प्रकाशित छः पंखुडियों या दलों से यह युक्त ` 
हे । इन दलों के अक्षरबं, भं, मं, यं, रं ओर लं हँ । यही इसकी कमल दल ध्वनि हे । 
इस चक्र कौ बीज ध्वनि वं है। क्योकि वं इसका तततव बीज है । 

इस चक्र का बीज वाहन मकर है, जो इसके तत्व बीज की गति को दर्शाता 
हे, यानि मगरमच्छ द्वारा लगाई जाने वाली डुबकी कौ भाति नीचे की ओर । इसका 
बीज वर्णं स्वर्णिम श्वेत है जल के समान प्राजल । ' भुवः ' लोक इस चक्र का लोक 
कहा गया हे । पूर्णं शरीर में फेलकर गति करने वाले व्यान वायु का यह मुख्य स्थान 
हे । इस चक्र के अधिपति देवता विष्णु हँ जो अपनी चतुर्भुज ' राकिनी ' के साथ हैँ । 
इससे चक्र कौ शक्ति का राकिनी ' होना भी सिद्ध होता दै । स्वाधिष्ठान चक्र पर 
ध्यान लगाते समय प्रयुक्त को जाने वाली कर मुद्रा मे अंगूठे व अनामिका के सिरो 
को परस्पर दबाया जाता है । जिस प्रकार चैतन्यता का प्रभाव मूलाधार चक्र के ध्यान 
से उत्पन्न होता है उसी प्रकार ध्यान द्वारा स्वाधिष्ठान चक्र का अतिक्रमण कर लेने से 
प्रसन्नता से चैतन्यता ओत-प्रोत हो जाती है । साधक में प्रफुल्लता आती है। 

जल ततव का प्रतिनिधि होने से कल्पनाशीलता इस चक्र का प्रधान भौतिक 
प्रभाव हे। इस चक्र के बिगड्ने से जलोदर ' आदि रोग सम्भावित होते हैँ । वैसे 
, प्रायः इस चक्र से प्रभावित व्यक्ति घुटनों में सिर देकर आठ से दस घंटे रात्रिमेंसोता 
है । माना जाता हे कि 8 से 14 वर्ष तक की आयु में मनुष्य स्वाधिष्ठान चक्र के विशेष 
प्रभाव में रहता है । उद्विग्नता, उलञ्लन, कल्पना कौ उड़ान तथा कुट्म्नियों व मित्रं 
से बनाए जाने वाले भौतिक सम्बन्ध इसी चक्र के प्रभाव से होते हैँ । इच्छाओं व 
कल्पनाओं के साथ बाह्य व आन्तरिक जगत से तालमेल बविठाने के प्रयास में मानव 
के व्यक्तित्व का विकास होता हे, जो इसी चक्र के प्रभाव क्षेत्र में आताहै। 

इस चक्र की साधना बल, सामर्थ्य, विवेक, धेर्य तथा दृढता व विश्वास को 
बढाने वाली कही गई है । इसके तत्त्व बीज ' वं ' कौ शुद्धतापूर्वक उच्यारित कौ गई 
आवृत्ति मानव शरीर के निम्न भागों के अवरोध हटाकर वहां शक्ति को प्रवाहित 
करती है । कल्पना शक्ति को साधकर कला आदि में उसका बेहतर उपयोग किया 
जा सकता है । यह एक महत्त्वपूर्ण चक्र है । जैसा कि नाम से भी स्पष्ट है-' स्व ' का 
अधिष्ठान करने वाला यानि- स्वाधिष्ठान । 

प्रजनन, कल्पना, मनोरंजन, प्रसन्नता, डाह, ईर्ष्या, दया शुन्यता, द्वेष, उद्विग्नता, 
बेचैनी आदि गुणावगुण इसी चक्र से प्रभावित होते है । जल तत्त्व व चन्द्र से 
सम्बन्धित होने के कारण, भावुकता, चंचलता आदि मन के विशिष्ट गुण इसी चक्र 
के प्रभाव में आते हे । इस चक्र के तत्त्व बीज की गति को दशनि के लिए वाहन रूप 
मे मकर का प्रयोग भी उचित व तर्कपूर्ण है । मकर को डुबकौ मार कर नीचे जाने के 


31 


स्वभाव से न केवल बीजगति का संकेत मिलता है अपितु मकर कौ चालाकौ 
(शिकार के समय), उसका तेरना (मनोरंजन) उसका प्रबल काम शक्ति (प्रजनन 
सामर्थ्य तथा मन का वेग) ओर उसकी व्यावहारिकता जो जल ओर थल दोनों मे 
रहने से सिद्ध होती हे । ` मगरमच्छ के आंसू बहाना ' मुहावरा ही मकर कौ चालाकी 
तथा व्यावहारिकता के गुण को सिद्ध करता हे। 
जबकि मूलाधार का बीज वाहन हाथी (एेरावत, जिसकी 7 सूंड की गई हे ) 
न केवल बीज गति से निर्बाध सामने कौ ओर जाने को सूचित करता हे बल्कि बल, 
बुद्धि, चैतन्यता, भोजन, सुरक्षा, अपने में ही मस्त रहना, इच्छा तथा इच्छाओं मं मन 
के भटकाव का भी द्योतक हे । महत्त्वाकाक्षाओं को भी प्रकट करता हे । अंकुश द्वारा 
हाथी को वश में करने के समान इच्छाओं के बलवान हाथी को बुद्धि के अंकुश द्वारा 
वश में करने की प्रेरणा देते गणेश अपने अंकुश सहित मूलाधार के अधिकारी व 
निवासी देवता बताए ही गए हें । 
यद्यपि मकर व हाथी के स्वभाव व विशेषताओं को चर्चा यहां पर आवश्यक 
नहीं थी, तो भी पाठकों को चाहिए कि स्वबुद्धि के प्रयोग से सामने आने वाले तथ्यों 
को तोलते भी रहं, ताकि विषय पर उनको मन से आस्था ने ओर विश्वास उत्पन्न 
। हो सके । इसके अतिरिक्त विषय की महत्ता व गूढता के रहस्य समञ्े जा सक । 
अतः पूर्ण व विस्तृत चर्चा के लिए स्थान न होते हुए भी, कहीं-कहीं जहां अत्यंत 
आवश्यकता महसूस कर रहा हू, अथवा जिस मुदे पर की गई चर्चा विषय को 
सुगम्य बनाने में सहायक हो सकती हे, वहां- वहां विषय प्रवाह में हल्का-सा 
अवरोध दोष उत्पन होने के बावजृद एेसा तुलनात्मक विवरण यथा सामर्थ्यं इसी 
उदेश्य से दे रहा हू, कि पाठक सुनँ ओर गुने । स्वयं भी अपनी तुला पर तोलं । 
(1) ] 


32 कुण्डलिनी रक्तति केसे जागृत करे- 2 





मणिवूरक चक्क 


इसे मणिपुर चक्र भी कहा गया है । यह भी अत्यंत महत्त्वपूर्णं हे । नाभि मूल 
में इसका स्थान दै । अतः पवन संस्थान व शौर्य संस्थान से इसका सीधा सम्बन्ध है | 
व्यक्ति के अह, प्रभुत्व व धाक जमाने कौ भावना, नाम कमाने कौ इच्छा, सर्वश्रेष्ठ 
बनने की ललक तथा शक्ति अर्जन के प्रयास इसी चक्र के प्रभाव क्षेत्र में जते हें। 





मणिपूरक चक्र 
इसके अलावा संघर्ष, प्रायश्चित्त, निःस्वार्थं सेवा, धर्म, सत्संग या कुसंग (संगति), 
निष्ठा, दृढता आदि भी इसी चक्र से प्रभावित होते हैँ । संगति का अर्थ है-संग-संग 


33 








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34 


या साथ-साथ गति करना। अतः संगति सदैव संतुलन उत्पन्न करने वाली होती है। . 


यह विषमता को समाप्त कर समता को उत्पन्न करती है। अतः कर्म व धर्ममें 
संतुलन उत्पनन करना इसी चक्र के प्रताप से सम्भव होता है । प्रकृति व धर्मका 
संतुलन जब स्वभाव वं कर्मसेहो जाता हे, तो साधक नैसर्गिक लोक में पदार्पण कर 
सकता है। अतः मणिपूरक चक्र अध्यात्म का प्रवेश द्वार कहा जा सकता है । 

नाभि शरीर का केन्द्र है। गर्भावस्था में नाभि द्वारा ही शिशु का पोषण व 
विकास होता है। नाभिसे ही भ्रूण विकसित होता है। गुरुत्वाकर्षण बल के प्रति 
संतुलन बनाने का कार्य नाभि ही करती है । आघात पहुंचने या असंतुलित हो जाने 
से नाभि उतर जाती है। ऊपरी शरीर व निचले शरीर का संतुलन नाभि पर ही रहता 
हे । रकिट को जिस प्रकार अंतरिक्ष में जाते समय गुरुत्वाकर्षण सीमा का अतिक्रमण 
करते समय विशिष्ट बल कौ आवश्यकता पडती है, उसी प्रकार कुण्डलिनी शक्ति 
को भी ऊपरी चक्रों पर जाने के लिए मणिपूरक चक्र का बेधन करने में विशेष बल 
लगाना पडता हे । (इस विषय में आगे विस्तार से पढंगे ) । इसलिए इसे आध्यात्मिक 
प्रवेश द्वार कहा गया हे, इसीलिए नाभि में अमृतकुंड होना भी कहा जाता हे । इसके 
अलावा योग में अत्यंत महत्त्वपूर्णं रुद्रग्रंथि का निवास भी यहीं है (चक्र प्रकरण के 
बाद इसकी चर्चा होगी ) । अतः यह निर्विवाद सिद्ध होता है कि संगति या संतुलन 
नाभि में ही स्थित होने से मणिपूरक चक्र के प्रभाव में आता हे। 

मणिपूरक चक्र से प्रभावित मनुष्य रात्रि में6 से 8 घंटे सोने वाला होता है। 
इस चक्र में ध्यान लगाने से स्वास्थ्य व दीर्घायु की प्राति होती है, अपने शरीर व 
ग्रन्थयो का भौतिक ज्ञान होता है तथा पाचन सम्बन्धी दोषों व विकारो का निवारण 
होता है तथा साधक में तेज उत्पनन होता हे । क्योकि ' अग्नि" तततव का यह चक्र 
प्रतिनिधित्व करता हे । 

पंचमहाभूतों में "अग्नि" का मुख्य आधार होने के कारण मणिपूर चक्र कौ 
ज्ञानेन्द्रिय नेत्र व कर्मद्धिय पैर हैँ। रूप या तेज इसका प्रधान गुण याज्ञानदै, जो 
अग्निततत्व कौ तन्मात्रा है । खान-पान के रस को परे शरीर में समान रूप से वितरित 
करने वाला समान वायु है, जिसका इस चक्र में मुख्य निवास है । 

यह चक्र त्रिकोणाकार है । जो रक्तवर्णं का है । नीले हरे रंग से प्रकाशित दस 
कमलदलों (पंखुडियों ) से यह धिरा हुआ है । इन पंखुडियों पर ड, ठं, ण, तं, थं, द, 
धं, नं, पं, वं, फं वर्ण (अक्षर) हैँ जो इस चक्र की कमल दलं ध्वनियो के सूचक 
है । इसको बीज ध्वनि “रं ' है, वयोकि "रं ' इसका तततव बीज है । इस चक्र कौ बीज 
गति मेष/मेदढे के समान उछलकर चलने कौ है अतः मेढा इस चक्र का बीज वाहन 
हे। (अग्निका वाहन भी मेढा कहा गया है जर अग्निका बीज मंत्र भीरं" ही 
होता हे) । अग्नि तत्त ओर समानवायु का यह मुख्य स्थान है । 

इस चक्र का लोक स्वः है । इसका यन्त्ररूप अधोमुखी त्रिकोण है, जो लाल 

35 | 


रंग काहे । इसका बीज वर्णं स्वर्णिम रक्त हे । इस चक्र के अधिपति देवता सुद्र शिव 
हे, जो अपनी चर्तुभुजा शक्ति ' लाकिनी ' के साथ हँ । इस चक्र पर ध्यान लगाते 
समय प्रयुक्त होने वाली कर मुद्रा में मध्यमा उंगली व अंगूटे के सिरो को परस्पर 
दबाया जाता हे । मध्यमा व अंगूठे के सिरो को दबाने से शरीर में उष्मा उत्पन्न होती 
हे। 

इसके बीज मंत्र “र्‌' को यदि शुद्धोच्चारण के साथ बारम्बार पुनरावृत्ति को 
जाती हे तो उस ध्वनि कौ तरगों के प्रभाव सेरस को आत्मसात्‌ करने कौ शक्ति व 
पाचन शविति बढती हे क्योकि इससे जठराग्नि प्रदीप्त होती हे । इसके अलावा ऊर्जा 
भी बटठती हे जो आयु व सामर्थ्य को बदढाती हे । 

प्रायः मणिपूरक चक्र से प्रभावित व्यक्ति क्रोधी होते ह क्योकि अग्निका 
स्वभाव ही ऊष्ण हे । यही कारण हे कि कई स्थानों पर इसे ' सूर्य चक्र ' भी कहा गया 
हे। इस चक्र का बीज वाहन मेढा सर्वथा उपयुक्त है । क्योकि मेदा स्वाभिमानी, 
बलवान, अहं में चूर ओर रणोन्मत्त होता हे । यह उछलकर सीधा सिर से आक्रमण 
करता हे ओर मेढा अग्नि का वाहन भी हे। जोश ओर अहं मेदे में शक्ति के साथ 
मोजूद होता हे । यद्यपि यही गुण वृषभ या सांड में भी हे, किन्तु उसमें वह फुर्तीं ओर 
उछलकर चलने/लडने का स्वभाव नहीं है जो इस चक्र कौ बीजगति को इंगित कर 
सके अतः इसका बीज-वाहन मेढा सर्वथा उचित ही हे । 

प्रायः अग्निका सूचक लाल रग माना गया है । यहां मणिपूरक चक्र के कमल 
दलो का रेग नीला कहा गया हे । (यद्यपि यन्त्र रूप त्रिकोण लाल रंग वाला ही हे ।) 
यहां पाठकों को एक विरोधाभास प्रतीत हो सकता हे, क्योकि नीला व लाल परस्पर 
विरोधी रग हं ओर अग्नि का पर्याय मुख्यतः लाल रंग माना गया है । अतः पाठकों 
को यह स्पष्ट करना जरूरी समञ्चता हू कि अग्नि का रंग वास्तव में नीला हे। कभी 
भी अग्नि को ध्यान से देखें (माचिस या मोमबत्ती की लौ को ही सही), मध्यमे 
नीला फिर काला सा सिलेटी, फिर लाल्‌, संतरी ओर पीला रंग क्रमशः बाहर की 
ओर दिखाई देते हं । यह रग भेद अग्नि की जिहयाओं तथा उसको ऊष्णतां के स्तरको 
हौ दिखाते है । जैसा कि पुराणों व उपनिषदों मेँ अग्नि कौ सात जिहवाओं/लपयें का 
वर्णन भी है- 

काली करली च मनोजवा च सुलोहिता या च सथधुम्रवर्णा। 

स्फुलिंगिनी विश्वरुचि च देवी लेलायमाना इति सप्त जिह ॥ 

--( मुण्डकोपनिषद्‌ ) 

अर्थात्‌- काली, कराली, मनोजवा, सुलोहिता, धूम्रवर्णा, स्फुलिंगिनी एवं 
विश्वरुचि-अग्निदेव को ये 7 जिह । 

इससे सिद्ध होता है कि अग्नि का लाल रंग उसकी सुलोहिता नामक जिह 
ओर स्ेटी काला रंग उसकी धूम्रवर्णा नाम की जिह्वा के कारण है। पीलारगतो 

36 


तेज, ऊष्णता व प्रकाश के कारण है किन्तु अग्निकारंग वैसे नीला ही है क्योकि 
मूल मे सदा नीली आभा विद्यमान रहती हे । 

यहां पाठक सूर्य ओर शुक्र के सम्बन्ध में वैज्ञानिक अन्वेषणों के निष्कर्षं भी 
देखे । सूर्य लाल है जो तीत्र प्रकाश कौ अवस्था मेँ पीला मालूम होता है । जबकि 
शुक्र का रंग नीला हे । वैज्ञानिक अन्वेषणों के आधार पर हम जानते हैँ कि शुक्र सूर्य 
से कई हजार गुना अधिक गरम है ओर वैनज्ञानिकों ने उसके धरातल की भीषण व 
प्रचण्ड गरमी के आधार पर उसे जीता जागता नरक ' कहा है । (इस विशेषता के 
आधार पर इस तथ्य को भी कसिए कि शुक्र को दानवो का गुरु कहा गया हे ।) 

मणिपूरक चक्र कौ विशेष साधना- निर्मोहता, शांति, वैराग्य, समता, तन्मयता, 
आनन्द, धृति, निश्चलता तथा उदासीनता (न्यूट्‌ल होना/निर्लिप्त होना) को बढाने 


वाली कही गई हे । मणिपूर चक्र का सम्बन्धित लोक ' स्वः ' यानि स्वर्गलोक है जो ` 


अन्य ऊपर के लोको में सबसे निचला है अतः इसको आध्यात्मिक प्रवेशद्वार कहना 
ठीक ही है। 


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37 


(6) 


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इस चक्र का स्थान हदय हे । इसीलिए इसे ' हदय कमल ' या ' हदचक्र' भी 
कह देते हं । यहां अनाहत ध्वनि (विना प्रयास या थाप के, बिना आघात के स्वतः 
ही उत्पन होने वाली ध्वनि) स्वतः ही होती रहती टे । इस लिए इस चक्र को 
अनाहत कहा गया हे । क्योकि ध्वनिर्यो के दो ही मूल प्रकार हे -- आहत व अनाहत । 
आहत ध्वनि किसी प्रकार कौ छेडछाड या आघात से उत्पन होती हे ओर अनाहत 
ध्वनि अज्ञात कारण से स्वतः ही उत्पनन होती हे। 





गति 







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५ 


तिरी 


तिरी 
अनाहत चक्र 


अनाहत चक्र अत्यंत महत्त्वपूर्ण है, व्योकि नीचे के तीन ओर ऊपर के तीन 

चक्रों मे यह संतुलनात्मक सेतु बनाता है । इसके अलावा इसी चक्र मे हृत्पुण्डरीकं 

कमल भी है, जिसमें कि योगीजन अपने आराध्य या इष्ट देव का ध्यान करते हं । 

तांत्रिक ग्रन्थों के अनुसार भी (जैसा कि शिव सार तन्त्र मे कहा गया हे ) ! शब्द ब्रह्य 

वहलाने वाले सदाशिव इसी अनाहत चक्र मे है । क्योकि इस स्थान से उत्पन होने 
38 


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वाली ध्वनि है त्रिगुणमय ॐ एवं सदाशिव ।' यह चक्र विशेष महत्ववान हे । 
पंचमहाभूतों मे यह चक्र " वायु" तत्त्व का मुख्य स्थान हे । वायु तत्त्व को 
तन्मात्रा ' स्पर्श ' हे, अतः ' स्पर्शं ' इस चक्र का प्रधान गुण/स्ञान हे । इसी कारण इस 
चक्र की ज्ञानेन्द्रिय त्वचा ओर कर्मेन्द्रिय हाथ हैँ। नाक व मुख से प्रवेश कर समस्त 
शरीर में विचरने वाली एवं जीवन के लिए परमावश्यक प्राणवायु का यह चक्र मुख्य 
स्थान है । इस चक्र का लोक मर्ह ' या ' महत्‌ ' हे जो अन्तःकरण का मुख्य स्थान हे । 
इस चक्र के अधिपति देवता ईशान रुद्र हँ जो अपनी त्रिनेत्रा चतुर्भुजा शक्ति ` काकिनी ' 
के साथ हें । अतः इस चक्र की शक्ति ` काकिनी ' हें । इस चक्र का यन्त्र रूप 
षट्कोणाकार यह चक्र सिंदूरी रंग से प्रकाशित बारह दलों/पंखुडियों से युक्त हं जिन 
परस्थितकं,खं,गं,घं,ङचं,छं,जं, दघ, जं, ट तथाढठं। ये बारह वर्णं (अक्षर) 
कमल दल कौ ध्वनियों को दशति हँ । इस चक्र का तत्त्व बीज ! य॑ ' इसको बीज 
ध्वनि का परिचायक हे । इसका बीज वाहन मृग है जो इस चक्र कौ तिरी बीज 
गति को स्पष्ट करता है । इस चक्र पर ध्यान के समय अंगूठे ओर तर्जनी उंगली के 
सिरो को परस्पर दवबाया जाता है । इससे मन स्थिर होता है ओर उसकी मृग जेसी 
चंचलता रुकती हे। | 
वायु का स्वभाव विश्रामहीनता/हर समय गति करते रहना हे । तदनुसार ईस 
चक्र का यन्त्र व तत्तव रूप षट्कोण हर दिशा मेँ गति को दर्शाता हे । इस षटकोण मं 
एक अधोमुखी तथा एक ऊर्ध्वमुखी त्रिकोण सम्मिलित है जो क्रमशः शक्ति वे 
शेव-मान्यताओं का प्रतीक होने से दोनों का समन्वय (अर्धनारीश्वर) प्रदर्शित भी 
करता है । साथ ही ऊपर के तीन लोकों व चक्रों ओर नीचे के तीन लोकँ व चक्रों 
का संतुलन व सामंजस्य भी इंगित करता है जो इस चक्र के प्रधान गुणों मे से एक 
हे। 
चचलता, भटकाव, चेष्टा, लोभ, आशा, निराशा, चिंता, कपट, अविवेक, 
अनुताप, भ्रम (मरीचिका), वितर्क, सक्रियता, दृढता, हठ, तृष्णा, सवंदेनशीलता, 
उत्साह आदि गुणावगुण इस चक्र की विरोषता हं । परकाया प्रवेश तथा वायु गमन 
इसी चक्र के प्रताप से सम्भव हो पाता है । ज्ञान, दक्षता, वाक्पटुता, समर्थता, 
निपुणता, शास्त्रों का मर्म समञ्चना, काव्यामृत के रसास्वादन में प्रवीणता आदि इसी 
चक्र पर ध्यान लगाने से प्राप्त होते है! 


इस चक्र के बीज मन्त्र यं ' का पुनरावृत्ति के साथ शुद्ध रूप से उच्चारण हद 

को तरंगित कर वहां के समस्त अवरोध दूर करता है, जिससे शक्ति का प्रवाह 

निर्बाध गति से ऊपर की ओर होने लगता है परिणाम स्वरूप परम प्रभु की आह्ादिनी 

शक्ति से साधक का साक्षात्कार होता है ओर उसे सब ओर आनन्द की ही प्रतीति 

होने लगती हे । श्वांसों ओर प्राणो पर अधिकार प्रात हो जाता है । इस प्रकार सिद्धयो 

का आरम्भ इस चक्र को जीतने से होने लगता है । समदर्शिता, स्थायित्व,निर्यत्रण, 
40 


9 


प्रेम, सत्यता, निर्लोभता, दया, क्षमा, करुणा, विवेकशीलता, अ्हिंसकता आदि गुणों 
का उदय इस चक्र के शुभ प्रभावों के अन्तर्गत ही आता हे। 

इस अनाहत चक्र में एक लिंग का होना भी माना गया है, जिसे “ बाणलिंग ' 
कहते है । इसके ऊपर अति सुक्ष्म छिद्र में हत्पुण्डरीक कमल का निवास बताया गया 
है जहां योगी जन अपने आराध्य देवता का ध्यान करते हैँ । गहन प्रेम कौ स्थिति मं 
योगमार्गं को जाने बिना ही (प्रेमयोग के माध्यम से) अनजाने में प्रेमी इस कमल 
तक पहुंच जाता है ओर अपनी प्रेयसी को इस कमल में उसी प्रकार बसा लेता हे, 
जैसे हनुमानजी के हदयकमल मेँ श्रीराम बसे रहते हैँ । तभी तो कोई शायर अनजाने 
में ही यह पते की बात कह गया है-- | 

तस्वीर-ए-यार हमने अपने दिल में बसा रखी हे। 
जब जी पे आया, जरा गर्दन ज्ुकाडं, देख लिया॥ 

शद्ध प्रेम की स्थिति मेँ प्रेमी अर्धयोगी हो जाता है, इसमें दो राय नहीं हे, 
क्योकि योग के प्रधान गुणों व लक्षणों में से एक-तन्मयता/एकाग्रता/ स्वविस्मृति- 
कन्सन्देशन उसमें सहज ही आ जाता है । यही गुण एक उच्च कोरि के कलाकार, 
कवि, लेखक, दार्शनिक, वैज्ञानिक या संगीतकार में भी होता है । अतः मेरी दृष्टि में 
वे सभी पथश्रष्टदिशाभ्रष्ट योगी होते है, बहरहाल। | 

लगे हाथ इस चक्र के बीजवाहन मृग का भी विवेचन करते चले । चंचलता, 
तिरी गति, किसी भी ओर सशंक दौड़ जाना, मृग तृष्णा/मृग मारीचिका, अस्थिरता, 
विश्रामहीनता, सतर्कता, जागरूकता, उत्साह, संवदेनशीलता ओर प्रसन्नता में कुलांच 
भरना आदि समस्त गुण मृग में विद्यमान हैँ जो इस चक्र से सम्बन्धित हे । अतः 


इसका बीज वाहन मृग सर्वथा सार्थक हे । 
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41 





इस चक्र का स्थान कण्ठ प्रदेश है। इस चक्र का आकार । 
प्रकार के चित्र-विचित्र वर्णो (रंगों) वाला है ओर यह कमल सोलह दलों या 
पंखुडियों से युक्त हे जो शधूम्र/धुंधले प्रकाश से प्रकाशित हें। इन दलों के वर्ण 
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इसका तत्त्व बीज ! हं ' हे । इस तत्त्व बीज को गति हाथी के समान ञ्ूम-ज्ूमकर 
चलने के.समान घुमावदार है । अतः इसका बीज वाहन हाथी हे, जिस पर प्रकाश 
देवता विराजते हें । 

पच महाभूत में ' आकाश! तत्त्व का यह मुख्य स्थान हे । आकाश कौ तन्मात्रा 

` शब्द ' इसका प्रधान ज्ञान या गुण हे । इसीलिए इसकी ज्ञानेद्दिय कर्ण (कान) ओर 
कर्मद्रिय वाणी (वाकशक्ति) हे । इस चक्र के अधिपति देवता पंचमुखी सदाशिव 
अपनी चतुर्भुजा ' शाकिनी ' शक्ति के साथ हँ। अतः इस चक्र कौ शक्ति देवी 
` शाकिनी ' हे । इसका यन्त्र गोल व रंगहीन है । ऊपर की ओर गति करने वाले 
उदानवायु का यह चक्र मुख्य स्थान हं । इसका लोक ' जनः ' है । 

इस चक्र को ' ब्रह्यद्ार ' भी कहा जाता है । आयुर्वेदीय व चिकित्सा शास्त्र कौ 
दृष्ट से यह कमल शरीर का मर्म हे । इसके भेदन से तत्काल मृत्यु हौ जाती हे । कहते 
हें कि विशुद्ध चक्र कौ साधना से सोलह प्रकार की योगसाधना की शक्ति आ जाती 
हे । इस चक्र पर ध्यान केन्द्रित करने से मन आकाश की भांति विशुद्ध हो जाता है 
अतः इसे विशुद्ध चक्र कहते हैँ । वैसे महान्ञानी, निरोग, निर्विकार, शान्तचित्त, 
शोकहीन, समद्रष्टा तथा दीर्घजीवी होना इस चक्र पर ध्यान लगाने से सहज प्राप्त होने 
वाले शुभ फल हें । त्रिकाल दर्शन कौ सिद्धि व शवित (समय के आर-पार देख 
सकना) इसी चक्र कौ साधना के प्रभाव से सम्भव हो पाती है । साधना की दृष्टि से 
यह चक्र भी विशेष महत्त्व वाला हे। 

'शिवस्वरोदय' के अनुसार हं ' बीज से अत्यन्त उज्वल, निराकार आकाश 
तत्त्व के ध्यान से त्रिकाल ज्ञान होता है तथा अणिमा आदि अष्ट सिद्धियों की प्रापि 
होती हे । वैसे भी उपनिषदं ने ब्रह्म को आकाश स्वरूप कहा है । आकाश तत्व शून्य 
ओर अणुविहीन है, अनन्त, सर्वव्यापक ओर विरार हे, निर्विकार, शुद्ध ओर विभु है। 
परमात्मा के गुणों मे से अधिकांश गुण आकाश मे उपस्थित हे, अतः उसे आत्मस्वरूप 
या परमात्म स्वरूप कहा ही जा सकता है। वह अनादि ओर अनन्त है ओर कर्ता 
भाव से मुक्त, निष्क्रिय, स्थिर व साक्षी मात्र है । बह बस हे । उसके विषय में अन्य 
ऊख कहा नहीं जा सकता । निराकार है । स्पर्श, गंध व रूप आदि ज्ञान से परे है। 

वामकेश्वर तन्त्र विशुद्ध चक्र के समीप "ब्रह्य ग्रन्थि' का होना मानता है, 
जबकि अन्य स्थानों पर ‹ रुद्र ग्रथि" को विशुद्ध चक्र के समीप माना हे । मूलाधार 
चक्र, मणिपूर चक्र तथा विशुद्ध चक्र के समीप तीन ग्रन्था हें, यह प्रायः सभी योग 
ग्रन्थो ने स्वीकारा है ओर उनको 'रुद्रगरन्थि, ' विष्णु ग्रन्थि" व ' ब्रहाग्रन्थि' के 
नाम से पुकारा है। यहां तक प्रायः सभी ग्रन्थ एकमत है, किन्तु उनके स्थानं के 
विषय मं विभेद मिलते ह । एक ग्रन्थ के अनुसार जो स्थान 'रद्रग्न्थि' का है, दूसरे 
ग्रन्थ के अनुसार वह स्थान "विष्णु ग्रन्थि" का है । इसी प्रकार अन्य ग्रन्थयो के 

विषयमे भी है। 
44 


नामकरण एक पृथक विषय है किन्तु यह तथ्य विचारणीय है कि समस्त 
साधको व ज्ञानियोँ ने इन तीन चक्रं के निकर तीन ग्रन्थियोँ ( सूक्ष्म नाड्यो कौ एक 
गांड सी) को पाया है ओर महसूस किया है । उनका भेदन कर कुण्डलिनी शक्ति को 
आगे बदाने में विशेष बल व साधना का उपयोग करना पड़ा है । यही बात पाठका 
के मार्गदर्शन के लिए उपयोगी है । नामकरण के भेद में पडकर उलञ्लन पैदा होगी । 
अतः इस विषय पर चर्चा नहीं करेगे । इस भेद के बहुत से कारण निज अनुभूतियों 
के आधार पर सम्भव हैँ । इसकी छानबीन अनावश्यक, अवरोधक, विशेष श्रम व 
समय को खपाने वाली ओर परिणाम मे मामूली-सा लाभ देने वाली ही सिद्ध होगी । 
प्रवृद्ध पाठक अवश्य ही इस तथ्य से सहमत होगे । अतः हम इस चर्चा को यहीं पर 
समाप्त कर अगले ओर अत्यधिक महत्त्वपूर्ण चक्र की ओर आते हैँ, जिसका नाम 


' आज्ञा चक्र ' हे । 
117 


45 





57८ <८ तवक 


कुछ विद्वान इसे ' अंजना चक्र ' भी कह देते हं । इसका स्थान दोनों भृकुरियों 

के मध्य-नासिका कौ संधि के एेन ऊपर हे । यह योग विद्या में साधना कौ दृष्टि से 

अत्यधिक महत्वपूर्णं चक्र हे । निराकार ब्रह्य का ध्यान व अन्तर्रारक आदि इसी 

चक्र पर योगीजन किया करते हँ । शरीर के समस्त अवयवो तथा संस्थानों को आज्ञा 
गति | 








नाद्‌ को भांति ( सब ओर ) 
आज्ञा चक्र 
का प्रसारण यहीं से होता हे । इस चक्र तक पहुंचा हुआ योगी अधोगति को पुनः प्राप 
नहीं होता। इस चक्र का महत्व सिद्ध करने के लिए यही तथ्य काफी है कि इस 
चक्र का तत्त्वनीज मंत्र ॐ है, जो परमात्मा या ब्रह्म का प्रणव मंत्र है । क्योकि यह 
अकार, उकार भौर पकार ( अ+उ+म ) तीनों की शक्तियों का सम्मिलन है। 


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इन्हें ही ब्रह्मा, विष्णु, महेश अथवा ज्ञानशक्ति, क्रियाशक्ति ओर संकल्प/इच्छा 
शक्ति कहा गया है । किसी भी कार्य को सम्पन्न करने के लिए इन्हीं तीन शक्तियों 
की अनिवार्यता होती हे । हमें उस कर्म विशेष के विषय में ज्ञान हो, उस कर्म विशेष 
: को करने८संपादन कौ सामर्थ्य हो ओर उस कर्म विशेष को करने की हमारी 
इच्छा/संकल्प हो तभी हम उस कर्म विशेष को कर सकते हँ । क्योकि यदि हमें 
करने की सामर्थ्य होगी पर ज्ञान नहीं तो भी हम उस कार्य विशेष को कर नहीं 
पाएंगे । यदि हमे उस कार्य विशेष का ज्ञान होगा किन्तु क्रिया कौ सामर्थ्य नही, तो 
भी हम उसे कर नहीं पाएगे, किन्तु यदि हममे क्रिया ओर ज्ञान दोनों कौ सामर्थ्य, 
किसी कार्य विशेष के सम्बन्ध मे हो-तो भी हम उस कार्य को तब तक नहीं करेगे 
जब तक हमें उस कार्य को करने कौ इच्छा न हो । कोई कार्य बिना संकल्प के 
सम्पन नहीं हो सकता । 

इस प्रकार ये तीन मूलशक्तियां किसी कार्य के सम्पादन में अथवा व्यवहार में 
अनिवार्य होती हैँ । अपने-अपने स्थान पर तीनों ही शक्तियों का महत्त्व है, तो भी 
संकल्पशक्ति शेष दोनों शक्तियों के एकत्रित होने के बावजुद संकल्प या इच्छा के 
अभाव मे कार्य का सम्पादन नहीं होता। दोनों ही शक्तियां (ज्ञान व कर्म/क्रिया) 
अकेली होने पर तो व्यवहार मे आती ही नहीं, मिलकर भी व्यवहार में तब तक नहीं 
आती जब तक उनमें संकल्प शक्ति न आ जुडे। जबकि संकल्प शविति अकेली ही 
यदि बलवती ओर प्रचण्ड हो तो ज्ञान ओर क्रिया शक्ति को जुटा लेती है ओर कार्य 

सम्पन कर लेती हे । इसी संकल्पशक्ति के अधिष्ठाता भगवान शिव हैं| 
ब्रह्य, विष्णु, महेश इन शक्तियों के अभोतिक देवता हैँ । क्योकि सृष्टि के 
निर्माण कार्य मे मूलतः ज्ञान कौ आवश्यकता होती है, जिसके अधिष्ठाता देव ब्रह्या 
हं । सृष्टि के संचालन, पोषण व विकास मे मूलतः क्रिया आवश्यक होती है, जिसके 
अधिष्ठाता देव विष्णु है, ओर संहार या विध्वंस के लिए संकल्प की मूल आवश्यकता 
होती हे, जिसके अधिष्ठाता देव शिव है । अतः सृष्टि ब्रह्मा के, संचालन/पालन विष्णु 
के ओर संहा८लय शिव के अधिकार कत्र मे आते है। ब्रह्म, विष्णु, महेश जहां 
सान, क्रिया व संकल्प शवित् के अधोतिक देव है, वहीं सूर्य, अग्नि ओर चन्र इन्हीं 
शक्तियों के भोतिकः देव हँ जिन्हं हम इन्द्रियं दारा अनुभव कर सकते हँ । यहां यह 
भी ध्यान देना चाहिए कि संहार के देवता होने के कारण शमशान में शिव 
प्रतिमा अवश्य स्थापित की जाती दै। किन्तु यह इकार ' कौ शक्ति ( इच्छा 
पि ) का ही प्रताप है जो "शव ' को भी कल्याणकारी ' शिव ' मे बदल देता 

। 
मर्य प्रकाश का स्रोत है । प्रकाश के अभाव मेँ ज्ञान सम्भव नहीं है । अतः सूरय 
को जगत्‌ गुरु माना जाता है । अग्नि-रर्जा व ऊष्मा का स्रोत है । बिना ऊर्जा के कोड 
भी क्रिया नहीं हो सकती । क्रिया के लिए शविति, शक्ति के लिए ईधन या ऊर्जा ओर 
48 कुण्डलिनी शवित कैसे जागृत कर-3 
| छ. 


ईधन या ऊर्जा के लिए अग्नि आवश्यक होती है। इसी प्रकार मन के अधिकारी 
देवता चन्द्रमा है। मन ही इच्छा या संकल्प कर सकता है । अतः संकल्पशक्ति के 
देवता चन्द्रमा ही माने गए हैँ । समुद्रो का ज्वार-भाटा चन्द्रमा से नियन्त्रित है । स्त्रियों 
में रज कौ मासिक प्रवृत्ति चन्द्रमा से सम्बन्धित है । मानव के भावावेश तथा मन को 
चन्द्रमा प्रभावित व प्रवृत्त करता है । पूर्णिमा की रात ओर आमवस कौ रात में मनुष्य 
कौ मनोदशा में विशेष अन्तर पाया जाता है । अपराध शास्त्र के आंकड़ों के अनुसार 
पूर्णिमा की रात में योन सम्बन्ध अपराध विशेष रूप से अधिक घटित होते हँ । काव्य 
व साहित्य मे चन्द्रमा, चांदनी, पूनम आदि का विशेष वर्णन चन्द्रमा से पड़ने वाले 
मानसिक प्रभाव को स्पष्ट रूप से परिलक्षित करते हैँ । यहां तक कि चन्द्रमा को घटने 
बटने की कला का सम्बन्ध भी बहुत से विद्वान इच्छा शक्ति से जोडते हँ । शिव के 
मस्तक पर चन्द्रमा को सुशोभित दिखाने का एक प्रतीकात्म्क कारण यह भी हे । 
बहरहाल । 

ॐ प्रणव मंत्र है जो ब्रह्मा, विष्णु, महेश की एकता यानि परमब्रह्म(परमेश्वर 
का द्योतक है । (६।५01 1911 में परमात्मा के लिए प्रयुक्त शब्द ७00 भी वास्तव मे 
इन्हीं तीन शवितियों का परिचायक है । ०६।१६१५70 ति, ०९८१470 ओर 
08७1१८78 यानि उत्पनन करने वाला, संचालित करने वाला ओर विनष्ट करने 
वाला, ओर यही ॐ आज्ञा चक्र का बीज मंत्र हे, इससे आज्ञा चक्र कां महत्त्व स्पष्ट 
होता है। । 

आज्ञाचक्र का यन्त्राकार लिंग के समान हे, क्योकि स्वयं इस चक्र को 
लिंगाकार माना गया है । यह सफेद रंग से प्रकाशित दो दलों ८पंखुडियो के कमल के 
समान है । (विज्ञान के अनुसार पिट्‌्युटरि ग्लैण्ड ओर पायनियल ग्लैण्ड को इन दलो 
का संकेतक माना जा सकता हे ।) इन दलों पर हं ओर क्षं अक्षरवर्ण हँ जो इस चक्र 
की कमलदल ध्वनि को प्रकट करते है। इस चक्र का तत्त्वनीज ॐ है । अतः 
ॐकार इसकी बीज ध्वनि है । पंच महाभूतो से परे ओर सूक्ष्म ' मह ` तत्त्व का वह 
मुख्य स्थान है । इसका लोक ' तपः ' है । इसके तत्त्व बीज की गति नाद के समान हे 
अतः इस चक्र का बीज वाहन नाद है, जिस पर लिंगदेवता विराजते हैँ । इस चक्र के 
अधिपति देवता ज्ञान दाता शिब अपनी षडानन ओर चतुर्हस्ता शविति * हाकिनी" के 
साथ है। अतः इस चक्र की शक्ति देवी ' हाकिनी ' हैँ । 

विभिन चक्रों पर ध्यान करने से जो फल साधक को प्राप्त होते हैँ, वे सभी 
दिव्य फल अकेले आज्ञा चक्र पर ही ध्यान करने से प्राप्त होते है त्रिकालदर्शन, 
दिव्यदर्शन, दूरदर्शन तथा मन्त्र, शवित व ईश साक्षात्कार का स्थान भी यही है अतः 
इसे शिब का तीसरा नेत्र भी कहा गया है । इसी स्थान पर मन व प्राण के स्थिर हौ 
जाने पर सम्प्रस्लात समाधि की योग्यता होती दै । * दिव्यचक्षु' यही आज्ञा चक्र हे। 
इसका तेज सूर्य तथा चन्द्र के सम्मिलित तेज से भी प्रबल कहा गया हे । इसी चक्र 


49 


के दाएं व बाएं से क्रमशः गान्धारी व हस्तिनी नाड्यां नेत्रों तक जाती है, जिनका 
कार्य नेत्रो को प्रकाश देना है । प्रकृति व पुरुष का, जड़ व चेतन का अथवा माया व 
ब्रह्म का यही संयोग स्थल हे । इडा, पिंगला तथा सुषुम्ना तीनों नाडियां यहां मिलती 
हं अतः इसे ' युक्तत्रिवेणी ' भी कहा जाता दै । यहीं से नेत्रां का प्रकाश बाहर 
भीतर के अंगों को देख सकता हे। अतः इस चक्र पर ध्यान करने से वृत्तियां 
अन्तर्मुखी होती हे । मन कौ चंचलता नष्ट होती है ओर भ्रान्त दूर होकर आत्म तत्त्व 
मे स्थिरता आती है। 
आज्ञा चक्र मे ही गुरु को आज्ञा से शुद्ध ब्रह्य ज्ञान कौ प्राप्ति होती है । रामायण 
आदि धर्म ग्रन्थों में वर्णित ' तीर्थराज ' ( प्रयाग ) जहां -- गंगा, यमुना व सरस्वती 
का संगम होता है ओर जिसमें स्नान करके सारे पाप धुल जाते हँ, वह तीर्थराज 
वास्तव में यह आज्ञाचक्र ही है । क्योकि यहीं इडा, पिंगला ओर सुषुम्ना तीनां 
नादि्यों का संगम होता है । इसी में स्नान करने (तन्मय होने) से मुक्ति होती हे। 
जेसा कि ' ज्ञान संकलिनि तंत्र ' में कहा भी गया है-- 
इडा भागीरिथी गंगा पिंगला यमुना नदी। 
तयोर्मध्यगता नाड़ी सुषम्णाख्या सरस्वती ॥ 
--( ज्ञान संकलिनि तत्र) 
अर्थात्‌ इडा गंगा ओर पिंगला यमुना नदी है । इन दोनों के मध्य से जाने वाली 
नाडी सुषम्ना को ही सरस्वती कहते हैँ । (ओर आज्ञाचक्र पर ये तीनों नाड्यां 
मिलती हे) । 
आज्ञा चक्र कमल कौ कर्णिकामेंही मन का निवास कहा गया हे । स्थूल 
वुद्धि वाले मनुष्य स्थूल हदय को ही मन समञ्च लेते है । वास्तव मेँ मन तो अतिसूक्ष्म 
९ आर एक अणुमात्र हे । जैसा कि ' चरक संहिता ' मेँ मन को परिभाषित करते हुए 
महि चरक ने कहा भी है-' अणुत्वं चैकत्वं मनः ' (जो अणु है ओर एक ठै, वही 
मन ह)। 
, _ तार, उकार व मकार कौ संयुक्तावस्था में ब्रह्मा, विष्णु व महेश कौ 
अ सक्तातस्था का प्रतीक आज्ञाचक्र का बीज मंत्र ॐ विन्दु, शक्ति व नाद से युक्त 
५ छ स तीन शक्ति्यो-रौडी जया ओर वामा का उत्पन्न होना माना गया ह । 
` रस पर ि ताद शिव ओर शव्ति के संयोगावस्था का भी प्रतीक सिद्ध होता दै । 
॥॥ जन र र सव॑दरशिता, परकाया प्रवेश, नरिकालङ्ता 
वचन से मन सहित समस्त मन य सहित होतौ है। ४1. कम च 
प त समस्त दद्रियां उसके वश में रहती है । सर्वज्ञ ओर तत्त्वदशीं होने 
स उत्पादन, पालन व संहार मेँ समर्थ हो जाता है । उसमे आनन्द, विकारहीनता तथा 
साक्षी भाव का उदय होता है तथा जन्मान्तरों के संस्कारो के समस्त मल व पापक 
कर शुद्धावस्था को प्राप्त होता है। 
अतः इस रहस्यपूर्णं आज्ञाचक्र को भली भांति समद लेना चाहिए । यह 
| 50 


कुण्डलिनी यात्रा का अत्यधिक महत्त्वपूर्णं व निर्णायक पडावं है। यद्यपि इसके 
आगे एक प्रमुख चक्र का भेद शेष रह जाता है, तथापि उस चक्र का भेदन करने में 
फिर विशेष प्रयास कौ आवश्यकता नहीं रह जाती, वहां स्वतः प्रवेश हो जाता है । 
इसीलिए आज्ञा चक्र तक पहुंचा हु योगी पुनः अधोगति को प्राप्त नहीं होता। 
उसकी इच्छा के विरुद्ध कुण्डलिनी वहां से वापस नहीं लौट पाती । इसके अलावा 
मनश्चक्र ओर बुद्धिचक्र इसी आज्ञाचक्र के दोनों दलों के संधि स्थल पर रहते हैँ । 
षडूदलात्मक मनश्चक्र को ' मनोनय कोष ' भी कहा जाता है । इस संदर्भ मे आगे मन 
सम्बन्धी प्रकरण में विस्तार से पदेगे । इसी आज्ञा चक्र में प्राण व मन को स्थिर करने 
से प्राप्त होते वाले दिव्यफल के विषय में कबीरदास जी ने कबीर वाणी ' में अपने 
रहस्योत्पादक विशिष्ट अंदाज में कहा है कि- 

देह रूपी मकान के द्वार पर ्जरोखे बन्द करके मैने प्राण रूपी चोर को पकड 
उसके भागने के समस्त मार्ग बन्द कर दिए। फिर हृदय कौ कुरिया मेँ उसे बांधकर 
ॐ के कोडे से उसे खूब पीटा- जिससे सहज नाद गंज उठा। 

यह आज्ञा चक्र भेदना अत्यंत कठिन है इसलिए कबीर ने इसे ' दसवें द्रि 
ताला लागी ' कहा है । यहीं आकर गुरु का महत्त्व पूर्णतः सिद्ध होता है, क्योकि बिना 
गुरु को कृपा८आाज्ञा से इस चक्र का ताला नर्हीं खुलता (इसमें प्रवेश नर्हीं होता) । 
तभी तो कबीरदास को कहना पडा- 
गुरु गोविंद दोऊ खडे, काके लागू पांय। 
बलिहारी गुरु आपने, गोकिंद दियो मिलाय ॥ 

यह आज्ञाचक्र प्रभु का साक्षात्कार स्थल है । गुरु की कृपा व अनुमति से इस 
चक्र मे प्रवेश होता हे, तभी ईश्वर साक्षात्कार होता है । इसलिए गुरु द्वारा गोलिन्द 
मिलने को बात कही है । इस संदर्भ में यदि आन्ञा चक्र को बैकुण्ठ का द्वार मानल 
तो उचित ही होगा। एेसा मानते ही पुराणों में वर्णित कथाओं का मर्म स्पष्ट हो 
जाएगा । बैकुण्ठ के दार पर वच्रकपार तगे हैँ । दो द्वारपाल वहां सतत पट्रा देते हे । 
बेकृण्ठ कौ सात डूयोद्धियां हे । ब्रह्मा जी के सनकादि मानस पुत्र भागवत पुराण के 
अनुसार जब विष्णु दर्शन कौ इच्छा से बैकुण्ठ गए तो छः डयोटी चद्‌ जाने के बाद 
सातवीं पर चद्ने से जय-विजय दोनों द्वारपालं ने उन्हं रोक लिया। यहां सातो 
इयोढियों, सात चक्रों की तथा बेकुण्ठद्वार आज्ञाचक्र का प्रतीक है ओर 
बेकुण्ठ के दोनों द्रारपाल इस चक्र के दो दलों के वर्णं “हं ' वर्णं के प्रतीक दै । 
अभिप्राय यही हे कि इस चक्र का भेदन ब्रह्माजी के मानस पुत्रौ, योग विद्या में 
प्रवीण सनकादि ऋषियों के लिए भी कठिनं है । फिर साधारण योगियों की तो बात 
ही क्या। 

इस प्रकार विभिन धर्मग्रन्थों में अन्यत्र भी इस प्रकार के कूट संकेत कथाओं 
क माध्यम से बिखेरे गए हैं । जेसे वाल्मीकिय रामायणे नौ द्वारो ब सात 
प्रकोष्ठं वाली अयोध्या नगरी का वर्णन जहां राजा दशरथ अपनी तीन रानियों 


51 





के साथ रहते है-- वास्तव में शरीर (नो छिद्र ओर सात चक्र) में रहने वाले दसं 
इद्रियों के राजा मन (दशरथ से सिद्ध होता है-दस घोड़ों का रथी या दसं 
दिशाओं मे जाने वाला रथ- दोनों ही प्रकार से इसका आशय ' मन ' ही सिद्ध होता 
हे) का यह कूट संकेत है जिसकी तीन रानियां सात्त्विक, राजसिक व तामसिक 
बुद्दि ही है । मन ओर बुद्धि के संयोग से उत्पन्न होने वाली चेतना ही राम दहे । 
चेतना के अभाव में बुद्धि तो जड होकर रह सकती हे । शरीर भी निष्क्रिय (कोमा 
मे) होकर रह सकता हे किन्तु मन नहीं । अतः राम के बनवास पर केवल दशरथ 
केही प्राण छ्ूटते हैँ, अन्य किसी के नहीं । इसी प्रकार के बीसियों उदाहरण हैँ जो 
रामायण या पुराणों मे कथाओं के माध्यम से गुप्त संकेतो में पूरा योग-रहस्य समञ्चाते 
है । सभी को उदाहरण के रूप में प्रस्तुत कर पुस्तक के पृष्ठो का अतिक्रमण मूल 
विषय के साथ अन्याय होगा। पाठकों को प्रेरित करने के लिए इतना दिशा- निर्देशन 
भी बहुतदहेकिवे धर्मग्रन्थों को मात्र कथाओंकेरूपमेंननले-- उसमें ल्पे मर्मको 
खोजें । 

योग या अध्यात्म जेसा गू, रहस्यपूर्ण व शुष्क विषय जन सामान्य या ओसत 
बुद्धि के लोगों का भी कल्याण कर सके अतः उसे कथानक के रूप यें जहां तहां पर 
प्रस्तुत कियागया = ओर यह्‌ निर्देश भी दिए गए हें कि रामायण बराबर पदं । पुराण 
बार-बार पदं । बार-बार पटने से ग्रन्थ समञ्च में आएगा। बार-बार का अभिप्राय 
यही है कि धीरे-धीरे अभ्यास व वुद्धि की रगड संस्कार भी दढ करेगी ओर प्रकाश 
भा उत्पनन करेगी । जव प्रकाश उत्पनन होगा तो पाठक कथाओं में छिपे मर्म को शनै 
शनैः पहचानने लगेगा। अस्तु । 


(1 


92 


पदछण्कर यक्छ 
तालु के ऊपर मस्तिष्क में ब्रह्मरन्ध्र से ऊपर इसका स्थान माना गया है । यह 


समस्त शक्तियों का केन्द्र हे । रग-बिरंगे प्रकाश से युक्त एक हजार दल/पंखुडियों 
वाले कमल के समान यह चक्र हे । इसके दलों पर 'अं' से "क्षं" तक सभी स्वरव 





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सहस्रार चत 


वर्णं विद्यमान हैँ, यही इस चक्र की दल-ध्वनियां हैँ । यह तत्त्वातीत है (अतः यहां 
किसी तत्त्व विशेष का मुख्य स्थान नहीं है ) । इस चक्र का तत्व बीज ' विसर्ग ' हे 
53 

















“विन्दु ' इसके तत््वबीज की गति हे अतः ' बिन्दु ' ही हसके बीज का वाहन भी है। 

इस चक्र का लोक "सत्यम्‌" हे । इस चक्र के अधिपति देवता स्वयं परब्रह्म है जो 
अपनी महाशक्ति के साथ देँ । इस चक्र का यन्त्राकार पूर्ण चन्द्राकार तथा शुभ्रवर्ण 
का दहै!" जमर! या“ मुक्त' होना ही इस चक्र का फल हे । यह परमज्ञान को उत्पत्ति 


पस 


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यहीं समस्त शरीर का संचालन केन्द्र मस्तिष्क है । आधुनिक विज्ञान कौ दष्ट 
से ' स्मृति क्षेत्र' यहीं है । मृत्युपरांत की जाने की ' कपाल क्रिया ' में यही स्थान 
तोडा जाता हे, ताकि स्मृतियों का सर्वथा लोप हो सके ओर अगले जन्म में पूर्वं जन्म 
को स्मृति न बनी रहे । एेसा बहुत से विद्वानों का मत है । 

योग विद्या में ' षटचक्र भेदन ' की परम्परा है । वर्योकि पृथ्वी, जल, अग्नि 
वायु, आकाश ओर मन के प्रतिनिधि छहः चक्रों को भेद कर कुण्डलिनी शक्ति को 
सहस्रार तक लाया जाता ठे, किन्तु उसे भेदे विना पुनः वापस मूलाधार में ले जाया 
जाता हे । इसका कारण यह कि योगी जन प्राण छोडते समय ब्रह्मरप्र व सहस्रार चक्र 
का भेदन कर मुक्त होते हँ । अतः सातवें चक्र का भेदन अन्त समय मेँ होता है । छह 
चक्रों को भेदने ओर पुनः वापस लोटने में कुण्डलिनी के मार्ग में कुल 100 कमल 
दल पडते हं । (मूलाधार के चार, स्वाधिष्ठान के छः, मणिपूर के दस, अनाहत के 
बारह, विशुद्ध के सोलह तथा आज्ञा चक्र के दो-अर्थात्‌-4+6+10+12+16+2 = 50 
वापसी मेँ यही 50 दल फिर से, अर्थात्‌ 50+50=100) इनका दस गुना करने प 

54 


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हजार होता हे । यही सहस्रार के दलों का रहस्य हे । 

समस्त शक्तियों का केन्द्र होने के नाते भी सहस्रार चक्र के कमल को हजार 
दलों से युक्त होना तर्कसंगत है । इसी सहस्रार चक्र मे सदैव अमृत सराव होता है 
जिसका पान योग द्वारा यहां तक लाई गई कुण्डलिनी करती है । जिस समय सतत 
होते रहने वाला यह अमृत स्राव बन्द हो जाता है, उस समय शरीर नष्ट हो जाता हे 
मृत्यु हो जाती है । यही सहस्रार चक्र पराप्रकृति व परापुरुष या परब्रह्म का स्थान है । 
यहीं कुण्डलिनी का पराशिव से भेदात्मक सिलन होता है । अतः योग मार्ग का चरम 


लक्ष्य होने से यह चक्र अत्यधिक महत्त्वपूर्ण हे। 


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सहस्रार मे शिव एवं श्र क्ति का मिलन 
आज्ञाचक्र से ऊपर महानाद है, जिसके ऊपर शंखिनी नामक नाडी के अग्रधाग 
के शून्य स्थान मेँ ब्रह्यरंध्र है । इस ब्रह्मरंश्र में सहस्रार चक्र का कमल अधोमुख 
55 





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अवस्था में स्थित है । इसलिए बहत से विद्वान सहस्रार को ही ब्रह्मरंश्र भी कहते हें । 
यहीं प्राण व मन के स्थिर हो जाने पर समस्त वृत्तियों को निरोध रूपा असम्प्रज्ञात 
समाधि सम्भव हो पाती है। इसी सहस्रार के मध्य स्थित चन्द्रमण्डल में 'हंस' 
अथवा अंतरात्मा का वास हे । यही आत्मसाक्षात्कार का स्थान हे। 
सहस्रार चक्र में ध्यान करने से पुनर्जन्म नहीं होता, आत्मसाक्षात्कार होता हे, 
परमानन्द, मोक्ष अथवा अमरत्व की प्राप्ति होती हे । साधक ऋद्धि, सिद्धि, प्रभाव व 
चमत्कार के अवस्था से कीं ऊपर उठ जाता हे । 
बहुत से योग ग्रन्थों तथा अन्य तन्त्रं व उपनिषदों आदि मे 3 चक्रों अथवा % 
चक्रों का भी वर्णन हुआ है । बहुत से स्थानों पर शरीरस्थ चक्रों कौ संख्यानौ से भी 
अधिक मानी गई हे । परन्तु वे इन सात चक्रों के ही उपभेद्‌ अथवा इनके अन्तर्गत आ 
जाते हें । यही सात चक्र प्रमुख चक्र हे, जो विशेष महत्त्व व प्रभाव वाले हें । इस 
तथ्य से सभी सहमत है । इन्ीं सात चक्रों में से पहले छः को कुण्डलिनी द्वारा भेदा 
जाता है। अतः योग प्रणाली में ' षटचक्र भेदन ' के ही निर्देश मिलते हं । इससे 
अधिक के नहीं। 
इस प्रकार शरीरस्थ सात चक्रों का विवरण पूर्णं हुआ। अब हम कुण्डलिनी के 
विषय में चर्चा करेगे तथा नाडियोँ के सम्बन्ध में संक्षिप्त परिचय प्राप्त करेगे। 
किन्तु उससे पूर्व कुक तथ्यों को स्पष्ट समञ्ञ लेने के लिए नीचे दी हुई 
तालिकाएं देख लें । इससे अब तक हुई बातों को ओर आगे होने वाली बातो को भी 
सहजतापूर्वक समज्ञा जा सकेगा, साथ ही इन्हें स्मरण रखने मे भी सुभीता होगा । 


पंचमहाभूत 
आकाश 
तन्मात्राएं (गुण) | गन्ध तेज ब्द 
ज्ञानेन्द्रियां त्वचा | काज 





कर्मन्द्रियां उपस्थ | पैर थ | वाणी/वाकृशकवित 


पचमहाभूत 
पंच महाभूत या पंचतत्व जिनके सम्मिलन से समस्त सृष्टि एवं शरीर निर्मित 
होता टे । शरीर्‌ म॑ इन पंच महाभूतो कौ आवश्यकता स्थूल/भोतिक शरीर मे पड़ती 
है । सृक््म/अभोतिक शरीर मं मन, बुद्धि व अहंकार ओर भी जुड जाते है । इनका 
सबके साथ प्राण व आत्मा का संयोग ही जीवन माना गया है । संस्कार या स्वभाव 
के अनुसार हुनके साथ सत्‌, रज व तम तीन गुणों का संयोग भी हो जाता है । इन पच 
महाभृतों में सर्वप्रथम आकाश को उत्पत्ति होती है, फिर क्रमशः वायु, अग्नि, जले 
56 


व पृथ्वी कौ । इसी अनुपात मेँ ये सुक्ष्म से स्थूल तथा हल्के से भारी होते चले जाते 
हे । आकाश की भी उत्पत्ति अहं से ओर अहं की "मह्‌" तत्त्व से बताई गई है । 


वायु (मरुत) 
4० प्रकार कौ मानी गई है, जिनमें दस मुख्य हैँ । दस में भी पांच प्रमुख हैँ । 
उनमें भी एक का जीवन की दृष्टि से अधिक महत्त्व है । इन सबके अपने-अपने कर्म॑ 
व स्वभाव हैँ ओर अपनी अपनी गतियां हैँ । संक्षेप में इन्हे भी जान ले। 


| कुछ प्रसुख वायु 
प्राणवायु `अपानवायु समानवायु | व्यानवायु उदानवायु 
श्वांस को अंदर शरीर को 











































गुदा सेमल, पचे हुएरस | सारी स्थूलव 











व बाहर ले जाना | उपस्थ से मूत्र आदि को देह | सूक्ष्म नाड्यो | उठाए रखना 
खाए अन्न जल व अंडकोष से के सब अंगों |मेंरुधिरका | व्यष्टि प्राण 
को पचाना व वीर्य निकालना, | व नाडियोंमें | संचार करना | व समष्टि 




















अलग करना गर्भृकोनीचेले | समानरूपसे प्राणमं संबंध. 







































अनन को शोचमें | जाना (प्रसव) वितरित करना बनाए रखना 
पानी को पसीने घुटने , जांघ आदि मृत्यु के समय 

व मूत्रमें, रसादि | के काम इसीके सूक्ष्म शरीर 

को वीर्य मे बदलना | अधीन हैँ। को स्थूल शरीर 
हदय से लेकर नाभिसेलेकर | नाभिसे से निकालना 
नाक तक। तलवे तक हदय तक सूक्ष्म शरीर के 
शरीर के ऊपरी नीचे कौ ओर शरीर के गुण, कर्म, वासना 
भाग में वर्तमान गति करताहै। | मध्य भाग संस्कार आदि 










को गर्भमें प्रविष्ट 
कराना। 

योगियों हारा 
शरीर स्थानांतरण 
या आकाश में 
भ्रमण इसी के 
कारण होता है । 
कंठ से सिर तक 
शरीर के ऊपरी 
भाग में स्थित। 
विशुद्ध चक्र 


रहता हे । में स्थित। 





मणिपूरक 





प्राणवायु 





मूलाधार 












इनके अतिरिक्त पांच अन्य वायु प्रमुख मानी गई हैं जो इन्हीं को सहयोगिनी 
होने से अतिप्रमुख उपर्युक्त पांच कौ गिनती मेँ नहीं आतीं । वे इस प्रकार है-- नाग, 
कूर्म, कृकर, देवदत्त ओर धनंजय । 
57 


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सहस्रार मे अय्रतपान क्ीक्रिया 
गागवायु- डकार, छींक आदि के लिए उत्तरदायी । 
कूम॑वाय- संकोचनीय वायु/जधोवायु/पाद आदि के कारक 
कृकरवायु--क्षुधा, तृष्णा आदि के लिए उत्तरदायी । 
देवदत्तवायु निद्रा, त्र जम्हाई आदि की कारक । 
-नजयवायु- पोषणादि कार्य सम्पन करती है । 
.थ पाचों वायु प्राणवायु, अपानवायु, समानवायु, उदानवायु व व्यानवायु के 
= त आती हँ अतः अत्यंत प्रमुख नहीं हैं| 
जसा कि नीचे लिखे श्लोक से स्पष्ट है- 
हदि प्राणो वसेनित्यमपानो गुह्यमण्डले। 
समानो नाभिदेशे तु उदानः कण्ठमध्यगः ॥ 
व्यानो व्यापी शरीरे तु प्रधानाः पञ्चवायवः ॥ 
( हृदय मं प्राणवायु, गुह्य प्रदेश में अपानवायु, नाभिमंडल में समान वायु, 
कण्ट मं उदानवायु ओर सारे शरीर में व्यान वायु व्याप्त हे । यह पांच प्रधान वायु हैँ |) 
(121 
58 


नाड्याः एव कुण्डलिनी 





प्राणवाहक प्रमुख नाड्यां 

मनुष्य के शरीर में 72000 नाडियों का होना माना गया हे । बहुत से ग्रन्थों में 
असंख्य नाडियों का भी जिक्र आता हे । (जब संख्या बहुत अधिक हो, तो उसकी 
महत्ता को दशनि के लिए भी असंख्य कह दिया जाता हे । अतः यह कोई एेसा 
विरोधाभास नहीं है) । इनं नाड्यो में 15 प्राणवाहक नाड्यो को प्रमुख माना 
गया हे । इन पन्द्रह नाडियों को क्रमः सुषुम्ना, इडा, पिंगला, गांधारी, हस्तजिह्ा, 
पूषा, यशस्विनी, शूरा, कुहू, सरस्वती, वारुणी, अलम्बुषा, विश्वोदरी, चित्रा 
ओर शंखिनी नाम से जाना जाता है। 

इन पन्द्रह में से भी पहली तीन-- सुषम्ना इडा व पिंगला का विशेष 
महत्त्व हे । योग विद्या तथा कुण्डलिनी जागरण के सम्बन्ध में भी यही तीन नाडियां 
विशेष महततव को हें । इन्हीं तीन नाडयो के लिए ' त्रिवेणी ' शब्द का प्रयोग ग्रन्थों में 
हुआ हे । मूलाधार से अलग होकर चलती ये तीनों नाडियां आज्ञा चक्र मे मिलती हैं| 
अतः मूलाधार को ' मुक्त त्रिवेणी ' ओर आज्ञाचक्र को ' युक्तत्रिवेणी ' कहा 
गया है। जेसा कि चक्र प्रकरण में बता आए है, ' संगम", ‹ तीर्थराज, ! त्रिवेणी ' 
आदि शब्दों का मर्म वास्तव मेँ क्या हे । इसी ' युक्तत्रिवेणी ' ( आन्ञाचक्र ) को 
त्रिकूट ' भी कहते हैँ । कुछ विद्वान इसी को ' चित्रकूट ' भी कहते हँ जहां राम 
सीता सहित वास करते हँ । यानि ब्रह्म ओर माया या प्रकृति व पुरुष साथ-साथ 
रहते हे । बहरहाल...उपर्युक्त तथ्यों को इन तीनों नाड्यो का महत्त्व सिद्ध करने के 
लिए पुनः दोहराया गया हे । | 

इन तीन प्रमुख नाडियोँ मेँ भी सुषुम्ना अति अधिक महत्त्व वाली हे, क्योकि 
कुण्डलिनी शक्ति जागृत होकर इसी नाड़ी में गति करती हे । यह नाडी अति सुक्ष्म 
नली के समान गुदा के निकट से मेरुदण्ड से होती हुड ऊपर सहस्रार तक चली गड 
ठे । इसके प्रारम्भ स्थान से ही इसकी बाएं ओर से इडा तथा दाई ओर से पिंगला 
नाडी भी ऊपर गई है किन्तु ये दोनों नाडियां नथुनों पर आकर समाप्त हो जाती हें । 
( स्वर विज्ञान की दृष्टि से ये दोनों नाडियां महत्वपूर्णं हे । प्राणायाम प्रकरण में ' स्वर 
विज्ञान ' को चर्चा करेगे) । किन्तु सुषम्ना ब्रह्मरन्ध्र तक जाती है । ये तीनों नाड्यां 
आज्ञाचक्र पर मिलती है, अतः आज्ञाचक्र को ' तीसरा नेत्र ' भी कहा गया हे । 

59 











सुषुम्ना नाडी स्वयं में एक अति सूक्ष्म नली के समान हे । इस नली (सुषुम्ना) 
के भीतर एक ओर अत्यंत सृक््म नली के समान नाडी है जो “वचर नाड़ी ' कही गहं 
हे । ` वञ्च' नाड़ी में भी एक ओर नाड़ी जो " वज्रनाडी ' से भी सृक्ष्मतर हे, गुजरती है 
जो 'चित्रणी' नाड़ी के नाम से जानी जाती है। 'चित्रणी' नाडी के भीतर से भी 
मकड् के जाले से भी सूक्ष्म "ब्रह्मनाडी ' गुजरती हे । यही कुण्डलिनी शक्ति का 
वास्तविक मार्गं हे। इन अति सूक्ष्म याडियों का ज्ञान योगियों को ही सम्भव है। 
आधुनिक विज्ञान इस विषय मेँ पंगु व दीन हे । ये नाडियां सत्त्व प्रधान, प्रकाशमय 1 
व अद्भुत शवित्ियों वाली है तथा सूक्ष्म शरीर व सृक्ष् प्राण का स्थान हे। 


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| 
ध १९ 





बड़ा, पिंगला एवं सुषुम्ना नाडयो की स्थिति 
ये सभी नाडियां मेरुदण्ड से सम्बन्धित हं । जिन विशेष स्थानों पर अन्य 
नाडियां इनसे मिलती हं वे ' ज॑क्शन' ही चक्र कहे जाते है जो कि शरीरस्थ पावर 
स्टेशन ' हं, जेसा कि पहले बता आए हैँ । 
क्योकि सबका सम्बन्ध मेरुदण्ड से हे ओर सुषुम्ना नाडी मेरुदंड के भीतर से 
गुजरती हे । सुषुम्ना के भीतर से व्र, वच्र के भीतर से चित्रणी ओर चित्रणी के भीतर 
से ब्रह्मनाडी गुजरती है । यह ब्रह्मनाडी कुण्डलिनी शवित के प्रवाह का मार्ग है इस 
60 


4 


तथ्य से पाठक सहज ही अनुमान लगा सकते हैँ कि कुण्डलिनी के जागरण व 
संचालन में मेरुदण्ड का सीधा रखना कितना अधिक आवश्यक है । सीधे मेरुदण्ड 
मे ही इन समस्त नाड्यो के सीधे व तने रहने से कुण्डलिनी शक्ति का प्रवाह 
सरलता, सुगमता व सहजता से निरावरोध हो सकता हे । मेरुदण्ड का ज्जुके रहना 
प्रवाह मार्गं को सरलता में अवरोधक सिद्धहोताहै। 

पाठक जानते हँ कि दो बिन्दुओं को मिलाने वाली सबसे कम दूरी सरल रेखा 
होती है। अतः मेरुदण्ड सीधा रखकर विधिवत्‌ आसन पर बैठने से कुण्डलिनी 
अपेक्षाकृत सरलता से ही नहीं, नल्कि तीव्रता ओर शीघ्रता से अपनी यात्रा कर पाती 
हे । इसके अलावा मूलबन्ध आदिबन्धों का लगा होना भी इस काल मेँ आवश्यक 
होता है (इस विषय में हम कुण्डलिनी जागरण काल में रखी जाने वाली सावधानियों 
के अरन्तगत आगे चर्चा करेगे) अन्यथा बहुत-सी हानियां सम्भावित होती हैँ । अतः 
जेसा कि कुछ अल्पज्ञों का मत है कि जैसे मर्जी, जब मर्जी, जहां मर्जी बैठकर, 
लेरकर, खड़े होकर, अधलेटे होकर ध्यान करे ओर कुण्डलिनी को जागृत करे- 
यह “सहज योग ' है, यह सरासर भ्रामक, मिथ्या व अन्ञानपूर्ण है। अनुशासन, 
विधान तथा नियमों का बंधन न रहने से यह भले ही ओसत बुद्धि वाले लोगों को 
सरल, सहज व सुखद मालूम पड़ किन्तु कल्याणकारक व सफलदायक नहीं हो 


सकता, यह निश्चित है । प्रबुद्ध पाठक समञ्ञ सकते हैँ कि मालूम पड़ने ओर वास्तव 


में होने में बहुत अंतर होता है। 

जिस समय श्मशान में लकडियां या धर्मकटि पर टको में लदा माल तोला 
जाता है, तब एक-दो किलो इधर-उधर हो जाना कोई मायने नहीं रखता। किन्तु 
जब पंसारी की दुकान पर चीनी, दाल, चावल आदि तोला जाता है तब एक-दो 
किलो का अंतर बहुत मायने रखता है । अलबत्ता 5-10 ग्राम का अंतर तब कोहं 
मायने नहीं रखता । लेकिन जब सुनार के पास सोना या जवाहरात तुलवाया जाता है, 
तब 5-10 ग्राम का अन्तर बहुत मायने रखता हे । उस समय तो माशे, तोले, रत्ती का 
भी अन्तर मायने रखता है । इसलिए उनकी तराजू बिल्कुल * एक्यूरेट' व शीशे के 
नोक्स में रहती है, ताकि हवा से भी जरा-सी न हिल जाए। 

दाल सब्जी बनाते समय, बर्तन में डाला गया पानी दो चार चम्मच कम ज्यादा 
हो जाए तो अन्तर नहीं पड़ता, किन्तु दवाई बनाते समय पानी उचित अनुपात से कम 
ज्यादा हो तो दिक्कत हो सकती है । इसके विपरीत प्रयोगशाला में परीक्षण के समय 
किसी रसायन या विलयन में कोई खतरनाक, घातक या अतिसंवेदनशील अम्ल 
मिलाते समय नियत अनुपात से लद भर भी इधर-उधर हो जाना किसी अप्रिय घटना 
को जन्म दे सकता है । इसी प्रकार अन्य बहुत से उदाहरण दिए जा सकते हैँ जिनसे 
यह तथ्य साफ-साफ समज्ञा जा सके कि जितनी माईन्यूट (सूक्ष्म) कैलकुलेशन 
(गणना) मे हम जारएुगे, उतनी ही हमें एक्युरेसी (प्रतिपननता) की आवश्यकता 

61 


होती हे । जैसे मजी, जब मर्जी, जहां मर्जी, जितना मजी का सिद्धांत वहां लागू नही 
हो सकता क्योकि वह न सिर्फ में सही परिणाम पर नहीं पहुंचने देगा बल्कि हमारे 
व ओरो के लिए घातक भी सिद्ध हो सकता हे । 
रस्सी को लापरवाही से आ जा सकता है, बिजली के तार को नहीं ओर नंगे 
विजली के तार को (जिस पर रबर का सुरक्षा खोल न चढ़ा हुआ हो) च्ूने के लिए 
तो ओर भी सावधानी दरकार होती है । अतः सूक्ष्म किन्तु शक्तिशाली व चमत्कारी 
प्रभाव वाली उपलब्धियों को पाने के लिए वैसी ही सधी हई, सही दिशा मं 
नियमपूर्वक, निरंतर मेहनत कौ जरूरत होती हे । 
बिना निरंतर अभ्यास के, विना सावधानी रखे, विना नियमों का बंधन स्वीकार 
किए हम सुरक्षित रूप से सारईकिल तक चलाना नहीं सीख सकते, कुण्डलिनी 
शक्ति चालन की बात तो बहुत दूर की बात है। जब ऊपर चद्ना होता हे, जब 
पतली रस्सी पर चलना होता है, तब आंखें खोलकर, पूरी सावधानी बरत कर ओर 
एक-एक कदम फक-पूक कर रखना होता है । अभ्यास द्वारा दक्षता प्राप्त हो जाने 
के बाद फिर भले ही आंखें वंद भी रखें तो अन्तर नहीं पड़ता । हां, अगर नीचे गिरना 
चाहे ओर छत की मुंडेर ऊची न हो, फिर भले ही आंखें बंद कर, जब मजी, जहां 
मजी, जैसे मजी व जितना मजी चलँ बडी सहजता से नीचे आ गिरेगे । अतः योग 
के नाम पर ' सहजता' का दुमछल्ला लगने वाले ठगो से तो पाठकों को विशेष रूप 
से सावधान रहना चाहिए । 
यद्यपि हम इस चर्चा मेँ मूल विषय से भटक रहे रै, तथापि पाठक के 
मार्गदर्शन के लिए यह जरूरी समञ्च रहा हृं ताकि पाटक भ्रमित न हो, टगेँ न जाए 
ओर अन्त मे असफलता हाथ आने पर योग विद्या को ही अनास्था कौ दृष्टि सेन 
देखने लगे । गुरु बनने की योग्यता वाला योगी कभी दुकान खोलकर नी नैटता। 
जो दुकान खोलकर बैठा है वह तो व्यापारी है । वह भला लान को, योग को क्या 
जाने ? जो सामुहिक रूप से आए हए दर्शनार्थियों पर एक साथ कुण्डलिनी जागरण 
कराने का सव्नबाग दिखाते रै, जो सामूहिक ` शविततपात' की वात करते टँ. उनके 
वरि में संदेह होता है कि वे कुण्डलिनी जागरण या शवितपात का अर्थ भी समश्ते 
ह या नही । कुण्डलिनी जागरण न हुआ, गोया मंगफली बांटना हौ गया । उससं भौ 
अधिक अफसोस उन दर्शनाय कौ बुद्धि व आस्था पर होता टै, जो देसे धर्मगुरुथां 
कर चक्कर मं फसकर वहां पहुंच जाते हं, ओर उन लम्पटो क परां मं नाक रगड्ना 
अपना सौभाग्य मानते हं । इसका एकमात्र कारण अज्ञान टै । अतः सावधान । 
{ मंजिल पे पर्हुचना हे तो मंजिल शटनास बन । 
। वरना ये रहनुमा तुञ्चे द्रदर फिरांगे ॥ 


62 


11, 


क्या है वृण्ड नी? 


अब तक जो बराबर चर्चा में रही वह कुण्डलिनी शक्ति वास्तवमेंहे क्या? 
यह प्रश्न पाठकों को स्वाभाविक रूप से अब तक परेशान कर रहा होगा। मोटे तौर 
पर कहा जा सकता है कि कुण्डलिनी शक्ति मनुष्य कौ देह में सोया हु वह 
चमत्कारिक करंट, ऊर्जा अथवा शक्ति हे जिसके अभाव में शरीर के सभी चक्र 
(पोंवर स्टेशन) निष्क्रिय रहते हें । वे चक्र जो सक्रिय हो जाने पर अनेक चमत्कारिक 
प्रभाव व सिद्धियां देने वाले हैँ । इस कुण्डलिनी शक्ति को जागृत करने के विभिन्न 
उपायों में 'योग' भी एक उपाय हे। 
सजेलवनधात्रीणं यथाधारोऽहिनायकः। 
सर्वेषां योग तंत्राणां तथा धारोहि कुंडली ॥ 
अर्थात्‌- जिस प्रकार पर्वत, वन, सागर आदि को धारणं करने वाली पृथ्वी 
का आधार अनन्त नाग है, उसी प्रकार शरीर कौ समस्त गति, क्रिया शवित व समस्त 
योगतन्त्रौ का आधार कुण्डलिनी शक्ति है । 
ऋग्वेद में कही गई एक ऋचा वास्तव में कुण्डलिनी कौ ही महिमा दर्शाती 
हे, जिसका अर्थ है--' यैं जिसे जो चाहती हू, बना देती हूं । सम्राट, योगी, ऋषि 
 ( मंत्रटृष्टामंत्र का साक्षात्छार करने वाला ) ओर मेधावी बनाती हू ।' 
कुण्डलिनी शक्ति को ' कोसमिक एनजी, ' ' सर्पैट- पोवर ' अथवा विश्व व्यापिनी 
विद्युत शक्ति भी कहते हें । यह एक अग्निमय गुप्त शक्ति है अतः इसे ! सरपट फायर ' 
भी कठा गया है । आधुनिक विज्ञान के अनुसार प्रका को सबसे तीदर गति-- 
1,85,000 मील प्रति सेकंड है । किन्तु मर्मज्ञो के अनुसार कुण्डलिनी शक्ति 
प्रकार से भी तीव्र गति--3,45, 000 मील प्रति सेकड से चलती हे। 
कुण्डलिनी शक्ति का नाम "कुण्डलिनी ' होने का कारण इसका सादे तीन 
लपेटे खाया हुआ कुरिल आकार है । सर्पं के कुण्डली मारे रहने के समान ही यह 
शक्ति भी कुण्डली मारे मूलाधार में पड़ी रहती हे । 
पश्चिमाभिमुखी योनिर्गुद-मेदरान्तरालगा। 
तत्र कन्दं समाख्यातं तत्रास्ते कुण्डलिनी सदा ॥ 





63 





संवेष्टा सकला नाडीः सार्ध-त्रि-कुटिलाकृतिः 1 | 
मुर निवेश्य सा पुच्छः सुषुम्णा-विवरे स्थिता ॥ | 
उपरोक्त श्लोक से स्पष्ट है कि गृह्य प्रदेशमे गुदासे दो अंगुल पहले व 
लिंगमूल से दो अंगुल पहले, बीच मे (चार अंगुल विस्तार वाले मूलाधार मं) 
मूलाधार के कंद में दक्षिणावृत्त से सादे तीन फेरे लगाए हुए, नीचे कौ मुख किए | 
सर्पिणी के सदृश अपनी ही पुंछ को अपने मुख में दिए हुए सुषुम्ना के विवर मं 
कुण्डलिनी शक्ति का वास हे । यह सभी नाडियों को स्वयं मे लपेटे हुए हं । 
सम्पूर्ण ब्रह्मांड मे जितनी भी शक्तियां विद्यमान है, उन सबको ईश्वर ने मनुष्य 
शरीर रूपी पिंड मे एक स्थान पर्‌ एकत्रित कर दिया है । यही शक्ति कुण्डलिनी हे । 
गुदा व लिंग के बीच में स्थित योनिमंडल।कंद मे यह शक्ति वास करती हे । सुषुम्ना 
नाडी का मुख त्रिकोण साधारणावस्था मेँ बन्द रहता दै अतः यह शक्ति प्रवाह मं 
नहीं रहती, सुप्त या अविकसित अवस्था में रहती हे । इस सुषुम्ना नादी के दाएं-बाएं 1 
जाने वाली पिंगला व इडा नाडयो में प्राणशक्ति निरंतर प्रवाह में रहती हे ।.योग 
आदि उपायों द्वारा सुषुम्ना का मुख त्रिकोण खोलकर कुण्डलिनी का प्रवाह ऊपर क 
ओर किया जाता है । यह अतिसूक्ष्म ब दिव्य शवित वाली विद्युत ही कुण्डलिनी है, 
जो समस्त शक्तियो व चमत्कारो की आधारभूता है । ध्वनि तथा वर्णं कुण्डलिनी 
शक्ति के ही सार रूप हैँ अतः कुण्डलिनी विकास के ही मन्त्र है। 
ध्वनि को कारणभूता कुण्डलिनी से होने वाली अव्यक्त ध्वनि का सुक्ष्म रूप 
ही वाणी का ' पश्यन्ति ' रूप है । यही बाद में प्रकटावस्था में ' बेखरी ' रूप को प्राप्त 
होती हे । ` मध्यमा' वाणि के बीच कौ स्थिति ओर ' परा ' पश्यन्ति से पूर्व कौ स्थिति 
हे । इसी से मत्र (जो मनन करने से त्राण करते हैँ ) उत्पन होते हें । इसीलिए शब्द 
या अक्षर को भी ब्रह्म कहा गया हे । जैसा कि ' वृहद्‌ गन्धर्व तन्त्र ' मं कहा भी गया 


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3 ५५ । ¢ षि 


|. , +^}  ॥ नी 


शृणु देवि प्रवक्ष्यामि बीजानां देवरूपताम । 
मन्त्रोच्यारण मात्रेण देवरूपं प्रजायते ॥ 

अर्थात्‌-' सुनो देवि! मै बीजों कौ देवरूपता का प्रतिपादन करता हूं । मन्त्रौ के 
उच्चारण मात्र से (साधक को) देवता का (तत्संबधी ) सारूप्य प्राप्त हो जाता हे।' ` 
( वयोकि प्रत्येक अक्षर में देवता के विशिष्ट रूप कौ स्थिति होती हे) । 

इस तथ्य को ओर स्पष्ट रूप से समञ्ने के लिए हमें कुछ समय के लिए मूल 
विषय से हटना होगा। 

' आकार! (अ ) पूरी वर्णमाला का आरम्भ है । न सिर्फ आरम्भ बल्कि 
अन्त भी है ओर'अ' स ज्ञ' तक सम्पूर्णं वर्णो के साथ लिप्त दै। आप किसी भी 
वर्णं का उच्चारण करे उसके अंत मेँ " अ' की ६६६।।५०७ अवश्य आएगी- ठीक 
वैसे ही- जैसे सृष्टि ईश्वर से आरम्भ होकर अन्ततः ईश्वर में हौ लय होती ह । 

64 कुण्डलिनी शक्ति केसे जागृत कर --4 


अ, ^ {^ 1 एन 


इसके बावजूद सृष्टि मेंजो कुछ है ओर जो कुछ नहीं भी है, सभी में ईश्वर व्याप्त 
होता हे, फिर भी सृष्टि से अलग होता है । जैसे किसी भी वर्णं के उच्चारण में अ 
को फोलिंग प्रारम्भ या अन्त में अवश्य रहती है। विना “अ! की फीलिंग को जोडे 
कोई भी वर्णं बोला नदीं जा सकता । इसके बावजूद स्वयं *अ' (अकार) वर्णं वहां 
उपस्थित नहीं होता । उदाहरण के तौर पर * क" का उच्चारण करने में *क' के साथ 
अ' कौ फीलिंग (क्‌+अ) स्पष्ट होती है । किन्तु स्थूल रूप से तो वहां क” वर्णं 
होता हे, ' अ ' नहीं । (इसी प्रकार अन्य वर्णो का भी उच्चारण करके पाठक स्वयं 
शोध करें ।) 
अकार' (अ ) को अनुत्तर यां निरुत्तर इसीलिए कहा जाता है, कि 
इसके बाद कोई तत्त्व/वर्णं नर्ही बचता, जो इसमें लय न हो ! अर्थात्‌ मातृका ( वर्णमाला) 
को सृष्टि *अ' (अकार) से ही होती है ओर पूरी मातृका का संहार भी “अ! 
(अकार) मे ही होता है। इसी प्रकार ब्रह्म भी अनुत्तर या निरुत्तर इसी आधार पर 
कहा जाता है। इसीलिए गीतामें भी भगवान कृष्ण ने स्वयं कहा है- 
अक्षराणामकारोऽस्मि'- मे अक्षरों में अकार ' हू। 
(अध्याय--10, श्लोक 33) 
इसीलिए ' अक्षर ब्रह्य ' या ' शब्द ब्रह ' कहा गया! संगीत एक कला हे । एक 
साधना हे । एक पूजा है । संगीत को ध्यान (कन्सन्दरेशन) तथा ईङ्वर साक्षात्कार का 
एक प्रनल माध्यम माना गया है। एेसा है भी (यहां हम पोप संगीत की बात नहीं 
कर रहे, वह शोर मात्र है । उसमें रस व विभोरता नहीं उुखलता व अस्थिरता होती 
हे । क्लासिकल म्युजिक के श्रोताओं कौ गर्दन जमती है, नेत्र बन्द हो जाते हैँ । यह 
तन्मयता कौ, गम्भीरता से रसास्वदन की स्थिति होती है । इससे सिद्ध होता है कि 
श्रोता का मन, बुद्धि व इन्द्रियां वहीं पर स्थिर हो रहती हँ । किन्तु वैस्टर्न म्यूजिक/पोप 
आदि मे श्रोता के हाथ पैर व सम्पूर्णं शरीर हिलने लगता है, नेत्र फट पडते है । यह 
उक्खलता, बेचेनी व अशांति की स्थिति को दर्शाता है । यह एक मोरा उदाहरण है, 
जो आराम से समञ्चा जा सकता हे ।) क्योकि संगीत में संगति हे । क्योकि संगीत मे 
सुर हँ । (सुर ओर शोर में बहुत अन्तर होता है) । क्योकि संगीत में तल्लीनता है । 
क्योकि संगीत में रस ओर आनन्द है । क्योकि संगीत में शब्द है ओर शब्द से उत्पनन 
होने वाली तरे है । 
सम्पूर्ण सृष्टि  वाईब्रेशन्स ' (तरगों) से उत्पनन हुई है । इस सत्य को आधुनिक 
विज्ञान भी मानता है । भारतीय मत भी नाद ( तरगों) द्वारा सृष्टि का होना मानता है । 
अतः तरगों का सृष्टि के सृजन व विनाश मेँ स्पष्ट महत्त्व है । डाइनामाहइट का धमाका 
( तरे) विध्वंस कर सकता है । तो संगीत के सुर (तरगे) सृजन कर सकते है ¦ 
बारिश करा सकते हँ, पत्थर को पिघला सकते है, दीपक को जला सकते है, पशु- 
पक्षियों व मनुष्यो को सम्मोहित कर सकते हँ । पेड्‌- पौधों को पल्लवित व पुष्पित 
69 । 





कर सकते ह । व्यवित के मनोभावों को बदल डालना तो बड़ा स्थूल प्रभाव ह। 
आधुनिक विज्ञान वादी पेड-पौधों व अन्य जीवों पर संगीत से पड्ने वाले प्रभावों 
का अध्ययन कर चुके हँ ओर तो ओर संगीत द्वारा रोगों का निवारण एवं, चिकित्सा 
भी संभव है ओर आधुनिक विज्ञान भी इसे मानता हं । 
मिलिटरी बेन्ड, बिगुल, नगाड़ आदि एक जोश व वीरभाव का श्रोता में संचार 
करते हँ तो म्सिया (मृत्यु पर बजाया जाने वाला संगीत) दूसरा दी भाव पेदा करता 
हे । वहां करुणा व दुख स्वतः सुनने वालों में उत्पन हो जाता हे । शादी के अवसर 
पर बजाए गए संगीत का प्रभाव कुछ ओर होता है । वहां शहनाई व सारंगी जसं 
वाद्ययंत्रो का विशेष उपयोग रहता हे । पार्ट के संगीत का प्रभाव कुक ओर तथा लोरी 
के संगीत काकु ओर, 

(मिलिटरी बेन्ड कभी ञपताल, दादरा, रूपक आदि अपेक्षाकृत विलम्बित 
तालं पर नहीं बजाया जाता। लोरी कभी कहरवा, खेमा आदि द्रुत तालं पर नहं 
गाई जाती, क्योकि मिलिटरी बैड का उदेश्य उत्तेजना व जोश का संचार करना होता 
हे, जबकि लोरी क्रा उदेश्य शांति व स्थिरता का) बहरहाल | 

तरगों दवारा सषि मे, भावों मे, पदार्थो में परिवर्तन सम्भव है ओर संगीत में तरंग 
ही होती हे । पूरी तल्लीनता के साथ सही तरगों का सही मात्रा में सही वेलासिटी पर 
सही समय पर, सही समय तक, पूर्ण संगति के साथ प्रयोग आखिर साधक को ब्रह्म 
का साक्षात्कार भी करा सकता हे। जेसा कि कहा गया है-- 

द्रे ब्रह्मणी वेदितव्ये शब्दब्रह्म परं च तत्‌। 
शब्द ब्रह्मणि निष्णातः परं ब्रह्माधि गच्छति ॥। ॥ 

(शब्द ब्रह्म ओर परब्रह्म के भेद से ब्रह्य दो प्रकार का होता है । शब्द ब्रह्य मं 
निष्णात व्यक्ति परब्रह्म को प्राप्त कर लेता हे।) 

अब जरा *अ' (अकार) यानी पूर्वं वर्णित श्योरी का सम्बन्ध क्लासिकटा 
म्युजिक से जोडिए ओर सोचिए कि संगीत में क्यो केवल ' अकार" (अ) द्वारा ही 
सम्पूर्णं रागो व अलापों आदि को गाया जाता हे । इसे संगीत की भाषा में--' अलंकार 
पूर्वक गायन ' कहते हें । (जैसा कि पाठकों ने क्लासिक गाने बालों को कम-से- 
कम 'अ-अ-55535।' करते हुए तो सुना ही होगा) । आप अवश्य इस थ्योरी के 
तर्कसंगत व ठोस वेज्ञानिक होन के परिणाम पर पहूंचेगे। 

तो बात अक्षरत्रह्म/शब्दब्रह्य/स्वरब्रह्म की चल रहौ थी । ओर वर्णमाला के 
प्रथम वर्णं *अ' या 'अकार' कौ। देखिए प्रणव मंत्र मै भी अकार सर्वप्रथम है 
(अ+उ+म- 3) 

विभाग या भेद रूप से प्रतीत न होना ही अदित ज्ञान हे! यानि जब तक हम 
भेद करते हँ, अन्तर करते है, तब तक हमे दो या अधिक की प्रतीति होती दै किन्त 
भृद्‌ वृद्धि का नाश होते ही समस्त जगत को हम केवल एक ही रूप में देखते ह| 

66 


वर्णमाला या मातृका में विभिन बल्कि समस्त वर्णो में "अ" की प्रतीति स्पष्ट होते 
हए भीहम क, ख, ग, घ आदि का भेद व्यवहार कौ दृष्टि से करते हैँ । किन्तु सत्य 
तथ्य को समञ्ञ लेने के बादहम क, ख, ग, घ...आदि सभीमें"अ' हे एेसा अनुभव 
करने लगते हं । माया, व्यवहार ओर भेद समाप्त हो जाता है । * सभी कुछ ईश्वर हे" 
के भाव काउदय होता है। | 

इस अद्वैत को ' बिन्दु" भी कहा गया है1 क्योकि विन्दु मे विभेद नहीं 
किया जा सकता। उसके विभाग सम्भव नहीं है । समस्त अक्षरो की सृष्टि 
विसर्गं से होती हे, अर्थात्‌ विसर्ग भेद ज्ञान की सृष्टि करता है। वर्णमाला का 
प्रथम अक्षर "अ" जब नाद ओौर बिन्दु से संयुक्त हो जाता है, तब ईश्वर कौ शक्ति 
कहलाता है। क्योकि स्वर ओर व्यंजन सभीमें*अ' किसी-न-किसी रूप यें 
विद्यमान हे । इसीलिए इस शिव व शक्तिमय ` जकार ' (अ) को ही शब्द ब्रह्म के 
नाम से पुकारा जाता हे। (पाठक देखें कि रागो व अलापों मेँ केवल 'अ!' काही 
विलास शब्द ब्रह्य को साधना को प्रकट करता है) । 

इस प्रकार ' बिन्दु" जहां अद्वैत८“ब्रहम का प्रतीक है, वहीं विसर्ग ( : ) 
देतमाया का । अतः सम्पूर्णं सृष्टि विसर्ग के नाम से भी जानी जाती है । विसर्ग का 
अन्त किए बिना आत्मस्वरूप को अभिव्यक्ति नहीं हो सकती । "अ" (अकार) के 
साथ विसर्गं जुडने पर अन्य अक्षरो व मातृकाओं के संयोग से वर्णमाला का विकास 
होता हे । अतः वास्तविकता को पहचानने के लिए विसर्ग का 'अकार' (अ) मेही 
उपपंहार किया जाता हे। *अं' ओर “अः ' में से 'अकार' (अ) निकाल देने पर 
केवल बिन्दु ८) ओर (:) विसर्ग ही शेष रहते हैँ । यह वर्णमाला के माध्यम से सृष्टि 
रहस्य समङ्ने का प्रयास है । 

इससे सिद्ध होता है कि प्रत्येक अक्षर मे ब्रह्म व माया का निवास हेै। ब्रह्म का 
वास होने से ज्ञान तथा माया का वास होने से व्यवहार अक्षरो द्वारा सम्भव होता है। 
अपने विचार, ज्ञान, भाव आदि हम भाषा (अक्षरो) के माध्यमसेही दूसरे को 
समञ्ञा सकते व स्वयं भी समञ्ञ सकते हैँ । अतः भाषा के बिना व्यवहार भी सम्भव 
नहीं हो पाता। 

मन्त्रों के विन्यास मे भी अक्षरों काही प्रयोग होता हे। अक्षरो से शब्द, शब्द 
से वाक्य बनते हें । जब हम किसी देवता या शवित के " बीज ' (बीजमंत्र) की बात 
करते हैँ तब हम केवल एक अक्षर की बात करते हैँ । जबकि मंत्र में कई अक्षर 
सम्मिलित रहते हँ । इन मन्त्रो को मोटे-तौर पर हम दो भागों मेँ बांट सकते है- 
सार्थक व निरर्थक । मोटे तौर पर इसलिए कि शब्द की अर्थशक्ति मंत्रों में उतनी 
महत्वपूर्णं नहीं होती जितनी व्यंजना व लक्षणा शक्ति, ओर व्यंजना व लक्षणा शक्ति 
भी उतनी महत्वपूर्णं नहीं होती जितनी अक्षर कौ आकृति व उसके उच्चारण से 
उत्पन होने वाली विशेष तरंगे । किस देवता के गुण स्वभाव के अनुसार, किस 

67 


शक्ति के स्वभाव के अनुसार किस आकृति वाले, किस ध्वनि तरग वाले अक्षर 
अथवा बहुत से अक्षरों का प्रयोग किया जाएगा यह तत्त्वदर्शी ओर मंत्रदृष्टा ऋषि 
जानते थे । तदनुसार ही उन्होने मन्त्रो कौ रचना की ओर वे मन्त्र सम्बन्धित देवता का 
साक्षात्कार, सम्बन्धित शविति की कृपा अथव ्बन्धित सिद्धि के प्रदाता इसीलिए 
हो जाते है कि अक्षरों की रचना, आकृति, तर";  ! अपना एक सूक्ष्म विज्ञान है ओर 
प्रत्येक अक्षर जैसा कि बताया जा चुका है स्वयं में ब्रह्म व माया कौ शक्तियों से 
युक्त है । इसीलिए मंत्र को ' मंत्र" (यानी मनन करने पर त्राण देने वाले) कहा गया। 
मनन करने पर, केवल उच्चारण करने पर नहीं । क्योकि उच्चारण मात्र स्थूल 
प्रभाव उत्पन करेगा किन्तु मनन सुक्ष्म प्रभाव उत्पन्न कर साक्षात्कार कराएगा अतः 
त्राण होगा। | 
संभवतः यह पूरा प्रसंग कु पाठकों को-- बहुत भारी, क्लिष्ट या उलज्ा हज 
सा व शुष्क लगा हो, वरयोकि यह बात ही एेसी है । एेसे पाठकों को अति संक्षेप मं 
मोटे तोर पर यह निष्कर्षं समञ्च लेना चाहिए कि-- 
किसी भी सत्ता की पहचान या व्यवहार उसके तीन गुणों द्वारा ही 
सम्भव होता दै। पहला नामपद्‌, दूसरा रूप.८आकार ओर तीसरा 
गुणावगुण,स्वभाव । इन तीनों के अभाव में किसी भी वस्तु या सत्ताको जाना 
नहीं जा सकता। अगर हम नाम ले ' संतरा' तो सुनने वाले कौ समञ्च मेँ आ जाता टं 
किहमकिसफल की बात कर रहे हैँ । यदि हमें नाम न पताहो तो हम संतरे कौ 
तस्वीर दिखाए या उसके रूप/आकार का वर्णन करं कि भई, संतरी रंग का गोल 
गोल फल है । छिलका छीलने पर अन्दर से फाकिं निकलती है, जिनमें बीज भी होते 
हतो भी सुनने वाला समञ्च जाएगा कि बात संतरे की हो रही हे अथवा हम उसका 
गुण स्वभाव बताएं कि खटा मीठा होता हे, उसका रस निकालकर पीया भी जाता 
हे- आदि, तो भी सुनने वाला करीब-करीब समञ्च जाएगा कि बात संते कौ हो 
रही हे । किन्तु यदि हम इन तीनों ये से किसी उपाय को अमल मेँ न लाएं तो संतर 
को पहचाना नहीं जा सकता। 
ठीक इसी प्रकार भगवान, शक्ति या देवता का हमे नाम तो ज्ञात होता है । गुण 
स्वभाव भी मालूम होते हे । परन्तु रूप या आकार पता नहीं होता । लेकिन जब हम 
उस शक्ति, देवता या ईश्वर के नाम, गुण, स्वभाव आदि का बार-बार तन्मयता 
पूर्वक चिन्तन करते हँ, शनैः घनैः उसका रूप या आकार प्रत्यक्ष होने लगता है-- 
यही मन्त्र विज्ञान की, जप की तथा कीर्तन आदि के प्रभाव का रहस्य दै। 
किन्तु मनन होना चाहिए, ध्यानपूर्वक चिन्तन होना चाहिए तभी रूप का प्रकटीकरण 
या साक्षात्कार सम्भव हे | केवल रटने या चिल्लाने से संस्कार तो पक्का होगा, अहं 
भी पदा हागा, परन्तु वास्तविक सफलता नहीं मिलेगी । 


68 
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महाशक्ति 
निराकार स्वप 


अन छूट गए विषय कुण्डलिनी शक्ति को आगे बढाते हे, जो अक्षर व मन्त 
की चर्चा के कारण बीच ही में रह गया था। व्यवधान के लिए मुञ्े खेद हे । किन्तु 
यह विषय इतना गहन है ओर अपने साथ इतने विषयों, उपविषयों ओर उनके भी 
भेदो व उपभेदों को लपेटे हुए है, कि समग्रता कौ दृष्टि से सभी को दूना, समञ्चना 
आवश्यक हे । विशेषकर उन प्रसंगो पर जहां कोई घुन्डी या कई घुन्डियां आ जुडं-- 
उसे पाठकों के लिए सुगम्य बनाने के लिए मूल विषय से अन्यत्र भी अपनी 
सामर्थ्यानुसार छलांग लगाना जरूरी लगने लगता हे । इससे बहुत से पाठक लाभान्वित 
होगे, किन्तु बहुतों को अवरोध-सा महसूस होगा। अवरोध महसूस करने वाले 

69 





अपने पाठकों के प्रति ही मैने खद प्रदर्शन कर, क्षमा मांगी हे । हालांकि जानता हू कि 
एेसे अवसर पुनः आने पर मेँ पुनः एेसा ही करूगा--मजवृरी हे । लेकिन पुनः क्षमा 
याचना भी करूगा। बहरहाल । 
कुण्डलिनी शक्ति ' ह ' अक्षर को भाति साढ़े तीन लपेटे खाए हुए नीचे 
मुख किए हए, अपने मुख में अपनी पुंछ दबाए उलटी पड़ी सर्पिणी कौ भांति 
सुषम्ना के विवर ये, मलाधार मे सोई पड़ी रहती हे 1 सुषस्ना नादी का मुख-- 
त्रिकोण बन्द रहने के कारण उसकी गति ऊपर कौ ओर नहीं हो पाती । किन्तु उपाया 
द्वार ऊर्ध्वगति प्राप्त कर लेने पर वह चरका खाकर भूखी सर्पिणी-सी तीव्रता के साथ 
ऊपर बढती हे । वह अदभुत शक्तियों से युक्त कुण्डलिनी जिस-जिस चक्र का 
भेदन कर आगे बढती जाती है, वही चक्र सक्रिय होकर अपने-अपने चमत्कारिक 
प्रभाव दिखाने लगता हं । यह संक्षेप मं हमने अव तक जाना । इतना जान लने के बा 
सहज ही मन में कुण्डलिनी शक्ति को जागृत करने के उपाय जानने की बात उत्पन 
होती दे। किन्तु उन सबको चर्चा से पूवं इस बात कौ चचा कौ जानी आवश्यक 
कि कुण्डलिनी शक्ति कौ इस कुटिल आकृति का कारण क्या हे ? क्यों यह सादे 
तीन कुंडल मारकर रहती 
कुटिल आकार का कारण 
कुण्डलिनी समस्त विश्व की जननी, ईश्वरीय शक्ति ठै । इसी का संयोग होने 
^ से शिव सृष्टि करने मेँ समर्थं होते हैं । इसी को प्राणशविति भी कहते हें । यह शक्ति 
शरीर में "हकार ' रूपी नाद के स्वरूप में सदा नदन करती है । (अपने दोनों कान द 
करके इस नदन व्यापार को सुना जा सकता हे ।) इसी के माध्यम से योगी परमप 
अर्थात्‌ ब्रह्य मेँ प्रविष्ट हो जाता है । यह साढे तीन लपेटे खाकर विना आधार के ही 
सुषुम्ना विवर में निवास करती हे । 

' विज्ञान भरव, ग्रन्थ के अनुसार हंस गायत्री का अजपा जाप प्रत्येक जीव म 
निरंतर चलता है । प्राण (छोडी गई श्वांस) के साथ (सकार ) ओर अपान ( खींचे 
गए वांस) के साथ (हकार) ' हंस ' उच्चारण अनचाहे ही होता रहता हे । इनमें प्राण 
ओर प्रकाश (सूर्य/दिन) का प्रतिनिधित्व ' सकार ' ओर जीव (अपान) तथा "क्षपाः 
(रात्रि) का प्रतिनिधित्व "हकार ' करता हे । प्राण कौ गति स्वाभाविक रूप से बाहर 
की ओर तथा अपान कौ गति स्वाभाविक रूप से निरंतर भीतर कौ ओर चलती है। 

अपान को जीव इसलिए कहा जाता हे कि प्राण के बाहर निकलने के बाद 
जव अपान भीतर प्रविष्ट होता हे तभी शरीर में जीवात्मा विद्यमान होने का बोध होता 
ठे । अपान के प्रवेश न पाने पर शरीर शव कहा जाएगा। 

जिस प्राणवायु का अपान अनुवर्तन करता है उसकी गति हकार ( ह ) 

कौ भांति टेदी-मेदी है । अतः यह जीव भी अपनी इच्छानुसार प्राण के अनुरूप 


70 


ॐ 


ही कुटिल ( घुमावदार ) आकृति धारणं कर लेता हे। जीव कौ यह वक्रता 
( कुरिलता“घुमावदार होना) परमेश्वर कौ स्वतंत्र इच्छा शक्ति काही खेल हे । प्राण 
शक्ति कुण्डलिनी में रहने के कारण कुटिलाकार हो जाती हे। इस प्राण 
शक्ति के भीतर विद्यमान जीव काल के अग्रभाग के सौवि हिस्से के समान 
सुक्ष्म हे । उसकी कोई आकृति नहीं है, तथापि प्राण कौ वक्रता के कारण जीव में भी 
ओपाधिक वक्रता मान ली जाती है। वास्तवमें जीव कुटिल नहीं, प्राणी 
कुटिल दहे। | | 

| कुण्डलिनी शक्ति या प्राणशक्ति की कुटिलता का कारण यह है कि इसका 
एक लपेटा बाई नाडी इडा ओर दूसरा लपेटा दाई नाड़ी पिंगला में हे । इस प्रकार 
उसके दो वलय बनते ओर बीच से सुषुम्ना नाड़ी जाती है। जब प्राण यहां से 
हदयाकाश में चढता है तब * हम ' वर्णं कौ ओर जब वह द्वादशान्त से उतरता है तन 


 'सः ' वर्ण की उत्पत्ति होती है । इस प्रकार ' हंसः ' या ' सोहं ' (सोऽहमं अर्थात्‌ † वह 


मेँहू1') इस मंत्र का अजपा जप श्वांस- प्रश्वांस के साथ निरंतर चलता रहता हे 
' हंसाः ' से सम्बन्धित दो मन्त्र ' अहंसः ' ओर ' सोऽहम्‌ ' है । जिसके अर्थं "म वह हू 
ओर ' वह मेँहू' है | 

स्पष्ठ है कि इस प्रकार का जप जीव में ही होता है, ईश्वर में नहीं । 
क्योकि वोयैंहूयामेवो हं इस तरह के विमर्शं परमेश्वर में नहीं होते। 
परमेश्वर दशा में तो पूर्णहन्ता रहती है । यह मेरा है । वह मेरा नही हे । इस प्रकार 
के छोडने ओर लेने के, प्राण ओर अपान के धर्मो के कारण ही जीव 'हंस' 
कहलाता हे । | 

उपर्युक्त विवरण यद्यपि अजपा हंस गायत्री के जाप के संदर्भ मं ' विज्ञान 
भैरव ' में आया है । तथापि कुण्डलिनी व प्राण के कुटिलाकार के कारण को ईगित 
करता है, एवं ज्ञानवर्धक ओर योग विषय से सम्बन्धित होने के कारण इस प्रसंग को 
संक्षेप में पूरा कह दिया गया है । पाठक इससे अवश्य लाभान्वित होगे । 

कुण्डलिनी के कुटिल आकार के रहस्य को जान लेने के बाद हम 
विभिन तन्त्र ग्रन्थों के प्रकाश में शिव मंदिरों में कुण्डलिनी के अप्रत्यक्ष पूजन 
का सिलसिला भी समञ्ये। 

अग्निरूपा कुण्डलिनी मूलाधार के अग्निकुंड.मे, स्वर्य॑भू महालिंग पर सुप 
सर्पिणी के समान साढे तीन फेरे लगाकर लिपी हुई है मर्मज्ञो का एेसा कहना हे । 
शिव मन्दरो तथा शिवालयों मे शिवलिंग पर इसी प्रकार सर्पिणी लिपटी हुई 
दर्शाईं जाती है । ( लिंग जहां स्थूल रूप से सृजन क्षमता तथा बीज शक्ति का 
प्रतीक है, वहीं सुक्ष्म रूप से ब्रह्म की गुप्त शक्तियों का प्रकटीकरण करने 
वाला भी हे। क्योंकि छिपी हुईं वस्तु का ज्ञान करा देने वाला ' लिंग ' कहलाता 
दे । जेसा कि ' मालिनी वार्तिक ' मे कहा भी गया है-' लीनं गमयतीत्युक्तेलिद्घ- 


71 


४ 


निर्वचनं यतः ।' ) यह लिंग वास्तवे में कुण्डलिनी शक्ति च्छा ही प्रतीक हे। 
पाठकों ने देखा होगा कि शिवलिंग पर एक तिपाई पर रखे गए कलश के छिद्र 
द्वारा निरन्तर जल या दूध का अभिषेक होते रहने कौ व्यवस्था शिवालयों व मंदिरों 
मे होती हे ! मोटे तौर पर यह अभिषेक या पूजन विधि परम्परागत तरीके से चली आ 
रही है ओर इसका कारण पुजारी लोग नहीं जानते, किन्तु कलश द्वारा अनवरत जल 
या दुग्ध के इस लिंगाभिषेक का उदेश्य क्या हे ? क्यो यह कलश तिपाई पर ही रखा 
जाता है 2 आदि प्रश्नों का उत्तर इसके सुक्ष्म रहस्य को जानने से मिलता हे । 
सहस्रार चक्र मे लगातार अमृत स्राव होते रहने का वर्णन सभी योग 
ग्रन्थों मे आया है! हमने भी चक्र प्रकरण मै इस तथ्य को पाठकों के सम्मुख रखा 
हे । कुण्डलिनी शक्ति को मूलाधार से जागृत कर, इड़ा, पिंगला व सुषुम्ना को 
आधार बनाकर खहस्नरार तक लाया जाता है ओर अमृत पान कराया जाता हे। 
सुप्र कुण्डलिनी सर्पिणी की भांति अग्निकुंड में पड़ी निरंतर विष उगलती 
रहती हे जिससे जलन उत्पन होती है ! वासना को अग्नि शांत नहीं हो पाती 
ओर शारीर व मन की दिव्य शक्तियों व सम्पदाओं का विना होता रहता हे। 
किन्तु कुण्डलिनी को जागृत कर, साध कर सहस्रार में ले जाकर अमतपान 
कराने से कुण्डलिनी सहित साधक का पोषण होता है । यही इस समस्या का 
एकमात्र निश्चित समाधान हे । | 
शिवलिंग पर अनवरत दध या जल के तिपाई पर रखे छिद्र युक्त कलश 
हाय बूद-बृंद अभिषिक्त होना-- हमें यदी उपाय समञ्ाता हे । शिवलिंग व सर्पं 
जहां अग्निकुंड में स्थित कुण्डलिनी के प्रतीक हैँ, वहीं कलश सहस्रार का । जिसमें 
से निरंतर ञ्ञरता दूध या जल ' अमृतस्राव' का प्रतीक है। तिपाई वास्तव में इड, 
पिंगला व सुषुम्ना का प्रतीक हे । जो सहस्रार या कलश को, उसके स्राव को लिंग 
र ४८ से जोडते हे । अतः यह अप्रत्यक्ष रूप से योग प्रणाली को एक 
सांकेतिक विधि से समद्चाने का प्रयास दै । , 
देवताओं दवारा किया जाने वाला ' सोमपान ' भी वास्तव में कुण्डलिनी 
शक्ति के चरम विकास द्वारा ' अमरत्व ' प्रासि की ्योरी कौ ही पुष्टि करता दै । 
रावण कौ नाभि में अमृत कुण्ड का होना उसकी कुण्डलिनी शक्ति कौं 
प्रभावशाली व उत्कृष्ट स्थिति का प्रतीक है। किन्तु उसका ` दशानन! ( दस 
छख वाला) होना इस तथ्य को प्रकट करता है कि तप द्वारा कुण्डलिनी 
जागृत कर लेने के बाद भी वह दसो इन्दियों से बहिर्मुखी था। भोगी था । शुद्ध 
भोगी था। त्रत्त हई आलौकिक शक्तियों को वह दसं इद्धियों से खुला भोग कर 
निष्कासित कर रहा. था। योगी के समान उसने अपनी इन्द्रियों को कच्ुए के अंग 
सिकोड़ लेन कौ भांति अन्तर्मुखी नहीं किया था। अतः उसके अमृतकुंड के नष्ट होते 


ही उसका विनाञ्च निश्चित था। 


2 


राम-चेतन या ब्रह्य के प्रतीक है । सीता माया या प्रकृति की। दोनों के 
साथ रहने वाला लक्ष्मण ` जीव का प्रतिनिधित्व करते है। शिव ज्ञान का, 
पार्वती श्रद्धा का, हनुमान विज्ञान का ओर रावण परम भोगी का, दशरथ मन 
का आदि । भोगी सदेव माया के फेर में पडकर विनाश को प्राप्त होता है। जेसा कि 
रावण के साथ हुआ । ज्ञान के अभाव में चेतना तथा चेतना के विना ज्ञान संभव 
नहीं अतः शिव राम का पूजन करते ओर उन्हें गुरु मानते दहै, तो राम शिवका 
पूजन करते ओर उन्हें गुरु मानते हे । ज्ञान से विज्ञान का जन्म होता है। अतः 
शिव से हनुमान कौ उत्पत्ति हई । विक्लान में तर्क प्रबल होता हे । श्रद्धा का स्थान 
वहां नहीं होता। अतः हनुमान के जन्म मे पार्वती का योगदान नहीं हे । (उनका 
महाशक्तिशाली होना विज्ञान की शक्ति प्रदर्शित करता है किन्तु वानर होना चंचलता 
का, उक्कुखलता का सूचक है ।) पार्वती का योगदान गणेश के जन्म में हे क्योकि 
श्रद्धा ओर विश्वास से कल्याण या मंगल उत्पनन होता हे ओर गणेश मंगल के 
देवता दें । 
धर्म शास्त्रों में स्थान-स्थान पर एेसे ही सांकेतिक तरीकों से कथाओं व चरित्रं 
के माध्यम से जीवनदर्शन, अध्यात्मिक व योग विषयक ज्ञान को पिरोया गया हे । 
अतः पाठकों को प्रत्येक धर्मग्रन्थ को ध्यान पूर्वक पढना ओर मनन करना चाहिए 
जिससे गागर में छिपे सागर का रहस्य समज्ञा जा सके। 
अब हम कुण्डली/कुण्डलिनी जागरण के उप्रायों तथा जागरण प्रक्रिया को 
चर्चा करेगे । साथ ही कुण्डलिनी जागरण काल में उपस्थित होने वाले सम्भावित 
खतरो, उनसे बचने के लिए रखी जाने वाली सावधानियों की भी विस्तृत चर्चा 
करेगे । 
यह ध्यान. रखिए कि इतनी बड़ी शक्ति या उपलब्धि पाने कौ प्रणाली भी 
उतनी ही बडी व गम्भीर होगी । फल की महत्ता के अनुसार ही परिश्रम दरकार होता 
है । कुण्डलिनी जागरण एक महाशक्ति को स्वयं में विकसित करना है । यह कोहं 
बच्चों का खेल नहीं है। न ही इतना सरल है कि पुस्तक पठ्‌ लेने मात्रसेया 
तथाकथित विशेषज्ञ ' गुरुओं ' के फुसलाने-बहलाने भर से सम्भव हो सके । शरीर व 
मन मे, स्वयं में उस शक्ति को धारण करने को पात्रता उत्पनन होने के बाद, संयम, 
ध्य व विधानपूर्वक, निरंतर साधना करने पर ही कुण्डलिनी जागरण सम्भव है । वह 
भी तब, जब आप ईश्वरीय कृपा के पात्र सिद्ध हो जाएं । इस कार्य मे पुस्तक मात्र 
एक उपदेशक, मार्गदर्शक ओर प्रेरणा स्रोत का एवं जिज्ञासा शांति या ज्ञान प्रदान 
करने का ही कार्य कर सकती है, वह भी तब जब पाठकों ने सही पुस्तक का चुनाव 
किया हो । लेकिन प्रैक्टिकल के लिए किसी सुयोग्य, समर्थ, सिद्ध व अनुभवी गुर . 
को आवश्यकता सदा होती है, विशेष कर योग मार्ग में| 


73 





मं इस गृढ॒ विषय पर कु लिख पाने का साहस करपारहादह्, तो मात्र 
इसलिए कि विभिन्न ग्रन्थो के अध्ययन, मनन तथा विभिन्न गुणीजनों एवं विद्वानों 
के संगति एवं उनके साथ तत्त्व चर्चा का सोभाग्य मुच्च निरंतर प्राप्त होता रहा हे । तिस 
पर योग ज्ञान के मर्मज्ञ स्वयं मेरे आदरणीय पिता का अनुग्रह, मार्गदर्खन एवं विमर्शं 
मुञ्चे पूर्वजन्मों के सुफल स्वरूप सहज ही प्राप्त हे । लेकिन वास्तविकता यह हे कि 
प्रविटकल को दिशा में मेरा अनुभव नगण्य हे । अतः ' गुरु" बनने कौ योग्यता तो दूर 
विधिवत ' छात्र" बनने कौ पात्रता भी मुञ्घमें नहीं हे । में जिन परम विद्वान अपने 
पूज्यपिता को इस क्षेत्र मे अपना गुरु मानता हवे मरे पिता डो. कशव कौशिक 
स्वयं अपने को ' गुरु" बनने के योग्य नहीं पाते । फिर ओर विद्वानों का तो कहना ही 
क्या} इस युग मे सच्चे गुरु का मिल पाना वैसे ही दुर्लभ हे जेसे सच्चे शिष्य का मिल 
पाना | विना ईश्वर कौ विशेष अनुकम्पा के साधक को गुरु प्राप्त नहीं हो सकता ओर 
विना ज्ञान प्राप्त किए साधक गुरु को पहचानने वाला नहीं बन सकता । अतः गुरु को 
पहचान के लिए भी स्वयं ज्ञानी होना आवश्यक है । 
इसीलिए ' ज्ञान के समान पवित्र कुछ नहीं हे ' एेसा माना गया हे । ओर स्वयं 
भगवान शिव ने "विज्ञान भरव ' में पार्वती से कहा है-- 
ग्रामं राज्यं पुरं देशं पुत्रदारकुटुम्बकम्‌। 
सर्वमेतत्‌ परित्यज्य ग्राह्यमेतन्मरगेक्षणे ॥। 
हे मृगनयनी (पार्वती ) । ग्राम, राज्य, नगर, देश, पुत्र, स्त्री ओर कुटुम्ब आदि 
सबको छोडकर (प्राथमिकता न देकर) इस रहस्यमय, अत्यन्त गुप्त, पर उत्कृष्ट 
(योगविद्या) ज्ञान को ग्रहण करना चाहिए । 
किमेभिरस्थिर्देवि स्थिरं परमिदं धनम्‌ 
प्राणा अपि प्रदातव्या न देयं परमामृतम्‌ 
| (क्योकि हे देवी ! राज्य, ग्राम आदि उक्त पदार्थ तो अस्थिर हँ (सदा मनुष्य 
# साथ नहीं रह सकते) अतः समस्त विपत्तियों को दूर करने वाले अक्षय व स्थिर 
सान काही सब उपायों से संग्रह करना चाहिए ओर इस परम उत्कृष्ट ज्ञान को प्राप 
हो जाने के बाद अयोग्य व्यवित को कभी नहीं देना चाहिए ।) 
सान हौ चित्त व मस्तिष्क में प्रकाश करता है । तप से संस्कार व जन्मान्तरयौ के 
नि एव आत्मा पर चदे मल करते है ओर व्यक्ति कौ अपने स्वरूप का बोध होता 
९ । अतः ज्ञान के बाद तप का महत्व है । स्वयं ब्रह्मा भी (विभिन पुराणों के 
अनुसार ) उत्पन होने के बाद अनंत को देख संशय मे पड गए थे किमे कौन हू? 
कला हू ^ यह अनत क्या हे ? इसका आदि अन्त कहां हे ? आदि । तब आकाशवाणी 
नं ब्रह्मा को ' तप कर' एेसा आदेश दिश था। तप के बाद ब्रह्मा न केवल 
समस्त रहस्यं को सम्म कर परम ज्ञानी बन सके बल्कि सृष्टि भी कर सके । 
तप का एेसी ही महिमा हे। 
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' गुरु ' नने के लिए ज्ञान ओर तप दोनों में ही उत्कृष्ट योग्यता होनी 
आवश्यक है 1 गुरु हम कहते किसे हैँ 2 गुरु काअर्थक्याहै? जो गुरु (भारी) हो ` 
अर्थात्‌ जिसके पास अथाह ज्ञान हो, गम्भीर हो । थुथला या पोपला (हल्का) न हो। 
मात्र गाल बजाने वाला न हो (क्योकि ' थोथा चना, बाजे घना ') । इसके अलावा 
जिसके पास “गुर! (गुण) हो । ज्ञान के साथ तकनीक भी हो। जो पूर्ण हो । परिपूर्ण 
हो । जिसक पास देने के लिए कुक हो । देने के लिए कुछ उसी के पास होगा जो पूर्ण 
होगा। अधूरा किसी को क्या देगा ? उसे तो अभी खुद जरूरत है । अतः ज्ञान ओर 
तप, ध्योरी ओर प्रक्टिकल, विद्या (गुण) ओर तकनीक सभी दृष्टयो से जो परिपूर्णं 
हो, भारी हो, गुणी हो। साथ ही स्वार्थ से रहित ओर उपकार का इच्छुक हो वही 
'गुरु' कहलाने का अधिकारी हे । अपने ज्लान को अनुभव द्वारा जो सिद्ध कर चुका 
हो वही ' गुरु ' होने का अधिकारी हे । मात्र वाहवाही लूटने के लिए, पैर पुजवाने के 
लिए ज्ंड गाडने या प्रसिद्धि पाने के लिए, अपनी जेबें भरने के लिए गही पर बैठकर 
टोग करने वाले तथाकथित गुरु तो अभी स्वयं नाम, पैसा, प्रशंसा आदि के भूखे हँ । 
अधूरे है, पूर्णं नहीं हें । वे भला किसी को क्यादेगे ? देने के लिए उनके पास है 
क्या?्वेतो खुद लेने के लिए बेठेहें। वे डाकुओं या लुटेरों से भी नीच हे क्योकि 
डाकू कम-से-कम खुलकर तो लूटता है । ये धर्मगुरु तो ' विरक्त" होने का धोखा 
देकर ठगते हें | 
जब सूर्य उदित हो जाता हे, सर्वत्र प्रकाश फेल जाता है, जब शक्ति का उदय 
होता हे, स्वयं तेज उत्पनन हो जाता हे । जब फूल खिलता है, खुद-ब-खुद खुशबू 
फेल जाती ह । जब योग्यता उत्पनन होती है, प्रसिद्धि स्वयं हो जाती है । उसके लिए 
टोल नहीं बजाना पडता, डंका नहीं पीटना पडता । इश्तहार लगाना पडता है उसे 
जिसके पास थोडा-सा कुछ है, या नहीं भी हे, किन्तु वह बाको थोडे से के मालिको 
या ज्यादा के मालिको से कम्परीशन चाहता है। अपना नाम व पहचान बनाना 
चाहता है । अपनी दुकान पर भीड लगाना चाहता है । इसके लिए वह प्रपंचों का 
सहारा लेता है । शास्त्र कहते हैँ कि स्नान शुद्धता व स्वच्छता के लिए आवश्यक है । 
प्रपंच करने वाला सोचता है, आजकल स्नान का खेडा कोई पालना नहीं चाहता । 
न तो उसके पास समय है, न धर्यं है, न संयम ओर न लगन है । वह स्वच्छ शुद्ध तो 
होना चाहता है लेकिन नियमों कौ पाबन्दियों का पालन नहीं करना चाहता । वह इस 
बात का लाभ उठाकर इस तरह बरगलाता.है कि ` आओ, मेरे पास आओ मेँ वेक्यूम - 
क्लीनर से तुम्हें स्वच्छ शुद्ध करूगा। नहाने का द्ंज्ञट नहीं, नियमों की जरूरत नही, 
' सहज मार्ग ' अपनाइए । सिर्फ गंगाजल पीजिए ओर स्वच्छ शुद्ध हो जाओगे । जौ 
इतना भी न करना चाहें वे मेरे आशीष मात्र से ही पवित्र हो जाएंगे । फीस कुछ नहीं, 
अपनी श्रद्धा भक्ति अनुसार ।' ओर लोग पागल हो जाते हैँ, क्योकि वे पाना तो फौरन 
चाहते हैँ मगर करना कुछ नहीं चाहते। इसलिए बिना किए याकम किएदही जो 
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दिलाने का दावा करता है, वे कूदकर उधर जा पहुंचते हैँ ओर प्रपंच करने वाले की 
दुकान चल जाती हे। | 
ज्ञान क्योकि किसी को नहीं ओर पाना हर कोई चाहता है । धैर्य किसी में नहीं, 
परिश्रम कोई नहीं करना चाहता लेकिन शीघ्र-से-शीघ्र उपलब्धि पाना चाहता हे । 
अतः वह इन ठगो के मायाजाल में जा फसता हे । ज्ञान न होने के कारण उन्हें जैसे 
मरजी बरगलाकर, बड़ी उपलब्धि ' सहजता' से दिलाने का दावा कर ये महाठग 
अपना उल्लू सीधा करते हें । 
परिणाम स्वरूप इन तथाकथित ' गुरुओं' का तो भले ही कुछ भला होता हो, 
इनके चेलो को अन्ततः पक्ताना ही पडता है । इतना भी हो तो बर्दाङ्ति किया जा 
सकता है । किसी की चलती ' दुकान ' से हमें कोई परेशानी नहीं, भले ही वहां लूट 
या ठगी होती हो। क्योकि यह तो लुटने वाले के ही अज्ञान, अविद्या व अधैर्य का 
परिणाम हे । दिक्कत इस बात से होती है जन लुटने वाले को अपने लुट जाने का 
ज्ञान होता हे । तब गुरु-शिष्य परम्परा के प्रति, अध्यात्म व ज्ञान के प्रति एक अश्रद्धा, 
घृणा व अविश्वास का भाव उत्पन होता हे ओर फिर प्रचारित भी होता है । नतीजे 
के तोर पर एक गलत परम्परा जन्म लेती है ओर शेष जनता दिशा भ्रमित हो जाती 
हे। इसलिए आदमी की हत्या उतना बडा अपराध नहीं कहा जा सकता क्योकि 
उसमें एक व्यक्ति कौ हानि होती है, एक परिवार को दुख पहुंचता हे किन्तु सिद्धांत 
को हत्या बहुत गंभीर ओर जघन्य अपराध हे । क्योकि उससे पूरे समाज कौ हानि 
होती हे। पूरी पीटी को दुःख व क्लेश भुगतने पडते हें । 
अतः जो शास्त्र सम्मत नहीं, वह ज्ञान, गुरु या आदेश भरष्ट है । उचित 
अनुचित की कसौटी का निर्णय शास्त्र ही कर सकता है । जेसा कि बहुत से 
स्थानों पर कहा भी गया है- 
अविद्यायामन्तरे वर्तमानाः स्वयंधीराः पण्डितं मन्यमानाः । 
जङ्घन्यमानाः परियन्ति मूढा अन्धेनैव नीयमाना यथान्धाः ॥ 
--( मुण्डकोपनिषद्‌ ) 
अर्थात्‌-अविद्या मेँ स्थित होकर भी स्वयं को बुद्धिमान बनने वाले (दम्भी) 
ओर अपने को विद्वान मानने वाले (पाखंडी) (जो विद्या बुद्धि के अभिमान मे 
शास्त्र व महापुरुषों के वचनो कौ अवहेलना करते हैँ, यानि शस्त्र कुक भी कटे, मेरा 
यह मत हे एेसा कहते है) वे मूर्खं लोग बार-बार आघात सहन करते हुए (कटु 
अनुभवं से हानि उठाकर) ठीक वैसे ही भरकते रहते हैँ जैसे अंधे के द्वारा ही 
चलाए जाने वाले (मार्गदर्शन करने वाले) अन्धे (अपने लक्ष्य को प्राप्त न कर टोकरें 
खाते रहते हे) | 
विभुमात्मानं मत्वा धीरो न शोचति ॥ -- (कठोपनिषद्‌) 
अर्थात्‌- सर्वव्यापी परमात्मा को जानकर बुद्धिमान शोक नहीं करता । (यह 
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ज्ञानी^सिद्ध/गुरु को एक मोटी पहचान बता दी कि ज्ञान की चरमसीमा पर पहुंचा 


हआ, परमात्म तत्तव या ब्रह्मविद्या को जाना हज व्यक्ति किसी भी स्थिति में, किसी 


भी कारण से, किञ्चितमात्र भी शोक नहीं करता इस पहचान से पाठक स्वयं गुरु 
परीक्षण कर सकते हैँ ) | | 
इसके अलावा जेसा कि गीता में भी कहा गया है-- 
अशास्त्रविहितं घोरं तप्यन्ते ये तपो जनाः । 
दम्भाहकारसंयुक्ताः कामरागबलान्विताः ॥ 
अर्थात्‌--शास्त्रविधि से रहित केवल मनः कल्पित घोर तप को जो करते हैँ 
ओर दम्भ, अहंकार, कामना, आसक्ति व बल के अभिमान से भी युक्त हँ... 
... तान्विद्धयासुरनिश्चयान्‌॥। (उन अज्ञानियों को तू आसुरी स्वभाव वाला 
जान ।) | 
ओर भी देखें-- 
 विधिहीनमसुष्टान्नं मन््रहीनमदसक्षिणम्‌। 
श्रद्धाविरहितं यत्नं तामसं परिचक्चते॥ 
-गीता 
(शास्त्रविधि से हीन ओर अनदान से रहित, मंत्रों व दक्षिणा से रहित तथा 
श्रद्धाविहीन यज्ञ ' तामस ' कहा जाता है) | | 
ओर- 
तस्माच्छाखरं प्रमाणं ते कार्याकार्यव्यवस्थितो । 
(तेरे लिए इस कर्तव्य ओर अकर्तव्य की व्यवस्था में शास्त्र ही प्रमाण हे) । 
आदि अनेक उदाहरणं से स्पष्ट है कि गुरु में योग्यता के साथ-साथ शास्त्र 
सम्मत आदेश या मार्गदर्शन का गुण होना आवश्यक है । एेसा न हो कि योगविषयक 
शास्त्र जो विधान बताते है, गुरु उन्हें नकार कर अपने ही विधानं या मत को 
'सहजता' का लेबल लगाकर थोप रहा हो, बहरहाल... । 
गुरु की योग्यताओं को परिभाषित व विश्लेषित करने वाले तथा उचित 
अनुचित के सम्बन्ध में शास्त्र सम्मतता को ही प्रमाण सिद्ध करने वाले सैकड़ों 
श्लोक, मंत्र, ऋचाएं या श्रुतियां पाठकों की सन्तुष्ट के लिए दी जा सकती हे । किन्तु 
उससे पुस्तक के बहुमूल्य पृष्ठो का अपव्यय होगा ओर पुस्तक मूल विषय से दूर हो 
जाएगी । इसलिए एेसा प्रयास नहीं कर रहा हू । मगर प्रबुद्ध पाठकों के शंकासमाधानार्थ 
ओर अपने कथन की पुष्टि के लिए इतने प्रमाण भी बहुत है । क्योकि समञ्ञदार को 
इशारा काफी होता है ओर कुण्डलिनी जैसे गहन विषय से सम्बन्धित पुस्तक का 
अध्ययन के लिए चयन करने वाले पाठकों से सहज ही समङ्लदारी की प्रबल आशा 
कौ जासकती है। 
संक्षेप में इतना ही कि पाठक इस विषय में (विशेषकर) गुरु को चुनने को 
77 


दशा मं पूर्णं सावधानी बरतें आर इस विषय पर प्रकाशित (मेरी या अन्यकिसीश्री 
विद्वान की) किसी पुस्तक मात्र को भी गुरु अथवा सम्पूण समञ्चन का भूल न कर र्‌ 
एेसी पस्तकै मात्र ' कमेन्टी ' या विषय को सरलता से समञ्ञान का प्रवास भर हाता 
हे । जतः गहराई में जाने वाले पाठकों अथवा साधको को इस विषय स सम्बान्चत 
मूल पुस्तके, मृलग्रन्थ अवश्य ही देखने चाहिएं। एेसे मृल ग्रन्थों मं पाठकों के 
सम्मुख मेँ दो चार प्रमुख नाम भी अवश्य ही रखना चाहूंगा, जो इस प्रकार हं-- 

पातञ्जल योग प्रदीप, वामकेष्वरतन्त्र, 

रुद्रायामलं त्र, घेरण्ड संहिता, 


गोरक्षसंहिता, शिवसंहिता, 
हठयोगप्रदीपिका ` योगदर्णन, 
अष्टावक्रगीता, गीता, 
योगतत््वोपनिषद्‌, श्ाण्डिल्योपनिषद 
योगकुण्ड्ल्योपनिषद्‌ आदि 
(17) 
78 


12) 


अभ्यास-खण्ड 
सकलता क लिट आवश्यक 


कुण्डलिनी ओर चक्रों को विधिवत समञ्च लेने के बाद अब हम कुण्डलिनी 
जागरण के विभिन्न उपायों व पद्धतियों कौ चर्चा करेगे । किन्तु उन उपायों से पूर्व 
कुछ एेसे प्रारम्भिक परन्तु महत्त्वपूर्ण उपायों कौ चर्चा कौ जानी आवश्यक है जो 
आपको कुण्डलिनी जागरण के उपाय करने को सामर्थ्य अथवा योग्यता प्रदान करते 
हें । आगे बदने के लिए एक उचित आधार व शक्ति देते हें तथा प्राप्त होने वाली 
चमत्कारिक शक्तियों को संभालने व इस प्रक्रिया में होने वाले परिवर्तनों को ज्जेलने 
के योग्य बनाते हे । दूसरे शब्दों मे आपके भीतर * पात्रता ' उत्पनन करते हे । 





पात्रता 
यह ' पात्रता ' शब्द बहुत सटीक ओर व्यापक हे । पात्रता--' पात्र' शब्द से बना 
ठे । पात्र का अर्थ है-- बर्तन, सामर्थ्य, शुद्धता, क्षमता, ग्राह्यता, योग्यता, सहेजने में 
समर्थ, रिक्तता या सम्भावना वाला। इस प्रकार पात्र शब्द बहुत से अर्थो से संयुक्त 
हे । यदि हम समुद्र को देखे, वह अथाह जल राशि का स्वामी है । उससे कोई भी 
जल ले सकता हे । वह रोकता नही, विरोध नहीं करता । पक्षपात भी नहीं करता। 
फिर भी उसके पास लाने गया प्रत्येक व्यक्ति समान मात्रा में जल नहीं ले जा पाता । 
जिसके पास डक या टैक है बह उतना ले जाता है । जिसके पास बाल्टी हे वह कम 
ले जाता है। लेटे बाला ओर कम, गिलास या कटोरी वाला ओर भी कम ओर 
चम्मच वाला, ना के बराबर जल ले जा पाता हे । यह उदाहरण ' पात्रता ` का महत्त 
सिद्ध करने को काफी हे। 
जिसके पास जैसा ओर जितना पात्र होगा, जो जितना समेट-सहेज सकेगा, 
जिसकी ल्लोली जितनी बडी ओर मजबूत होगी, वह उतना ही ले जा सकेगा । यह भी 
सम्भव हे कि ल्लोली बडी हो, पूरी भर ली जाए ओर ले जाते समय फट जाए । अतः 
सामर्थ्य, क्षमता ओर सहेजना यह भाव भी ' पात्रता" में शामिल हे । यह भी मुमकिन 
है कि पात्र में पहले दही से कोई पदार्थं भरा हो, तब उसमें नया पदार्थ आ ही नहीं 
पाएगा। अतः ग्राह्यता, रिक्तता ओर सम्भावना का भाव भी पात्रतामें शामिल है। यह 
भी सम्भव है कि पात्र मे कोई ठेसा पदार्थ भरा हो, जिसमें नया पदार्थ ग्रहण कर लेने 
को सम्भावना/ग्राह्यता तो हो किन्तु उससे नया पदार्थ शुद्ध न रहे, दूषित हो जाए । 
79 











(जेसे पात्र मे मिद हो जिससे उसमें भरा जल कीचड़ में बदल जाए आदि) । 
इसीलिए पात्रता के साथ शुद्धता का भाव भी निहित रहता हे । जमा- जोड यह कि 
^ पात्रता' का अर्थं अत्यंत व्यापक हे । इसको भली प्रकार समञ्च लेना चाहिए । पात्रता 
के अभाव मं उपलब्धि असम्भव होती हे । जेसे वर्षा का जल चट्रानों पर बह जाता 
हे, किन्तु गदं में एकत्रित हो जाता है । अतः जहां सम्भावनाएं कंठित हों अथवा 
ग्रहण करने की क्षमता ही न हो (पात्र काटढक्कन बंद हो) वहां लम्बे समय तक 
जल में डूबे रहने के बाद भी पात्र में जल प्रविष्ट नहीं होता। तभी तो कहा है-- 
' मूरख हदय न चेत, जो गुरु मिलहि विरचि सम ।' (ब्रह्मा के समान गुरु पाकर 
भी मूखं/जड्‌ हदय में चेतना/विवेक जागृत नहीं होता) । 
गुरु- मार्गदर्शन करता हे । प्रेरणा देता ह । उत्साहित करता हे । शंकाए, भय व 
समस्याएं दूर करता हे । मंत्र व गुर देता हे । शिक्षा- दीक्षा देता है । मजबूत धरातल भी 
` देता हे । ज्ञान, प्रकाश व आशीर्वाद देता हे किन्तु पात्रता को उत्पन्न करने के लिए 
शिष्य को ही प्रयास करना होता हे । यह निजी गुण है । यह अभ्यास, साधना, तप, 
संयम व संस्कारों द्वारा प्राप्त होता हे | गुरु-कृपा वश शक्ति शिष्य को देना भी चाहे 
तो भी तब तक नहीं दे सकता, जब तक शिष्य में पात्रतान हो। वह सुपात्रहोया 
, कुपात्र हो, यह अलग मुदा हे । इससे तो शक्ति या विद्या का सदुपयोग व दुरुपयोग 
सम्बन्धित हे । किन्तु सद्‌ ओर असद प्रयोग तो तभी होगा जब पहले शक्ति संचय 
होगा ओर संचय तव होगा, जब पात्रता होगी । अतः सुपात्र हो या कुपात्र किन्तु 
शक्ति कौ प्राप्ति के लिए सर्वप्रथम व्यक्ति का पात्र" होना अनिवार्य है । इसलिए 
उच्चतर व मूल साधनाएं करने से पूर्वं प्रारम्भिक अभ्यासं द्वारा स्वयं में पात्रता 
उत्पन करना अनिवार्य है| 
पात्रता उत्पनन कर लेना 50 प्रतिशत सफ़ल हो जाना है । फिर पात्रता को 
` बढाया जाता हे ओर कुण्डलिनी जागरण काल के सुअवसर कौ सजगता व धैर्यपूर्वक 
प्रतीक्षा को जाती हे। आपने दुनिया भर के आकर्षक किन्तु हलके विषयों को 
छोडकर यह शुष्क किन्तु गम्भीर विषय अध्ययन के लिए चुना है, इससे सिद्ध होता 
ह-- आप सामान्य श्रेणी से ऊपर के ह ओर आपमें पात्रता उत्पनन कर लेने की 
सम्भावनाए्‌ हं । इसके लिए मेरी ओर से साधुवाद स्वीकार करं । 
किन्तु! यदि पुस्तक को (इस पुस्तक को) पढ़ने के पीके आपका उदेश्य मात्र 
जञानवर्धन, जिज्ञासा शति ओर आत्मसंतुष्टि था, तो बह अब तक पूर्णहो गया टै। 
पुस्तक का शेष भाग आपके लिए उपयोगी नहीं हे । लेकिन यदि आपने कुण्डलिनी 
जागरण के लिए दृद निश्चय कर लिया है ओर वास्तव में योगसाधना के इच्छक हैँ । 
तव पुस्तक का अगे का भाग आपके लिए अति उपयोगी है ओर यदि बरसाती 
मटक को भांति पुस्तक को पटृकर अथवा अन्य कारणों से आपके भीतर योग 
साधक वनने का क्षणिक उवाल आ गया हे (तो आप साधना करे, यान करे--उसे 
80 कुण्डलिनी श्वत केसे जागृत कर -5 


तो ठंडा हो ही जाना है, परन्तु) तब पुस्तक का यह अध्याय आपको अनिवार्य रूप 
से पटना चाहिए । क्योकि अधूरी साधना उपद्रवकारी व खतरनाक होती हे । कहा ` 
जाता हे कि--'नीम हक्तीम खतरा ए जान, नीम मुल्ला खतरा ए ईमान ।' 
` (आधा चिकित्सक प्राणों के लिए ओर आधा मुल्ला/कर्मकाण्डी धर्म के लिए खतरा 
होता हे) । में इसमें एक पंक्ति ओर जोडना चाहूंगा कि--' नीम आलिम खतरा- ` 
ए-जहान ' (आधा ज्ञानी तो पूरे संसार के लिए ही खतरा है । संसार में वह खुद भी 
शामिल हे) । | 
अतः किसी को भरी हई बन्दक देने से पहले या तीव्र वेग से भागने वाले ` 
उक्ुखल, शक्तिशाली घोडे पर बिठाने से पहले उसे समस्त प्रणाली/सावधानियां, 
लाभहानि आदि बता देने चाहिएं ओर उसके साहस, निर्णय, बुद्धि व संस्कार भी 


चैक कर लेने चाहिए । 
संकल्प शक्ति 

संकल्प ही समस्त सफलताओं का मूल है क्योकि यह लगन, हौसले ओर 
निर्णय को टूटने नहीं देता। संकल्प तब होता है जब प्रबल इच्छा शक्ति, अटल 
आत्मविश्वास ओर दृट्‌ निश्चय एक साथ हो जाते हैँ । उर्दू में इसके लिए "इरादा 
शब्द प्रयोग किया जाता है, यानी “ दृदुप्रतिन्ञ' हो जाना । इसे चलताऊ भाषा में " ठान 
लेना" कहा जा सकता हे । 

किसी भी कार्य को करने के लिए मूलरूप से तीन शक्तियां आवश्यक हैँ- 
ज्ञान शक्ति (काम को कैसे करं), क्रिया शक्ति (काम करना की दृढ इच्छा 
करना) । उदाहरण स्वरूप यदि आप रेलवे स्टेशन जाना चाहते हैँ तो रेलवे स्टेशन 
को पहचान/लक्षणो का ज्ञान, उसकी अवस्थित दिशा का ज्ञान, मार्ग का ज्ञान, मार्ग 
को कठिनाइययो व उनके निवारण या बचाव का ज्ञान आदि होना चाहिए। इसे ज्ञान 
शक्ति कहा है । फिर मार्गं पर चलने, मार्ग की कठिनाइयो से जूञ्चने व रेलवे स्टेशन 
तक पहुंच सकने को शक्ति या सुविधा (चलना या सवारी का अधिकार में होना) 
का होना भी आवश्यक है । अन्यथा ज्ञान होते हए भी कार्य नहीं हो सकेगा। यह 
क्रिया शक्ति है । किन्तु इन दोनों शक्तियों के होने के बाद भी आप रेलवे स्टेशन क्यों 
नहा जा रहे ? क्योकि आपको वहां जाने की जरूरत या इच्छा नहीं है । जरूरत है भी 
तो मन नहीं कर रहा। लेकिन जिस दिन इच्छा होगी, मन करेगा या आप जाने के 
लिए तय कर लगे, उस दिन आप जरूर जाएंगे । 

अर्थात्‌-जब तक आप संकल्प नहीं करते तब तक ज्ञान ओर कर्म आपकी 
कोई सहायता नहीं कर सकते। लेकिन जिस दिन आप ठान लगे, संकल्प कर लेगे 
उस दिन ज्ञान न होते हुए भी (रास्ता पूकते-पूते), शक्ति न होते हुए भी, धिसटते- 
धिसरते, जैसे-तैसे, देर-सवेर पहुंच ही जाएगे। फिर भी क्रिया तो करनी ही पड़गी। 


81 ` 





जान तो बयोरना ही होगा। अतः संकल्पशक्ति तीनों मे श्रेष्ठ होते हए भीज्ञानव क्रिया 
शवित के साहचर्य से ही तीव्रता व निश्चितता से उपलब्धि करान वाल होती हे। 
ज्ञान के मामले मे अनुभवी व्यक्ति/गुरु^श्रष्ट पुस्तक आपका पथ प्रदर्शित करती हे । 
किन्तु संकल्प ओर क्रिया तो जप दही को करने होगे। यह कोई हलवा नहीं कि 
बनाए कोई ओर खा कोई ओर ले। यह तो योग साधना हे-- जो करता है, वही पाता 
हे । यह आत्मोत्थान की कला/विद्या हे । अपनी टी आत्मा का कल्याण इसके द्वारा 
सम्भव हे, दूसरे कौ नहीं । | 
इसलिए सर्वप्रथम संकल्पशव्ति का होना (प्रयोगात्मक क्षेत्र मे जाने के 
लिए) आवश्यक है । संकल्प न होगा तो पुस्तक पढकर आप एक ओर रख देगे। 
अभ्यास करने को प्रेरित न होगे । प्रेरित भी होगे तो नियमित न होगे । नियमित भी हो 
गए तो निरंतर नियमित न रह सकैगे क्योकि नियमित होने के लिए संयम ओर 
निरंतर डटे रहने के लिए धैर्य, साहस व संकल्प-- तीनों टी कौ आवश्यकता पडेगी । 
जमा-जोड यह कि विना संकल्प के या तो शुरुआत ही नहीं होती । ओर महत्त्वाकांक्षा 
या उत्सुकता वश शुरुआत हो भी जाए तो वह कार्य बीच ही में छूट जाता हे, सिर 
तक नहीं चढता । ञान व क्रिया शवित तो पात्रता को(सम्भावना को उत्पनन करती दे । 
किन्तु संकल्प शक्ति सफलता को दिलाती हे । 
कई बार भाग्य के कारण, त्रुटि के कारण, भ्रम के कारण अथवा अन्य कारणों 
से सफलता नहीं मिलती अथवा संदिग्ध हो जाती हे । किन्तु संकल्पशक्ति को दढता 
अन्ततः व्यविति को सफलता दिला ही देती है । अनेक एेसे उदाहरण पुराणों आदि मे 
प्रात होते है (जैसे "जड़भरत' की कथा आदि) जिनमें साधक ने करई जन्मों मे 
सफलता अर्जित की । अथवा विश्वामित्र तथा कण्डु ऋषि आदि कौ कथाएं जिन्होने 
एक ही जन्म में साधना से पतित हो जाने के बाद भी अपनी संकल्प शक्ति द्वारा 
अन्ततः सफलता प्राप्त की । अथवा दुर्वासा ऋषि की कथाएं जो अत्यंत क्रोध के 
कारण हर्‌ बार प्राप्त शक्ति का क्षय कर लेते थे । परन्तु संकल्प के बल पर उसे पुनः 
हासिल कर लेते थे। | 
लगन व ध्य 


लगन ओर धैर्य न केवल पात्रता को ही उत्पन करने मे सहायकं होते हँ 
बल्कि संकल्प शक्ति को भी मजनूती देते ह । तप को अधिक मूल्यवान व प्रभावशाली 
बनाते है ओर सफलता को सुनिश्चित करने मे अत्यंत महत्वपूर्णं भूमिका निभाते हं । 
यदि लगन न हो तो नियम ओर निरंतरता का पालन नहीं हो पाता ओर यदि ध्य न 
हो तो व्यक्ति घबराकर, उकताकर अथवा निराश होकर साधना अधूरी छोड देता ै। 
अतः लगन व धैर्य आवश्यक है ओर धैर्य की तो परीक्षा ही सदैव विषम स्थितियो 
मे होती है । जेसा कि तुलसीदास जी ने कहा भी है-- 


82 


धीरज धरम मित्र अरु नारी। 
आपतिक्ाल परखियेहुं चारी! 

अधीरता वैसे भी सब कामों को गड़बड़ देती हे । जल्दबाजी में किए गए 
कामन केवल प्रायः असफल होते हैँ बल्कि अन्य कामों को भी बिमाडते है, अथवा 
अन्य नुकसान भी कराते हँ । महत््वाकांश्षा की उच्वता, फल पाने कौ शीघ्रता ओर 
परिश्रम या लगन का अभाव अधीरता उत्पन्न करता हे। दूसरों से प्रतियोगिता कौ 
भावना या उनको उपलब्धियों से ईष्याग्रस्त होना ओर अपने बाहुबल पर भरोसा न 
होना इस अधीरता को ओर भी बढा देता है। अधीरता से व्यग्रता ओर अशांति उत्पन्न 
होती हे जिससे विवेकशक्ति, निर्णयक्षमता, दूरदर्शिता तथा विश्लेषणात्मक बुद्धि 
प्रभावित होते हे । परिणामतः गलत निर्णय ले लिए जाने, भ्रमित हो जाने व स्थिरता 
खो देने के नतीजे सामने आते हैँ- तो गतिहीनता, अकर्मण्यता व असफलता को 
सामने लाते हें । 

योग विद्या में या कुण्डलिनी जागरण के मार्ग पर तो जल्दनाजी या अधैर्य 
शत- प्रतिशत अकल्याणकारी हे । ०-8-12 सीढी- दर-सीदी आगे बदिए। 
एक पैर भूमि पर जम जाए तो दूसरा हवा में उठाइए। दोनों चैर एक साथ हवा मे 
उठाने कौ शीघ्रता मुंह के बल नीचे गिरा देने का कारण बन सकती है। अतः छलांग 
लगाने कौ कोशिश हरगिज न करे। हर सीढ़ी, हर अभ्यास क्रमशः पात्रता को 
बढाएगा। पात्रता जेसे-जैसे बढेगी, शक्तियां वैसे-वैसे स्वतः ही प्रास होती चली 
जाएंगी । किन्तु सीढियों को फलांगने से बिना पात्रता को बढाए आप प्रगति करने का 
प्रयास करेगे, जिसके परिणाम में असफलता, निराशा, पकछतावा, विपरीत फल 
` मिलना अथवा अन्य उपद्रव होगे, जो घातक भी हो सकते हेः । | 

लगन, परिश्रम ओर क्म॑ठता की मां होती है। लगन व्यक्ति मे प्रेरणा, 
स्फूर्ति, क्षमता व उत्साह बढ़ाती हे । लगन के कारण व्यविति अपनी सामर्थ्यं से 
अधिक कर जाता है ओर सामर्थ्यं से अधिक कर गुजरने के बाद भी श्रमित नहीं 
होता। लगन, नियम ओर निरंतरता को टूटने नही देती। अभ्यास को सदैव गतिशील 
रखती है साथ ही आशा ओर विश्वास को भी मजबूत बनाती है । 

नियम, निरंतरता या अभ्यास का योगविद्या में महत्त्व क्या है ? यह बताना सूर्य 
को जुगनू दिखाना होगा । प्रत्येक विद्या अभ्यास से ही सिद्ध होती है । ओर अभ्यास 
छूट जाने पर कमजोर हो जाती है । तभी तो कहा है- अभ्यासं करी च विद्या" 
अथवा- ॑ 

करत करत अभ्यास ते जडमति होत सुजान। 
रसरी आवत जात ते सिल पर परत निसान। | 

कर नियम या निरंतरता ट्टी ओर अभ्यास भग हु । अभ्यास भग हआ तो प्रगति 
भवनति मं बदल गई । अतः निरंतर नियम पूर्वक अभ्यास आवश्यक ते। अन्य 


श 





विषयों के प्रलोभन, व्यस्तता, मन न लगन आलस्य, प्रमाद, श्रम आदि अनेक 
कारण अभ्यास की निरंतरता मे बाधक होते दै । परन्तु लगन का पक्का आदमी सभी 
पर विजय पाता हुआ, मन को वश या नियंत्रण में करके अभ्यास बनाए रखता हे । 
परिणाम सफलता व प्रगति के रूप मं सामने आता हे । शुरू में 20 पोंड का वजन 
उठाना भी जिसे कठिन लगता हौ वह भारोत्तोलक अभ्यास को निरंतरता से ही 
आखिर 300-400 पोंड तक का वजन भी सुगमता से उठा पाता हे । 

क्योकि अभ्यास की निरंतरता शनैः जनैः उसकी पात्रता को, उसकी शक्ति व 
सामर्थ्यं को बदाती है । वही भारोत्तोलक यदि जल्दबाजी में आकर प्रारम्भे ही 
अधिक वजन उठाने का प्रयास करेगा तो सफल नहीं होगा अपितु अपनी कमरया 
पैर तुडवा बेदेगा या नाभ सरकवा नैठेगा। अतः लगन ओर धैर्य दोनों का साधक मे 
होना आवश्यक है बल्कि कहिए कि अनिवार्य हें । 


सजगता व सही दिशा | 
दृढ संकल्प व्यक्ति, जो लगन व धेर्य से सम्पन्न हो ओर पात्रता से भी सम्पन्न 
हो, वह भी विभ्रम, भ्रम, दिशाभ्रम, प्रमाद या सजगता के अभाव के कारण सफल 
नहीं हो पाता। या तो अवसर पहचान नहीं पाता या अवसर चकत जाता टे. यायूंही 
गलत दिशा मे हाथ-पांव मारता रहता है । जबकि सजग व बुद्धिमान व्यक्ति अवसरः 
कौ उत्यन कर लेता है। वैसे भी किसी विद्वान ने क्या खूब कहा है अवसर के 
चेहरे पर बाल होते दै, ओर उसका सिर गंजा होता दै ।' (इसलिए. आता ह 7 
वह सरलता से पहचाना नहीं जाता । ओर जाता हुआ सरलता से पकड में नही आता, 
फिसल जाता है) । यह बात सही है। जरा सी लापरवाही, जरा सी चूक आपकी 
बरसों की साधना को एक क्षण मेँ व्यर्थ कर्‌ सकती हे । 
सजगता के साथ विभ्रम, दिशाभ्रम तथा प्रमाद्‌--यह जो तीन अर्थ जड़ हुए 
है, इन पर भी विचार कर लेना आवश्यक है । इन्दं सरलता से समञ्ने के लिए तीन 
छोटे से उदाहरणों का सहारा लगे । 
रेलवे स्टेशन जाने का ही उदाहरण ले- पूरी लगन, धैर्य ओर इरादे से, पूरी 
ईमानदारी से चलते हए भी शायद आप जिंदगी भर रेलवे स्टेशन न प्च पाए, यदि 
आप उसकी विपरीत दिशा में यात्रा आरम्भ कर दे । अतः दिशा- ज्ञान होना अत्यंत 
आवश्यक दै । दिशा भ्रमित होने से ही भारत को खोजने निकला वास्कोडिगामा 
अमेरिका जा पहुंचा था ओर उसे ही भारत समञ्च बेठा था । बाः में यदि कोलम्बस 
ने भारत को न दृढ निकाला होता तो सारी दुनिया अमेरिका को भारत ही समङ्ती 
रहती । ेसी गलतियां ज्ञान के क्षत्र में भी हो सकती है । यदि हमें दिशाभ्रम दहो या हमें 
अपने लक्यगंतव्य की पहचान न हो। यही जानना काफौ नहौ कि यात्रा कैसे ओर 
कहां से शुरू करनी है । यह जान भी आवक है कि यात्रा किस तरफ ओर कब तक 
करनी है। या यात्रा समाप्त कहां करनी हे। 


84 


दूसरा उदाहरण देखिए । आप रात में एक नाव मेँ बेठे ओर नदी पार करने के 
लिए उसे खेना शुरू किया । रात भर नाव खेते रहे, मगर किनारे पर न पहुंचे । सुबह 
होने पर पता चला कि नाव की रस्सी तो खृंटे के साथ. ही बंधी रह गई थी । यह 
अज्ञान ओर प्रमाद का एक उदाहरण है । प्रमाद का दूसरा उदाहरण यह कि नाव खेते 
हुए गंतव्य स्थल से जागे निकल गए । बाद में ध्यान हुआ तो पता चला कि जहां ` 
उतरना था वह स्थान तो पीके रह गया ।.यानि लक्ष्य पहचानने में प्रमादवश चूक गए। 
इस प्रकार प्रमाद के अनेक उदाहरण हो सकते हैँ । ` | | 
विभ्रम के उदाहरण में आप सजग तो हँ किन्तु भ्रमित होकर रेलवे स्टेशन को 
बस अङ्ाया बस अड को रेलवे स्टेशन समञ्ज बेठे ओर यात्रा समाप्त कर दी। 
(जबकि वह जारी रखी जानी चाहिए थी) अथवा यात्रा जारी रखी (जबकि वह बंद 
कर दी जानी चाहिए थी) । या जेसे अंधकार में रस्सी को सांप समञ्च बैठे ओर घर 
मजा च्िपे। किवाड बंद कर लिए अथवा सांप को रस्सी के धोखे में उठा लिया 
ओर सर्पदंश के शिकार हो गए । भ्रम, विभ्रम, धोखा, मरीचिका, मिथ्या आभास, 
गलतफहमी आदि सब इसी के अन्तर्गत आते हैँ । भ्रम का अर्थही है कि जो जैसा 
हो उसे वेसा न समञ्चना याजो जैसा ना हो उसे वैसा समञ्जना। 
ज्ञान के क्षेत्र मे, अध्यात्म के क्षेत्र में तो इस प्रकार के संभ्रमों की ओर भी 
अधिक ओर व्यपाक सम्भावनाणएं हैँ । क्योकि यह क्षेत्र ओरों को अपेक्षा अधिक 
जटिल, अधिक उलज्ञे हुए, अधिक क्लिष्ट, अधिक दुरूह, अधिक. गहन, अधिक 
सृक्ष्म ओर अधिक रहस्यपूर्ण हैँ । अतः सजगता, ज्ञान, दिशा आदि के सम्बन्ध मं 
पूर्णता जरूरी हे । 
कुण्डलिनी जागरण के समय का ' स्पार्क' आपके प्रमाद या असावधानी से 
155 हो सकता है । आप मंथन के बाद सर्वप्रथम निकलने वाले विष को अमृत 
समञ्चकर भ्रमित हो सकते हैँ अथवा विष की भयानकता या ऊष्णता से भयभीत 
होकर मंथन कार्य को अपूर्णं छोड सकते हैँ । इस प्रकार न केवल बाद में निकलने 
वाले अमृत को आप 14155 करेगे बल्कि अपने इस कट अनुभव के आधार पर 
(जिसका कारण आप ही की अल्पज्ञता, संभ्रम, दिशा भ्रष्टता या असावधानी होगी) । 
पूरी योग प्रणाली के सम्बन्ध में अपने मन में कोई अनुचित धारणा बना सकते है । 
ओर बाद में अपनी दुर्भावना व कटु अनुभव का प्रचार कर अन्य जिज्ञासुओं को 
भयभीत, त्रस्त, निराश अथवा ' मिसगाइड' कर सकते हैँ । जो बड़ी भारी विडम्बना 
होगी.। 


सत्संग, चिन्तन व स्वाध्याय 
जेसा व्यक्ति चिन्तन करता रहता है वैसा ही वह बन जाता है । पुरानी कहावत 
है ओर बहुत सही है-- आदमी की सोच, उसकी कल्पना, उसके विचार, उसका 


85 








चिन्तन सब उसके मन-मस्तिष्क में सुक्ष्म परिवर्तन करते हें । जिस विषय का वह 
चिन्तन करता हे, उस विषय में डूबकर आनन्द लेने लगता हे । अतः उस विषय में 
आगे बदढने की उसके अन्तर्मन में प्रेरणा होती रहती हे । बार-बार का चिन्तन प्रेरणा 
को बलवती बनाता हे । प्रेरणा उत्साह में बदलती हे, उत्साह पहले तीव्र इच्छा मे ओर 
` फिर दृद इच्छा मे बदलता है, इच्छा की प्रवलता या दृढता निश्चय को उत्पन्न करती 
ठे ओर निश्चय अंततः संकल्प के रूप मे उभर कर सामने आता है। इस प्रकार 
चिन्तन अन्ततः क्रियात्मक रूप लेता है जैसे रस्सी के एक सिरे को यदि लगातार 
उमेठते रहे तो बल शनैः शनैः रस्सी के दूसरे सिरे पर पहुंच जाते हें । अतः चिन्तन 
का भी अत्यंत महत्त्व है ओर चिन्तन को संगति या अध्ययन दो चीजें विशेष रूप से 
प्रभावित करती है। 

जेसी व्यक्ति की ' कम्पनी ' होती है या जेसा वह पदता रहता हे, उसी के 
अनुसार उसकी सोच/चिन्तन ' उवलप' होता हे । इसलिए पुस्तकों का उत्तम तथा 
संगति का श्रेष्ठ होना जरूरी है । यही सदसंगति ओर स्वाध्याय का महत्त्व हे । संगति 
में व्यवित सुनता व देखता है । अध्ययन में पठता हे । बाद मे इस सुने हुए को, पदे 
हए को गुनता है । यही चिन्तन हे । गुनकर उसे आत्मसात्‌ करता ह । आत्मसात्‌ कर 
व्यवहार या प्रयोग मेँ लाता है । प्रयोग में न लाया जाए, वह ज्ञान दिमाग में पड़ा हुआ 
भी उतना ही बेकार है, जितना पुस्तक में पड़ा हुआ । पुस्तक मस्तिष्कमें रखी है या 
पुस्तकालय में बेकार है, यदि प्रयोग मे नहीं ढाली गई । उलट पटने वाले के दिमाग 
में एक अहं ओर पलने लगता है कि मैने अमुक विषय पर इतनी पुस्तके पढ़ लीं। 
वास्तव में वे पटी गई पुस्तके यदि समल्ञीं ओर प्रयोग में नहीं लाई गड तो व्यक्ति उन 
पुस्तकों का केवल वजन ही ढोता हे जैसे गधे कौ कमर पर पुस्तके लाद दं तो गधा 
विद्वान नहीं हो जाता, मात्र उन पुस्तकों को वहन करता है । कहा भी हे- 

"यथा खरश्चंदन भारवाही भारस्य वेत्ता न तु चंदनस्य। ' (जैसे चंदन के 
काष्ठ को ठोने वाला गधा मात्र उस काष्ट के भार को जानता है, उसके मूल्य को 
नहीं) । इसीलिए तो आदि गुरु शंकराचार्य को कहना पडा- 

पशोः पशुः यो न करोति धर्म। 
प्राधीत्‌ शास्त्रोऽपि न चात्मबोधः ॥ 

(अर्थात्‌- पशुओं से भी पशु वह है जो धर्म का पालन नहीं करता । जिसे 
शास्त्रा को पट लेने के बाद भी आत्मबोध नहीं होता) । अतः अध्ययन वही जिसमें 
स्व' सम्मलित हो। तभी ' स्वाध्याय ' कहा गया। ' स्व ' शामिल होगा तो पढ़ा हुआ 
समञ्च मेँ आएगा। वरना किताब पर नजर मारना या रटना होगा । 

'स्व' को इनर्वोल्व न करने पर कुछ लाभ नहीं है- न तो पटने का, न तो 
संगति का ओर न ही जप-तप का। फिर सब पाखण्ड रह जाता है । कोरा कर्मकाण्ड 
रह जाता है- एसे ही लोगो के लिए ककीर को कहना पडा- 

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माला फेरत जुग भया, मिटा न मन का फेर। 

कर का मनका डारि दे, मन का मनका फेर। 
इसलिए मन को ‹ स्व ' को इुबोए बिना किए गए कार्यकानतोपूर्णलाभही 
मिलता हे न आनन्द ही होता है । यहां तक कि सम्भोग तक में आनन्द तभी आता है 


जब ` स्व ' उस क्रिया मे संलग्न हो। अन्यथा सम्भोग क्रिया भी यांत्नित हो जाती है। 


सम्भोग मेथुन में बदल जाता है । मेथुन में मात्र एक "मिथुन ' (जोड़ा) मिलता हे 
जबकि- सम्भोग ( सम+भोग ) तभी होता हे, जब उस भोग मेँ समता होती हे । 
यदि विषमता हो, असंतुलन हो, विरोध हो, स्वेच्छा न हो तब वह मेथुन 
सम्भोग कहलाने के योग्य नहीं दोता। सम्भोग कहना है तो भोग से पहले समता 
आवश्यक हे । 

ठीक वैसे ही, जेसे ' संगति ' (संग+गति) संग-संग गति करना है । संग- 
संग का मतलब है लिपट कर चलना । लिपट कर चलने में विरोधाभास नहीं होता। 
अगे-पीके या दाए-बाएं चलने में खींचातानी हो सकती है, अवरोध हो सकता है, 


विषमता हो सकती हे । लेकिन संगति में समता ओर संतुलन, लयबद्धता के साथ . 


अवश्य ही होगा अन्यथा उसे ' संगति" नहीं कहा जा सकता। इसका सबसे सरल. 
किन्तु प्रभावशाली उदाहरण संगीत है जिसमें नर्तक, वादक ओर गायक तीनों ही 
संगति करते हों उनकौ संगति ' सम ' पर की जाती हो या संगति (ताल व लय को 
सुरो के साथ लिपट कर चलना) ही सँदर्य उत्पनन करती हो। संगति ओर शोर में 
संगति का ही अन्तर है । संगति ही रस उत्पनन करती है। रस से विभोरता ओर 
विभोरता से एकाग्रता व आनन्द होता है । अतः सत्संग, स्वाध्याय व चिंतन आवश्यक 


है। 


आहार व शुचिता | 

आहारः, विहार ओर निद्रा-- आयुवेद स्वास्थ्य के ये तीन आधार मानता 
है। इन तीनों का संतुलन ही स्वास्थ्य है । इनका गड़बड़ होना ही त्रिदोषो (वात- 
पित्त-कफ) को असंतुलित करके रोग उत्पन होना है । (मानसिक रोगो का प्रधान 
कारण कर्मो ओर विचायौ मे असंतुलन है) अतः आहार स्वास्थ्य ओर ऊजां प्राति का 
प्रधान स्तम्भ हे । यह ' ईधन ' के रूप में शरीर को गतिमान रखता है । इसलिए आहार 
का पौष्टिक व सुपाच्च्य होना अत्यंत आवश्यक है साथ ही आवश्यक है उसे सही 
प्रकार से सही समय पर खाना। ओर अपनी जिह या स्वाद पर अंकुश रखना । 
कर्योकि स्वाद के चक्कर्‌ मेँ आदमी रोगो को आमंत्रित करता है । कहावत है कि 
` मनुष्य अपनी कब्र अपने दांतों से खुद खोदता है ।' अथवा * भूखे रहकर कम 
लोग मरते है किन्तु ज्यादा खाकर अधिक लोग मरते है, ' सच है । बहुआहार, 
बार-बार खाना आलस्य, प्रमाद, स्थूलता, गुरुता व निद्रा के साथ रोगो को भी बढाने 
वाला होता है ओर आयु को कम करने वाला। 

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जेसा कि कहा गया है-^5 (0५७7 /017 851, 45 ऽ।10ति हति 
015 । ।6६. (आपकी वैल्ट जितनी लम्बी होती जाती हे, पेट जितना बढता जाता 
हे, जीवन उतना ही कम होता जाता है ।) क्योकि पेट का बदृना, मोटा हो जाना 
रक्तचाप, हृदयाघात, मधुमेह, गेस, कल्ज, अपच आदि दर्जनों रोगों को उत्पन्न 
करता है । इसके अलावा जैसा कि धर्मग्रन्थो की मान्यता हे कि" आदमी को रोटी 
व सासे गिनती की होती ह । ' यानि इनका कोटा लिमिटेड या फिक्स होता हे । एसे 
मे अधिक खाना या जल्दी-जल्दी, छोरी-छोटी सांसे लेना जीवन को कम करही 
देगा। जबकि कम खाने ओर गहरे लम्बे सांस लेने से (प्राणायाम-- इसके विषय में 
आगे पदेगे) जीवन दीर्घ बनेगा। अतः भूख से सदेव कम खाना चाहिए ओर भली 
प्रकार चबा-चबाकर खाना चाहिए । इससे दांतों का काम आतां को नहीं करना 
पडता। पाचनतंत्र पर जोर नहीं पडता। खाना शीघ्र पचता हे तथा फुर्ती, ताजगी ओर 
सजगता बनी रहती हे । 
जीने के लिए खाओ न कि खाने के लिए जीओ । चटपटा, मसालेदार, तेल 
तला, गरष भोजन हानिकर है । सप्ताह में एक उपवास या व्रत श्रेष्ठ रहता हे । इससे 
पाचन तंत्र आदि को विश्राम मिलता है ओर व्यक्ति सर्वप्रथम भूख, प्यास व स्वाद 
के माध्यम से अपने मन को नियंत्रित करना सीखता है । संयम का यह प्रारम्भिक 
पाठ आध्यात्मिक साधनाओं मे आगे अच्छा आधार बनाता ह । भोजन का अपव्यय 
होना तथा खाद्य सामग्री की बचत का लाभ अलग होता हे । 
पाश्चात्य दर्शन ओर आधुनिक विज्ञान भोजन को कैलोरी में तोलता हे। 
प्रोीन, वसा, खनिज, विटामिन्स आदि के आधार पर उसकी पौष्टिकता व गुणवत्ता 
को देखता है । यह स्थूल पैमाना है । भारतीय दर्शन, आयुर्वेद तथा अध्यात्म भोजन 
को गुण व संस्कार के आधार पर भी कसता हे, जो कि सुक्ष्म पैमाना हे । किन्तु सुक्ष्म 
कार्यो में सृक्ष्मतम बातों का ध्यान रखना ही पडता है । कबाडी कौ तराजू से सुनार 
की तराजू छोरी होती है परन्तु बहुमूल्य को तोलती है । सक्षम तत्त्व या घटक को 
प्रभावित करने वाले कारण भी सूक्ष्म होते है । बड पेड को कभी-कभी एक आधी 
भी नहीं हिला पाती, पर बाल को हिलाने के लिए एक फक भी पर्याप्त होती हे । मन 
संस्कार आदि अति सृक्षम विषय है । अतः इनको प्रभावित करने वाले सुक्ष्म कारणो 
के प्रति सतर्कता तो बरतनी होगी | | 
गुणों के आधार पर सात्विक, राजसिक तथा तामसिक तीन प्रकार का आहार 
माना गया हे । आमिष भोजन (मांसाहार) तो निरा तामसिक है ही, तापेसिंक भोजन 
से तो खैर सभी को बचना चाहिए, परन्तु योग साधना वालों को सदा सात्विक 
आहार ही लेना चाहिए । इससे संस्कारों में शुद्धता आती है तथा सदगुणों, सदवृत्तियो, 
चैतन्या, स्फूर्ति, हल्कापन, शान्ति, स्थितरता, विवेक, बुद्धि आदि का विकास होता 
है । जैसे गाय का दृध सात्विक, बकरी का राजसिक ओर भस का दृध तामसिक 
| 88 | 


माना गया है । यही कारण है कि ऋषियों न सब कुछ त्याग देने पर भी गाय को 
नीं त्यागा । गाय का मल, मूत्र, दूध, दही व घी (पंचगव्य) धार्मिक क्रियाओं तथा 
आयुर्वेदीय ओषधों का एक महत्वपूर्णं हिस्सा है । लेकिन यह एक अलग चर्चा का. 
विषय है। 
सात्त्विक भोजन भी मौन रहकर करना चाहिए । क्योकि भोजन करते समय 
जेसे विचार भोजनकर्ता के मन व मस्तिष्क में होते हँ, भोजन का वेसा ही गुण उसे 
प्राप्त होता है। इतना ही नहीं, खाना बनाने वाले तथा खाना परोसने वाले को 
मानसिकता का प्रभाव भी भोजन के संस्कारो को प्रभावित कर देता है । अतः योगी 
लोग प्रायः अपना भोजन स्वयं ही बनाते हें अथवा अपने परिवार में ही भोजन करते 
हो (कम-से-कम होटलों या घर से बाहर कहीं तो बिल्कुल नहीं) । 
आहार के साथ संस्कारों के शोधन के लिए शुचिता का भी बहुत महत्त्व हे। 
शुचिता शब्द ' शोच ' से बना है जिसका अर्थ है- मलों का निष्कासन कर, साफ व 
स्वच्छ होना । विकारो को नष्ट कर शुद्ध व निर्विकार होना । दोषों को नष्ट कर निर्दोष 
ओर पवित्र होना । पारदर्शी होना। यद्यपि इस विषय में हम अगले अध्यायमें भी 
पदंगे, तो भी यहां इसको चर्चा आवश्यक है । क्योकि जिस पात्रता" का हम पहले 
जिक्र कर आए है उसमें रिक्तता, सम्भावना ओर ग्रहण करने.की सामर्थ्य/ग्राह्यता का 
विशेष रूप से शुचिता के साथ गहन सम्बन्ध है । 
मोटे तौर पर शोच या शुचिता का अर्थं मल विसर्जन तथा शरीरिक स्वच्छता 
से लिया जाता है । यह शुचिता के अर्थो मे एक अवश्य है परन्तु सम्पूर्ण नही । शरीर 
की सफाई या स्वच्छता बाहर से, शरीर को स्वच्छता व सफाई भीतर से भी ओर 
शारीरिक कर्मो में भी। मन, विचार ओर बुद्धि मे भी, वाणी में भी ओर अन्तरात्मा में 
भी। सभी स्थानों में शुद्धता, पवित्रता, निर्मलता व स्वच्छता होनी चाहिए। यही 
शुचिता का सम्पूर्ण अर्थ हे। 
शुचिता के अर्थो को भली प्रकार से जानना होगा। यदि केवल स्नानसेही 
इसका सम्बन्ध होता (बाह्य सफाई से) ओर यदि पवित्रता का सम्बन्ध मात्र 
गंगाजल से होता तो गंगा में रहने वाली, नदियों पे रहने बाली मछलियां सबसे 
शब्द ओर पवित्र हो तीं क्योकि वो तो नित्य स्नान की अवस्था में रहती हैँ (मगर 
वह सबसे अधिक्‌ दुर्गध वाले जीवों में एक होती हैँ ) । अतः स्वच्छता या शुचिता 
का अर्थ केवल बाह्य शरीर से लेना सरासर भूल होगी। ` 
मल है, तो सडांध है । विकार है तो अशुद्धता है । दोष है तो अपवित्रता हे, 
भले ही बाह्य शरीर मे, भले ही भीतरी शरीर में, भले ही मन-मस्तिष्क मे, भले ही 
वाणी व विचार में, भले ही मन-मस्तिष्क मे, भले ही वाणी व विचार मं, भले ही 
कर्मो या भावों मे, भले ही आत्मा में । जब तक मन, आत्मा या बुद्धि कलुषित ह, 
जब तक बुद्धि, विचार व मस्तिष्क दूषित है, जब तक भाव, कर्म ओर वाणी 
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कपटपूर्ण, अशोभनीय, कट्‌ या विकारग्रस्त हे ओर जब तक शरीर के भीतर व बाहर 
मल शेष हे । तन तक शुचिता पूर्ण अर्थो में लागू ही नहीं होती । जब इन सबका 
शोधन हो जाता है तब पवित्रता उत्पनन होती है । जो ^ पात्रता ' में अति तीव्र विकास 
करती हे। जल के भीतर गया रिक्त पात्र जेसे तुरंत जल को स्वयं मे आकर्षित कर 
लेता हे (अपनी रिक्तता, सम्भावना, ग्राह्यता या गुञ्जाइश के कारण) वैसे ही पवित्र 
व रिक्त मन आदि तुरन्त ही आध्यात्मिक शक्तियों को अपनी ओर आकर्षित कर 
लेते हँ । यही पात्रता" का प्रभाव हे। 
किन्तु कीचड़ से भरे पात्र मे डाला गया दूध भी जिस प्रकार दूषित या 
व्यर्थं हो जाता है । उसी प्रकार कलुषित या मलिन मन आत्मा ओर इद्धियों 
वाले साधक को यदि अपनी संकल्प शक्ति के बल पर या भाग्यवज्ञ सिद्धियां 
या शक्तियां मिल भी जाती हँ तो वे न केवल व्यर्थं जाती ओर नष्ट होती हैँ। 
बल्कि भय, उच्चाटन, अति तनाव, अपराध-बोध आदि अनेक मनोविकारों 
तथा ग्रन्थियों को उत्पन करने वाली होती हँ। कई बार ठेसे साधक अर्धं 
विक्षिप्त, विक्षिप्त अथवा घोर मानसिक असंतुलन या असाध्य शारीरिक रोगों 
के शिकार भी होते हए देखे गए हैँ । अतः ' पात्रता" कौ पूर्णता उत्पन्न किए विना 
ही "शक्तिपात" या कुण्डलिनी जागरण के प्रयास कभी भी कल्याण कार्य नहीं कहे 
जा सकते। 
शरीर, मन, बुद्धि, आत्मा ओर वाणी को शुचिता तो बिना सम्ञाए भी समज्ञ 
मे आती है (अतः इसको एक्सप्लेन करने में पृष्ठ सामग्री का अपव्यय नहीं करेगे) 
लेकिन कर्मो की शुचिता के विषय मेँ कुछ कहना आवश्यक महसूस होता है । 
क्योकि मर्म को न जानने वाले लोग इसे दिखावा, ढोग अथवा डामेबाजी (नाटकीयता) 
समञ्च लेते हें । कर्म की शुचिता मेँ केवल कर्म ही नहीं कर्म करने के साधन, 
उपकरण आदि भी आते हँ साथ ही स्थान भी। इन सभी में शुचिता होनी चाहिए। 
स्थान कौ शुचिता से पूर्व साधनों व उपकरणों कौ शुचिता का वर्णन करेगे, कर्मो कौ 
सहित । (समूचों कौ व्याख्या अनावश्यक होगी । एक ही उदाहरण से 
सबको समज्ञा जा सकता है, अतः व्यर्थं कलेवर वृद्धि नहीं करेगे) । 


साधनों व उपकरणों की शुचिता 

आपने प्रायः विद्याधियों को अपनी पुस्तक या पेन आदि गिर जाने पर, अथवा 
उन पर पैर लग जाने पर (अनजाने मेँ भी अपमान या तिरस्कार हो जाने पर ) उन्हे 
उठाकर माथे से लगाते या चूमते अवश्य देखा होगा। ठेसे संस्कार विद्यार्थियों मे 
डाले जाते थे कि वे विद्या का सम्मान करें । आज का पतां नहीं, पहले तो प्रायः सभी 
बालकों मे ये संस्कार हआ करते थे। इसके अलावा ब्राह्मणों दवारा शास्त्र का पूजन, 
त्रियो द्वारा शस्त्रो का, वणिकों द्वारा तुला व बहीखातां का, मिस्त्रियों द्वारा अपने 


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ओजारों का पूजन होता हुजा भी आपने अवश्य देखा होगा। यह आदर ओर 
व्यवस्था का भाव अपने साधनों या उपकरणों के प्रति शुचिता का उदाहरण है-- कर्मं 
सेभी, मनसे भी। 

मोटे तौर पर यह सब अंधविश्वास या रूढिवादिता लगता है । मानो ढंग हो 
रहा हो । किन्तु इसके बहुत से वैज्ञानिक व मनोवैज्ञानिक लाभ हँ जबकि हानि केवल 
एक । वह यह कि आधुनिकता का चश्मा पहनने वाले कुछ अल्पन्ञ लोग जो प्राचीन 
होने के कारण ही दुकरा देते हों । उसे गुण-दोष, लाभ-हानि जाने लिना वे लोग एेसा 
करने वालों को व्यंग्य या उपेक्षा को दृष्टि से देखते हैँ । पर वास्तव मे स्वयं वे ही 
व्यंग्ये ओर उपेक्षा के पात्र है, अपनी हठधर्मिता या अल्पन्ञता ओर अपनी थोथी 
मानसिकताके कारण। | 

साधनों व उपकरणों के प्रति शुचिता का सबसे पहला लाभ यह है कि 
` उपकरण व साधन स्वच्छ ओर व्यवस्थित रहते हैँ जिससे देखने में भी अच्छा लगता 
है । साधनों व उपकरणों की आयु, टिकाऊपन, उनकी सुचारुता व कार्यक्षमता बढती 
है । अवसर होने पर वे तुरन्त प्रयोग मेँ लाए जा सकते हैँ । उन्हे दूंढने या दुरुस्त करने 
` मे अवसर हाथ से नहीं निकलता। इसके अलावा व्यक्ति को स्वच्छता, व्यवस्था 
ओर सलीके की आदत पड़ती है किन्तु यह सब छिट-पुट लाभ हैँ । असली लाभ तो 
बहुत गहरे हे, यद्यपि शनैः शनैः प्राप्त होते हें । 

जेसे- जो हमारी आजीविका में, सफलता या शक्ति को प्राप्त करने में हमारे 
सहयोगी हैँ उनके प्रति कृतक्ञता या आभार का प्रदर्शन करना हमें धर्मभीरु व 
सद्गुणी बनाता है । अपने साधनों व उपकरणों के प्रति शुचिता या आदर रखने वाला 
उनका कोई दुरुपयोग करने कौ तो सोच भी नहीं सकता। जो अपने साधन, उपकरण 
आदि का दुरुपयोग नहीं कर सकता, वह भला उनसे प्राप्त कौ गई शक्ति का 
दुरुपयोग कैसे कर सकता है ? ओर जो अपने साधन व उपकरण को इतना आदर व 
सम्मान देगा, वह अपने बुजुर्गों तथा आदरणीय व्यक्तियों को कितना सम्मान देगा। 
उनके अनादर के बात तो वह स्वप में भी नहीं सोच सकता। इस प्रकार एक ` 
मामूली-सा प्रत्येक व्यविति एेसा संस्कारित होगा तो समाज स्वगं बन जाएगा । 
विश्वमैत्री, विश्व बंधुत्व ओर विश्व शांति के लिए नारे लगाने कौ जरूरत नहीं 
पडेगी । वह स्वतः स्थापित हो जाएंगे। यही तो भारतीय दर्शन है । "वासुदेवाय 
कुटम्बकम्‌' तभी तो सम्भव है ओर व्यक्ति का आत्मोत्थान, पात्रता, शुद्धता व 
पवित्रता इसी तरह के छोटे-बड़े नियमों के मन से पालन पर ही तो आधारित है । 

अतः मन, वाणी, आत्मा, बुद्धि, विचार, शरीर व कर्म के साथ साधनों व 
उपकरणों की शुचिता भी नितांत आवश्यक है ओर साथ ही आवश्यक है-- स्थान 
की शुचिता, किन्तु स्थान की शुचिता का अर्थं अपने घर्‌, घर के आस-पास या 
साधना-कक्च को मात्र साफ सुथरा रखना ही नहीं है । उसे पवित्र, निर्मल व निविकार 

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रखना भी है ओर यह मात्र अगरवत्ती जला देने याघंटायाशंख बजा देने से ही नहीं 
होता यह सब (यद्यपि घंटा व शंख का नाद जहां तक जाता हे, वहां तक के 
कोटाणुओं को वायुमंडल नष्ट करता हे पर यह सब भौतिक शोधन हे ) । उसको 
अपने कर्मो तथा विचारों द्वारा संस्कारित करने से होता हे । बेहतर होगा कि इस मुहे 
को भी थोडा-साविस्तारसेलें। 


स्थान की शुचिता 
क्रिया, पात्र, स्थान ओर समय जव एक साथ साधे जाते ह तब कार्य शीघ्र 
सिद्ध होते हें । अतः स्थान को साधना भी परमावश्यक हे । एक ही कार्य एक ही 
स्थान पर लम्बे समय तक करते रहने से उस स्थान में उस कार्य विशेष से सम्बन्धी 
संस्कार उत्पन हो जाते हैँ । कर्ता ज्यों ही उस स्थान पर पहुंचता हे उसको मानसिकता 
स्वतः ही उस कार्य विशेष को करने के लिए तैयार हो जाती हे, अथवा उसका 
'मूड' वैसा ही हो जाता है । यदि उस स्थान पर केवल ओर केवल वही कार्य विशेष 
किया जाता रहे ओर अन्य कोई कार्य वहां न किया जाए । अन्य किसी कार्य के 
विषय मेँ वहां सोचा भी न जाए, तो वह स्थान ' सिद्ध ' हो जाता है । वहां आने वाले 
हर व्यक्ति (मात्र कर्ता ही नहीं) की मानसिकता वहां आते ही परिवर्तित हो जाती 
हे ओर मूड वैसा ही हो जाता है, जैसा काम कि वहां पहले किया जाता रहा हे । यही 
हे स्थान की शुचिता का भावार्थ । यही है स्थान की पवित्रता या ' सिद्धि ' | 
उदाहरण के तौर पर-व्यायामशाला मेँ जाते ही व्यायाम करने का मन होने 
लगता हे । मंदिर में जाते ही मन मे श्रद्धा व भक्ति का उदय हो जाता है । श्मशान मं 
जाते ही उच्चाटन, निराशा व वैराग्य के भाव उत्पनन हो जाते हैँ । जीवन कौ 
क्रणभंगुरता का विचार आने लगता है । शौचालय में बैठते ही मलत्याग के लिए 
दबाव (प्रेशर) बन जाता है। शयनकक्च मे जाकर पलंग पर लेटते ही नींद आने 
लगती हे (बशरते कि शयनकक्ष को अन्य कार्यो मेँ प्रयुक्त न किया जाता हो) । 
अथवा हस्पताल मेँ जाते ही व्यक्ति की तबियत अनमनी, उदास ओर मानसिकता 
कुछ रुण-सी होने लगती है आदि। 
यह सभी उदाहरण बताते हँ कि जिस स्थान पर जैसा कार्य लम्बे समय 
तक निरंतर किया जाए, वह स्थान उसी प्रकार से संस्कारित हो जाता है ओर 
वहां आने या रहने वाले के मन पर वैसा ही प्रभाव डालता है। पाठक इसे 
इकालोजिकल इफेक्ट कह सकते है । किन्तु साइकोर्लोजी को इफेक्ट कौन कर रहा 
हे 2 ओर क्यो कर रहा है ?-स्पष्ट है कि स्थान ही वह प्रभाव डाल रहा है ओर 
इसलिए, क्योकि वहां एक कार्य-विशेष ही लम्बे समय तक किया जाता रहा है । 
कुछ तारिक पाठक कह सकते हँ कि यह स्थान का नहीं, ' माहौल ' का प्रभाव होता 
हे । पर यह सही नहीं होगा । क्योकि बहुत से वीरान स्थानों पर भी एसे प्रभाव देखे 


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जा सकते द । तपोवन आदि मे आप जाएं तो मन तप करने को होता है । अजीब सी 
शाति वहां मिलती है । जबकि वहां ऋषियों दवारा कभी तप किया गया था। जआज वे 
माहौल बनाने के लिए तप नहीं कर रहे । बहुत से मन्दिरो के रखण्डहरों या अवशेषो 
` में (जहां पजा कां कोई माहौल नदीं होता) -- जाकर भी सात्विक तथा आस्तिक 
भावों का उदय होता है । यह तर्क का नहीं, अनुभूति का विषय है । समञ्ने का 
विषय हे। 
वास्तुशास्त्र ओर आयुर्वेद इसीलिए भूमि के संस्कार देखने ओर उसका 
पूजन करने पर बल देते ह । ( कूडे खत्ते की जमीन, जहां लम्बे समय तक कूड़ा 
डाला जाता रहा है), बूचडखाना (जहां पशुओं का वध किया जाता है), अथवा 
जहां भीषण नर संहार हुआ हो (वधस्थली/संग्रामस्थल) आदि भूमियों को निवास 
के योग्य इसीलिए नहीं माना जाता कि वह भूमि उसी प्रकार से संस्कारित होती है । 
यहां तक कि जैन मन्दिर व श्मशान या कब्रगाहों के निकट भी आवास बनाने के 
लिए वासुशास्त्र इसीलिए निषेध करता है कि उन स्थानों के संस्कार निकट 
त्रो को भी थोड़ा बहुत प्रभावित करेगे । उच्चाटन, अशांति, भय अथवा वैराग्य, 
उदासीनता या बीतरागिता का भाव उनके पड़ोस में रहने वाले दम्पत्तियों को प्रभावित 
करेगा ओर उनका गृहस्थ जीवन असफल व कष्टमय हो जाएगा ।) . 
जमा जोड यह कि अन्य पहले बताई शुचिताओं के साथ स्थान की शुचिता 
का भी उतना ही महत्त है ! ओर वह मात्र ्ञाड बुहारी या अगरत्ती जलाने तक ही 
सीमित नहीं है। एेखा करना तो पाखण्ड हो जाएगा, यदि क्रिया, भाव ओर विचारो 
द्वारा भी स्थान की शुचिता का ध्यान न रखा गया तो । इसलिए शब्दों के सम्पूर्ण अर्थो 
व मर्म को समञ्च । केवल शब्दार्थ ही नहीं भावार्थं पर भी ध्यान दें । तभी ग्रन्थों में 
बिखर मोतियों का मोल समञ्च मेँ आएगा । वरना उन्हें कंच समज्ञकर उनकी उपेक्षा 
हो जाएगी । शास्त्र को पढाते समय जो गुत्थियों को सुलज्ञाकर बताए शब्दार्थं ही 
नहीं, भावार्थं भी बताए, यह भी गुरु की एक विशेषता हे । खाली शब्दार्थ करना तो 
अनुवादक का कार्य है, गुरु का नहीं । कीं कही शब्दार्थं उलञ्ञा देता है, अतः कोरा 
शब्दार्थं किसी काम का नहीं होता। ॥ 
जैसे- मु ने बांग दे दी।' इसका शब्दार्थं हुआ कि सुग नामक एक पक्षीने 
आवाज कर दी। लेकिन भावार्थ है कि--' सवेरा हो गया ।' जबकि सवेरा का 
जिक्र कहीं वाक्य मे है ही नहीं । कोरा शब्दार्थ भटककर रहं जाए । धर्मग्रन्थो म, 
योगशास्त्र मे कनीर के दोहो में एेसी ही गुत्थियां मिलती ह । खोल लीं तो अर्थ 
समञ्च मे आया वरना बेकार । जेसे- 
कबीरदास की उल्टी वाणी। 
बरसे कम्बल भीगे पानी। 
8919) 


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19 


कुण्डलिनी जागरण का मार्गं : 
अव्टग योग 





योग क्याहे? ॥ | 
कुण्डलिनी जागरण मेँ मूल रूपसे दो ही उपाय है-- योग ओर मंत्र। 


मंत्र-तंत्र आदि कौ चर्चा बाद मेँ करेगे, पहले योग कौ चर्चा करेगे । जैसा कि नाम 


ही से स्पष्ट हे- योग का अर्थ हे जोड्ना या बट्ाना । बढाना अपने केद्दियकरण 
को, नियंत्रण को, मनोबल, आत्मवल व अपनी शक्तियों को ओर जोडना स्वयं की 
ईश्वर से, आत्मा को परमात्मा से, स्व को विराट से, सक्षम को अनन्त से । ' चैनलाइच्ड 
कर देना खुद को परम के साथ। इस प्रकार योग एक पुल है जो स्व को परम से 
जोडता है । योग का अर्थ मात्र शारीरिक कलाबाजियां नहीं है । जैसा कि प्रायः समञ्च 
लिया जाता है । शास्त्रीय मत से- 
` योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः ॥' --पातञ्जल योग प्रदीप 
(चित्त को वृत्तियों का निरोध ही योग हे ।) 
गीता के अनुसार- 
तं विद्यादूदुःख संयोग वियोग योग संञितम्‌। ॥ 
अर्थात्‌-जो दुख रूप संसार के संयोग से रहित है तथा जिसका नाम योग है । 
हटयोग, ध्यान योग, ज्ञान योग, सांख्य योग, कर्मयोग, भवित योग, प्रेमयोग के नाम 
तो हमने भी सुने है । आपने भी सुने होगे । ये सभी योग की विभिन प्रणालियां हैँ । 
इनम्‌ हठयोग व ध्यानयोग कुण्डलिनी जागरण के लिए अधिक उपयोगी हैँ । इनमें 


। भौ विशेष तौर पर ध्यान योग । ( दूसरी ओर मंत्र ओर तंत्र दोनों कुण्डलिनी जागरण. 


# । मे वनि रहते है किन्तु मंत्र विशेष रूप से । इनको चर्चा अगले खण्ड में 
करगे) । मगर आजकल एक ओर नाम "मार्किट ' मे चल निकला है- सहज 
योग'। जो ध्यान योग का ह विकृत ओर भ्रामक रूप है ओर शास्त्र सम्मत नही हे। 

योग तो सदेव सहज ही होता है। दूस्सहता तो पात्रता उत्पन करने मेँ होती है । 
अतः ` सहजयोग' नाम ही भ्रामक है । 'मार्विर' शब्द का प्रयोग भी मेने इसीलिए 
किया कि योग कोई दुकानदार की चीज नही है । परन्तु कुछ लोग एेसा कर रहे 
ह बहरहाल ! इस विवाद मेँ हम नही पगे । परन्तु जिज्ञासु पर अल्पनज्ञ पाठकों को 


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"माया गुरुओं ' के जाल से सावधान कर देना हमें युक्ति संगत मालूम होता है । अतः 
इतना अवश्य कहेंगे कि जो व्यक्ति सामूहिक कुण्डलिनी जागरण का दावा करे 
अथवा कुण्डलिनी जागरण कर देने का ही दावा करे वही ठग है । क्योकि दावा 
सम्भव ही नहीं होगा इस मार्ग मे। 

प्रत्येक व्यक्ति के गुण, स्वभाव व प्रकृति अलग-अलग होते है। प्रत्येक 
व्यक्ति के संस्कार ओर विकारो को भी अलग-अलग स्थितियां रहती है । प्रत्येक 
व्यक्ति की मानसिकता, सामर्थ्य, पात्रता व लगन भी विभिन स्तरों कौ होती है। 
प्रत्येक व्यक्ति का भाग्य भी अलग होता है । अतः निश्चित अवधि में एक ही मार्गं 
प्रत्येक व्यक्ति के अनुकूल नहीं होता । कोई तंत्र मार्गं से सफल होने की सम्भावनाओं 
वाला होता हे, कोई मन्त्र मार्ग से। कोई हठयोग से तो कोई ध्यान योग से। इतना ही 
नहीं, सम्भव है किसी को एक ही ' ज्ञटके में सफलता मिल जाये । संभव है कोहं 
अनगिनत ज्ञटके भी चूक जाए । यह भी सम्भव हे कि पूरे जीवन किसी को *ज्जटका 
ही न महसूस हो । ठेसे लोग भी हो सकते हों या हुए है जो जन्म जन्मान्तरों के बाद 
सफलता प्राप्त करते है । अच्छे- अच्छे योगी भी सिर पटककर रह जाते हैँ ओर 
कुण्डलिनी जागृत नहीं होती । फिर भला इस विषय में दावा कैसे सम्भव हे ? 

एक ही रोग की बहुत-सी ओषधियां होती है । कौन-सी किसे देनी है? 
कब ओर कितनी देनी है ? कैसे ओर कल तक देनी है ? यह निर्णय कुशल वैद्य 
रोग की गम्भीरता, रोग की अवधि, रोगी की स्थिति, रोगी की अवस्था, रोगी 
की क्षमता, रोगी की प्रकृति व स्वभाव तथा ऋतु या समय के आधार पर लेता 
रे । सबके लिए एक ही ओषधि, एक ही अवधि तक ओर एक ही मात्रा मे दे 
देनी कल्याणप्रद नहीं मानी जा सकती ! ओर सच बात तो यह है, जो लाख रुपए 
की है कि जो व्यक्ति कुण्डलिनी जागृत कर लेता है वह नाम के लिए, यश के लिए, 
मान के लिए, धन के लिए, सुविधाओं के लिए अथवा अपने विकृत स्वार्थो को पूति 
के लिए कभी तुम्हारी कुण्डलिनी भी जगा दंगा ।' एेसा दावा करके चेलो को 
भीड़ नहीं जुटाता। उसे पोस्टर लगवाने या पन्लिसिटी की जरूरत नहीं होती । जब 
सूर्य उदय होता है अथवा फूल महकता है, तब सब स्वयं ही जान लेते ह । उसे अपने 
प्रकाश या सुगंध को विज्ञापित नहीं करना पडता। 

जो प्रदर्शन चाहता दै, तालियां चाहता है, पैर छूने वालों कौ भीड्‌ या धनवरषा 
चाहता है वह तो रीता हुआ है, पूर्णं नहीं । पूर्णता में समस्त एषणाएं समाप्त हो 
जाती है । वह वास्तव में ब्राह्मण ' कहलाने का अधिकारी हो जाता हे । जिसकी 
कुण्डलिनी जागृत हो जाती है, जिसकी परम से लौ लग जाती है, जो सिद्धावस्था मे 
पहुच जाता है वह तो प्रचार से दूर भागता है। वह तो प्रकाश ओर सुगंध को भी 
इसलिए रोक देना चाहता है कि दूसरे लोग उसके ' आत्मोत्थान ' को जानकर उसके 
पीके न लगे ओर उसकी अपनी साधना में व्यधान न पडे। हां, मगर ` नया-नया 

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मुल्ला ज्यादा अल्लाह-अल्लाह करता हे ।' नया-नया पहलवान हाथ चौद करके 
ओर सीना निकाल कर चलता हे । किन्तु फलदार वृक्ष तो सदा ल्युकता है। ओके 
व्यक्ति को थोड़ी-सी सफलता सहन नहीं होती । कहावत है कि 'ओटों के घर 
तीतर, बाहर रखें कि भीतर।' अथवा ' चूहे को मिली कत्तर, नजाज बन 
गया।' इसलिए, वह जो दिखावा कर रहा है, या तो थोडा-सा जानता दै, या 
बिल्कुल ही नहीं जानता। या तो यश ओर मान चाहता है, दूसरों को प्रभावित करना 
चाहता हे अथवा अपना उल्लू सीधा करने के लिए दूसरे को मूर्ख बनाना चाहता हे । 
मनुष्य के इस मनोविज्ञान को समञ्चिए । नीति को समङ्खिए । विश्वास कर लेने 
से पूर्वं अपनी बुद्धि, ज्ञान व अनुभव के आधार पर किसी को तोलिए, फिर शास्त्र 
वर्णित सिद्धांतों पर । गुरु होना बड़ी बात हे । लेकिन गुरु को पहचानना ओर भी बडी 
बात हे। खासकर आज के युग में। जेसा कि स्वयं ककीर ने कहा है- 
कनीरा सद्गुरु ना मिल्यो, रही अधूरी सीख। 
स्वांग अति का पहरिकर, घर-घर मांगे भीख ॥ 

(जब कबीर के युग मेँ एसी " अंधेर' थी, कबीर को यह लिखना पड़ा । आज 
तो जब घोल, ठगी ओर विकृत स्वार्थ का युग है तब क्या ' सद्गुरु" अपने 
7?097657 बाटता सहज ही मिल जाएगा ?) 
योग के आठ अंग 

ध्यान योग के आठ अंग है यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार 
धारणा, ध्यान, समाधि । जैसा कि 'पातञ्जल योग प्रदीप ' में स्वयं महर्षिं पातञ्जलि 
ने कहा है-"यमनियमासनप्राणायामप्रत्याहार धारणा ध्यान समाध्योऽष्टा- 
वङ्घानि ॥' (यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान ओर समाधि- 
योग के यह आट अंग हैँ) । इनको क्रमशः इसी क्रम मेँ अपनाना चाहिए । 
यम 

क मन को शुद्ध व वश मेँ रखने के लिए इनका पालन किया जाता है । ये है- 
टसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य व अपरिग्रह । जैसा कि कहा है" अ्हिसासत्यास्तेय- 
ब्रह्मचयांपरिग्रहा यमाः ' इनका मन कर्म व वचन से पालन किया जाना चाहिए। 
आइए इन पाचों को थोडा-सां समञ्ँ। 
अहिंसा 

ण मन, कमं तथा वचन से किसी प्राणी को सरा भी कष्ट न देना ' अहिंसा ' है| 
अहिंसा केवल मारपीट से दूर रहना या हत्या आदि न करना ही नहीं है अपितु किसी 

कोभीकष्टन देना अहिंसा है। नतोकर्मद्रारा (शरीर से), न ही वचन द्वारा (वाणी 
से/गाली देना/धमकौ देना आदि) न ही वचन द्वारा (अर्थात्‌ मन मेँ भी ठेसा भाव 


96 कुण्डलिनी शक्ति कैसे जागृत करे-- 6 


नहीं आना चाहिए) । यदि मन, कर्म तथा वचन से 12 वर्षो तक अहिसा का पालन 
कियाजाए तो साधक को कोई हिसक नहीं कह सकता। 


यत्य 
मन, कर्म व वचन से सत्य का पालन करना ' सत्य ' हे । न मुख से असत्य 
बोलें, न मनमेंकपरटया धोखे का भाव आए ओरन ही शरीर द्वारा एेसा कार्य हो। 
जान या अनुभूति को बुद्धि द्वारा तौलकर जो अनुभव हो उसे ज्यों का त्यों प्रकट 
करना सत्य हे । किन्तु उस प्रकटीकरण से किसी को दुःख नहीं होना चाहिए । यानि 
उसके लिए अहितकर व अप्रिय नहीं होना चाहिए । जेसा कि कहा गया है-- 
सत्यं ब्रूयात्‌ प्रियं ब्रूयात्‌ ना ल्ूयात्‌ सत्यं अप्रियम्‌ 
(सच बोलो, प्रिय बोलो, अप्रिय सत्य मत बोलो ।) 
-- मनुस्मृति 
12 वर्षो तक एेसखा करने से मुख से निकला सत्य होता हे । 
अस्तेय 
अस्तेय का अर्थ हे-एेसे धन या सम्पदा कोन लेना, जिस पर हमारा 
धिकार न हो। जेसे किसी के स्वत्व का अपहरण करना, चोरी, छल से ले लेना, 
गी, विवशता का लाभ उठा कर ले लेना, दलाली८ब्लेकमेल, भीख लेना, या पड़ 
हई वस्तु उटा लेना अथवा दूसरे की वस्तु बिना उसको अनुमति लिए छेडछाड या 
प्रयोग करना आदि । यह सन स्तेय (चोरी) हे । इसमे 7^>‹ को चोरी, दूसरों कौ 
रचनाओं कौ चोरी, रिश्वत आदि सब शामिल है इनको मन, कर्म ओर वचन से न 
करना ही अस्तेय हे । यानी करना तो हे हौ नही, ठेसा कहना भी नहीं हे (जैसे किसी 
अरं की रचना/शेर अपने नाम से सुनाना) ओर एेसा सोचना भी नहीं है । जो 12 वर्षो 
तक ेसा कर लेता है, उसका सामान आदि कोई चुरा नहीं सकता। 


ब्रह्मचर्य का अर्थ मन, वाणी ओर शरीर से होने वाले सभी प्रकार के मैथुनो 
क्रा त्याग कर वीर्यकौ रक्षाकरनेसेहे। जेसा कि कहा गया है- 
कर्मणा मनसा वाचा सर्वावस्थासु सर्वदा, 
सर्वत्र गैथ॒न त्यागी ब्रह्मचर्य ॒प्रचक्षते॥ 
जहनी, अय्याजी, मौखिक ( अश्लील वार्तालाप) अय्याशी, नेत्री द्रारा काम 
सुख लेना, कानों दवारा, स्पर्श द्वारा काम सुख लेना तथा स्त्रियो का संग करना आदि 
सभी वर्जित है । समस्त इन्ियो, मन आदि का इस विषय में पूर्ण संयम ही ब्रह्मचर्य 
हे । बारह वर्ष तक इसका हर प्रकार से पालन करनं ओर मन में ठेसी कल्पना भी न 
आने देने पर शरीर असीम शक्तिवाला हो जाता हे । किन्तु वीरय क्षय किसी प्रकार भी 
(स्वप्न मे भी) नहीं होना चाहिए। क्योकि जेसा कि कहा गया ठे- 
97 





यावद्बिन्दुः स्थितो देहे तावन्भृत्योर्भयं कुतः। 
(जव तक शरीर में बिन्दु/वीर्य स्थित हे, तब तक मृत्यु का भय कहां ?) 


अपरिग्रह | 
अपरिग्रह का अर्थ है संचय ना करना। अपने स्वार्थो कौ पूर्तिं के लिए मोह 
पूर्वक धन, सम्पत्ति, साधनों व भोग सामग्रियों का संचय करना परिग्रह कहलाता हे । 
मन कर्म ओर वचन से परिग्रह का अभाव ही अपरिग्रह हे। परिग्रह से ममत्व 
(ममता।/मोह), लोभ तथा नवीन इच्छाओं की उत्पत्ति होती हे । अतः अपरिग्रह 
आवश्यक है, बारह वर्ष तक एेसा करने वाले के लिए सब अपने हो जाते हें | 

ये पांचों यम ' व्रत" भी कहे जा सकते है । यदि ये सार्वभौम स्थितिमेंहों 
तो ' महाव्रत ' हो जाते है । जेसा कि कहा भी हे- जातिदेशकालसमयानवच्छिन्नाः 
सार्वभोमा महाव्रतम्‌॥ ( पांतजलयोगप्रदीप ) अर्थात्‌- जाति, देश, काल ओर 
निमित्त कौ सीमा से रहित, सार्वभोम हो जाने पर ये * महाव्रत ' हो जाते हैँ । यमो का 
महाव्रत हों जाना पूर्णं संन्यासी हो जाने का लक्षण होता हे। 


नियम 
यम यदि मन व इन्द्रियो कौ शुद्धि व आत्मा के उत्थान के लिए हैँ, तो नियम 
शरीर व बुद्धि को शुद्ध कर व्यक्ति में पात्रता" उत्पन करने मे सहयोगी हँ । ये भी 
पांच ही हें । महि पातञ्जलि के अनुसार-"शौचसंतोष तपः स्वाध्यायेश्च 
प्रणिधानानि नियमाः ॥' अर्थात्‌- शोच, संतोष, तप, स्वाध्याय व ईश्वरप्रणिधान-- 
ये पांच निमय हँ । इनके विषय मेँ भी हमें थोड़ा विस्तार मे जाना उपयुक्त होगा। 
शोच 
शोच का अर्थ पूरी सफाई से है । इस विषय में पूर्व अध्याय में हम चर्चा कर 
ही चुके दँ । शरीर कौ बाहरी व आन्तरिक, वाणी, बुद्धि, विचार, मन, आत्मा, कर्म, 
साधनों तथा स्थान आदि कौ शुचिता ही शोच हे । शास्त्रानुकूल एवं सदकर्मो द्वारा 
कमाए गए शुद्ध भोजन को करना भी शुचिता के अन्तर्गत आता है । राग, देष, क्रोध, 
काम, ईव्या, मद, लोभ, अहंकार आदि सन विकारौ व मलों से शुद्ध कर लेना मन 
कौ शुचिता हे । पूर्णं शुचिता का पालन करने वाला ही पवित्र है । वही सद्पात्र है । 
संतोष 
कर्तव्यो का सजगता से पालन करना परन्तु अधिकार की इच्छा से मुक्त रहना, 
कर्मो को सजगतापूर्वक करना, किन्तु फल कौ इच्छा से मुक्त रहना, अथवा कर्तव्यो 
ओर कर्मों के परिणाम स्वरूप या प्रारब्ध से जो भी, जितना भी मिल जाए अथवा 
जेसी भी परिस्थितियों मे रहने का संयोग हो जाए- उसी मेँ प्रसन व संतुष्ट रहना । 
उससे अधिक कौ इच्छा न करना ओर कम कौ शिकायत न करना ही संतोष हे। 
98 


[ऋ । 


संक्षेप में कामनाओं, तुष्णाओं तथा लालसाओं पर विजय पालेना ही संतोष हेै। 
संतोष का पूर्ण पालन करने वाला ही समृद्ध व सम्पन है । वही शांत हे । वही पूर्ण 
हे । वही सबसे बड़ा अमीर है। 


तप 

अपने आश्रम, वर्ण, योग्यता व परिस्थितियों के अनुसार स्वधर्म का पालन 
करना । आत्मोत्थान तथा कुसंस्कारों को कुचलकर नवीन व सद्संस्कारो कौ स्वयं में 
स्थापना करना, ओर इन प्रयासों मे जो भी मानसिक या शारीरिक कृष्ट प्राप्त हों उन्हें 
सहर्ष सहन करना तप है । व्रत, उपवास, साधना आदि ' तप' के अन्तर्गत ही आते 
हें । तप द्वारा अन्तःकरण का शोधन होता है, तप द्वारा ही आत्मोत्थान होता है। 
योग्यताएं, क्षमता, शक्तियां, ज्ञान, सत्य ओर सुपात्रता कौ प्रापि होती हे। तप करने 
वाला ही सबसे बड़ा वीर, सनसे बड़ा योद्धा है, वही महान है । 


व्याख्या 
जन्म- जन्मान्तयो के कर्मो के परिणाम स्वरूप मन का स्वभाव, प्रकृति व 
संस्कार बनते है ओर वे उन्हीं कर्म कौ पुनरावृत्ति से ओर भी दृढ होते हैँ । जैसे 
कागज को यदि एक स्थान पर मोड दिया जाए तो कागज मे एक सिल्वर या शिकन 
पड जाती है। उसे जितना अधिक उसी दिशा मे दबाया या फेटा जाएगा, शिकन 
उतनी ही गहरी, स्थाई व दढ होती जाएगी । शिकन को निकालने के लिए कागजं 
को विपरीत दिशा में मोडकर बार-बार हाथ फेरना या दबाना पड़गा। इसी प्रकार 
मन में पड़ी पुराने कुसंस्कारों की शिकें को निकालने का प्रयासं ही तप हे ! 
तप एक पैर पर खड रहना नहीं हे । इस बात को समञ्च । 
सजा ओर साधना या दण्ड ओर तप पे मात्र स्वेच्छा व प्रसनता क्छा अंतर 

होता है ।! जब हम अपनी इच्छा के अनुसार परवश होकर, मजबूरी मे, कोई कार्य या 
श्रम करते है, तब वह दण्ड या सजा कहलाती है । उससे कष्ट व दुःख होता है किन्तु 
अपनी स्वेच्छा से, अनुशासन-से, प्रसन्नता पूर्वक हम स्वयं उसी क्रिया याश्रम को 
करते हँ तब वह तप या साधना होती है । तब कष्ट मे भी प्रसननता ओर संतोष का 
अनुभव होना। जैसे- जेल में कैदियों द्वारा श्रम ओर पहलवानों द्वारं किया जाने 
वाला श्रम जो वे शरीर निर्माणं के लिए करते हैँ । उदेश्य ओर इच्छा सजा को तप मे 
ओर तप को सजा में बदल देते हैँ । जबरदस्ती, विवशतापूर्वक, इच्छा के विरुद्ध 
दिया गया धन-जुर्माना, हरण या लूट यें आता है । जबकि इच्छापूर्वक, अपनी खुशी 
से दिया गया धन-दान, त्याग व परोपकार की गिनती में होता है ओर वही फलीभूत 
भी होता हे। अतः ' तप" को गम्भीरता से समं । तप कहीं सजा में न बदल जाए। 
अथवा तप को हम पाखण्ड न समञ्ञ ले। 


99 








स्वाध्याय 
स्वाध्याय के विषय मेँ भी पिले अध्याय में कुछ चर्चा को जा चुको हे । पि 
भी संक्षेप में यह समञिए कि जिसके द्वारा कर्तव्य-अकर्तव्य का बोध हो सके-- 
एेसी पुस्तक, ग्रन्थों व शास्त्रों आदि का नित्य अध्ययन, उसका चिन्तन, मनन नौः 
फिर जीवन में उसका अमल ही स्वाध्याय हे | कुछ विद्वान इसी के अन्तर्गत ईष्टदेठ 
का 'जप' भी मानते हैँ । कुछ विद्वान जप को ईश्वरप्रणिधान के अन्तर्गत मानते हँ 
बहरहाल, अध्ययन के मामले में सभी एकमत हें । किन्तु सद्‌ साहित्य को ही पदधा 
जाना चाहिए । पढ़कर गुना जाना चाहिए ओर फिर उसके निष्कर्ष को अपनानाः 
चाहिए। | 


ईश्वरप्रणिधान 

अपने अहं आदि का त्याग करके समग्र रूप से ईश्वर को ही समपित हो 
जाना, उसी के आश्रित हो जाना, उसी के शरणागत हो जाना, जसे वह नचाए वैसे 
ही नाचना-ईश्वर प्रणिधान है।जोहोरहाहे, जेसे हो रहा हे, उसे वेसे ही होते 
देना। बीच में अपनी बुद्धि या अहं कोन लाना यही ईश्वर प्रणिधान हे। इसमें 
साधक का सम्पूर्णं समर्पण हो जाता हे, वह ' कर्ता' न बनकर द्रष्टा! या ' माध्यम 
बन जाता है। 
व्याख्या 

सत्य तो यही हे कि ईश्वर की इच्छा के विपरीत कुछ हो ही नही सकता । 

अतः जो होना है वह होकर रहता-है ओर जो नहीं होना दै, वह कभी नहीं होता 
किन्तु मनुष्य का अहं, उसका कर्तापन का बोध, प्रभु कौ माया/लीला का प्रभावं 
एेसा है कि मनुष्य स्वयं को भ्रमवश कर्ता मानकर सुखी या दुःखी होता रहता हे | 
गर्वित या पछताता रहता है ओर जितना वह एेसा करता हे--उतना ही वह माया कौ 
दलदल में फंसता जाता है । प्रायः व्यक्ति सफलता का श्रय अपने को, अपनी बुद्धि 
व दूरदर्शिता को अपने प्रयासों को देता हे । किन्तु असफलता का कारण बह सदेव 
भाग्य को ठहराता है । अपनी भूलों या त्रुटियों को नहीं । जबकि तत्वतः वह न तो 
सफलता के {लिए जिम्मेदार हे, न ही असफलता के लिए । जंसा कि कहा गया हे-- 
हानि लाभ, जीवन मरण, यश॒ अपय विधि हाथ। 

(हानि लाभ, जीना मरना, जय-पराजय, सफलता, असफलता, बदनामी 
ख्याति आदि सब विधि के हाथ होते हैँ । मनुष्य युद्ध कर सकता हे, उसी पर उसका 
अधिकार है । किन्तु जीत या हार पर उसका कोई अधिकार नहीं हे) । 

इसीलिए गीताम सदैव प्रसन रहने का बड़ा सटीक तथा लोजिकल नुस्खा दे 
दिया गया है- अचिन्तित न चिंतति धीमान (बद्धिमान जन अचिंत की चिंता नहं 
करे। अचित यानि जो हमारी सामर्थ्य से परे है) । युद्ध मे अपने को कर्ता मानने के 

100 


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कारण मोह ग्रस्त हुए अर्जुन को श्रीकृष्ण ने गीता मेँ कर्मयोग व ईश्वर प्रणिधान का 
ही संदेश दिया हे। | 
चेतसा सर्वकर्माणिमयि सन्यस्य मत्परः। 
बुद्दरियोगमुपाश्ित्य मच्ितः` सततं भव॥ 
-- श्रीमद्भागवत गीता 
' इसलिए हे अर्जुन ! तू सब कर्मो को मन से मेरे में अर्पण करके, मेरे परायण 
होकर, समत्व बुद्धि रूप- (दुःख सुख सभी को समान मान कर) निष्काम कर्मयोग 
का अवलम्बन करके निरन्तर मेरे में ही चित्त वाला हो।' ओर यदि- 
' अथ चेत्वमहकारान्न श्रोष्यसि विनङ्क्ष्यसि ॥ ' 
(यदि अहंकार के कारण मेरे वचनो को नहीं सुनेगा८मानेगा, तो नष्ट हो जाएगा 
अथवा परमार्थं को प्राप्त नहीं कर सकेगा, भ्रष्ट हो जाएगा) । 
जसम 


शरीर को निरोग, चुस्त व शक्ति सम्पनन बनाए रखने के लिए आसनो को 
(प्रमुख 84) उनके भेदों व उपभेदों सहित व्यवस्था कौ गई हे । इन्हीं के अन्तर्गत 
स्थूल यौगिक व्यायामो ओर सूक्ष्म योगिक क्रियाओं (षट्कर्म/धोति, नौली, नेति, 
कुंजल, वस्ति, शंख प्रक्षालन आदि) कोभीलेलेते है जो शारीरिक अवयवो ओर 
प्रमुख संस्थानों कौ भीतरी शुद्धि करती है । परन्तु यह सब हठयोग के विषय हैँ । 
(इस पूरे प्रसंग पर एक स्वतन्त्र पुस्तक कौ आवश्यकता पडेगी । अतः इन्हें यहां 
चर्चा मेँ नहीं ले रहे है । इच्छुक पाठक गोल्ड बुक्स इंडिया से ही प्रकाशित मेरी पूरव 
पुस्तक ` सम्पूर्ण योग शास्त्र देख सकते हँ) । अतः यहां हम ध्यान योग मे आसनं 
की बात करेगे । ध्यान योग में आसन की आवश्यकता बेठकर ध्यान करने के लिए 
पडती है । इस मामले में आसन को सिद्ध किया जाता हे। ताकि एक ही मुद्रा मे 
सुखपूर्वक, बिना हिले-डुले दीर्घकाल तक बेठा जा सके ओर थकान आदि के 
कारण एकाग्रता या ध्यान भंग न होने पाए । जेसा कि पातंजलयोग प्रदीपमे भी 
कहा गया है -' स्थिरसुखमासनम्‌। ' अर्थात्‌--सुखपूर्वक, निश्चल्‌/स्थिर बैठे रहने 
का नाम आसन है। आसन की सिद्धि हो जाने पर दरन््रो का आघात नहीं लगता । 
मौसम, कष्ट आदि को सहने की सामर्थ्य शरीर में आ जाती है। 
ध्यान योग आसनं मे---पदासन, सिद्धासन, समासन, स्वास्तिकासन, वज्रासन, 
गोमुखासन, अर्ध-पयासन तथा सर्रलासन आदि प्रमुख है । इन आसनो के साथ 
मुख्य रूप से ' मूलाधार बन्ध ' लगाना अनिवार्यं होता हे । आवश्यकतानुसार * उड़यान 
बन्ध' तथौ ' जालंधर बंध भी लगाए जाते ह । बिना मूलाधार बन्ध लगाए 
कुण्डलिनी जागरण का प्रयास निरापद्‌ नहीं होता । इसमे कुण्डलिनी के जागृत 
होकर ऊपर उठने के आघात से वीर्य या मूत्र निकल जाने को तीव्र आशंका 


101 


कुण्डलिनी जागरण में उपयोगी कुछ ध्यान योगासन 


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पद्या्न चिद्धासन 





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वासन गोमुखासन 





अर्धा-पद्यासन सरत्तासन 





103 











रहती हे तथा अन्य उपद्रव भी संभावित होते हँ । अतः ' मूलाधार बन्ध ' अवश्य 
लगाना चाहिए। | 
( सम्पूर्णं योग रास्त्रम इन सव्र विषयो कौ पाठक विस्तार से पट्‌ सकते हें ) 
यहां इसकी संशि चर्चा करगे। 
सावधानी 
पद्मासन, अर्धपद्मासन, सुखासन, सिद्धासन, स्वास्तिकासन, वच्रासन या 
गोमुखासन (गुरु मेद्धनाथ तो मत्स्यासन का प्रयोग करते थे, किन्तु उसका अभ्यास 
काफी जटिल हे)-आदिमेंसे ध्यान के लिए किसी भी आसन को चुनें, किन्तु 
मेरुदण्ड ओर गर्दन सीधी रहे, इस विषय में सतर्क रहें । कमर में ञ्लोल या गर्दन में 
ञ्मुकाव का रहना न केवल आपको शीघ्र थका देगा, बल्कि आपका ' पौस्चर' भी 
विगाड देगा ओर कुण्डलिनी जागरण की क्रिया में मददगार नहीं होगा । सोभाग्यवश 
कुण्डलिनी जाग भी जाए तो उसको यात्रा मं अवरोधक होगा। जतः इस विषय में 
पूर्णं सावधान रहं । जसे ही ल्ल आता महसूस हो, वेसे ही कमर को सीधा करें | 
क्योकि सीधी रखी जाने के वाद भी कुच समय वेटने के बाद कमर धीरे -धीरे ्जुकने 
लगती हे । यदि सावधान न हों तो इस ञ्मकने का अहसास नहीं होता । 
जिस आसन को भी आपने चुना हे उसको अधिक-से- अधिक समय (बिना 
मुद्रा बदले या आराम किए) तक लगाए रखने का अभ्यास करें । जब तक वह 
आसन आपको ' सिद्ध ' न हो जाए । आसन सिद्ध तब होता हे (ध्यानयोग के लिए) 
जब कम-सं-कम एक घंटा, विना थकरान या असुविधा के ओर विना पैरो या मुद्रा 
को बदले-सुखपूर्वक उसी आसन में बैठे रहन कौ सामर्थ्य प्राप्त हो जाए । उदेश्य 
यही हे कि ध्यान लगाते समय आसन कौ असुविधा, असहजता या धकान ध्यान को 
भग न करे। उसमें वाधक नहो ओर एेसान हो कि कुण्डलिनी का जागरण होने 
टी जारहा हो कि आपका ध्यान थकान या असुविधा की ओर चला जाए । बहरहाल, 
प्रारम्भ मं आसन को सिद्ध करना है । अतः उसके सिद्ध हो जाने से पूर्वं ध्यान आदि 
द्वारा कुण्डलिनी जागरण का प्रयास न करे । यह जल्दवबाजी होगी । धैर्यपूर्वक शनैः 
शनः आप प्रगति करेगे तो लक्ष्य मं निश्चितता रहेगी । 
स्पष्ट कर दूकि कमर सीधी व गर्दन सीधी रखने के प्रयास में शरीर को 
अकड़ाना नह| ह । इनको सीधा रखते हुए शरीर को 1£।^9450 करना है । लेकिन 
१६।4०८ करन मं कमर में ञ्ञोल न आने पाए अथवा पेट बाहर न निकले इस विषय 
म सावधान रहना है । अतः प्रारम्भ मेँ आप दीवार के सहारे इस अभ्यास को करं तो 
वेहत्‌ रहगा। 
बन्ध 
आसन के साथ 'वबन्धर' भी सिद्ध होने चाहिए । संक्षेप में हम तीनों बन्धो की 
यहां चर्चा करगे | 
| ५ 104 


मूलबन्ध 

इसे मूलाधार भी कहते हैँ । मूल (जड्‌८बेस) में यह बन्ध लगाया जाता हे तथा 
सभी बन्धों में प्रथम (मूल^जाधारभूत) बन्ध यही हे अतः इसे मूलाधार बन्ध कहते 
हं । इस बन्ध में जननेन्द्रिय, गुदा तथा ' सीवन' (जननेन्दरिय एवं गुदा के मध्य का 
भाग) कौ मांसपेशियों को ऊपर या भीतर कौ ओर आकषित,संकुचित किया जाता 
हे । (जिस प्रकार मल त्याग कौ क्रिया के समय मल के विसर्जित होने के साथही 
स्वतः ही गुदा को मांसपेशियों में संकोचन होता है ।) इस संकुचन को कस कर 
अधिक-से-अधिक समय तक स्थिर रहना ही ' बन्ध ' हे । पूरी तरह कस कर लगाने 
के बाद भी थोडे समय बाद गुदा व जननेद्धियों की मांसपेशियां स्वतः ही टीली 
पडने लगती हं । किन्तु सतर्क रहं । जेसे ही दीलापन महसूस हो तुरन्त बन्ध को 
कसे । इस बन्ध का अभ्यास ब्रह्मचर्य मं भी सहायक होता है तथा वीर्य को ऊर्ध्वमुखी 
करता दै । स्तम्भन सामर्थ्य को भी बढाता हे। 





सूललन्थ 
' सिद्धासन ' मे बाएं पैर को एडी जो सीवन से सरी रहती है वह इस "बन्धः 
को ढीला पडने से रोकती टै तथा सीवन को ' सपोर्ट ' देकर इस बन्ध के स्थाई व 
दीर्घकालिक होने मे काफो सहयोगी होती हे । इसी विशेषता के कारण इस आसन 
का नाम ' सिद्धासन ' रखा गया हे । फिर भी ध्यान योग्य आसनो के चुनाव में, पाठक 
अपनी रुचि, पसन्द, सुविधा आदि के अनुसार स्वतन्त्र है । ठेसा कोई नियम नहीं कि 
सिद्धासन दही जरूरी हो। (क्ल) 
उडियान बन्ध 
ट्स बन्ध में नाभि प्रदेश को भीतर कौ 
ओर खींच कर रखा जाता है । पेड्‌, नाभि 
तथा नाभि से ऊपर के भाग को भीतर कौ 
ओर अधिकाधिक समय तक आकषितरखा 
जाता हे। किन्तु इसका यह अर्थं नहं कि 
सांसकोभीरोकनाहेया छाती को अकडा 


105 





उद्धियान बन्ध 





लेना हे। जेसा कि हर बन्ध का नियम हे । 
सम्बन्धित भाग को आकर्षित/संकुचित रखते 
हए शरीर को ढीला रखना होता है। मूलाधार में भी जननांगों व गुदा प्रदेश को 
संकुचित करके शेष शरीर टीला रखा जाता हे । 
जालंधर बन्ध - 

जालन्धर बन्ध में ठोडी को नीचे दबाते हए कंटकूप में लगाने का प्रयास 
किया जाता हे। किन्तु गर्दन आगे को नहीं ्ुकनी चाहिए । ठोडी को कंठकूप में 
स्थापित करने से गर्दन की लम्बाई अगे को ओरसे कम होती है, तथा उस स्थान 
व आसपास के नाडी जाल पर बन्ध लग जाता हे। अतः इस बंध को ' जालन्धर 
बन्ध ' कहते हें । इस बन्ध में भी सम्बन्धित प्रदेश के अलावा रेष शरीर को दीला 
रखा जाता हे । किन्तु जैसा कि शुरू में भी कह आए हँ--शरीर ढीला छोडने का यह 
अर्थ नहीं कि कमर में ल्योल आ जाए या गर्दन लुक जाए। शरीर समसूत्र व सीधा 


रहना चाहिए, परन्तु १६।५८६0 । 
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जालधर बन्ध 


प्रारम्भ मे बन्धो सहित आसन को सिद्ध करे । उस दौरान केवल ईश्वर का 


ध्यान करं अथवा शुन्य मेँ ही ध्यान लगाएं । (कुण्डलिनी जागरण का प्रयास आसन 
के सिद्ध हो जाने से पूर्व न करे) । ओर सब प्रकार कौ चेष्टाओं को शान्त करके मन 
को केद्धित करने का प्रयास करें । क्योकि प्रयत्न कौ (चेष्टाओं कौ) शिथिलता से 


106 


तथा महाशन्य/परमात्मा मे मन लगाकर अधिकाधिक समय स्थिर बेठने से आसन 
सिद्ध होता हे । जेसा कि महर्षिं पातञ्जलि ने कहा है- 
' प्रयतजेथिल्यानन्त समापत्तिभ्याम । ' 
( प्रयत्न को शिथिलता जर अनन्त में मन लगाए रखने से आसन सिद्ध हो 
जाता है) । 


प्राणायाम 

प्राणों का आयाम ही प्राणायाम हे। श्वांस प्रश्वांस गति को रोक लेना/ठउहरा 
लेना ही प्राणों का आयाम यानी प्राणायाम कहा जाता हे । जेसा कि ` पातञ्जल योग 
प्रदीप" में कहा भी गया हे-- श्चासप्रश्चास योर्गतिविच्छेदः प्राणायामः ' अर्थात्‌ 
प्राण वायुन तो शरीर में प्रविष्टहो, ना ही बाहर जाए । श्वांस प्रश्वास को गति रोक 
दी जाए- यही प्राणायाम हे । पर प्रष्न उठता है कि श्वांस-प्रश्वांस की गति को 
रोकना,प्राणायाम करना क्यों आवश्यक है ? इसका लाभ क्या है ? 

पहला ओर सामान्य लाभ तो यही है कि आयु कौ वृद्धि होती हे । क्योकि जेसा 
कि पहले भी कहा जा चुका हे, आदमी की रोरी ओर सांसे गिनती कौ होती है| 
अतः कम खाना तथा गहरी सांसे लेना अथवा उनका आयाम करना (ठहराना) 

आयु को बढाने वाला होता हे, इसके अलावा केन्धियकरण क्षमता, विचारशीलता, 
विश्लेषणात्मक शक्ति, दूरदर्शिता, निरीक्षण क्षमता, बुद्धि, स्मृति तथा शांति का 
विकास होता हे । मन से अधीरता, व्यग्रता, चंचलता व अस्थिरता के भाव दूर होकर 
स्थिरता व शांति का उदय होता है । सबसे महत्त्वपूर्णं बात यह कि प्राणों को वश मे 
करने से मन वश में आता है । मन पर अपनी नियंत्रण शक्ति बढती है क्योकि प्राण 
व मन का गहन सम्बन्ध होता है। मन को वश में कर पाना अत्यंत दुष्कर हे । किन्तु 
प्राण को वश में करना अपेक्षाकृत सरल हे । अतः प्राण वशमें करने से मन वशम 
आता हे। मन को वश में करने से प्राण वश में आते हें । क्योकि दोनों सूक्ष्म स्तर पर 
अति गहन रूप से परस्पर सम्बन्धित होते है । 

जब मन उद्विग्न, बेचैन, भयभीत, परेशान, घनराया हआ, अशांत, अस्थिर या 
कामातुर होता है तब सांसों की गति भी तीव्र होती है किन्तु सांसों कौ गति को 
नियमित करते ही मन मेँ स्थिरता व शांति का भाव आ जाता हे। एेसा पाठक कभी 
भी अनुभव करके देख सकते है-इसके अलावा शास्त्र भी इस तथ्य को प्रमाणित 
करते है । जैसे, श्रीमद्‌ भवगत्‌ गीता में स्वयं श्रीकृष्ण ने अर्जुन ने कहा है-- 

असंशयं महाबाहो मनो दुर्निग्रहं चलम्‌। 
अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गृहयते॥ 

(हे महाबाहो ! निः सन्देह मन चंचल ओर कठिनता से वश मेँ होने वाला हे । 
परन्तु हे कुन्ती पुत्र! अभ्यास ओर वैराग्य से यह वश में होता हे । इसे वश मे अवश्य 
करें क्योकि-- ) 

असंयात्मना योगो द्ष्प्राय इति ` मे मतिः। 
107 








( असंयमी व्यक्ति/मन को वश मेँ न करने वाले पुरुष के लिए योग दुष्प्राय 
हे-एेसा मेरा मत है) | | 
उपर्युक्त प्रसंग मे योग व प्राणायाम का महत्व अर्जुन को बताते हए कृष्ण ने 
प्राणायाम के अभ्यास कौ बात कही है। (देखिए- भागवत्‌ गीता, अध्याय-6, 
श्लोक-35) | 
प्राणायाम के विधि-विधान, उनके भेद, लाभ-प्रभाव आदि को विस्तृत चर्चा 
हम कुण्डलिनी जागरण के अभ्यासं मेँ करेगे । यहां प्राणायाम के मुख्य तीन भेद- 
रेचक, पूरक एवं कुम्भक का संक्षिप्त वर्णन कर रहे हें । 
श्वांस को फेफड़ों मे शनैः शनैः पूरा भरना ओर उसे नाभि तक ले जाना 
"पूरक कहलाता हे । श्वांस को वहीं रोके रखना ' कुम्भक ' (आन्तिक कुम्भक) 
कहा जाता हे । वांस को शनैः -शनैः बाहर बाहर छोडते हुए, फेफड़ों को बिल्कुल 
खाली कर देना रेचक ' कहा जाता हे ओर श्वांस को शरीर से बाहर ही रोके रखना 
( नवीन श्वांस का न लेना) "कुम्भक ' (बाह्य कुम्भक) कहलाता हे । इस प्रकार का 
प्राणायाम-- प्रणवात्मक ' कहा जाता हे । क्योकि इसमें प्रणव का उच्चारण स्वतः ही 
होता रहता हे (इसके विषय में आगे विस्तार से चर्चा करेगे) । यह प्राणायाम यज्ञ की 
भाति पवित्र व प्रभावी है। जेसा कि गीतामें श्रीकृष्ण ने अध्याय-4 के श्लोक 29 
मं अर्जुन से कहा है-- 
प्राणापानगती रुद्धवा प्राणायाम परायणाः ॥ 
--श्रीमद्भागवत्‌ गीता 
अर्थात्‌-" ओर दूसरे योगीजन अपानवायु मेँ प्राणवायु को हवन करते हैँ 
(पूरक), वैसे ही अन्य योगीजन प्राणवायु मेँ अपानवायु को हवन करते हैँ (रेचक), 
तथा अन्य योगीजन प्राण ओर अपान की गति को रोककर प्राणायाम के (कुम्भक) 
परायण होते हैँ।' 


प्रत्याहार 
प्रत्याहार का अर्थं है--इद्धियों का संयम । सभी इद्ियों को उनके विषयों से 
रोकना। जेसा कि गोरक्षसंहिता मेँ कहा गया है- 
चरतां चक्षुरादीनां विषयेषु यथाक्रमम्‌ 
यत्प्रत्याहरणं तेषां प्रत्याहारः स उच्यते॥ 
अ्थात्‌-- चक्षु आदि पंच ज्ञानेद्ियोँ के रूप, रस, गन्ध, स्पर्श ओर शब्द यह 
पाच विषय हें । इन विषयों से इन्ियोँ को पृथक कर लेना प्रत्याहार कहा जाता है । 
ओर जैसा कि ' योगद" मेँ महर्षिं पातंजलि ने कहा है--' स्वाविषया 
सम्प्रयोगे चित्तस्वरूपानुकार इवेन्ियाणा प्रत्याहारः ॥' (अपने विषयों के सम्बन्ध 
से रहित होने पर इद्धियों का चित्त के स्वरूप में तदाकार-सा हो जाना ही प्रत्याहार 


हे) | 
। 108 





इन्द्रियां मन रूपी सारथी के घोड्‌ हे । शरीर रथ हे ओर बुद्धि इन घोड़ों की 
लगाम । यदि इन्द्रियां रूपी घोडे उक्ुखल हों ओर बुद्धि को लगाम ढीली पड जाए 
तोवे मन रूपी सारथी के काबृ से बाहर हो जाते हं ओर मन को शरीर (रथ) सहित 
जहां चाहते हँ ले जाते हें । इन्द्रिय रूपी घोडों को उनके विषयों कौ ओर से रोकना 
ओर मन के अनुसार चलाना ही प्रत्याहार है। 
व्याख्या 

मन (सारथी) यदि सजग न होगा तो इन्द्रिय रूपी शक्तिशाली किन्तु उुखल 
घोडे अपने-अपने विषयों कौ ओर आकर्षित होकर दौडने लगेगे। अतः मन रूपी 
सारथी को ब॒द्धि रूपी लगाम से इद्धिय रूपी घोडों को वश में रखना पडता हे । 
सारथी ओर घोडों (मन व इनद्धियो ) मे संगति अथवा एकरूपता या सामंजस्य होगा, 
तभी यात्रा सुरक्षित व सहज होगी, अन्यथा नहीं । अतः इन्दियों को उनके विषयों से 
रोकना ओर उन्हं मन के अनुकूल बना लेना योग मार्ग के लिए ही नही, समस्त 
सफलताओं, कल्याण ओर प्रगति के लिए भी अत्यन्त आवश्यक है । चंचल मन को 
प्राणायाम द्वारा स्थिर किया जाता है, किन्तु चंचल इद्धियां प्रत्याहार द्वारा वश मं 
आती हँ । इन्दियां यदि वशमें न होँ तौ स्थिर हो चुका मन भी भटक जाता हे, अथवा 
पुनः चंचल हो जाता हे । अतः प्राणायाम के लक्ष्य कौ पूर्णता के लिए भी प्रत्याहार 
अति आवश्यक है । 

दुश्य,/रूप नेत्रो के विषय हें । स्पर्शं त्वचा का, शब्द कानों का, गन्ध नासिका 
करा ओर रस।स्वाद जिह्वा के विषय हैँ । अपने विषयों के प्रति इन्दियो का आकषित 
होना तथा राग या वैराग्य/घृणा से ग्रस्त हो जाना स्वाभाविक है । जैसे नयनाभिराम 
दुश्यो/रूप को देखने के लिए नेतरेन्दरिय कौ उत्सुकता, उन्हें देखने मे रमना अथवा 
आनन्द का अनुभव करना आदि इन्द्रियों का राग या विषयों के प्रति आकर्षण हे । 
किन्तु कुरूप, वीभत्स या भयानक दृश्यों या रूपों आदि को देखने से अरुचि आदि 
इन्द्रियों का विषयों के प्रति वैराग्य/घृणा--इसी प्रकार नाक सुगंध के प्रति आकपित 
होगी किन्तु दुर्गन्ध से बचना चाहेगी । कान कर्णप्रिय शब्दो/संगीत/मधुर ध्वनियों को 
सुनना चाहेँगे परन्तु कर्कश ध्वनियो/शोर आदि से बचना चाहेगे । ठीक इसी प्रकार 
जिह्वा व त्वचा भी अपने अनुकूल(रुचिकर विषयों के प्रति आकर्षित होगे ओर 
प्रतिकूल/असरुचिकर विषयों से बचना चाहेगे । यही इन्दियों का स्वभाव हं । किन्तु 
इस स्वभाव को बदल डालना ही प्रत्याहार हे । 

अनुकूल विषयों के प्रति उत्सुक/लालायित न होने तथा उनके रसास्वादन म॑ 
मन कोरमने न देना ओर प्रतिकूल विषयों से भागने का प्रयास न करना--अथात्‌ 
अनुकूलता या प्रतिकूलता, सुख या दुःख दोनों ही स्थितियों मे सम रहना । अपतं 

स्व ' को उनके साथ ॥५५/०।५६ न होने देना-- यही इन्धियों का प्रत्याहार हे । किन्तु 
मन के साथ संगति बनाते हए, विरोध बनाते हुए नहीं । 
109 











श्रीमद्भागवत गीता में जेसा कि श्रीकृष्ण ने कहा है- 
यदा संहरते चायं कूर्मोऽङ्कानीव सर्व्ाः। 
इद्धियाणीद्धियार्थेभ्यस्तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता॥ 
अर्थात्‌- जसे कल्कञा अपने अंगों को जैसे समेट लेता हे, वैसे ही यह पुरुष 
जब सब ओर से अपनी इन्द्रियों को, इन्दियो के विषयों से समेट लेता है, तब उसकी 
बुद्धि स्थिर होती हे। 
अतः इद्ियों को उनके विषयों से न केवल रोके, बल्कि उनका चिन्तन भी न 
करने दे अन्यथा आसविति उत्पन होती है । जैसा कि गीता में कहा गया है-- 
ध्यायतो विषान्पुंसः सङद्स्तेषूपजायते। 
सङ्गात्संजायते कामः कामात्क्रोधोऽभिजायते।॥। 
क्रोधाद्धरवति संमोहः संमोहास्स्मृति विश्रमः। 
स्मृतिभ्रंशाद्बुद्धिनाशो बुद्धिनाश्ञात्प्रणण्यति ॥। 
अर्थात्‌-हे अर्जुन ! मन सहित इन्द्रियो को वश मे करके मेरे परायण न होने 
से, मन के द्वारा विषयो का चिन्तन होता हे ओर विषयों को चिन्तन करने वाले पुरष 
कौ उन विषयों मेँ आसक्ति हो जाती हे । आसक्ति से उन विषयों कौ कामना उत्पन्न 
होती है ओर कामना में विघ्र पडने/उसके पूर्ण न होने पर क्रोध उत्पन होता हे । क्रोध 
से अविवेक अर्थात्‌ मूढता उत्पन होती हे । अविवेक से स्मरणशवित भ्रमित हो जाती 
हे । स्मृति के भ्रमित होने से बुद्धि अर्थात्‌ ज्ञानशक्ति नष्ट हो जाती है । बुद्धि के नाश 
से पुरुष अपने श्रेय-साधन से गिर जाता हे। 
अतः केवल मन को वश में करना या केवल प्राणायाम पूर्णं सिद्ध नहीं होता, 
जब तक कि प्रत्याहार अथवा इद्धियों को भी वश में कर मन के तदानुसार न कर 
लिया जाए क्योकि प्रयत्न करते हुए बुद्धिमान पुरुष के मन को भी इद्ियां अपने 


विषयों कौ ओर लपककर बलात्कार से हर लेती हँ ओर इन्ियों के वशमें होने से 


ही बुद्धि स्थिर होती है- वशो हि यस्येन्द्रियाणि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ।' 


धारणा 
"देशवबन्धश्चित्तस्य धारणा।' (योगदर््न) - यानि ' चित्त को बाहर या भीतर 
करटी भी, किसी एक देश मेँ ठहराना धारणा है ।' ' गोरक्षसंहिता" के अनुसार-- 
हृदये पंच भूतानां धारणा च पृथक्‌ प्रथक्‌ । 
मनसो निश्चलत्वेन धारणा साभिधीयते ॥ 
अर्थात्‌-हदय मे मन कौ निश्चितता के साथ पंच भृतं को पृथक-पृथक 
धारण करना ही धारणा की जाती हे । 
' त्रिशिखत्राह्मण' के अनुसार-- 
' मनसो धारणां यत्तद्युक्तस्य चयनादिभिः । ' अर्थात्‌ यमादि के द्वारा मन का 


धारण करना ही धारणा दै । 


" योगत्तत्वोपतिष्ट' के अनुसार- 
भूमिरापोऽनलो वायुराकाशश्चेति पंचकः। 
येषु पंचसु देवानां धारणा पंचधोच्यते ॥ 
अर्थात्‌--उस योगी को भूमि, जल, अग्नि, वायु ओर आकाश- पाचों देवताओं 
(महाभूतो) की धारणा हो जाती हे। 
व्याख्या-- जिस योगी का चित्त वायु के साथ सुषुम्ना में प्रवेश कर जातारहै 
उस योगी को पंचमहाभूतों को धारणा हो जाती है। 
सरल शब्दों में समञ्जने के लिए कहा जा सकता है कि किसी भी विचार, सत्ता 
अथवा स्थान पर मन को केद्दित कर लेना (बाहर या भीतर अथवा पंच महाभूतो में 
पृथक-पृथक) ही धारणा है। अथवा जैसा कि नाम से स्पष्ट होता है-मन द्वारा 
किसी विचार, सत्ता या पंचमहाभूत आदि को धारण कर लेना ही धारणा हे । यह- 
ध्यान को पूर्वावस्था अपितु भूमिका कही जा सकती हे क्योकि ध्यान कहां लगाना 
है, इस विषय को निश्चित कर संकल्प से धारण कर लेना ही धारणा है । ' विज्ञान 
भैरक' में स्वयं भैरव ने भैरवी को 112 धारणाओं का उपेदश दिया है । आवश्यक 
नहीं कि शून्य या महाभूतो मे ही धारणा कौ जाए। ` 


व्याख्या | | 
धारणा के द्वारा मन को विभिन्न विषयों या कल्पनाओं को धारण कराया जा 
सकता है । अपने ध्यान को परिपक्व करने के लिए अपनी रुचि के अनुसार विषय 
या कल्पना को धारण किया जाता है! जैसा कि माता बालक से इच्छित कार्य कराने 
के लिए मिठाई, खिलौने आदि का लोभ देकर बालक का ध्यान इच्छित कार्य में 
लगाती है 1 उसी प्रकार मन के इच्छित या रुचिकर विषय अथवा कल्पना का मन 
को धारण कराकर उसे केद्धित कर ध्यान कौ ओर लाया जाता है । इसीलिए एक दो 
नहीं, पूरी एक सौ बारह धारणाओं कौ व्यवस्था को गई है । इस विषय को थोड़ा 
ओर विस्तार से चर्चा करने पर समञ्ना सरल होगा। क्योकि जेसा कि आपने 
महसूस किया होगा-- शास्त में दी गई परिभाषाएं व व्याख्याएं नवीन व्यक्ति के 
लिए काफी जटिल ओर क्लिष्ट होती हँ जिनसे भ्रम उत्पनन होता है । अतः सरलता 
के लिए दो एक उदाहरणों को लगे । 

कष्ट, पीडा या दर्द के माध्यम से भी कन्सन्दरशन होता है। यौन सुख के 
माध्यम से भी कन्सन्दरेशन होता है । प्रेम कौ प्रगाढता भी कन्सन्दरेशन देती है। कला, 
संगीत आदि के माध्यम से भी कन्सन्टरशन होता है । शून्य में, परमात्मा मे, विभिन ` 
चक्रों पर, किसी बिन्दु पर, चित्र, मूर्तिं या विचार पर भी मन का केद्धियकरण होता 
है । शब्द पर या स्पर्श पर भी कन्सन्टरेशन होता है । अतः पंचमहाभूतों के माध्यम से 
भी मन को केन्ित किया जा सकता है । केन्द्रीयकरण के लिए सैकड़ों विषय या 


111 








कल्पनापं सम्भव हैँ । किसी का भी अपनी रुचि व सुविधा के अनुसार चयन किया 
जा सकता है ओर धन को उसी कल्पना या विषय को धारण करवा कर ध्यान 
लगाया जा सकता है- इसीलिए एक सो बारह प्रकार को धारणाओं का विधान है 
किन्तु विना किसी भी धारणा के ध्यान सम्भव नहीं होता । भले ही शून्य या अनन्त 
की ही धारणा की जाए । क्योकि कन्सन्टरेशन के लिए कोड ?०।५7 तो चाहिए ही। 
वरना कन्सन्टरेर (ध्यान) आखिर होगे किस पर ? यही धारणा का महत्त्व व उपयोगिता 
हे । | 
ध्यान 

जो धारणा की जाए, अथवा चित्त/मन को जहां पर लगाए जाए-- वहां८उसी 


में वृत्ति का एकतार होकर चलना या वहीं पर मन कालगे रहना ही ध्यान या : 


एकाग्रता अथवा कन्सन्टरेशन कहा जाता हे जैसा कि स्वयं महपि पातञ्जलि ने 
' एातञ्जल योग प्रदीप में कहा है-' तत्र प्रत्यैकतानता ध्यानम्‌ ' ( जहां चित्त को 
लगाया जाए उसी मेँ वृत्ति का एकतार चलना ही ध्यान हे ) । यानि चित्त में दूसरी 


वृत्ति/भाव का उत्पन न होना अपितु धारणा या ध्येय पर एक ही वृत्ति का (जे | 


धारण की गई हो) प्रवाहमान रहना । चित्त का उसी विषय/धारणा पर एकाग्र हो 


# 


जाना ओर उस एकाग्रता का देर तक भंग न होना, या दूसरी वृत्ति द्वारा बाधित न होना | 


ही ध्यान दहै। 


' गोरक्षसहिता' मेँ ध्यान का ओर भी स्पष्ट वर्णन मिलता हे । साथ ही उसके 


प्रमुख दो भदो का भी- 
स्मृत्यसेव सर्वचिन्ताया धातुरेकः प्रपद्यते । 
यच्िते निर्मला चिन्ता तद्विध्यानं यचक्षते ॥ 
द्विविधं भवति ध्यानं सकलं निष्कलं तथा । 
चर्याभेदन सकलं निष्कलं निर्गुणं भवेत्‌॥। 
अर्थात्‌-- स्मृ ' धातु सर्व चिन्तन वाचक है ओर जो अपने चित्त में आत्मतत्त्व का 
चिन्तन करे, उसका वह चिन्तन ध्यान कहलाता हे । यह ध्यान सगुण निर्गुण के भेद 


सेदो प्रकार कामानागयाहे ओर सगुण निर्गुण का यह भेद चर्या भेद से होता है। | 


इस आधार पर कहा जा सकता है कि चित्त में एक ही विषय पर निर्विघ्न 
चिन्तन करना ही ध्यान हे । यह ध्यान सगुण८साकार ओर निर्गुण/निराकार दो प्रका 
काहोताहै-यातो मूर्तया अमूर्त। सगुणरूप का ध्यान अणिमादि सिद्धियों को प्रा 
कराता है, जबकि निर्गण का ध्यान समाधि कौ प्रापि कराता है। जैसा रि 
‹ यौगत्त्वोपतिष्ट' में कहा गया हे- 
सगुणध्यानमेतत्स्यादणिमादिगुणप्रदम्‌ | 
निर्गणध्यानयुक्तस्य समाधिश्चततो भवेत्‌ ॥। 


112 कुण्डलिनी क्ति केस जागृत करे- 1 


इसके अलावा ' क्राह्लणोफनिषद् तथा ' गोरक्षसंहिता" में ध्यान द्वारा पाप निवारण 
सामर्थ्य प्रापि, अमरत्व प्राति (आत्मध्यान द्वारा), मोक्षप्राि, अष्टसिद्धि प्राति 
कुण्डलिनी जागरण आदि के लाभ भी कहे गए ह । योगकुण्डल्योपतिषदु पैगलोपननिषद्‌ 
तेजोबिन्दरतिष्द्‌ मैतरय्युपतिष्द् योग चूडामणिः ब्राह्मणोपतिष्द्‌ आदि ग्रन्थो मे भी 
इन तथ्यों कौ पुष्टि करने वाले श्लोक मिलते है । सभी को यहां देना युक्ति संगत नहीं 


होगा किन्तु इच्छुक पाठक इन ग्रन्थों में प्रमाण देख सकते हैँ । संक्षेप में इतना कहना 


ही बहुत होगा- | 
अश्वमेधसहस्राणि वाजपेय तानि च। 
एकस्य ध्यानयोगस्य तुलां नार्हन्ति षोडशीम्‌॥ 
अर्थात्‌- सहस्रो अश्वमेध ओर सैकड़ों वाजपेय यज्ञँ का फल भी अकेले 
ध्यान योग के सोलहवें अंश के समान नहीं हो सकता। 
ध्यान अथवा धारणा सामान्य रूप से भी जीवन मेँ विभिन अवसरों पर कम 
ज्यादा प्रयोग में आते रहते है, भले ही सम्पूर्णता के साथ नहीं । इनके लिए- आसन, 
प्राणायाम, प्रत्याहार, यम, नियम आदि कौ आवश्यकता नहीं होती । किन्तु योग मार्ग 
के लिए इन सभी अंगों कौ अनिवार्यता रहती है । क्योकि इन्हीं से "पात्रता" उत्पन 
होती है। इन्हीं से शुद्धता ओर शक्ति को संभालने कौ सामर्थ्य उत्पन होती है। 
यद्यपि बहुत से विद्वानों ने योग को षडांग (छह अंगों वाला) कहा है । शुरू के दो 
अंग जो यम ओर नियम- महर्षिं पातञ्जलि आदि ने माने है, गुरु गोरखनाथ आदि 
ने नहीं माने हैँ । जैसा कि गोरक्षसंहिता मे कहा गया है- 
आसनं प्राणसंरोध प्रत्याहारश्च धारणा। 
ध्यानं समाधि रेतानि योगांगांनि वदन्ति षट्‌ ॥ 
अर्थात्‌- आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान व समोधि- योग के यह 
6 अग कहे जाते हैँ । | 
वैसे देखा जाए तो प्रारम्भ के दो अंग- यम व नियम प्रत्यक्ष रूप से योग से 
सम्बन्धित हँ भी नहीं । किन्तु अप्रत्यक्ष रूप से वे अत्यंत महत्वपूर्ण हँ । वे योग मार्ग 
को भूमिका हैँ ओर योगी में पात्रता उत्पनन करने मेँ अत्यंत उपयोगी है । इसीलिए 
महर्षि पातजलि ने योगके8 अंग कहे है 
'यमनियमासन प्राणायाम प्रत्याहारधारणाध्यान समाधयोऽष्टावङ्गानि। 
(-पातञ्जल योग प्रदीप) 
“योगत्त्वोपनिष्द्‌ * के अनुसार भी योग के आठ अंग कहे गए है । जैसा कि 
प्रमाण मिलता है- 
यमश्च नियमश्चैव ह्यासनं प्राणसंयमः ॥ 
प्रत्याहारो धारणा च ध्यानं भ्रूमध्यमे हरिम। 
अर्थात्‌-यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा (भ्रकुटि के मध्यमं 
113 


हरि का), ध्यान, ओर समाधि यह जब मिलकर अष्टाग योग कहा जाता टे। 
अतः यम ओर नियम का योग से प्रत्यक्ष सम्बन्ध न होने के कारण उन्ह 
उपेक्षित नहीं किया जा सकता। 


समाधि 
तदेवार्थयात्रनि्भासि स्वरू व गन्ययिव समाधि । 
अर्थात्‌-' जव ध्यान में केवल ध्येय मात्र की ही प्रतीति रह जाती है, होती हे 
ओर चित्त का निजस्वरूप शून्य-सा हो जाता हे तब वह ध्यान ही समाधि हो जाता 
हे । '- महर्षिं पातञ्चलि ने 'योगदर्शन' मे समाधि के स्वरूप कौ बहत सारगर्भित 
व्याख्या कौ हे । ध्यान ओर समाधि के भेद को स्पष्ट करते हुए ' गोरक्ष संहिता" मं 
कहा गया है-- 
छब्दादीनां चन्मात्र यावत्कर्णदिनुर्थितम। 
तावदेनं स्मृतं ध्यानं समाधिः स्यादतः परम॥ 
अर्थात्‌- जब तक कान आदि पाचों ज्ञानेद्ियोँ में उनके शब्द आदि विषयों का 
किचित अंश भी विद्यमान रहता हे, तब तक साधक ध्यानावस्था में रहता दे । किन्तु 
जव पाचों ज्ञान इद्दियों की वृत्तियां निःशेष भाव से आत्मा में लीन हो जाती हं तब 
समाधि कौ अवस्था हो जाती हे। 
व्याख्या 
दूसरे शब्दों मे समाधि को हम ध्यान कौ परिपक्व, प्रगाढ या चरम स्थिति कह 
सकते हें । इस स्थति में ध्याता, ध्यान ओर ध्येय (ध्यान करने वाला, ध्यान तथा 
जिसका ध्यान किया जा रहा है, वह) का अन्तर समाप्त होकर केवल ध्येय अथवा 
स्वविस्मृति हो जाती है। शायरी जुबान मेँ 
आतमाद-ए-नजर नहीं है मुञ्चे । 
अब किसी की खबर नहीं हे मुदे । 
ये खबर हे कि तुम हो मेरे करीन। 
मँ कहां हू, खबर नहीं है मचे । 
अथवा 
मे वहां दुं जहां सेएे हम दम। 
खुद को खुद की एवबर नहीं होती । 
ध्यान मँ इस कदर खो जाना, कंसन्दरेशन (एकाग्रता) का इतना अधिक प्रगाढ 
हं जाना कि सिवाय ध्येय के ओर कुछ भी स्मरण न रहना। कानों से कोई शब्द, 
नाक सं कोड गंध, त्वचा से कोई स्पर्श, नेत्रो से कोई दृश्य, जिह्वा से कोई रस आदि 
का ग्रहण न करना। अथवा ज्ञानेन्धियो का भी शरीर, मन व बुद्धि सहित ध्येये खो 
जाना ओर 'स्व' का बोध भीन रहना समाधि हे । ध्यान ज्ञानेद्धियों के विषयों द्वारा, 
114 


बाह्य विघ्नो द्वारा अथवा आन्तिरिक विक्षोभ से भंग हो जाता है । तथा ध्यान मेँ स्व 
को स्मृति च ध्याता, ध्यान व ध्येय का अन्तर बना रहता है साथ ही ध्यान की अवधि 
कम होती है जबकि समाधि मे सब स्मृति व अन्तर समाप्त होकर मात्र ध्येय की ` 
प्रतीति रहती है ओर समाधि की अवस्था स्थाई व दीर्घ होती है। ` 
घ्यान करता हुजा साधक, किसी के द्वारा हुए जाने, पुकारे जाने, उठाए जाने, 
किसी तीव्र गंध को सूंघकर या तीव्र शब्द आदि को सुनकर अथवा अपने ही 
कन्सन्टरशन के अस्थिर या विश्षुब्ध हो जाने से ध्यान भंग कर लेता है । तथा ध्यान की 
अवस्था में भी उसे "स्व ' का बोध या "मेँ चिन्तन अथवा ध्यान कर रहा हूं -एेसी 
अनुभूति बनी रहती हे पर समाधि में साधक इन सब स्थितियों से ऊपर उठ जाता है । 
ओर दूसरे लोगों के लिए मृतप्रायः अथवा ' कमा ' मे जा पहुंचा हुआ मालूम होता है, 
या अत्यंत प्रगाढ निद्रा में लीन मालूम पड़ता है किन्तु वास्तव में वह ध्यान की 
पराकाष्ठा म॑ पहुच कर समस्त दैहिक व्यापारं व स्वबोध को भूल जाता है । जैसा कि 
गोरक्ष सहित मे कहा गया है-- 
न गन्धं न रसं रूपं न च स्पर्न निःस्वनम्‌। 
नात्मानं न परस्वं च योगी युक्तः समाधिना॥ 
अर्थात्‌ समाधि में लीन योगी को-गंध, रस, रूप, स्पर्श, शब्द. इन पांच 
विषयों का तथा अपने. पराए का (स्वबोध) ज्ञान नहीं होता। 
ओर भी देखें 
अम्बुसैन्धवयो रेक्यं यथा भवति योगतः। 
यदात्मन सोरेक्यं समाधिः सोऽभिधीयते ॥ 
अर्थात--जेसे जल में सधा नमक डाल देने पर दोनों एक रूप हो जाते हे । 
उसी प्रकार मन आत्मा व इन्दियों का एक हो जाना ही समाधि कहा जाता है । 
समाधि व ध्यान की अवधि भी गृस्गोरखनाथने स्पष्ट कौ है- 
धारणा पञ्नादीभिर्ध्यानं च षषठनाडिभिः। 
दिनद्वादशकेन स्यात्माधिः प्राणसंयेमात्‌॥ 
अर्थात्‌-प्राणवायु का पांच घड़ी तक अवरोध करना--धारणा, साठ घड़ी 
तक चित्त को एकाग्र रखना ध्यान ओर बारह दिन तक प्राणों का निरंतर संयम करना 
ही समाधि है (मन ओर प्राण परस्पर सम्बन्धित होते है। प्राण वश मेँ होने से मन 
ओर मन वश मे होने से प्राण वश मे आता है । अतः यहां प्राणों के संयम से मन का 
संयम भी समज ) | | 
इस तथ्य को पुष्टि ' योगतत्वोपनिषदः में भी मिलती है- 
दिन द्वादशकेनैव समाधि समवाप्नुयात । 
वायुं निरुध्य मेधावी जीवन्मुक्तो भवव्ययम्‌॥ 
अर्थात्‌-योगी व्यक्ति ध्यानावस्था के सिद्ध हो जाने के बाद) बारह दिनों मे 
115 


¢ । [र 


हौ समाधि को सिद्ध कर लेता हे। इस प्रकार प्राण का निरोध करने वाला मेधावी 
पुरुष जीवन मुक्त (मोक्ष को प्राप्त करने वाला) हौ जाता हे । 
उपरोक्त उदाहरणों से सिद्ध होता हे कि ध्यान का अति प्रगाढावस्था में 12 
दिन तक बने रहना ही समाधि हे । 
विशोष- यहां थोडी-सी विस्तृत चर्चा विषय को सुगम्य बनाने के लिए 
आवश्यक है क्योकि बारह दिन तक लगातार ध्यान का बने रहना-पाठकों के 
मस्तिष्क मेँ कुछ स्वाभाविक प्रश्न उत्पन कर सकता हे । उनका निराकरण किए 
विना आगे बटना उचित नहीं होगा। 
कम से कम 12 दिन स्वविस्मृत होकर निरंतर प्रगाढ ध्यान में रहना समाधि 
हे । प्रशन उठ सकता है कि 12 दिन का समस्त व्यवहार तथा देहिक व्यापार बन्द 
केसे रखे जा सकते हैँ 2 बारह दिनों तक भूख, प्यास, निद्रा, विश्राम, मलत्याग, 
मूत्रत्याग, जम्हाई, छींक, उकार, पाद, खांसी, खुजली/खारिश तथा थकान आदि के 
पृथक रहते हुए एक ही स्थति मेँ स्वविस्मृत होकर ध्यानावस्था में कैसे रहा जा 
सकता है ? एसा प्रश्न उठना स्वाभाविक हे । किन्तु इस प्रश्न का हल बताने से पूर्व, 
इससे ओर भी विकट सम्भावित प्रश्नों को भी पाठकों के सम्मुख रख दू | 
पौराणिक कथाओं, धर्मग्रन्थो आदि में करृषियों की आयु हजारों वर्षं (कहीं - 
कहीं तो युगो तक) कही गई हे, जेसे- विश्वामित्र का वर्णन सतयुग (राजा 
हरिश्चन्द्र से पूर्व से लेकर त्रेतायुग (भगवान राम तक) तक मिलता है । परशुराम 
का वर्णन त्रेतायुग के पूर्व से लेकर द्वापर युग तक (कृष्ण तक) मिलता है-- आदि 
एेसे अनेक उदाहरण दै । साथ ही एेसे भी वर्णन मिलते हैँ कि ऋषियों के कई दशकां 
तथा शताब्दियों तक समाधिस्थ रहने के कारण उनके शरीर टीलों मे किप गए य 
उनके शरीरो पर बांबियां बन गई । तब इतने लम्बे समय तक भूख-प्यास, निद्रा 
आदि से पृथक रह पाना ओर आयु का ठहर जाना केसे सम्भव हुआ ? न तौ वे ऋषि 
समाधि कौ अवस्था में वृद्ध हुए, न रुण हुए ओर न ही नष्ट हुए। अनेक स्थानों पर 
हजारो वर्षो तक समुद्र मे, पर्वतो पर, वनो आदि मे तपलीन रहने का वर्णन भी 
मिलता है । यह सब कैसे सम्भव हुआ? 
इन सभी प्रश्नो का उत्तर एक साथ दिया जा सकता है इसीलिए इनको भी 
साथ ले लिया गया है । वैसे तो यौगिक क्रिया ही इस प्रकार के गुण रखती ह कि 
भूख, प्यास, निद्रा, मल, मूत्र, रोग, वृद्धवस्था तथा मृत्यु आदि को समस्या साधक 
के लिए समाप्त हो जाती है। फिर भी सिद्धांत को समद्चाने कौ दृष्टि से विवेचित 
करेगे। 
आहार ऊर्जा देता है । वायु, सूर्य आदि भी ऊर्जा देते है । ऊर्जा जीवन के लिए 
अनिवार्य है । पौधे अपनी ऊर्जा प्रकाश व वायु से लेते द । पशु प्रकाश व वायु के 
अलावा पौधों को भी आहार के रूप में अपनाकर ऊर्जा लेते हँ । जबकि मनुष्य 
116 


प्रकाश व वायु के साथ-साथ पौधे (शाकाहार) तथा पशुओं (मांसाहार) को आहार 
बनाकर ऊर्जा लेता है। यह सामान्य नियम हे । किन्तु इस नियम का निष्कर्ष 
निकलता है कि प्रकाश तथा वायु से ही समस्त जीव प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से 
ऊर्जा लेते हैँ । यदि मनुष्य सीधे सूर्य व वायु से ऊर्जालेले तो उसे आहार्‌ कौ 
आवश्यकता नहीं रह जाएगी । ओर जब वह कोई पदार्थ-आहार के रूप में उदर में 
नहीं डालेगा, तब मल-मूत्र आदि कहां से ब्नँगे 2 साथ ही जब श्रम या गतिविधियां 
नहीं रहेगी तो 800 को 50114865 करने या रित्ञ देने कौ भी कोडं 
आवश्यकता नहीं होगी । अतः निद्रा, विश्राम, थकान आदि से व्यक्ति स्वतः ही 
पृथक हो जाएगा । क्योकि निद्रा व विश्राम द्वारा ही मनुष्य १८0०।1^8७६£ होता हे । 
अब प्रश्न बचता हे आयु के ठहरने का, सुरक्षा का। तो हमें भोतिको विज्ञान 
का एक सूत्र समञ्चना होगा। वह यह कि-* यदि गति को अत्यधिक तीत्रता कौ 
स्थिति मैले जाया जाए तो समय^घटना क्रम ठहर जाता हे / दूसरे शब्दो में ' तत्रतम 
गाति मेँ क भी सत्ता कालातीत ह्यो जाती हे ^ अंतरिक्ष विज्ञान व अनुसंधानों मे रुचि 
लेने वाले पाठक इस वैज्ञानिक तथ्य को अधिक बेहतर समञ्ञ सकते हें । दूसरी बात 
यह कि अति तीत्र गति अद्श्यता को उत्पन्न कर देती हे । बहुत तेज गति मेँ जाती 
वस्तु दिखाई नहीं देती । | 
विज्ञान के अनुसार प्रकाश को गति सबसे तेज है किन्तु मन कौ गति प्रकार 
से भी तेज है प्रकाश से तेज गति से जाने वाली वस्तु अदृश्य हो जाएगी क्योकि दृश्य 
का सम्बन्ध प्रकाश से है। अतः प्रकाश से तेज गति से जाती वस्तु दृश्य नहीं हो 
सकती । किन्तु गति ओर भी तीव्र हो जाने पर समय कौ, सीमा से पार हो जाती ह। 
उसके लिए समय ठहर जाता है। 
उदाहरण के तौर पर पृथ्वी से सबसे निकट का तारा चार प्रकाश वर्ष दूर है। 
(एक वर्ष में प्रकाश जितनी दूर जाता है, वह दूरी प्रकाश वर्ष कहलाती है ।) अब 
यदि प्रकाश कौ गति से चलने वाले यान से भी कोई वहां की यात्रा करके लौटे तो 
मात्र 8 वर्षो मेँ जाकर लौट आएगा । यानि उसकी आयु मे कोई विशेष परिवर्तन नहीं 
होगा परन्तु पृथ्वी पर तब तक शताब्दियां बीत चुकी होगी । यदि वही यात्री प्रकाश 
की गति से कड गुना तीव्र यान से यह यात्रा करे तो 8 मिनट मेँ पूरी कर लेगा, यानि 
उसकी आयु जहां की तहां रहेगी, मगर पृथ्वी पर तब तक जमाना गुजर चुका होगा । 
इस उदाहरण से स्पष्ट है कि अति तीव्र गति में किसी सत्ता के लिए समय ठहर जाता 
है । ओर भी एक उदाहरण देखें - 
मेज पर रखे संतरे पर यदि (ऊपर से नीचे नहीं) दांए से बाएं तलवार मारी 
` जाए ओर उसकी गति अत्यंत कम रखी जाए तो संतरा कटेगा नहीं, लुढक जाएगा । 
किन्तु तीव्र गति से तलवार का प्रहार संतरे को दो टुकड़ों मे बांट कर लुढका देगा। 
तलवार की गति ओर भी तीव्र हो तो संतरा दो भागों मे कटकर भी ज्यों का त्यो रखा 
117 


रहेगा । उसे लुढकने का मौका नहीं मिलेगा । बाद में संतरे को उठाने पर मालूम होगा 
कि उसके दो टुकड़ हो गए हं । किन्तु यदि तलवार का वार ओर भी अधिक तेजी 
से (हार या लाख गुना तेजी से ) किया जाए तो क्या होगा ? शायद आप यकोन ` 
न करें । मगर यह सच है कि तलवार के संते में से गुजरने के बाद भी संतरा कटेगा 
नहीं क्योकि उसे कटने का अवसर ही नहीं मिलेगा । इससे पूर्व कौ उसके रेशे या 
कण कट पाएं, तलवार दूसरी ओर निकल चुकी होगी । उन्हें अलग होने के लिए 
जितना समय दरकार होगा-उतना उन्हें मिलेगा ही नहीं अतः वे जुड़ ही रहेगे। या 
` यूं कहिए कि कटते ही जुड जाएंगे । बात अविश्वसनीय लगती हे किन्तु वेज्ञानिक 
सिद्धांतों पर कसी हई सत्य बात हे । यह बात ओर हे कि इतनी तीव्र गति से तलवार 
का वार कर पाना मनुष्य के लिए सम्भव नहीं हे, किन्तु मनुष्य के लिए तो प्रकाश 
की गति से चलने वाला विमान बनाना भी अभी सम्भव नहीं हे, लेकिन सनुष्य के 
असमर्थ होने का अर्थं यह नहीं कि सिद्धात गलत हो गया। 
ओर अधिक चर्चा में जाना पुस्तक कौ बहुमूल्य पृष्ट सामग्री का अपव्यय ही 
होगा। समञ्चदार को इशारा बहत होता हे। ओर कुण्डलिनी जेसे विषय के पाठक 
इतने तो समञ्लदार होने ही चाहिएं कि इशारे को समज्ञ सके । 
उपर्युक्त उदाहरण यद्यपि समाधि के लिए बिल्कुल सटीक नहीं ठे । तथापि 
अविश्वसनीयताओं का समाधान पूर्ण वैज्ञानिक ठंग से करते हें । वे ऋषि जो समाधि 
की अवस्था मेँ प्राण तथा मन सहित अनन्त की मन की गतिसे यात्रा करते थे 
अथवा प्राध्स व मन कौ गति को समाधि कौ अवस्था में रोक लेते थे, उनके लिए 
काल, अवस्था व आयु का ठहर जाना कोई बडा बात नहीं थी । दूसरे सांसे ओर रोटी 
गिनती कौ होती है इस तथ्य के अनुसार भी जब वे सांसे ओर रोटी लेते ही नही थे 
तो उनको गिनती पूरी कहां से होती । 
ठोस वस्तु टूटती या कटती है, तरल या गैस नहीं । पानी को लाठी या तलवार 
मार कर अलग नही किया जा सकता। भाप को भी नरी किन्तु बर्फ कोकियाजा 
सकता हे । कारण है--उनके अणुओं की सरचना। तरल या गैस के अणु सतत्‌ 
तीत्रता से गतिमान रहते है, ठोस के नहीं । गतिमान अणु पृथक नहीं हो पाते क्योकि 
पृथक होते ही गति से जुड़ जाते हैँ । संतरे में तीव्र गति से तलवार निकालने के 
उदाहण को यहां उलटा करना पड़ेगा । किन्तु तथ्य वही है । ठोस वस्तु के अणु भी 
यदि गति शील हो जाएं तो वार किए जाने के बाद भी वे पृथक नहीं होंगे, या पृथक 
होते ही जुड जाएंगे । 
सुरक्षा, कालातीतता तथा आयु के ठहर जाने आदि के सम्बन्ध मेँ अब 
शास्त्रीय प्रमाण भी देखिए-- 
अभेद्यः सर्वशस्त्राणाम वध्यः सर्वदेहिनाम्‌। 
अग्राह्यो मन्रयन्राणां योगी युक्तः समाधिना ॥ 
118 


व्राध्यते न सकालेन लिप्यते न स कर्मणा। 
साध्यते नच केनापियोगीः युक्त समाधिना ॥ 
-- (गोरक्ष संहिता) 
अर्थात्‌--समाधियुक्त योगी शस्त्र द्वारा नहीं छेदा जा सकता, वह किसी भी 
शरीरधारी द्वारा मारा नहीं जाता । उस पर मन्त्र- यन्त्र आदि का प्रयोग भी प्रभावकारी ` 
नहीं होता। वह काल (समय) के वारा भी बाधित नहीं होता, न ही कर्मो मे लिप्त ` 
होता है। जो योगी समाधि में लीन होता है, उसे कोई किसी भी प्रकार वश मे नहीं 
कर सकता। 
एतद्िमुक्तिसोपान मेतत्कालस्य वेचनम। 
यदव्यावृत्तं मनो भोगादासक्तं परमात्मनि॥ | 
--( गोरक्ष संहिता) ` 
(जब योगी योगाभ्यास द्वारा मन को विषय भोर्गो से दूर कर परमात्मामें लगा 
लेता है, तब योगी काल (समय) ओर मृत्यु को जीत कर जनम-मरण को भी वश 
में कर लेता है । यह कर्म मोक्ष की सीढी है ओर काल को वंचना भी है।) 
निराद्यंतं निरालम्बं निष्प्रपञ्चं निरामयम्‌। 
निराश्रयं निराकारे तत्त्वं जानाति योगवित्‌॥ 
अर्थात्‌- समाधि में स्थित हुआ योगी आदि अन्त से रहित, अवलम्ब व प्रपंच 
से रहित, विशुद्ध, आश्रय ओर आकार से हीन (ब्रह्म) तत्त्व को जान लेता हे । (वह 
जीवन-मरण, माया, अविद्या, सुख, दुःख, भय, नाश आदि से ग्रस्त नहीं होता ओर 
त्रिकालज्ञ हो जाता है, क्योकि समय के आर-पार देख सकता हे) । 
इसीलिए तो ' बह्य विद्योपनिषद्‌ ' मे कहा है-- 
एवे गुणाः प्रवर्तन्ते योगमार्गकृतश्रमैः। 
यस्माद्योगं समादाय सर्वदुःख बहिस्कृतः ॥ 
अर्थात्‌- योगाभ्यास मे जो श्रम किया जाता है उसमें इतने गुण हैँ कि उनके 
द्वारा सब प्रकार के दुःख दूर हो जाते हैँ । अतः उसमें प्रयत्नशील रहना चाहिए । 
इस प्रकार समाधि प्रकरण के साथ अष्टांग योग का संक्षिप्त परिचय समाप्त 
ह॒आ। अब हम कुण्डलिगरी जागरण के उपायों के विषय में चर्चा करेगे। ^ 


119 


कूण्डलिनी जागरण क ठउकषायु 


| कुण्डलिनी जागरण में उपयोगी विभिन अभ्यासो को चर्चा इस खण्ड में हम 
करेगे । प्राणायाम, ध्यान योग, हठ योग, तंत्र-मंत्र तथा कुण्डलिनी जागरण में सहयोगी 
अन्य आसनो, बन्धो, क्रियाओं एवं यौगिक व्यायामो का सविस्तार वर्णन करेगे। 
विधि व सावधानियों का निर्देश भी देगे, अन्य आवश्यक तथ्यों कौ चर्चा भी करेगे। 
किन्तु उससे पूर्व प्रबुद्ध पाठकों से एक बार फिर विनम्र निवेदन करेगे कि कुण्डलिनी 
शक्ति का जागना, सिंह के जागने के समान है । अग्नि के भटडक उठने के समान है 
अतः सुरक्षा के पूर्वं उपाय, सावधानियों आदि के प्रति सजग रहना अनिवार्य है । 
जिस प्रकार सिंह आदि हिंसक पशुओं को श्रम तथा बुद्धि से, विधि व 
सजगता से साध लिया जाता हे, उसी प्रकार कुण्डलिनी शक्ति को साधा जाता हे । 
किन्तु जिस प्रकार थोड़ी-सी भी असावधानी सिंह को साधने वाले के लिए उस 
` साधना काल" मे घातक सिद्ध होती है उसी प्रकार कुण्डलिनी जागरण व चक्र भेदन 
काल मेँ हई असावधानी घातक सिद्ध हो सकती है । अग्नि या विद्युत को नियंत्रित 
कर उनसे मनचाहे कार्य कराए जा सकते हैँ किन्तु अनियंत्रित अग्नि या विद्युत 
जानलेवा भी हो जाती है । अतः कुण्डलिनी को जमने से पूर्व उसे संभाल पाने का 
सामर्थ्यं अवश्य ही जुटा लेना चाहिए। यही सामर्थ्य ' पात्रता" हे । पूर्व वर्णित खण्ड 
मं पात्रता के सम्बन्ध मे ओर उसे उत्पन करने की विधियो या अभ्यासो के सम्बन्ध 
म॑ चर्चा हो चकौ है । उन अभ्यासो मेँ परिपक्व हए बिना (पात्रता उत्पनन किए 
निना) इस खण्ड के अभ्यासो को न करं । यह निवेदन ही नहीं चेतावनी भी है । यह 
याद रखें । 
पत्रता उत्पन्न कर लेने के बाद भी सुयोग्य तथा समर्थ गुरु के मार्गदर्शन में 
यह न करं तो अधिक निरापद होगा ओर सफलता के प्रति निश्चतता भी 
रहगी। किन्तु एला सम्भव न हो तो सच्चे मन ओर एर्ण श्रद्धा से इश्वर को अपना गुर 
मनर / ध्यानावस्था मं अथवा स्वप मेँ उस परमशवित से दिशानिर्देशन के लिए 
प्रार्थना कर, ओर फिर सब कुछ उसी पर छोड दे । जैसा विचार या प्रणा वह दे- 
वैसा ही करे । वह आपका पथ प्रदर्शन करेगा अथवा सुयोग्य गुरु से भेट करा देगा। 
या आपको योग्य नहीं पाएगा तो प्रारम्भ में ही हतोत्साहित करके इस साधना से 
आपको विमुख कर देगा। जैसा भी वह सुञ्ाए, वैसा ही करे । अपने अहं व बुद्धि को 
आड न आने दे । पूर्णं समर्पण करके चले । 
120 








कुछ महत्त्वपूर्ण तथ्य 

अभ्यास मे जावश्यक तथ्यों पर पहले एक दृष्टि डाल ले । उनमें पहला तथ्य 
शरीर के 29 ज्ञातव्य अवयव हैँ जिन्हें जाने विना योग सिद्धि सम्भव नहीं है । जैसा 
कि कहा भी गया है- 

षट्‌चक्र षोडशाधारं द्विलक्ष्यं व्योम पंचकम। 
स्वदेहे ये न जानन्ति कथं सिद्ध्यन्तियोगिनः ॥ 
--( गोरक्षसंहिता) 

अर्थात्‌- छ चक्र (मूलाधार, स्वाधिष्ठान, मणिपूर, अनाहत, विशुद्ध ओर 
आज्ञा चक्र) । योग में क्योकि छः चक्रों का ही भेदन किया जाता है, अतः 6 चक्रों 
का जानना अनिवार्य है जिन का भेदन करना है । सातवें चक्र सहस्रार का भेदन नहीं 
करना है अतः उसका ज्ञान अनिवार्य नहीं हे )। सोलह आंधार--(पैर का अंगूठा, 
मूलाधार/सीवन, गुह्या हार, वच्रगर्भनाडी, उड़यान बन्धाधार/ जहां उड़्यान बन्ध 
लगाया जाता हे, यानि नाभि के नीचे का क्षेत्र, नाभिमंडलाधार, हदयाधार, कण्ठाधार, 
कण्ठटमूलाधार, जिह्यामूलाधार, जिहयाजधोभागाधार, उर्ध्वदन्तमूलाधार, नासिकाग्राधार, 

नासिकामूलाधार, भ्रूमध्याधार ओर नेत्राधार), दो लक्ष्य (बाह्य ओर आन्तिरिक)., 

पाच आकाश (श्वेतवर्णीय ज्योति रूप आकाश, रक्तवर्णीय ज्योतिरूप आकाश, 
धूम्रवर्ण ज्योति रूप महाकाश, नीलवर्ण ज्योतिरूप तत्वाकाश ओर विद्युतूवर्णीय 
ज्योति रूप सूर्याकाश- जो क्रमंशः पहले के भीतर दूसरा, दूसरे के भीतर तीसरा, 
आदि के क्रम में शरीर के भीतर रहते हैँ) । अपने ही रीर मे रहने काले इन (6 + 
16 + 2 + 5 = 29) उनतीस सखक्ताओ को जो नी जानता कह योग मे खिद्धि प्रात 
नहीं कर सकता, 


व्यारत्या 

ध्यानयोग मेँ कुण्डलिनी जागृत कर षट्‌चक्र भेदन का विधान है । जिनको 
भेदा जाना हे, उनको भली प्रकार जानना अनिवार्य है । यही छः चक्रों को जानने का 
महत्त्व है । सोलह आधारो द्वारा मन को प्रारम्भ में एकाग्र करने में सुभीता रहता हे । 
दृष्टि कौ स्थिरता बढती हे तथा पात्रता, शुद्धि, आरोग्यता, बल आदि लाभ होते हं । 


16 आधारो का प्रयोग 

प्रथम आधार को दृष्टि स्थिर करने के प्रयोग में लाए । इससे दृष्टि को स्थिरता 
बद्ती हे । दूसरे आधार को एडी से, तीसरे आधार का संकुचन व विस्तारण करना 
चाहिए (अश्विनी मुद्रा) । इससे अपान वायु चौथे आधार में प्रविष्ट होकर बिन्दुचक्र 
मे पहुंच जाता है जिससे वीर्य स्तम्भन सामर्थ्य प्राप्त होती हे । पांचवें आधार का 
पश्चिमोत्तानासन में गुदा सहित संकोचन करने से जठराग्नि प्रदीप्त होती है । उदरकृमि 
नष्ट होते हँ तथा पाचनतंत्र सही रहता है । छठे आधार में ज्योति का ध्यान करने तथा 

121 








प्रणव जाप करने से नाद उत्पनन होता है । सातवें आधार को प्राण वायुं से भर कर 
रोकने से हदय कमल विकसित होता है । आटवें आधार में टोडी कौ दृढता पूर्वक 
कंठकूप मेँ स्थापित करके ध्यान करने से चन्द्र व सूर्यं स्वर स्थिर होते हे । नवं 
आधार में जिह्वा को पलट कर लगाने से (खेचरी मुद्रा) सहस्रार चक्र क चन्द्रमंडल 
से निरन्तर ्जरने वाले अमृत का स्वाद मिलता हे। दसवें भाग का मंथन व दोहन 
करने से खेचरी मुद्रा सिद्ध होती है । ग्यारहवें आधार के मंथन से कवित्व शक्ति प्राप्त 
होती हे। 
बारहवे आधार मेँ जिह्वा का अग्रभाग स्थापित करने से बहुत से रोगों से मुक्ति 
मिलती है, तथा जिह्वा की सामर्थ्यं बढती है । यह आधार बाह्य त्रारक मं भी काम 
आता दै । तेरहवें आधार व चौदहवें आधार का प्रयोग अरनतत्राटक में होता हे। 
चोदहवां आधार ध्यान लगाए जाने पर ज्योति का साक्षात्कार कराता है (शाम्भवी 
मुद्रा) । पंद्रहवे आधार में दृष्ट स्थिर करने का अभ्यास चित्त कौ लय सिद्धि करता 
ठे तथा सोलहवें आधार का उपयोग त्राटक आदि क्रियाओं में किया जाता हे । अतः 
इन 16 आधारं का ज्ञान आवश्यक है । (इस बीच चर्या मेँ आए-खेचरी मुद्रा, 
शाम्भवी मुद्रा, जिह्वा के अग्रभाग का मंथन/दोहन, अश्विनी मुद्रा तथा त्राटक आदि 
के विषय में आगे विस्तृत चर्चा करेगे ) | 
दो लक्ष्यो मेँ आन्तरिक लक्ष्य-6 चक्र आदि रहते हँ तथा बाह्य लक्ष्य-- 
नासिकाग्र, भ्रूमध्य आदि रहते है । इन्हीं लक्ष्यो पर दृष्टि व ध्यान को एकाग्र किया 
जाता हे । अतः इनको 'लक्ष्य' कह कर पुकारा गया है । पाचों आकाश ध्यान लगने 
के बाद शरीर के भीतर दिखाई पडने वाले क्रमशः ज्योतिमान घटक हँ जो ' ध्यान 
यात्रा' के सुचारु व सही दिशा मे जाने के लक्षण हैँ । एक प्रकार से मील के पत्थर 
या मार्ग में पड़ने वाले पहचान चि है । इस प्रकार इन 29 सत्ताओं का ज्ञान योगी को 
अवश्य ही होना चाहिए। गोरखनाथ सम्प्रदाय में इन क्रियाओं का विशेष महत्व 
माना जाता है। व्यकि यह गुरुगोरखनाथ के निर्देश हैँ । ' शारीरकोपनिषद्‌' भी 
उन्तीस शरीरस्थ तत्तवौ(सत्ताओं को जानने योग्य मानता है ओर उनके सान के विना 
योग मे सिद्धि मिलना असम्भव मानता दै । किन्तु उनके 29 तत्व या सत्ताओं मेँ कुछ 
विभिनताएं मिलती है । तथापि उपयोगी होने के कारण, पाठकों के लाभार्थं व 
जिज्ञासा शांति के उदेश्य से हम उनको भी यहां दे रहे हैँ । पाठक अपनी रुचि 
अनुसार इन्दं स्वीकार या गोरखनाथ के कहे तत्तव को, अथवा दोनों ही शास्त्र के 
मतो को--यह पाठकों कौ अपनी इच्छा, रुचि, स्वभाव, सुविधा, पसंद, साम्य, 
ज्ञान आदि पर निर्भर करता हे । 
श्रोतं त्वक्‌ चक्षुषी जिह्वा घ्राण चैवतु पंचमम्‌। 
पापस्थो करौ पादो वाकैव दमी भता॥ 


1४ 


शब्दः स्पर्शश्च रूपं च. रसगन्धस्तथेव च। 
त्रयोविशतिरेतनि तत्त्वानि प्राकृतानितु॥ 
-- शारीरकोपनिषद्‌ 
अर्थात्‌--कान, त्वचा, नेत्र, जिह्वा, नासिका यह पांच (ज्ञानेन्द्ियां ) ओर गुदा, 
` उपस्थ, हाथ, पैर, वाणी यह पांच (कर्मद्रियां ) तथा शब्द, स्पर्श, रूप,/तेज, रस ओर 
गंध यह पांच ( तन्मात्राएं जथवा इन्द्रियों के विषय) एवं (मन, बुद्धि, अहंकार ओर 
पंचमहाभूत-- आकाश, वायु, अग्नि, जल तथा पृथ्वी) आठ विकार--कुल तेईस 
तत्त्व प्रकृति के हँ -- (इनमें 6 चक्र जोड़कर उन्तीस घटक हुए) । इन्हे जाने बिना 
योगमार्गं मे सफलता नहीं मिलती । 
इनके अतिरिक्त भी शरीर को जानना आवश्यक है । जैसा कि कहा है- 
एकस्तम्भं नवद्वारं गृहं पंचाधिदेवतम्‌। 
स्वदेहे येन जानन्तिकथं सिद्धयन्ति योगिनः ॥ । | 
अर्थात्‌--एक स्तम्भ, नौ द्वार ओर पांच देवताओं वाले घर (शरीर) को जो 
योगी नहीं जानते, उन्हें योगसिद्धि कैसे हो सकती है, यानि नहीं हो सकती। | 


व्याख्या 
शरीर पंचतक््वों या पंचमहाभूतों से निर्मित है । वहीं (आकाश, वायु अग्नि, 
जल ओर पृथ्वी) पाच देवता हैँ । नौ छिद्र (दो कान, दो नेत्र, दो नथुने, एक मुख, 
एक गुदा व एक जननांग) ही नौ द्वार हैँ ओर मन ही इस घर (शरीर) का एक मात्र 
दृट्‌ स्तम्भ है, क्योकि मन के चंचल होने पर समस्त इन्धियां व शरीर उसका 
अनुगमन करते हैँ । मन के स्थिर होने पर शरीर सहित समस्त इन्दियां भी स्थिर होते 
हँ । अतः मन ही शरीर रूपी घर का आधार स्तम्भ है। जब तक योगी इन सबको 
जानता हुआ अपने मन को नियंत्रित व दढ नहीं कर लेता, वश में नहीं कर लेता, तब 
तक सिद्धि सम्भव नही हो सकती । इसीलिए ' शट्यायनीयोफनिषदः में कहा गया 
हे-' मन एक मनुष्याणा कारण बन्धमोक्षयो' (मन ही मनुष्यों के बन्धन व मोक्ष का 
कारण है।) 
मन के सम्बन्ध में यद्यपि प्रारम्भ ही मे चर्चा कर आणएर्है तो भी कु विशेष 
उदाहरण यहां अवश्य दंगे ताकि मन का महत्त्व कुण्डलिनी जागरण मेँ भली प्रकार 
से समञ्ञा जा सके ओर सफलता कौ निश्चितता हो। 
एतद्विमुक्तिसोपानमेतत्कालस्य ` वचनम्‌ 
यदव्यावृत्तं मनो भोगादासक्तं परमात्मनि॥ 
--( गोरक्ष संहिता) 
अर्थात्‌- योगाभ्यास द्वारा जब मन विषय भोगों से दूर होकर परमात्मा मे लग 
जाता है, तब योगी काल ओर मृत्यु को विजय करके जरा-मरण को भी वश मेँ कर 


123 


लेता हे । यह कर्म मोक्ष का सोपान हे, ओर यही काल कौ वंचना भी हे। 
मन को साधने के सम्बन्ध में “येत्रेय्युपतिकद्‌ "में कहा गया है-- 
अभेददर््नं ज्ञानं ध्यानं निर्विषय मनः। 
स्नानं मनोमलत्यागः शौयसमिद्िय निग्रहः ॥ 
अर्थात्‌-जीव ओर ब्रह्य में भेद न देखना ही ज्ञान है । मन को विषयों से दूर 
कर लेना ही ध्यान है। मन के मैल/कलुष/विकारों को त्यागना ही स्नान है तथा 
इन्द्रियनिग्रह/उन्हं वश में रखना ही शोच/पवित्रता हे । 
चित्तमेव हि संसारस्तत्प्रयत्ेन शोधयेत्‌ 
यच्ित्तस्तन्मयो भांति गुह्यमेतत्सनातनम्‌॥ 
--( मेत्रेय्युपनिषद्‌) 
अर्थात्‌--चित्त/मन ही संसार है। अतः प्रयत्नपूर्वक उसे शुद्ध करं । जेसा 
चित्त, वैसी गति- यही सनातन सिद्धान्त है । ( नियम परिवर्तित हो सकता हे। 
खिद्धात कभी नर्ही। क्योकि यिद्ध + अत = सिद्धति वही है जो अत तक सिद्धहोया 
जिसका अतसिद्ध हो) 
चित्तस्य हि प्रसादेन हन्ति कर्म श्ुभाशाभम्‌। 
प्रसन्नात्मात्मनि स्थित्वा सुखमव्ययमश्नुते ॥ 
अर्थात्‌--चित्त के शान्त होने पर शुभाशुभ कर्म नष्ट हो जाते हँ ओर शांत चित्त 
वाला मनुष्य आत्मा में लीन होकर अक्षय आनन्द को प्राप्त होता है। 
अतः मन को भटकने से रोकना चाहिए । भोग भी करें तो निर्लिप्त होकर । पानी 
मं रहने वाली नौका का यदि लंगर पडा रहे तो वह लहरों पर इधर उधर तैरने का 
आनंद तो लेती हे, पर बहती नहीं । अतः मन रूपी नौका पर आस्था रूपी लंगर पडा 
रहना चाहिए्‌। कीचड़ मेँ रहकर भी कमल जिस प्रकार जलकणों व कौोचड्‌ से 
प्रभावित नहीं होता। उसी प्रकार संसार में रहते हए भी बिना लिप्त हुए कर्म करने से. 
मन माया में नहीं फंसता। जेसा कि "गोरक्ष संहिता ' में कहा गया हे-- 
रज्जुबद्धो यथा श्येनो यतोऽप्याकृष्यते पुनः । 
गुणेबद्दधस्तथा जीवः प्राणापाणेन कृष्यते ॥ 
अपानः कर्षति प्राणं प्राणोऽपानं च कर्षति। 
उर्ध्वानः संस्थितावेतौो संयोजयति योगविद्‌ ॥ 
अर्थात्‌- बाज पक्षी के पैर में रस्सी बांधकर यदि रस्सी कोदील दं तो वह 
उड़ जाएगा, किन्तु रस्सी खीच लेने पर वह पुनः निकट आ जाएगा । उसी प्रकार 
माया के गुणों से बंधा हुआ जीव प्राण व अपान वायुओं द्वारा ऊपर नीचे खीचा जाता 
हे । आज्ञाचक्र मेँ स्थित प्राणवायु मूलाधार में स्थित अपानवायु को ऊपर खीचता हे । 
ओर मूलाधार में स्थित अपान वायु आज्ञाचक्र मेँ स्थित प्राणवायु को नीचे खींचता 
हे । इस प्रकार दोनों वायु जीव को एक दूसरे के साथ ऊपर- नीचे को खींचते रहते 
124 








है । किन्तु योगिजन प्राण ओर अपान का नाभिप्रदेश में समायोजन कर जीव ओर 
चित्त को भी स्थिर कर लेते हँ । (अन्यथा जीव-रज, सत्‌ व तम तीन गुणो से बंधा 
रहता है, जैसा कि कहा है--' गुणबद्धस्ततो जीवः ' ) 
मन के पूर्णं संयम ओर साधक के पूर्ण समर्पण से ही सफलता निश्चित होती 
है । जैसा कि गीता में भी कृष्ण भगवान ने कहा है-- 
यतेन्द्रियमनोबुदिर्मुनिर्मोक्षपरायणः । 
` विगतेच्छाभयक्रोधो यः सदामुक्त॒ एवसः ॥ 
अर्थात्‌-- जीती हुई हैँ इन्द्रियां, मन ओर बुद्धि जिसको (अपने ही द्वारा), एेसा 
जो मोक्ष परायण मुनि (परमेश्वर के स्वरूप का निरंतर मनन करने वाला) -- इच्छा, 
भय ओर क्रोध से रहित है- वह सदा मुक्त ही हे। 
मन व इन्ियों के संयम के साथ-साथ मन का पूर्णं विश्वास ओर श्रद्धा से 
संयुक्त रहना भी परमावश्यक हैँ । शंका रहित होना अनिवार्य हे । क्योकि शंका श्रद्धा 
ओर विश्वास कौ शत्रु है ओर परिश्रम व लगन में बाधक है। जिनके अभाव मं 
सफलता प्राप्त हो ही नहीं सकती । यदि पूर्वजन्म के संचित्‌ कर्मो के सौभाग्य स्वरूप 
मिल भी जाए तो व्यक्ति शंका के कारण हीरे को ठींकरा समञ्च कर छोड देता है । 
पाठकों की समस्त शंकाओं के समाधान हेतु ओर योग पद्धति को तत्वतः समञ्चाने 
के लिए ही कई तथ्यों कौ पुनरावृत्ति करके भी इतनी लम्बी भूमिका देने कौ जरूरत 


महसूस होती है । क्योकि शंका का नष्ट हो जाना आवश्यक है । जैसा कि ' गीता! मे 


श्रीकृष्ण ने स्वयं अर्जुन से कहा है- 
अज्ञश्चाश्रद्धानश्च संशयात्मा विनश्यति । नायं 
लोकोऽस्ति न परो नसुखं संशयात्मनः ॥ 
अर्थात्‌--हे अर्जुन ! भगवत्‌ विषय को न जानने वाला तथा श्रद्धारहित ओर 
संशययुक्त पुरुष परमार्थ से भ्रष्ट हो जाता है । उनमें भी (श्रद्धारहित ओर संशययुक्त 
मे से)- संशययुक्त पुरुष के लिए तो न सुख ओर यह लोक है न ही परलोक है । 
अर्थात्‌ इहलोक ओर परलोक दोनों ही उसके लिए भ्रष्ट हो जाते है । (अतः संशय 
रहित होना हर प्रकार की सफलता की प्रथम शर्त है) । छ 
संशय का एक मात्र कारण पूर्ण ज्ञान का न होना अथवा अज्ञान या अद्धज्ञान 
का होना है। अतः सर्वप्रथम साधक को पूर्ण ज्ञान प्राप्न करना चाहिए। तभी तो कहा 
गया है-' न हि ज्ञानेन सद्यं पवित्रयिह विदयते/ ' (ज्ञान के समान पवित्र करने 
वाला निस्सदेह इस संसार मे ओर कुक नहीं है ) 
श्रद्धावांल्लभते ज्ञानं तत्परः संयतेद्ियः। 
ज्ञानं लब्ध्वा परां शान्तिमिचिरेणाधिगच्छति ॥ 
अर्थात्‌-जितेन्द्रिय, तत्पर हुआ, श्रद्धावान पुरुष-ज्ञान को प्राप्त होता हे । जान 
को प्राप्त होकर तत्क्षण भगवत्प्रापि रूप परम शान्ति को प्राप्त हो जाता है। 
125 


इसीलिए गुरु के प्रति अंधी श्रद्धा कल्याणदायिनी कही जाती है क्योकि ज्ञान 
न होने पर भी प्रबल श्रद्धा संदेह या शंका को उत्पन नहीं होने देती । जेसा कि 
` अद्रयतारक-उपनिषद्‌' में कहा हे--' गुरूदेव पख्रह्य गुरुदेव परागतिः / (गुरु ही 
परब्रह्म हे, गुरु हि परम गति है ।) आट्यायनोपतिष्द्‌ मे भी कहा है-- 
यस्य देवे पराभक्ततिर्यथा देवे तथा गुरौ! 
स ब्रह्म वित्परप्रेयादिति वेदानुञ्ासनम्‌॥ 
अर्थात्‌-देवताओंं मेँ जेसी परम भक्ति होती हे, वेसी ही भक्ति गुरु में होनी 
चाहिए । (इस प्रकार की गुरु भक्ति से व्यक्ति) ब्रह्मज्ञानी होकर परमपद को प्राप्त 
होता हे । यही वेद की व्यवस्था है । 
योगमार्ग में तो गुरु की विशेष भूमिका रहती है । जैसा कि कहा गया है 
` अध्यायित्रा यै गुरु नाद्वियन्ते' आदि शास्त्रोक्त उदाहरण बताते हँ कि विना गुरु के 
` प्रति श्रद्धा वाले साधक की तपस्या कच्चे घडे के जल में घुल जाने के समान नष्ट हो 
जाती हे । गुरु न मिले तो जैसा कि बताया है--ईश्वर को ही सच्चे मन से गुरु मान, 
पूर्ण समर्पण व श्रद्धा सहित साधना आरम्भ करनी चाहिए । आगे बढने का मार्ग स्वयं 
मिलता चला जाता हे। 
जसं वर्षा क्रतु में ऊची हो गई घास के मेदान को दूर से देखने पर कोई मार्ग 
नजर नहीं आता। चारो ओर घास ही घास दिखाई पडती है परन्तु यात्रा आरम्भ कर 
दने पर जैसे-जैसे निकट जाते है पगडण्डियां दिखाई देने लगती है, ओर मार्ग 
स्वतः मिलता चला जाता हे । उसी प्रकार श्रद्धावान व संशय रहित होकर तप करने 
चला साधक स्वतः अपना मार्ग प्राप्त कर लेता हे । ' सौभाग्यलक्ष्मी उपतिष्द्‌' का 
यह श्लोक इसकी पुष्टि करता है- 
योगेन योगो ज्ञामव्यो योगो योगात्‌ प्रवर्द्धते । 
योऽप्रमत्तस्तु योगेन स योगी रमते चिरम्‌॥ 
अर्थात्‌-योग से योग कौ वृद्धि होती हे। अतः योग के ही द्वारा योग को 
जानना चाहिए्‌। योग में सदैव दत्तचित्त रहने वाला योगी चिरकाल तक सुख ( आनन्द) 
का उपभोग करता है। | 
ऊपर कहे श्लोक मेँ कर्म(साधना/तप की महत्ता बताई गई है । केवल ज्ञान ही 
एकत्र करते रहना अथवा केवल शस्त्र का अध्ययन हौ करते रहना कल्याणकारी 
नहीं कहा जा सकता, क्योकि विना कर्म किए लक्य प्राति कैसे होगी अधिक 
अध्ययन मं दोष भी है-वुद्धिके प्रमित हो जाने का। क्योकि प्रत्येक व्यक्ति के 
कहन का अपना दंग होता है । कोई अपने मार्ग के विषय मेँ बताता है तो दूसरा अपने 
मार्गं के विषय में । परिणामतः पाठक उलञ्च जाता है। अतः एक मार्ग पर श्रद्धा व | 
संकल्प करके बस चल देना चाहिए । जैसा कि कवि हरिक्राय कच्चन ने कहा है- 
` राह पकड़ तू एक चालाचल 
पा जाएगा मधु शज्ाला।' 
126 


श्रमद्भागवत्‌ गीता में भी कृष्ण ने कहा है-- 
यदा ते मोह कलिलं बुच्िर्व्यतितरिष्यति। 
तदा गन्तासि निर्वदं श्रोतव्यस्य श्रुतस्य च॥ 
श्रुतिविप्रतिपन्ना ते यदा स्थास्यति निश्चला। 
समाधावचला बुद्धिस्तदा योगमवाप्स्यसि ॥ 
-- श्रीमदभागवत गीता 
अर्थात्‌--' ओर हे अर्जुन! जिस काल में तेरी बुद्धि मोहरूपी दलदल से 
बिल्कुल तर जाएगी ' ( स्थिर, शुद्ध व एकमत हो जाएगी) तब तू सुनने योग्य (सुने 
हुए को समञ्ने के योग्य) ओर सुने हुए के वैराग्य को प्राप्त होगा (अर्थात्‌ सुने हुए 
को समञ्लकर आत्मसात्‌ करने ओर उसे व्यवहार में लाने में समर्थ होगा। अन्यथा 
तर्क वितर्क में उलञ् जाएगा ) ओर जब अनेक प्रकार के सिद्धांतों को सुनने से 
विचलित हुई तेरी बुद्धि परमात्मा के स्वरूप में अचल ओर स्थिर होकर ठहर जाएगी 
तब तू समत्वरूप योग को प्राप्त होगा। 
सांख्य सिद्धांत में समस्त कर्मो कौ सिद्धि के लिए पांच सेतु कहे गए हैँ । उन 
पांचों के विधिवत संयोग से कार्य को सिद्धि होती है। इन्दं भी समञ्च लेना चाहिए । 
अधिष्ठानं तथा कर्तां करणं च पृथग्विधम्‌। 
विविधाश्च पृथक्चेष्टा दैवं चैवात्र पञ्चमम्‌॥ 
अर्थात्‌-आधार/अधिष्ठान (जिसके आश्रय कर्म किए जाए), कर्ता (जो 
कर्म करे), करण (जिनके द्वारा कर्म किए जाएं अर्थात्‌ माध्यम, जेसे--इद्दियां 
आदि साधन), चेष्टा (कर्म/क्रिया) तथा दैव (पूर्वकृत शुभाशुभकर्मो से निर्मित 
संस्कार या स्वभाव तथा पूर्व निर्मित भाग्य)-- यह पांच सेतु ही कार्यसिद्धि कराने 
वाले हेँ। 
कुण्डलिनी जागरण के सम्बन्ध में ध्यान योग या मंत्र पद्धति आधार/अधिष्ठान 
कहे जाएंगे । कर्ता स्वयं आप होगे । करण आपकी इद्ियां, आसन, माला आदि होगे 
तथा स्तोत्र या मंत्र होगे। चेष्टा प्राणायाम, विपरीतकरणी, खेचरी आदि विभिन्न 
यौगिक क्रियाएं अथवा जाप व मुद्राएं होगे ओर दैव आपका स्वभाव, संस्कार व 
भाग्य होगे । इन पाचों के एकत्रित, समायोजित तथा अनुकूल न होने पर कार्य सिद्धि 
नही हो सकती । 
॥ इन तर्थ्यो को भली प्रकार समञ्च कर कुण्डलिनी जागरण के अभ्यास आरम्भ 
| 


) ¬ () 


127 


4 


ध्यानयोग व हठयोग 
सम्बन्धा उपाय 





प्राणयाम ॑ 
प्राणायाम के विभिन रूप हें। उनकी भिन-भिन विधियां तथा फल है। 


कुण्डलिनी का सम्बन्ध प्राण से है ओर प्राण का मन से। अतः कुण्डलिनी जागरण 
का सर्वप्रथम, प्रामाणिक, सरल व निश्चित उपाय प्राणायाम ही है। जेसा कि 
' योगकृण्डल्यउयनिषद्‌' मे कहा गया हे- 
मुहूर्तद्वयपर्यन्तं निभयाच्यालयेत्सुधीः। 
उर्ध्वमाकषयेत्किचित्सुषुम्नां कुण्डलीगता ॥ 
तेन कुण्डलिनी तस्याः सुषुम्नाया मुखं ब्रजेत्‌। 
जहाति तस्मात्प्राणोऽयं सुषुम्नां ब्रजति स्वयम्‌॥। 
अर्थात्‌-दो मुहूर्तं तक सरस्वती का चालन करके सुषुम्ना नाडी को, जो 
कुण्डलिनी के सर्वाधिक निकट होती है, किंचित ऊपर कौ ओर खींच । इस भाति 
अभ्यास करने से कुण्डलिनी सुषुम्ना के मुख मेँ चदने लगती हे ओर साथ-साथ 
प्राण भी स्वयं ही उस स्थान को छोड सुषुम्ना में चद्ने लगता हे । 
बन्द मोक्षदरार खोलने के लिए प्राणशक्ति को सुषुम्ना में प्रविष्ट कराना आवश्यक 
हे । इस प्रकार कुण्डलिनी को चलाने के दो ही प्रमुख साधन माने गए है-- सरस्वती 
चालन ओर प्राणनिरोध।(्राणायाम। 
कुण्डलिनी शक्ति आट प्रकार की होकर मार्ग अवरुद्ध किए पडी रहती हे। 
अगि या वायु के संयोग/आघात से ही यह जागृत होती हे । जैसा कि गोरक्ष सहिता 
मेँ कहा गया है- 
कन्दोर्ध्वे कुण्डली शक्तिरष्टधा कुण्डलाकृतिः 
ब्रह्मद्वार मुखं नित्य मुखेनाच्छाद्य तिष्टति ॥ 
येन द्वारेण गन्तव्यं ब्रह्मगारमनामयम्‌। मुखेनाच्छाद्य 
तद्वारं प्रसुप्ता परमेश्वरी ॥ 
प्रवुद्धा बुदियोगेन मनसा मरूता सह। 
सूचीव॒ गुणमादाय ब्रजव्युध्वं सुषुम्णया॥ 


128 कुण्डलिनी एक्ति केसे जागृत करे --8 


 अर्थात्‌-नाडियों के उत्पत्ति स्थान रूप कन्द के ऊपर कुण्डलिनी 8 प्रकार ` 
को होकर ब्रह्मरंश्र के मुख को रोकती हुई अवस्थित है । जिस मार्ग से चलते हुए पाप 
रहित बह्मदवार कौ प्रापि होती हे, उसके द्वार को ढककर यह कुण्डलिनी शक्ति सुप्त 
पडी रहती है । यह बुद्धि के संयोग से (ध्यान लगाने पर) जागृत होकर मन ओर 
प्राण के साथ सुषुम्ना द्वार मे सू कौ भांति प्रविष्ट होकर ऊपर की ओर चदढती है । 
' शाण्डिल्योपनिष्द्‌' भी कुण्डलिनी के अष्टधा अवरोधक होने कौ पुष्टि करता 
नाभेस्तिर्णगधोर्ध्वं कुण्डलिनी स्थानम। 
अष्टप्रकृतिरूपाऽष्टधा कुण्डलीकृताकुण्डलिनी शक्ति भविति ॥ 
अर्थात्‌-- नाभि के पीछे ऊपर की ओर कुण्डलिनी का स्थान है । यह कुण्डलिनी ` 
शक्ति आठ प्रकृति स्वरूपा होकर आठ कुण्डल धारण किए हुए पड़ी रहती है। 
कुण्डलिनी के दो मुख होते हैँ । एक मुख से वह सुषुम्ना के रुधरमेंडइडा व 
पिंगला नाडी में लपेटा लगाए हुए सादे तीन कुण्डलो के साथ सोती रहती हे दूसरा 
मुख सदैव.क्रियाशील व जागृत रहता है । इसी मुख से जीव को चेतना व ब्रह्मज्ञान 
प्राप्त होता है । परन्तु पहले मुख के निष्क्रिय व सुप्त रहने के कारण व्यक्ति आत्मज्ञान 
या ब्रह्मसाक्षात्कार करने मे असमर्थ होता हे । जिस द्वार से जाने पर ब्रह्मद्वार की प्रापि 
होती है, उसी द्वार पर यह परमेश्वरी सोई पडी रहती है । वायु या अग्नि के संयोग 
से प्राण निरोध या सरस्वती चालन से जागत हो जब यह ऊपर चदने लगती है तभी 
वह सिद्धित्व मोक्ष देने वाली होती है । जब तक यह देवी जागृत नहीं होती तब तक 
सभी पूजा-पाठ, मन्त्र आदि असफल रहते हे । जेसा कि महर्षिं गौतम ने कहा है- 
मूलपद्मे कुण्डलिनी खावनिदायिताप्रभो। 
तावत किंचिन्न सिध्येत मंत्रयंत्रार्चनादिकम्‌॥ 
जागतिं यदि सा देवी बहुभिः पुण्य संचय । 
तदा प्रसादमायाति मन्त्र यन््रार्यनादिकम्‌॥ 
--८ गौतपयितत्र) 
अर्थात्‌--जब तक कुण्डलिनी शक्ति मूलाधार में सोई रहती है, तब तक कोड 
म॑त्र-यंत्र, पूजा आदि सफल नहीं होते। अनेक संचित पुण्यो के प्रभाव स्वरूप जब 
यह परमेश्वरी जागृत हो जाती है तब इसी के प्रसाद से यन्त्र-मंत्र पूजा आदि प्रभाव 
दिखाने वाले होते हैँ । (वरदान व श्राप भी तभी फलीभूत होते है) । 
ओर जेसा कि ' गोरक्षसंहिता" मे कहा गया है- 
प्रसुप्तभुजंगाकारा पद्यतन्तुनिभा शुभा 
प्रबुद्धा बहिन योगेन ब्रजत्युध्वं सुषुम्णया ॥ 
उद्द्राटयेत्कपार तु तथा कुञ्चियकया हठात्‌। 
कुण्डलिन्या तथा योगी मोक्षद्वारं प्रभेदयेत्‌॥ 
129 





अर्थात्‌- सुप्त कुण्डलिनी सर्पाकार ओर कमल नाल के तन्तु के समान होती 
हे, वह अग्नि के संयोग से जागृत्‌ होकर सुषुम्ना के रास्ते ऊपर चदती हे । चाबी से 
जिस प्रकार ताला खुल जाता है उसी प्रकार कुण्डलिनी को जागृत कर योगी अपने 
मोक्ष का द्वार खोल लेता हे । (कुण्डलिनी के जागृत हुए विना साधक का कोई भी 
प्रयत्न सफल नहीं हो पाता) । अनेक योगग्रन्थ 8 प्राणायाम कहते हें । बहुत से 
योगशास्त्र प्राणायामो कौ संख्या बारह बताते हें । हम कुण्डलिनी जागरण मेँ उपयोगी 
प्रमुख प्राणायाम दे रहे है । 

नाडिशोधक प्राणायाम-- शरीर में स्थित 72000 नाड्यो में दस नाड्यां 
अत्यंत प्रमुख हें । क्योकि ये प्राणवाहक नाडियां हं । इडा, पिगला, सुषुम्ना, गान्धारी, 
हस्तजिहा, पूषा, यशस्विनी, अलम्बुषा, कुहू ओर शंखिनी । नाभि के नीचे (कन्द) 
इन सभी नाडियों का मूलस्थान हे । बहत्तर हजार में 72 मुख्य हे । उन 72 मेभी 
उपर्युक्त दस प्रमुख हैँ । ओर इनमें भी प्रथम तीन तो परम महत्व वाली हें । जैसा कि 
' युनालोपतिषद्‌ः में कहा है-- 

' अथेमा दश्न-दश्न नाड्यो भवन्ति तासामेके क्यो द्राससतिद्रसिपतिः 
ग्राखानाडी सहस्राणि भवन्ति यस्मननयमात्सा स्वयिति ग्ब्दाना च करोति। 
(इस हदय कौ 10-10 नाडियां हे । उनमें से प्रत्येक कौ 72-72 नाड्यां है८शाखाएं 
हे । इस प्रकार 72000नाडियां हे जिनमें आत्माप्राण सोता है व क्रिया करता है । ) 
 क्षरिकिफतिषट्‌ मे भी कहा है--' द्रायति सहस्राणि प्रतिनाडीवृतैकिल म्‌ (72000 
सर्वसृक्ष्म नाडियां हँ जिन्हे तैतिल कहा जाता है) | 

इन प्रमुख नाडियों के स्थान भी गोरक्षसंहिता में कहे गए हें । नासिका के बाएं 
भाग मे इडा, दाएं मे पिंगला, इन दोनों के मध्य मेँ सुषुम्ना हे । बाई आंख में गान्धारी, 
दाईं आंख मेँ हस्तजिहवा, दाएं कान मेँ पूषा, वांए कान में यशस्विनी, मुख मे 
अलम्बुषा, लिंग देश मे कुहू, मूल स्थान में शंखिनी स्थित हे । यह दस प्रमुख प्राण 
वाहक नाडियों के स्थान हें । इनमें सुषुम्ना परातत्व में लीन हे तथा बह्य स्वरूप है । 
क्योकि यही कुण्डलिनी शक्ति का मार्ग बनती है । प्राणायाम मेँ इडा व पिंगला 
नाडयो का प्रयोग होता है । अतः यह तीनों परममहत्व वाली हैँ । इन तीनों नाडियो 
का मिलन।संगम " आज्ञाचक्र ' पर होता है । तभी तो श्वरिकोपनिषद्‌ मे कहा गया है- 
तयोर्मध्ये प्रस्थानं यस्तं वेद स वेदविद्‌ । अर्थात्‌ इन तीनों के मध्य मेँ जो परम स्थान 
है, उसे जानने वाला ही वेदौ को जानने वाला हे। 
कुण्डलिनी के समीप होने से सुषुम्ना ही उसका मार्ग बनती है । जैसा कि 
' योगकृण्डल्योपकरिषद्‌' मे कहा गया है--' सुएटप्ना बदन शीघ्र विद्युल्लेखेव सस्फरत्‌ 
(कुण्डलिनी शीघ्र ही विद्युत रेखा के समान सुषुम्ना नाडी में चदढ्ती है ।) अतः इड, 
पिंगला व सुषुम्ना मे सुषुम्ना ही अति महत्व कौ हे । इसी को सरस्वती भी कहा 
जाता हे। 
130 


१७ 


शरीर, मन आदि को जिस प्रकार शुद्ध, पवित्र करना आवश्यक हे, उसी 
प्रकार कुण्डलिनी जागरण के मार्ग पर पहला पड़ाव उपर्युक्त नाडियों का शोधन हे। 
जिससे प्राण व कुण्डलिनी का पथ निर्बाध व निर्विकार हो सके। इस विषय में 
प्राणायाम हौ उपयोगी सिद्ध होता हे । शरीर को वज्र बनाने के लिए बुद्धिवमन को 
समर्थ बनाने के लिए, आयुवृद्धि व रोग नाश के लिए स्फूतिं, स्वास्थ्य व प्रफुल्लता 
के लिए, सदी गर्मी से शरीर की रक्षा के लिए, भूख प्यास कौ शान्ति के लिए, 
कुण्डलिनी जागरण के लिए तथा नाड़ी शोधन के लिए अलग-अलग प्रकार के 
प्राणायाम उपयोगी होते हे । 





प्राणायाम ८ वाये नथुने से) 


चन्द्राग सूर्याग प्राणायाम-- बद्ध पद्यासन लगाएं । मूलाधार बन्ध तथा उड़यान 
बन्ध लगाएं । चद्द्रनाडौ (बाएं नथुने) से पूरक करं । फिर जालन्धर बन्ध लगा कर 
यथाशक्ति कुम्भक करें । तन जालन्धर बन्ध खोल कर सूर्य नाडी से (दाएं नथुने से) 
रेचक करं । फिर यही क्रिया विपरीत क्रम से दुहराएं । अर्थात्‌ सूर्य नाड़ी से पूरक करं 
ओर कुम्भक के नाद चन्द्रनाडी से रेचक कर । चन्द्र नाड़ी से पूरक करते समय 
श्वेतवर्णीय अमृत स्वरूप चन्द्रमा का ध्यान करे । सूर्य नादी से पूरक करते समय 
तेजोमय सूर्यं मंडल का ध्यान करें । इस प्रकार चन्द्र व सूर्य का ध्यान करते हुए बार- 
बार यही क्रम दोहराते हए प्राणायाम करने से नाड़ी शोधन व सुख होता है । जैसा कि 
कहा गया है-- "गोरक्ष संहिता" मे 


131 
(ता रा 


चन्द्राग प्राणायम 
बद्धपद्यासनों योगी प्राणं चन्द्रेण पूरयेत्‌। 
धारयित्वायथाशक्ति भूयः सूर्येण रेचयेत्‌ ॥ 
अमृतदधि संकाशं गोक्षीरधबलोपमम्‌। 
ध्यात्वा चन्द्रमसो बिम्बं प्राणायामी सुखी भवेत्‌ ॥। 
अर्थात्‌- बद्ध पद्यासन में योगी प्राण का चन्द्र से पूरक करे । यथा शक्ति उसे 
धारण कर सूर्य से रेचक करे । तब अमृतमयी दही व दूध के समान उजले चनद्रविम्ब 
का ध्यान करें । इससे प्राणायाम करने वाला सुखी होता हे । 


` सूर्याग प्राणायाम | 
दक्षिणेश्वासमाकृष्य पूरयेदुत्तरं ङ़ानैः। 
कुम्भयित्वा विधानेन पुरश्चनद्रेण रेचयेत्‌ ॥ 
 प्रज्चलज्जवलनज्वालापुञ्जमादित्यमण्डलम्‌ 
ध्यात्वा नाभिस्थितं योगी प्राणायामी सुखी भवेत्‌ ॥ 
अर्थात्‌-दक्षिण (दाएं) से श्वास को शनैः शनैः पूरक करे। चिर विधान 
पूर्वक कुम्भक कर चन्द्र से रेचक करें । तब प्रज्वलित देदीप्यमान ज्वालापुञ्ज सूर्य 
मण्डल का ध्यान नामि प्रदेश में करने से योगी८प्राणायामी सुखी होता हे । 
इस प्रकार दोनों अगो को मिला कर बार-बार यह प्राणायाम करने से सुख व 
नाडी शोधन होता हे। 
दूसरी नाडी श्लोधक प्राणायाम-- दूसरे नाड़ी शोधक प्राणायाम का साविधि 
वर्णन ' त्रिथिखत्रह्मणोपनिषद्‌' में मिलता है - 
हस्तेन दक्षिणेनैव पीडयेन्नासिकापुटम्‌। 
ऱानै नै रथ बहिः प्रक्षिपेत्पिगलानिलत्‌॥ 
इडया वायुमापूर्य ब्रहान्बोडशमात्रया । 
पूरितं कुभयेत्पश्चाश्चतुः षष्ट्या तु मात्रया । 
दरात्रि्न्मात्रया सम्यग्रे चयेत्पिगलानिलम्‌॥ 
एवं पुनः पुनः कार्य ॒व्युत्क्रमानुमेण तु। 
सम्पूर्णकुम्भद्देहं कुम्भयेन्मातरिश्वना ॥ 
पूरणाननाडयः सर्वाः पूर्यन्ते मातरिश्वना । 
एवं कृते सति ब्रहा्चरन्ति दशर वायवः ॥ 
अर्थात्‌-दाएं हाथ से नासापुयों को दबाकर पहले सारा वायु बाहर निकाल । 
फिर बाएं नासापुट से शनैः शनैः सोलह मात्रा से वायु को भीतर खींच कर, चौसठ 
मात्रा से कुम्भक करे ओर बत्तीस मात्रा से पिंगला (सूर्य/दायां नथुने) के द्वारा उसे 
बाहर निकाले । तत्पश्चात्‌ विपरीत क्रम से (यानि दाएं से सांस लेकर बाद मेँ बाएं 
नथुने से निकालना) इसे दुहराएं। ेसा करने से समस्त नाडियां वायु से भर जाती 
132 


9 


ओर दसों वायु ठीक प्रकार चलने लगती हैँ ( नाडी शोधन होता है ।)-- यहां ध्यान 
देने कौ बात यह है कि जितने समय या मात्रा में श्वांस लेना हे, उससे दुगुने में 
निकालना हे । ओर जितने म निकालना है, उससे दुगुने म रोकना हे । इस प्रकार 










|. 


(-> 
~ ८, २ 
~ 
९ ~~ 


प्राणायाम ( दाये नथुने से.) 
अधिकाधिक प्राणवायु नाड्यो को भर पाती है तथा समुचित समय तक उनमें विचर 
पाती है ओर अधिक से अधिक अशुद्ध वायु बाहर निष्कासित कर पाती हे । मात्राओं 
को घडी द्वारा सेकण्ड्स में नापा जा सकता हे। अथवा प्रणव मंत्र ऊ के 16, 64 व 
32 लार मन ही मन उच्चारण करके निश्चित समय पूर्णं किया जा सकता हे । 
स्मरणीय तथ्य यह है कि नाडी शोधन प्राणायाम बद्धपदासन लगाकर ही किए जाते 
हँ । यहां बताए गए दोनों प्राणायामो में से कोई एक कम-से-कम तीन महीने तक 
करना चाहिए । तन समस्त नाड्यो का समुचित शोधन होता हे । जैसा कि कहा गया 
हे- 

सूर्याचन्द्रमसोरनेन विधिना विम्बह्यं ध्यायतां । 

शुद्धा नाड्गिणा भवन्ति यमिनां मासत्रयाइु्ध्वतः ॥ 

--( गोरक्ष संहिता) 
| अर्थात्‌- सूर्य चन्द्र विधि से दोनों बिम्बों को ध्यान करते हुए अभ्यास मं 
तत्पर रहने से योगी सभी नाडयो को तीन मास के पश्चात्‌ शद्ध कर लेता हे । । 
यथेष्ट धारणं वायोरनलस्य प्रदीपकम्‌। 
नादादिव्यक्त्तिरारोग्यं जाते नाड़ि श्ोधने॥ 

अर्थात्‌- नाडियों के शोध से यथेष्ट मात्रा में प्राणवायु को धारण करने को 
सामर्थ्य उत्पनन हो जाती है । जठराग्नि प्रदीप्त होकर आरोग्य प्राप्त होता है ओर नाद 
स्पष्ट सुनाई देता हे । 
133 








नाद्शोधन के विषय मेँ (हठयोगप्रदीपिका “ ने उत्पन्न होने वाले शारीरिक 
लक्षण भी बताए ह । जिनसे स्वंय ही साधक जान सकता है, कि तीर निशाने पर बैठा 
हे या नहीं 
यदातु नाडी शुद्धिः स्यात्तथा चिह्वानि बाह्यतः। 
कायस्य कृशता कान्तिस्तदा जायेत निश्चितम्‌ ॥ 
अर्थात्‌- जब नाडी शोधन हो जाता है तब उसके बाह्य लक्षण स्पष्ट दिखाई 
देने लगते हें । काया कृश हो जाती हे, ओर शरीर कान्तिमिय हो जाता है । ये निश्चित 
लक्षण हें । 
अतः साधक यदि इस प्राणायाम को साधना में शरीर को पतला या हल्का 
होता हुआ अनुभव करे तो घबराए नहीं । यह सफलता का लक्षण है । शरीर को 
फालतू चर्वी को दूर कर प्राणायाम शरीर को हल्का व कृश बनाता हे । क्योकि 
स्थूलता व गुरुता (भारीपन) आलस्य, प्रमाद, तन्द्रा, शिथिलता, दीर्घसूत्रता, निद्रा, 
बहुभोजी होना रोगों को बढाता है। तमोगुण में वृद्धि करता है । जबकि हल्का व 
पतला शरीर, प्रसन फुर्तीला, सत्वमय रहता हे । जिससे तेज या कांति मे वृद्धि होती 
हे ओर शरीर तप व साधना में समर्थ होता हे । 
प्राणायामो का तथा अन्य योग साधनाओं का अभ्यास करते से पूर्वं प्रारम्भमं 
नाड रोधक प्राणायाम से ही साधनाध्रा आरम्भ करनी चाहिए / ताकि रही सही 
अपात्रता भी दूर हो जाए ओर शरीर साधना के योग्य व साधना द्वारा प्राप्त शिति को 
धारण करने में समर्थ हो जाए । बिना नाडियों को शोधन किए किया गया प्राणयाम 
व ध्यान पूर्णं लाभ नहीं देता तथा उपलब्धियों को संदिग्ध या विकार ग्रस्त कर 
सकता हे । अतः विधान के अनुसार आगे बहदं । जल्दबाजी बिल्कुल न करे । जैसै- 
जैसे पात्रता कढती चली जाएगी, उप्लन्धियां यक्तिया क खिद्धिया स्वतः प्राप्त होती 
चली जाएगी / चुम्बक जिस प्रकार से लोहे को सहज ही खींच लेता हे, उसी प्रकार 
पात्रता उपलब्धियों व सिद्धियों को सहज ही आकर्षित कर लेती हे । 


अजपा गायत्री प्राणायाम 
| अजपा गायत्री को हंस गायत्री भी कहते हे । यद्यपि ' हंस ' शब्द का प्रयोग 
आत्मा के पर्याय स्वरूप होता हे । आत्मा जब देह छोडती दै, तो प्राण भी देह छोडता 
हे । श्वांस-प्रश्वांस क्रिया मेँ प्राण जब बाहर जाता है तब ' सकार" की ध्वनि करता 
हे ओर अपान जब भीतर आता है तब ' हकार ' कौ ध्वनि करता है । इस प्रकार मनुष्य 
श्वास प्रक्रिया के साथ अनजाने में ही हंस गायत्री (सोऽहं या हंसः) का उच्चारण 
करता रहता हे। जिसका अर्थ है 'वो मेँ हू' या "दं मै वो'। इस प्रकार स्वयं को 
( आत्मा) परम का (परमात्मा) अश वह अनजाने में ही स्वीकारता रहता है । अनजाने 
मे जाप होते रहने से ही इसे अजपा गायत्री" भी कहा जाता है । इस प्रकार एक दिन 


134 


मरे जीव इक्कीस हजार छह सौ हंसमंत्र (ओसतन) जपता हे । जैसा कि कहा है-- 
सकारेण बहिर्याति हकारेण विशेत्पुनः । 
हस हंसेत्यमुं मन्त्र जीवो जपति `सर्वदा ॥ 
षटूरातानि त्वहोरात्रे सहस्नाण्येकविंशति। 
एतत्संख्यान्वितं मन्त्रं जीवो जपति सर्वदा ॥ 
--( गो. संहिता) 
अर्थात्‌-- यह जीवः (प्राणवायु) सकार को ध्वनि से बाहर आता ओर हकार 
को ध्वनि से भीतर जाता है। इस प्रकार वह सदा हंस मंत्र का जाप करता रहता 
है । एक दिन रात में जीव इक्कीस हजार छः सौ बार इस मंत्र का जाप करता दै । 
इसी अजपा गायत्री को ध्यान में रख कर प्राणायाम करने पर (अर्थात्‌--श्वांस 
प्रश्वांस के साथ हंसः अथवा ' सोऽहं ' मंत्र के मानसिक जाप से) ज्ञान व मोक्ष प्राप्त 
होते हैँ । अजपा गायत्री प्राणायाम अत्यंत पवित्र व मुक्ति देने वाला है। जैसा कि ` 
कहा गया है-- | 
अजपा नाम गायत्रीं योगिनां मोक्चषदायिनी। 
अस्थाः संकल्पमात्रे सर्वपापैः प्रमुच्यते ॥ 
अनया सदृशो विद्या अनया सदूश्ो जपः। 
अनया सदृशं ज्ञानं न भूतं न भविष्यति॥ 
अर्थात्‌- अजपा नामक गायत्री योगियों को मोक्ष देती हे । इसके संकल्प मात्र 
से समस्त पाप नष्ट हो जाते है । इसके समान न कोई विद्या है न इसके समान कों 
जप है। इस के समान कोई ज्ञान भी भूत या भविष्य में नहीं हो सकता। 
यह अजपा गायत्री कुण्डलिनी में ही उत्पन्न होती हे । ' कुण्डलिन्यां समुद्भूता 
गायत्री ' ओर जिस प्रकार तिलं में तेल रहता है अथवा काष्ठ मेँ अग्नि रहता है, उसी 
प्रकार समस्त जीवों में कुण्डलिनी से उत्पनन अजपा गायत्री व्याप्त रहती है । इस.भेद 
को जान लेने पर (इसका प्राणायाम में ध्यान सहित अभ्यास करने पर) मृत्यु का 
उल्लंधन भी किया जा सकता है । जैसा कि ' हंसोपनिषदः मे कहा है -' सर्वेषु देहेषु 
व्याप्य वर्तति यथा ह्यग्निः कष्ेषु, तिलेषु तेलयिक। तं विदित्वा न मृत्युमेति ॥ 
' पाद्युपतत्रह्मोपनतिषद' ने तो इसी को ईश्वर व जीव स्वीकारा है ओर इसी के द्वारा 
ब्रह्म कौ प्रापि मानी हे । ' हंसात्पमालिका वर्ण ब्रह्मकाल प्रचोदिता। 
यह तथ्य समस्त योगविषयक ग्रन्थों ने समान रूप से स्वीकारा है । ' विज्ञान 
भैरकव' मे भगवान भैरव ने यही तथ्य ओर विस्तार से देवी को समञ्ञाया है- 
सकारेण बहिर्याति हकारेण विोतुपुनः। 
हंस-हंसेत्यमुं मन्त्रं जीवो जपति नित्यशः ॥ 
घटूरातानि दिवारात्रौ सहस्नाण्येकविंशतिः। 
जयो देव्याः समुदष्ठ प्राणस्यान्ते सुदुर्लभः ॥ 
135 





भावार्थ यह हे कि प्राण सकार के साथ बाहर आता है ओर अपान जब शरीर. 
में प्रवेश करता है तब हकार का उच्चारण करता है । इस प्रकार प्राण व अपान की 
गति जब तक चलती रहती है तब तक जीव प्रतिदिन निरंतर ' हंस-हंस' मन्त्र का 
उच्चारण करता हे । दिन-रात में यह जप 21,600 बार होता है । (प्राणों के निकलते 
समय भी यदि इस अजपा जप के प्रति तन्मयता बनी रहे तो मोक्ष मिलता हे) । 
उर्ध्वद्रादशान्ते प्राणः प्राणनरूपो 
जीवना ख्यश्चित्तवृत्तिविशोषः संस्थाप्यः । 
अधश्च हदि हदय स्थाने जीवोऽपानः, 
जीव्यतेऽनेनेति जीवः......विमर््खवान स्यादिति भावः ॥ 
(स्लोकः 24 विल्ञान भैरव) 
अर्थात्‌--ऊपर हदय से द्वादशान्त तक जाने वाला प्राण ओर द्वादशांत से हृदय 
तक आने वाला जीव नामक अपान यह परादेवी का उच्चारण है, स्पन्दन है । परादेवी 
ही स्वयं इसका निरन्तर उच्चारण करती रहती हैँ, यानि प्राण व अपान के रूपमेँ 
स्पन्दित होती रहती हँ । यदि परादेवी का इनसे (प्राणापान से) सम्पर्क नहो तो प्राण 
का प्रवाह नियमित रूप से नहीं हो सकता। परादेवी के इस स्पन्दन (हंस के अजपा 
मन्त्र पर) पर ध्यान करते हुए वहां भैरव की शक्ति की भावना करने से योगी में 
भेरव स्वभाव कौ अभिव्यक्ति हो जाती है । अथवा उसका भैरव स्वरूप प्रकर हो 
जाता हे । (यहां परादेवी कहकर कुण्डलिनी को ही पुकारा गया है । 
विशेष : प्राण ओर अपान की गति जिस स्थान पर आकर रुक जाती है उसे 
हवादशांत कहते हे । दूसरे शब्दों मे प्राण नासिका से बारह उंगल की दूरी तक बाहर 
जाकर गतिहीन हो जाता हे ओर अपान हदय से बारह अंगुल नीचे तक आकर रुक 
जाता हे। प्राणायाम के अभ्यास से यह दूरी तिगुनी (36 अंगुल) तक बटाई जा 
सकती हे । इससे अधिक दूर गया प्राण फिर वापस नहीं लोटता। यह एक प्राणायाम 
के उच्य अभ्यासं मेँ रखी जाने वाली सावधानी भी है । जैसा कि ' गोरक्ष संहिता" मे 
कहा भी गया है- 
` षटू्रिशदगुलो हंसः प्रयाणं कुरुते बहिः। 
वामे दक्षिणमार्गेण ततः प्राणोऽभिधीयते॥ 
शुद्धिमेति यदा सर्वनाड़ीचक्रं मलाकुलम्‌। 
तदेव जायते योगी प्राण संग्रहणे श्षमः॥ 
अर्थात्‌- प्राणायाम रूप हंस बाएं व दाए्‌ं मार्ग से 36 अंगुल बाहर निकलता 
है अतः वायु को ही प्राण कहते हे। मल से भरी नाडियों के चक्र का शोधन 
प्राणायाम से होता है अतः योगी को प्राण वायु को ग्रहण करने का अभ्यास करना 
चाहिए । 
आगे कहते हे प्राण व अपान रूपी वायु को नासिका से 36 अंगुल तक 
136 


बाहर निकाला जा सकता है । इससे अधिक दूर निकल जाए तो उसे लौटाना कठिन 
हो जातादहे। ओर न लौटने पर मरण निश्चित है। अतः वायुकोही प्राण की संज्ञा 
दी है।' इसलिए शास्त्रों ने प्राण का महत्व सिद्ध करते हए कहा है-- 
प्राणोऽपि भगवानीशः प्राणो विष्णुः पितामहः । 
प्राणेन धार्यते लोकः सर्वं प्राणमयं जगत्‌॥। 
(प्राण ही भगवान शिव हैँ, प्राण ही विष्णु ओर पितामह ब्रह्मा है। सब लोकों 
कों प्राणने दही धारण कर रखा है, अतः यह सम्पूर्ण संसार ही प्राणायाम है) । - 
बहरहाल श्वांस निःश्वांस के साथ होने वाली अजपा गायत्री पर प्राणायाम के 
समय ध्यान लगाना ही अजपा गायत्री प्राणायाम हे । साथ ही यदि द्वादशांत तक जाते 
प्राण व अपान पर भी ध्यान लगाया जाए तो लाभ शीघ्र व अधिक निश्चित हो जाता 
है। अजपा गायत्री प्राणायाम के लाभों को पहले बता दिया गया हे। 


त्रिविधि प्राणायाम | 

लारह मात्रा युक्त प्राणायाम रेचक, पूरक व कुम्भक तीन प्रकार का होता है । 
तीनों को मिलाकर करने से त्रिविधि प्राणायाम होता है । यह प्रणवात्मक होता हे। 
क्योकि प्रणव (ॐ ) के अ+उ+म्‌ (ब्रह्मा, विष्णु, शिव अथवा-- ज्ञान, क्रिया व 
संकल्प या सूर्य, अग्नि व चन्द्र) कौ तीन मात्राएं ही पूरक, कुम्भक व रेचक मे 
रहती हैँ । इस प्राणायाम के साथ मन ही मन ॐ का जाप करना चाहिए ओर प्राण 
व अपान का निरोध कर श्वांस को सुषुम्ना में चटढाने का प्रयास करना चाहिए । इससे 
सुषुम्ना मार्ग कुण्डलिनी के लिए खुलता है । पूरक के समय * अकार" का स्मरण 
करते हुए बारह बार ॐ का जाप करें । कुम्भक के समय * उकार ' का स्मरण करते 
हुए सोलह बार ॐ का जाप करें ओर रेचक के समय "मकार ' का ध्यान करते हुए 
दस बार ॐ का जाप करे तब एक प्राणायाम पूर्ण होगा । पूरक चन्द्र नाडी से व 
रेचक सूर्य नाडी से कर । इसे त्रिविधि प्राणायाम या प्रणवात्मक प्राणायाम कहते हँ 
जेसा कि ` गोरक्ष संहिता मे कहा है-- । 

रेचकः पूरकश्चैव कुम्भकः प्रणवात्मकः । 
प्राणायामे भवेतूत्रेधा मात्रा द्वादशसंयुतः॥ 

अर्थात्‌-रेचक, पूरक व कुम्भक प्रणवात्मक (उकार का सूचक) है । बारह 
मात्रा युक्त प्राणायाम तीन प्रकार का होता है । (यही त्रिविधि प्राणायाम हे) । 

जैसे-जैसे अभ्यास दृढ होता जाए वैसे-वैसे मात्राओं (प्रणव के जाप)को 
बढ़ाते जाना चाहिए ओर उन्हें तिगुनी तक कर लेना चाहिए। तब प्राणायाम उत्तम 
माना जाता है| प्राणायाम को अधम, मध्यम व उत्तम-- तीन प्रकार कामाना गया है। 
अधम प्राणायाम में पूरक 12 प्रणव से, कुम्भक 16 प्रणव से ओर रेचक 10 प्रणव 
से किया जाता है । मध्यम प्राणायाम में पूरक 24 प्रणव से, कुम्भक 32 प्रणव से ओर 


137 





रेचक 20 प्रणव से किया जाता है (यानि मात्राएं या प्रणव द्गुने हो जाते हें)। 
जबकि उत्तम प्राणायाम में पूरक 36 प्रणव से, कुम्भक 64 प्रणव से ओर रेचक 40 
प्रणव से किया जाता हे । उत्तम प्राणायाम में दक्षता, शरीर को लघुता८हल्कापन देती 
हे ओर योगी के ऊपर उठते ही उसको देह का ही नहीं, मन आत्मा का भी उत्थान 
होता हे तथा कुण्डलिनी जागरण भी । 

त्रिविधि प्राणायाम के सम्बन्ध मे इन प्राणायामो के लक्षण व प्रभावों में 
 त्रिशिखव्राह्यणोपनिषद' मे खासा प्रकाश डाला गया हे । देखिए प्रमाण-- 


लक्षण 
प्रस्वेदुजननं यस्तु प्राणायामेषु सोऽधमः। 
कम्पन वपुषो यस्य प्राणायामेषु मध्यमः ॥ 
कम्पन वपुषो यस्य स उत्तम उदाहतः। 
प्रभाव 


अधमे व्याधियापानां नारः स्यान्मध्यमेपुनः। 
पाप रोग महाव्याधि नाशः स्यादुत्तमः पुनः॥ 
अल्पमूत्रोऽल्पपिष्टश्च लघुदेहो मिताशनः । 
षत्‌विन्धियः पदुमतिः कालत्रयविदात्मवान्‌ ॥ 
अर्थात्‌- जिस प्राणायाम में पसीना आता हे, वह अधम हे । जिसमें शरीर में 
कंपकंपी होती है, वह मध्यम हे । ओर जिसमें शरीर ऊपर उठता है, वह उत्तम है । 
अधम प्राणायाम से व्याधियों व पापों का नाश होता हे । मध्यम से रोगों व महाव्याधियो 
का पापों सहित नाश होता है ओर उत्तम प्राणायाम से साधक मिताहारी, अल्पमूत्र व 
अल्पमल वाला हो जाता हे । शरीर को लघुता (हल्कापन) व सत्वगुण प्रापि होती 
हे । इद्ियां व बुद्धि तीव्र होकर साधक त्रिकालज्ञ हो जाता ठे । (त्रिकालक्ञता कुण्डलिनी 
जागरण के विना सम्भव नहीं होती, अतः यह प्रमाणित है कि कुण्डलिनी जागरण 
भी हो जाता हे। 
` गोरक्ष संहिता आदि योगशस्त्रो ने संक्षेप मे यह तथ्य स्वीकारा है ओर 
अधम, मध्यम व उत्तम का वर्गीकरण करने के सिद्धांत भी दिया है-- 
पूरके द्वादशी कुर्याट कुम्भके षोडशो भवेत्‌। 
रेचके दए ओंकाराः प्राणायामः स उच्यते ॥ 
प्रथमे द्वाद्ञी मात्रा मध्य में द्विगुणा मता। 
उत्तमे त्रिगुणा प्रोक्ता प्राणायामस्य निर्णयः॥ 
अधमे चोद्यते धर्मः कम्पो भवति मध्यमे। 
उत्तिष्ठत्युत्तमे योगी ततो वायुं निरोधयेत्‌ ॥। 
अर्थात्‌- पूरक मेँ बारह, कुम्भक मे सोलह ओर रेचक मेँ दस प्रणव कौ 
138 


मात्राओं वाला प्राणायाम अधम हे । मध्यम में इससे दुगुनी व उत्तम मे तिगुनी प्रणव 
मात्राएं होती हँ । अधम प्राणायाम में पसीना आता है । मध्यम में कम्पन होता है ओर 
उत्तम प्राणायाम के योगी का शरीर ऊपर उठता है। अतः प्रणवात्मक प्राणायाम का 
अभ्यास करें । - 


कुम्भक प्राणायाम (केवल व सहित) 
कुम्भक प्राणायाम कौ सिद्धि के लिए प्रारम्भ में तरिविधि प्राणायाम ही करना 
चाहिए । अभ्यास सिद्ध हो जाने पर शरीर के सभी द्वारो को बन्द करके कुम्भक 
प्राणायाम किया जाता है ओर वायु को भीतर ही रोक कर उसे सुषुम्ना मेँ चढाया 
जाता है । उस समय सहस्रार चक्र में परमात्मा का ध्यान किया जाता है । यह अत्यंत 
श्रेष्ठ प्राणायाम हे । कुण्डलिनी जागरण के साथ-साथ परमात्मा कौ ज्योति के अथवा 
आत्म साक्षात्कार के लिए यह अत्यंत उपयुक्त है। इसके दो भेद 'केवल' व 
सहित ' माने जाते हैँ । केवल कुम्भक- विशेषकर कुण्डलिनी जागरण के उपयोगी 
माना गया है। 
कृम्भक प्राणायाम के संदर्भ में ' गोरक्ष संहिता" में स्पष्ट कहा गया है-- 
द्वाराणां नवकं निरुद्धय मरुतं पीत्वा दृढं धारितें। 
नीत्वाकाशमपानवद्िसहितं शक्त्यासमुच्यालितम्‌॥ 
आत्मस्थान यत स्वनेन विधि वद्धिन्यस्य मूध श्ुवं। 
यावत्तिष्ठति तावदेव महतां संघेन संस्तूयते ॥ 
अर्थात्‌- नौ द्वारो को रोककर वायु पान करे (पूरक) ओर उसे दृढता से 
धारण करके (कुम्भकः) अग्नि ओर अपान के योग से जागृत्‌ हुई कुण्डलिनी को 
ऊपर स्थिर कर उक्त वायु से संयुक्त करे । (अर्थात्‌-- वायु के प्रभाव से कुण्डलिनी 
को ऊपर चदढाएं) इस प्रकार आत्मा का ध्यान करने वाला योगी जब तक जीवित 
रहता है बड़े-बड़े योगीश्वरो द्वारा स्तुत्य होता है ।' ओर भी देखे 
प्राणायामो शवत्येवं पातकेन्धनपावकः । 
भदोदधिमहासेतुः प्रोच्यते योगिभिः सदा ॥ 
अर्थात्‌- प्राणायाम के नित्य अभ्यास को पापरूपी ईधन को भस्म करने वालै 
अग्नि के समान तथा भवसागर से पार उतारने वाले महासेतु के समान कहा जाता 
` है । (यानि पापनाश एवं मोक्षदायक होता है) । 
इसीलिए कम्भक प्राणायाम करने वाले योगी को सर्वश्रेष्ठ ओर योगीश्वरो द्वारा 
स्तुत्य बताया गया है । कुम्भक प्राणायाम के दो भेद ' सहित" व ' केवल ' हँ । सहित 
कुम्भक पूरक से युक्त होता है । ऊपर के श्लोक में 9 द्वारो को रोककर वायुपान कर 
कुम्भक करने को विधि-' सहित कुर्भक प्राणायाम" को कही गई है । ' सहित 
कुम्भक ' मर दक्षता प्राप्न हो जाने पर ही केवल कुम्भक करना चादिए। ' केवल 


139 











कुम्भक ' पूरक तथा रेचक के बिना होता हे । अतः इसे ' केवल ' कहा जाता हे । इस 
प्राणायाम में श्वांस को फेफडों में भरे बिना अथवा बाहर निकाले बिना, जिस भी 
स्थिति में ष्वांस है उसे जहां के तहां पर रोक दिया जाता हे ओर फिर उस रोके हुए 
वायु को सुषुम्ना में प्रेरित किया जाता हे। इसे * केवल कुम्भक ' कहते हे । 

' केवल कुम्भक ' काफी कठिन प्राणायाम हे । इसे शनैः शनैः क्रमशः त्रिविधि 
प्राणायाम व सहित कुम्भक में निपुणता प्राप्त करने के बाद ही आरम्भ करना चाहिए । 
विना पात्रता उत्पनन किए ' केवल कुम्भक ' का अभ्यास घातक हो सकता है ओर 
श्वांस अवरुद्ध (©11001<॥५09) होकर मृत्यु भी सम्भावित हे । अतः पाठकों को 
पुनः धैर्य व पात्रता का महत्व याद दिलाना आवश्यक हे । केवल कुम्भक प्राणायाम ' 
की सिद्धि कुण्डलिनी जागरण करने बाली तथा अनेक चमत्कारी उपलब्धियों बाली 
कही गई हे । ' त्रिशिख ब्राह्मणोएनिषदं के अनुसार-"रेचक व पूरक रहित (केवल) 
कुम्भक के अभ्यासी के लिए तीनों कालों में कुक भी करना कठिन नहीं होता ।' 

जेसा कि कहा है-- | 
रेचकं पूरकं मुक्त्वा कुम्भीकरमेव यः। 
करोतित्रिषु कालेषु नैव तस्यास्ति दुर्लभम्‌ 
इसके अलावा अन्य योगशास्त्र भी इस तथ्य को प्रमाणित करते हैँ । जेसे 
' गराण्डिल्योपनिषद्‌' में कहा गया है- 
"केवल कुम्भक सिद्धत्रिषु लोकेषु न तस्य दुर्लभं भवति। 
अर्थात्‌-' केवल कुम्भक सिद्ध हो जाने पर साधक को तीनों लोकों मे कुछ 
भी दुर्लभ नहीं रहता।' इसके अलावा केवल कुम्भक प्राणायाम कुण्डलिनी जागृत 
भी करता है (वैसे तो इस प्रकार कौ चमत्कारिक व अविश्वसनीय क्षमताएं कुण्डलिनी 
जागरण के बिना सम्भव ही नहीं हैँ । अतः कुण्डलिनी जागरण ' केवल कुम्भक! से 
होता हे- यह स्वतः ही स्पष्ट है । तथापि प्रमाण के लिए देखिए) जेसा कि कहा गया 
हे-' केवल कुम्भकात्‌ कुण्डलिनी बोधोजायते। '-- शाण्डिल्योपनिषद्‌।अर्थात्‌- 
केवल कुम्भक से कुण्डलिनी जागृत हो जाती है । 


वायु निरोधाभ्यास 

' केवल कुम्भक" वास्तव मे वायुनिरोध से सम्बन्धित हे । प्राणायामं (समस्त) 
मे इसीलिए वायु निरोध का अभ्यास आवश्यक कहा गया हे । प्राणवायु कौ चंचलता 
मन व बिन्दु ( वीर्य) को भी चंचल करती हे । किन्तु प्राणवायु को निश्चल करने से 
मन भी शांत तथा वीर्य भी स्थिर होता हे अतः वायु निरोध का अभ्यास उन पाठकों 
के लिए भी उपयोगी है जौ कुण्डलिनी जागरण के मार्ग पर न भी जाना चाहते हैँ । 
शरीर के अंगों को बलिष्ठ बनाने, छाती पर पत्थर तुडाने या टक चटढवा लेने, थाली 
को कागज की भांति चीर डालने आदि जैसे चमत्कार करना चाहते है, एेसे चमत्कार 


140 


` वायु निरोध के अभ्यास से तथा शरीर के विशिष्ट भाग/अंग को प्राणवायु द्वारा दृढ 
करलेनेसे ही संम्भव हे। जेसा कि आमतौर पर देखा जा सकता हे कि भरी वस्तु 
जब सामान्य रूप से नहीं उठाई या हिलाई जाती तब सांस रोक कर, कन्सन्देट करके 
उसे उठाने -या हिलाने में सफलता मिल जाती है। यह वायु निरोध व प्राणों के 
केन्द्रीयकरण का एक अति सामान्य उदाहरण है । वायु निरोधाभ्यास के लिए इसीलिए 
कहा गया है- | 
चले वाते चलो जि्दुर्निश्चले निश्चलो भवेत्‌। 
योगी स्थाणुत्व माप्नोति ततो वायुं निरुद्धयेत्‌॥ 
अर्थात्‌- प्राणवायु के चालायमान होने पर बिन्दु भी चालायमान होता हे। 
प्राणवायु के निश्चल होने पर बिन्दु भी स्थिर होता है । अतः प्राणवायु को स्थिरता मं 
ही स्थाणुता संभव है । इसलिए वायुनिरोध का अभ्यास करे । 
शरीर मे जब तक वायु स्थित है, देह नहीं छूटती। वायु के शरीर से निकल 
जाने पर ही मरण होता है । अतः प्राण वायु के निरोध का अभ्यास अवश्य करे 
इससे चित्त भी स्वस्थ रहता है । वायुनिरोध के समय दृष्टि को भृकुटियों के मध्य 
रखकर ध्यान लगाया जाता है । इस अभ्यास की सिद्धि मृत्यु के भय से मुक्त करने 
वाली मानी गयी है । जैसा कि गोरखनाथ जी ने ' गोरख संहिता" मेँ कहा भी है- 
यावदबद्दधो मरुदेहे यावच्यितं निरामयम्‌। 
यावददुष्ठिश्ुवोर्मध्ये तावत्कालभयं कुतः ॥ | 
अर्थात्‌- जब तकं प्राणवायु का निरोध किया जाता है तब तक चित्त (मन) 
विकार रहित व स्वस्थ रहता है ओर जब तक दृष्ट भवो के मध्य में स्थिर है, तब 
तक काल का भय कहां है ? (अर्थात्‌ नहीं हे) । 
इनके अतिरिक्त अनेक प्राणायाम ओर भी हैँ जिनसे भिनन-भिन लाभ होते 
है । जैसे सदी के मौसम में गमी का लगना अथवा गमी मे सदी का लगना (मौसम 
से शरीर की सुरक्षा के लिए। जैसे हिमालय आदि बर्फलि प्रदेशो मे तप करने वाले 
योगियों को इस प्रकार के प्राणायामो की आवश्यकता पड़ जाती दै) । लोहार को 
धौकनी की भाति शीघ्रातिशीघ्र श्वांस लेना व छोडना शरीर मेँ गर्मी उत्पनन करता दे । 
इसे ' भस्त्रिका- प्राणायाम -कहते रहँ । अथवा भूख व प्यास के शमन के लिए किए 
जाने वाले प्राणायाम (मुख खोलकर अधिकाधिक वायु को मुख में लेकर सटक कर 
पेट मे उतारा जाता है) आदि। किन्तु उन सबका कुण्डलिनी व योग से विशेष 
सम्बन्ध न होने के कारण विस्तार भय से उनकी चर्चा नहीं कर रहे ह । 
कुछ प्राणायाम एेसे भी है जिनमें नासिका कौ बजाए मुख या जिह का 
उपयोग किया जाता है ओर वायु को जिह्वा द्वारा पीया जाता है । इनमें से एक प्रमुखं 
' खेचरी मुद्रा ' के अध्याय में करेंगे । क्योकि वह खेचरी मुद्रा का ही एक भाग हे । 


141 








काकौमुद्रामें प्राणों का आयाम न 
करके प्राण वायु का पान किया जाता है। 
उस समय जीभ को कोए कौ चोंच के समान 
अर्धगोलाकार/नालीदार बना लिया जाता है 
अतः इसे काकौ मुद्रा' कहा जाता हे। 
वृद्धावस्था को रोकने के लिए यह अत्यंत 
उपयोगी कहा गया हे । देखिए प्रमाण-- 





काकचंचुवदास्येन शीतलं सलिलंपिवेत्‌। 
प्राणापानविधाने न तोऽसौ भवति निर्जरः॥ 
रसना तालुमूलेन य प्राणमनिलं पिबेत्‌। 
अब्दाद्धन भवेत्तस्य सवेरोगस्य संभवः ॥ 
-- गोरक्च संहिता 
अर्थात्‌ कोए कौ चोँच के सदृश मुख को करके जो साधक प्राणापान के 
विधान से शीतल वायुं का पान करता है (इस मुद्रा से वायु खींचने पर ठण्डी हो 
जाती हे अतः शीतल वायु कही जाती हे) वह कभी बृढा नहीं होता। जो योगी जीभ 
से प्राणवायुं पीकर तालुमूल को पूरित करता (भर लेता) है, वह छः मास के 
अभ्यास से समस्त रोगों से छुटकारा पा जाता हे । 
खे चरीयुद्रा के अन्तर्गत जिह्वा द्वारा वायुपान से लाभ के विषयमे 
` शराण्डिल्योपनिषद्‌" मे कहा गया है-- 
जिह्वा वायुमानीय जिह मूले निरोधयेत्‌। 
यः पिवेदमृतं विद्वान्‌ सकलभद्रमश्नुते॥ 





अर्थात्‌-जो योगी जीभ से वायु को ग्रहण कर उसे जिह्वा मूल में रोककर 
अमृत का पान करता है । उसका सब प्रकार सै कल्याण होता है (अर्थोत्‌-- भौतिक 
व अभौतिक दोनों तरह से लाभ होता है।) 

142 


विशोष । 

इस प्रकार जीभ से वायु ग्रहण करना ओर उसे कण्ठ मूल में धारण करना भी 
दीर्घायु तथा रोगादि के नाश मं उपयोगी है । नासिका से वायु ग्रहण करना व उसके 
नाभि प्रदेशमे धारण करना भी रोग, पाप आदि के नाश व आयु वृद्धि मे उपयोगी हे | 
कुण्डलिनी जागरण एवं योग सिद्धि के लिए नाभिप्रदेश में धारण किए वायुको 
सुषुम्ना में प्रेषित किया जाता हे ओर कण्ठटमूल में धारण वायु को सहस्रार चक्र में 
प्रेषित किया जाता हे। दोनों ही प्रकार कौ क्रियाओं को समर्थ, अनुभवी व सुयोग्य 
गुरु के मार्गदर्शन मे करना निरापद होता हे फिर भी हमारे दृष्टिकोण से नासिका मागं 
से वायुग्रहण करने की प्रणाली अधिक सहज, सरल व स्वभाविक होने से, विधि 
समञ्च लिए जाने के बाद, पूर्ण सावधानी, धैर्य व संयम के साथ बिना गुरुके भी 
अभ्यास में लाई जा सकती है । किन्तु जिह्वा द्वारा वायुग्रहण कर उसको सहस्रार में 
प्रेषित करना कठिन, जअसहज व अस्वाभाविक होने से बिना समर्थ गुरु के मार्गदर्शन 
में अभ्यास में लानी किसी भी प्रकार से निरापद नहीं कही जा सकती । 

श्वांसावरोध (110014५0) तथा वायु के मस्तक में चद्‌ जाने आदि को 
घातक सम्भावनाएं जिह्वा द्वारा वायु ग्रहण कर उसके सहस्रार चक्र में प्रेषण मे निहित 
हें । अन्य उपद्रव भी सम्भावित हैं । अतः लापरवाही न करे । 
आसन, वंध एवं सावधानी 
प्राणायाम सम्बन्धी आसनो, बन्धो, विधि व सावधानियों 
के सम्बन्ध में विवेचन -- 
इस प्रसंग मे जिन आसनो व बन्धो आदि का जिक्र हुआ हे, यद्यपि उन पर 

संक्षिप्त प्रकाश वर्णन के समय ही डाला जा चुका है । किन्तु उनकी विधि व लाभां 
के विषय में भी कुछ सारगर्मित चर्चा कर लेना आवश्यक मालूम होता है जिससे 
पाठकों को साधना में अनावश्यक विघ्न व उलन न पड ओर उनका ज्ञानवधन भी 
हो सके। 


आसन 

योग के आटो अंगों का अपना विशिष्ट महत्त्व है ओर वे साधक को अपने से 
अगले अंग के सुयोग्य बनाते हैँ । यम ओर नियम तौ भूमिकात्मक अंग हैँ किन्तु शेष 
छः अंग तो योग से प्रत्यक्ष ओर अविभिन रूप से जुडे दै । इनका प्रथम आसन हौ 
हे । ऋषियों ने प्रकृति, पशु, पक्षी आदि के स्वभाव का अध्ययन कर आसनो व 
मुद्राओं का निर्माण किया। आसनो के मूल प्रवर्तक तो स्वयं भगवान शिव हँ जिन्होने 
84 लाख योनियोँ के आधार पर 84 लाख आसन बनाए थे। किन्तु संख्या मे 
अत्यधिक हो जाने पर उनमें प्रमुख 84 आसन छां लिए गए । योग विदं ने उन 84 
आसनो में भी प्रमुख रूप से उपयोगी दो आसन छांर लिए। जिनमें एक सिद्ध व 
दूसरा पद्य जासन हे । जैसा कि कहा गया है-- 

143 








आसनानि न तावन्तो यावन्तो जीव जन्तवः । 
एतेषाम खिलान्‌ भेदान्‌ विजानाति महे्वरः ॥ 
अर्थात्‌-लोक में जितने भी जीव-जन्तु हे, उनको चेष्टाओं के अनुसार उतने 
ही आसन है । जासनं के इन सभी भेदों को महादेव ही जानते हें । (इसीलिए शिव 
को पशुपति भी कहते हं ओर ' सद्रहदयउपनिषद्‌' के अनुसार--ब्रह्मा जीवों को 
अंतर आत्मा, विष्णु सनातनात्मा ओर शिव परमात्मा हे ।) 
' गोरक्ष संहिता ने भी स्वीकारा है- 
चतुर श्ीतिलक्षाणामेककं समुद्राहतम्‌। 
ततः शिवेन पीठानां षोडशोनं एतं कृतम्‌।। 
अर्थात्‌- चौरासी लाख आसनो का भेद जानने में मनुष्य के सक्षम न होने के 
कारण शिव ने केवल 84 आसन बना दिए । ये 84 लाख आसनं के सार स्वरूप हे । 
(बाद में योगवेत्ता ऋषियों न उनमें सेदो ही प्रमुख उपयोगी आसन छट) । 
आसनेभ्यः समस्तेभ्यो द्वयमेदुदाहतम्‌। 
एक सिद्धासनं प्रोक्तं द्वितीयं कमलासनम्‌ 
(84 आसनो को भी अधिक जान योगवेत्ताओं ने उनमें से दो ही प्रमुख आसन 
निश्चित किए-एक सिद्धासन ओर दूसरा कमलासन/पद्ासन ) । 
यद्यपि आसनो का राजा शीर्षासन को माना गया हे । किन्तु वह शारीरिक /भौतिक 
लाभ व रोगनाश कौ दृष्टि से। आध्यात्मिक लाभ या कुण्डलिनी जागरण आदि के 
सम्बन्ध मे ध्यान योग्य आसनं मे उपर्युक्त दो ही प्रमुख हं । (समस्त 84 आसनो को 
उनको विधि, लाभ, अवधि, सावधानियों तथा भेदों सहित, अन्य सुक्ष्म यौगिक 
क्रियाओं (षट्कर्म) तथा स्थूल यौगिक व्यायाम सहित विस्तृत वर्णन प्राप्त करने के 
लिए इच्छुक पाठक इसी प्रकाशन से मेरी पूर्व प्रकाशित पुस्तक ` सम्पूर्ण योगशास्त्र 
पदं) । यहां पहले सिद्धासन व पद्मासन पर कु महत्त्वपूर्ण चर्चा करेगे | 


सिद्धासन 
योनिस्थान कमंघ्रिमूल घटितं कृत्वा दृढं विन्यसेन्मेद्रे पादमथैकमेव हृदये 
कृत्वा हनु सुस्थिरम्‌। 
स्थाणुः संयमितेद्ियो चलदृशा पश्येद्‌ भ्रुवोरन्तरं द्योतनमोक्षकपाट 
भेदजनकं सिद्धासनं प्रोच्यते ॥ 
( गोरश्च संहिता ) 
अर्थात्‌-गुदा व जननांग/उपस्थ के मध्य मेँ योनि स्थान है । उसे बाएं पैर कौ 
एडी से दबा लं । दाहिने पैर कौ एडी को उपस्थ पर लगाकर नीचे दबाए । इस प्रकार 
दोनों एडियां एक के ऊपर एक हौ जाती है ओर पांवोँ के अंगूठे जंघा व गुल्फ के 
नीचे छिप जाते हैँ । इनके दबाव से योनिस्थान के नीचे व ऊपर दो इन्द्रियां (गुदा व 
उपस्थ) सुकते है । (यानि इन दोनों पर संयम होता है ) । फिर हदय से 4 अंगुल ऊपर 
144 कुण्डलिनी शक्ति केसे जागृत करं 9 


ठोडी को स्थापित करके चित्त को सब इन्द्रियों से हटाकर एकाग्र कर ओर दोनों नेत्रो 
से निर्चल होकर भृकुटि मध्य को देखें । (इस अभ्यास से) हदय कपाट को 
खोलकर यह मोक्ष मार्ग के दर्शन कराता है । अतः इसे सिद्धासन कहते हेँ। 
व्याख्या 

धरती पर दोनों पैर सामने फेलाकर बेठ जाएं । बाएं पैर को मोड़कर उसकी 
एडी सीवनी प्रदेश (गुदा व शिश्न के मध्य का स्थान) पर दढता से स्थापित करें । 
दाएं पैर को मोडकर उसको एडी को उपस्थ के ऊपर तथा पहली एडी के (टखने 
के) ऊपर स्थापित करे। दोनों पैरों के तलवों व अंगूठों को एक-दूसरे पैर की 
जंघाओं व पिंडलियोँ के बीच फसा लँ ओर कमर, गर्दन व सिर को सीधा समसूत्र 
कर ले । मूलबन्ध लगाएं । उड्यान बन्धं लगाएं ओर फिर जालन्धर बन्ध लगाए । 
यह सिद्धासन हुआ। इस आसन में आज्ञाचक्र ( भृकुरियों के मध्य) पर दृष्ट स्थिर 
करके मन व इद्ियों को भी वहीं एकाग्र करके ध्यान कर तो आत्मसाक्षात्कार होता 
हे । यह तथ्य आगे ध्यान योग में विस्तार से लेंगे । यहां केवल आसन की विधि को 
समज्ञा रहे हें । 

यह आसन स्वतः सिद्ध हे । ( क्योकि मूलबन्ध को लगाने में ओर स्थिर रखने 
मे अति सहायक होता है तथा पैरों में पद्मासन की भांति जल्दी ही थकान नहीं होने 
देता।) तथा सिद्धं के लिए हे। अतः इसे सिद्धासन कहते हँ । बहुत से विद्वान 
पद्मासन व सिद्धासन में भी सिद्धासन को सर्वश्रेष्ठ कहते हं । व्योकि यह सरल, 
सहयोगी एवं स्वतः सिद्ध है । परन्तु बहुत से विद्वान पद्मासन को अधिक भ्रष्ठ कहते 
हे । ' योग कृण्डल्य उपनिषदः ने तो सिद्धासन से वज्रासन को श्रेष्ठ माना हे ओर छटे 
हए दो आसनो में पद्मासन के साथ वज्रासन को ही रखा है। यथा-'उपासनं 
द्विविधं प्रोक्तं पद्मं वज्रासनं तधा।' अर्थात्‌- आसनं में दो ही प्रमुख रँ -- 
पद्मासन तथा वच्रासन । बहरहाल वच्रासन अपने स्थान पर श्रेष्ठ हे ¦ एक मात्र यही 
आसन है जो भोजनोपरांत भी कियाजासंकताहे। मगर हम यहां इनको श्रेष्ठता के 
विवाद में नहीं पडंगे। 


पदासन 
वामोरूपरि दक्षिणं च चरणं संस्थाप्य वामं तथा दक्षोरूपरि पश्चिमेन 

विधिना धृत्वा कराभ्यां दृढम । 

अंगुष्ठौ हृदये निधाय चिबुकं नासाग्रमालोकयेदेतद्व्याधि विकार नान 
कर पदासन प्रोच्यते ॥ 

--( गोरक्ष संहिता ) 

अर्थात्‌- बाई जंघा के मूल में दायां ओर दांई जंघा के मूल यें बायां पैर 

मोडकर स्थापित करें । फिर हाथों को पीठ के पीठे ले जाकर दाएं हाथ से बाएं पैर 
। 45 


का तथा बाएं हाथ से दाएं पैर का अंगूटा पकड़ लें । टोडी को हदय से लगाकर 
नासिका के अग्रभाग को दोनों नेत्रं से स्थिर होकर देखें (मन, बुद्धि व इन्द्रियो को 
भी वहीं केन्द्रित कर) यह पद्यासन सम्पूर्णं व्याधियों को दूर करने वाला हे । 
व्याख्या 
यह विधि वास्तव में बद्ध पद्मासन को हे । पासन में हाथों को स्थिति भिन्न 
होती हे । परो को अंगूठों को वांधने के स्थान पर दोनों हाथ घुटनों पर अथवा गोदी 
मे रखे जाते हे । सिद्धासन में भी हाथों को इसी प्रकार रखना चाहिए । किन्तु दोनों ही 
आसनो में परो को स्थिति व लगाए जाने वाले बन्धो एवं ध्यान का महत्व हे न कि 
हाथों की स्थिति का। हाथों की स्थिति तो विभिन क्रियाओं में बदल दी जाती हे। 
जेसे जाप करना हो तो हाथ से माला फेरी जाती है। मानसिक ध्यान में तर्जनी, 
अनामिका, मध्यमा, कनिष्ठा आदि को दबाकर (अंगूठे से) रखा जाता हे । प्रार्थना या 
आत्मनिवेदन में नमस्कार कौ मुद्रा में छाती पर बांध लिया जाता है अथवा भजन 
आदि में हाथों से खडताल/मजीरा आदि बजाया जाता है आदि । अतः हाथों की 
स्थिति महत्वपूर्णं नहीं हे । महत्वपूर्ण हे पैरो कौ स्थिति, कमर्‌ व गर्दन की स्थिति। 
महत्वपूर्ण हे, मूल, उड़ान व जांधर बंध तथा महत्वपूर्ण हे ध्यान । 
त्राटक 
यहां दोनों आसनो के माध्यम से अन्तर््रारक एवं बाह्यत्राटक का उपाय भी 
बता दिया गया हे। त्राटक भीयोगकाही अंगटहै तथा मन के साथ-साथ दृष्टि के 
केन्द्रीकरण व उनको शक्तियों को बढाने में अत्यंत उपयोगी है, किन्तु कुण्डलिनी के 
सम्बन्ध मे यह उतना प्रभावी नहीं हे । अतः इसकी विस्तृत चर्चा यहां नहीं कर रहै 
हं । संक्षेप मे इतना ही कहेंगे कि दुष्ट को नेत्र बन्द करके, मन, बुद्धि व इद्रियो 
सहित शरीर के भीतर कहीं केद्धित करना अन्तर्रारक कहा जाता है । (इस कार्य मे 
विभिन चक्रों आदि पर्‌ ध्यान एकाग्र किया जाता है) । जबकि शरीर के बाहर किसी 
विन्दु पर मन, बुद्धि व इन्ियों सहित नेत्रं को स्थिर करना ' बाहयत्रारक ' कहलाता 
ह । (इस कार्य मे नासिकाग्र, पैर का अंगूठा अथवा दीपर्क, दीवार पर बना चिह, 
तारा, सूर्यं आदि को माध्यम बनाया जाता है) । सम्मोहन विद्या में सफलता के लिए 
त्रीटक का अभ्यास अति उपयोगी हे । पर कुण्डलिनी जागरण में प्राणँ व ध्यान का 
हत्व है न कि त्राटक का। 
बन्ध 
अन हम मूलबन्ध, उडयान बन्ध तथा जालन्धर बन्ध की चर्चा करगे । इन 
तीन प्रमुख बन्धो का योगविदा में तथा कुण्डलिनी जागरण मे अत्यधिक महत्व हे। 
(साथ ही महाबन्ध की भी चर्चा करेगे) | ये बन्ध योग कौ प्रमुख पांच मुद्राओं के 
अन्तर्गत आते दह जिनके विषय मे योगञ्रासत्र मेँ कहा गया है-- 
146 






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लादय त्र्टक्क् 


पचमुद्रा 
महामुद्रां नभोमुद्रा उदट्कीयानं जालन्धरम्‌। 
मललन्धश्च सो वेत्ति स योगी मुक्ति भाजनः॥। 
(महामुद्रा, नभोमुद्रा(खेचरी मुद्रा, उड़ीयान, जालन्धर ओर मूलबन्ध-- जो इनको 
करना जानता है वही योगी मुक्ति भाजन होता हे) । 
पंचमुद्राओं मेँ उपर्युक्त तीन बन्ध भी शामिल हैँ । इसी से इनका महत्त्व सिद्ध 
हो जाता है। (बन्धो के बाद हम ऊपर कही मुद्राओं की चर्चा भी करेगे) । फिर भी 
इन तीनों बन्धो की योगशास्त्र में उपयोगिता एवं महत्व को सिद्ध करने के लिए 
' योगकृण्डल्योपतनिषद' में वणित निनलिखित श्लोक ही पर्याप्त होगा- 
लन्धत्रयमिदं कार्य योगिभिर्वीतकल्पषैः। 
प्रथमो मूलबन्धस्तु द्वितियोड्डीयाणाविधः। 
जालन्धरस्त्रीयस्तु तेषां लक्षणमुच्यते ॥ 
अर्थात्‌-- योगी को पापनाशक तीन बन्ध अवश्य करने चाहिए । इनमें पहला 
मूलवन्ध, दूसरा उड़ियान बन्ध तथा तीसरा जालन्धर बन्ध कहलाता है । 
147 








मूलबन्ध 
 मूलबन्ध को योनिबन्ध भी कहते हं । गुदा तथा उपस्थ कर प्रदेश को ऊपर 
संकुचित करके रखना तथा प्राण ओर अपान को मिलाना मूलबन्ध ह । जेसा कि 
' यौगतत््वोपनिषद्‌' में कहा गया है- | 
पाष्णि भागेन सम्पीड्य योनिमाकुञ्चयेदूढम । 
अपान मूर्ध्वमत्थाप्य योनि बन्धोऽयमुच्यते ॥ 
प्राणापानौ नादबिन्दु मूलबन्धेन यैकताम्‌। 
गत्वा योगस्य संसिद्धि यच्छतो नात्र संशयः ॥ 

अर्थात्‌-एडी से योनि स्थान को दबाकर भीतर को खींचें । इस प्रकार अपान 
वायु को ऊपर कौ ओर उठाकर प्राणवायु से मिलान पर योनिबन्ध कहलाता है । इस 
तरह प्राण, अपान, नाद ओर बिन्दु मे मूलबन्ध के द्वारा एकता प्राप्त होती है । यह योग 
निःसन्देह सिद्धि प्राप्त कराने वाला होता है । 

“गोरक्ष सहिता “में भी इसी प्रकार का वर्णन मिलता है-- 

पाष््णिभागेन संपीड्य योनिमाकुञ्चयेद्गुदम्‌। 
अपानमृध्वमाकृष्य मूलबन्धो विधीयते ॥ 
अपानप्राणयोरैक्यात्‌क्षयो मूत्रपुरीषयोः । 
युवा भवति वृद्धोऽपि सततं मूलबन्धनात्‌ ॥ 

अर्थात्‌-एेडी से योनिस्थान को दृढतापूर्वक दबाकर गुदा को सिकोडं ओर 
अपानवायु को ऊपर खींचकर प्राणवायु से मिलाएं तो यह मूलबन्ध कहलाता है । इस 
प्राण ओर अपान को जो मिलान के प्रयास मेँ रत रहता हे उसके मूत्र, मल आदि 
विकारो का क्षय होता है ओर वह यदि वृद्ध भीहो तो युवा हो जाता हे। 

' शिव संहिता' में तो मूलबन्ध को ओर भी महत्त्वपूर्णं तथा जरा-मरण का 
नाश करने वाला कहा गया हे- 

'कल्पितोऽयं मूलबन्धो जरा मरण नाशनः ।' इसके अलावा आगे कहते 
है-' सिद्धाया योनिमुद्राया किं न सिद्धयति भूतले! ' ( योनिमुद्रा सिद्ध हो जाने 
पर पुरुष इस भूतल पर ओर क्या सिद्ध नहीं कर सकता ? यानि सभी कुछ सिद्ध कर्‌ 
लेना उसके लिए सम्भव हो जाता है) । 

ओर भी अनेक योगशास्त्र से एसे प्रमाण प्रस्तुत किए जा सकते दँ । किन्तु 
उससे पुस्तक की पृष्ठ सामग्री का ही अपव्यय होगा । शंका निवारण तथा विश्वास के 
लिए इतने भी प्रमाण आवश्यकता से अधिक ही है । बहरहाल यह प्रथम ओए 
अत्यंत प्रमुख बन्ध हे । पाठकों को यह नहीं भूलना चाहिए। | 


उड्धियान बन्ध 
नन्धो येन सुषुम्नायां प्राणस्तुद्धीयते यतः। 
उडयाणाख्यो हि बन्धोऽयं योगिभिः समुदाहतः ॥ 
-- योगतत्वपनिष्‌ 


148 


अर्थात्‌--जिससे बंधा हुआ प्राण सुषुम्ना में उड्ने लगे/उठने लगे उसे योगी 
लोग उङ्यान बन्ध कहते हैँ । (स्पष्ट है कि प्राण को सुषुम्ना में प्रेषित कर सकने में 
समर्थ यह बन्ध कुण्डलिनी को भी ऊपर उठाने में सहयोगी होता हे । किन्तु लेटे या 

अधबैठे होकर अथवा कमर ज्ुकाकर बेठने पर मूलबन्ध व जालन्धर बन्ध तो किसी 
प्रकार लग भी जाएं पर उड्ियान बन्ध नहीं लग सकता- जैसा कि * सहजयोग ' के 
नाम पर अल्पज्ञो में जिस मजी अवस्था में बेठ या लेट कर ध्यान लगने यौ योग 
करने के निर्देश दिए जाते है) । | 

‹ गोरक्षा संहिता में भी उड़्ियान बन्ध के महत्त्व तथा विधि व प्रभाव पर 
समुचित प्रकाश डाला गया है । साथ ही “उडियान बन्ध! के लगाने के स्थान के 
 सम्बन्धमें भी निर्देश दिए हुए हँ । यथा- 

उड्डियानं कुरुते यसमादविश्रांतेमहाखगम्‌। 
उद्कीयानं तदेव स्यान्मत्युमातङ्केसरी ॥ 
उद्रात्पश्चिमे भागे अधो नाभनिगदयते। 
उदडीयानो ह्ययं बन्धस्तव बन्धो निगद्यते ॥ 

अर्थात्‌-- (प्राणरूपी ) महाखग उड़कर सुषुम्ना में विश्राम करता है । अतः इसे 
उड़ीयान कहते हँ । यह मृत्यु रूपी हाथी के लिए सिंह के समान है । (अर्थात्‌ मृत्यु 
को जीतने वाला हे) । उदर के पश्चिम में तथा नाभि के नीचे के भाग में इस बन्ध 
का स्थान बताया जाता है । (अर्थात्‌ नाभि प्रदेश/नाभि से कुछ ऊपर व नाभि से नीचे 
इसका स्थान है । इस बन्ध में इस स्थान को यथा सम्भव भीतर खींचकर सुषुम्ना से 
ही लगा देने का प्रयास किया जाता हे) । 

' पातञ्जल योग प्रदीषु ' ' हठयोग प्रदीपिका' आदि ग्रंथों में विस्तार पूर्वक 
कही गई ' नौली क्रिया" तथा * अग्निसार ' आदि क्रियाएं व्यविति को बेहतर उड्यान 
बन्ध लगा पाने मेँ समर्थ बनाती हे । (' सम्पूर्णं योग शास्त्र, गोल्ड बुक्स इंडिया मं यह 
समस्त जानकारी पाठक ले सकते हैँ ') । 
जलन्धर बन्ध 

ठोडी को सिकोड्‌ कर कण्ठकूप में अथवा हदय से 4 अंगुल ऊपर दृढता 
पूर्वक स्थापित करने से किन्तु गर्दन व दृष्टि सीधी रखने पर यह बन्ध लगता है । यह 
न केवल कुम्भक द्वारा धारण की गई वायु को रोके रखने में सहयोगी होता है अपितु 
सहस्रार चक्र से ज्ञरने वाले अमृत को भी नीचे गिरने से रोकता है। कण्ठ को 
शिराओं का जाल इस बन्ध से कसा जाता है अतः इसे जालन्धर बन्ध कहते हे । यह 
बन्ध भी वायु निरोध में सहायक होने से मृत्यु नाशक माना गया है । ' हठयोग 
प्रदीपिका ओर ' योगतत्त्वोपतिषद्‌' में प्रायः समान वर्णन ही जालंधर बन्ध को 
प्रशंसा में मिलता है । प्रमाण के तौर पर पाठक स्वयं ही देखें एक उदाहरण- 

कण्ठमाकुच्य हदये स्थापयेच्विबुक दृढम्‌ । 
बन्धो जालन्धराख्योऽयं जरामृत्युविनाशकः ॥ 
-हटठयोग प्रदीपिका 





149 








अर्थात्‌-- कण्ठ को सिकोड कर दृढता पूर्वक ठोडी को हदय पर रखने से 
जालन्धर बन्ध होता है । यह वृद्धावस्था तथा मृत्यु का नाश करने वाला हे। 
कण्ठमाकुञ्च्य हदये स्थापयेद्रूटवाधिया । 
बन्धो जालन्धराख्योऽयं मृत्युमातंगकेसरी ॥ 
-- योगतत्वोपनिषिद्‌ 
अर्थात्‌-कण्ठ को संकुचित कर प्राणवायु का अवरोध करना तथा दृढता 
पूर्वक ठोडी को छाती से सराकर उसे पुनः ऊपर न आने देना ही जालंधर बन्ध की 
प्रधान क्रिया हे | ' गोरक्च सहिता' से इस पर थोडा विस्तार से प्रकाश डाला गया है- 
लश्चाति हि शिरोजालं नाधो याति नभोजलम्‌ 
ततो जालंधरो बन्धोः कण्ठदुःखोघना्रनः ॥ 
जालंधरे कृते बन्धे कण्ठसंकोच लक्चणे। 
न पीयूष पतत्यग्नौ न वायुः प्रकुप्यति॥। 
अर्थात्‌- जो बन्ध कण्ठ में लगाया जाता है ओर वहां के शिराजाल को 
बांधकर/कसकर चन्द्रामृत रूपी जल को कपाल कुहर से नीचे गिरने से रोकता हे, 
वह दुःखों व रोगों का नाश करने वाला जालन्धर बन्ध माना गया हे । इससे चन्द्रामृत 
गिर कर अग्नि में पडने से रुका रहता हे । इस जालन्धर बन्ध के अभ्यास से वायु का 
प्रकोप नहीं हो पाता (क्योकि यह वायु निरोध में सहायक होता हे) । 


मुद्रा 
ये मुद्राएं जप एवं मंत्रादि में प्रयुक्त होने वाली मुद्राओं से भिन हे । ये योग 


विषयक मुद्राएं हं । नभोमुद्रा (खेचरी मुद्रा), महामुद्रा/महाबन्ध के विषय मेँ तो- 
पाठक सुन आए हं । इनके अलावा, शक्तिचालिनी मुद्रा, विपरीतकरणी मुद्रा, शाम्भवी 
मुद्रा, काकोमुद्रा, अश्विनी मुद्रा आदि ओर भी अनेक मुद्रां है । प्रमुख मुद्राएं जो 
कुण्डलिनी जागरण में उपयोगी हँ अथवा कुण्डलिनी जागरण के उपायों के रूप में 
जानी जाती हें उन्हीं का यहां वर्णन करगे क्योकि यह अध्याय ही कुण्डलिनी 
जागरण के उपायों का है। 


महामुद्रा/ महाबन्ध 
यह मुद्रा समस्त प्रकार के रोगों का नाश करती है ओर कुण्डलिनी जागरण में 

अत्यत सहयोगी है । विशेष रूप से पाचन तन्त्र को सुव्यवस्थित करती है । प्रायः 
समस्त योगग्रन्थो मे इसका वर्णन मिलता है । इस मुद्रा के साथ विधिपूर्वक किया 
गया प्राणायाम अत्यंत लाभकारी होता हे । जैसा कि ` ग्रह्यामलतन्त्र' मेँ वर्णन आता 
ट्- 

पादमूलेन वामेन योनि सम्पीड्य दक्षिणे। 

पादं प्रसारितं कृत्वा कराभ्यां धारयेददूढम्‌॥ 

कण्ठेवक्त्रं समारोप्य धारद्वायु मूर्ध्वतः। 

यथादण्डाहतः सर्वोदण्डकारः प्रजायते ॥। 

150 


ऋऽवीभता तथा शक्त्तिः कुण्डली सहसाभवत्‌ । 
तदासामरणावस्था जायते द्वितपुटाश्चिता ॥ 
तदा शनैः शनैः रेव रेच्येत नवेगतः॥ 
इयं रवलुमहामुद्रा तवस्नेहात्‌ प्रकाश्यते ॥ 
--( ग्रह्यामल तत्र) 
अर्थात्‌-- बाएं पैर की एडी से योनि स्थान को दबाकर दाएं पैर को सामने 
सीध फेलाएं। अपने दोनों हाथों से फैले हए (दाएं) पैर के तलवे/अगूठे को दृढता 
से पकड (इस प्रयास मे दाएं पैर का घुटना मुडने न पाए) ओर कण्ठ को सिकोड़कर 
कुम्भक द्वारा वायु को रोक । इसके अभ्यास से डण्डे हारा पीटे गए सर्पं को भाति 
कुण्डलिनी दण्ड के समान सहसा खड़ी हो जाती हे । दोनों नासापुट से प्राणायाम 
की साम्यावस्था हो जाए, तब वायु को शनैः शनैः निकाल दं । यह महामुद्रा कहलाती हे । 
' गोरक्ष संहिता" मे इस मुद्रा मे किए जाने वाले प्राणायाम का विधान उपलब्ध 
होता हे। यथा-- 
वक्षोन्यस्तु हनु प्रपीड्य सुचिरं योनिं च वामाध्रिणा। 
हस्ताभ्यामनुधारयेत्‌ प्रसारितं...चन्द्राङ्धैन समभ्यस्य सू्यगेनाभ्यसेत्पुनः.. 
ततो मुद्रां विसर्जयेत्‌ ॥ 
अर्थात्‌-' हदय में ठोडी को दृढता से स्थापित करे । बाएं पैर की एडी को 
योनिस्थान में दढता से लगाएं व दाएं पैर को सामने पसार कर दोनों हाथों से उसका 
तलवा पकड ले । फिर पूरक द्वारा उदर में वायु को भरके कुम्भक करं । बाद मे शनैः 
शनैः रेचक करें । यह रोगों का नाश करने वाली श्रेष्ठ महामुद्रा कदी जाती हे । इसका 
अभ्यास प्रथम चन्द्रनाडी से ओर फिर सूर्यनाडी से करना चाहिए । इस प्रकार दोनों 
नथुनों से प्राणायाम समान मात्रा में पूर्व हो जाने पर यह मुद्रा छोड द ' (विस्तार भय 
से श्लोकों को संक्षिप्त कर दिया गया हे) । 
' घेरण्ड संहिता मे इस मुद्रा का संक्षिप्त परन्तु सारगर्भित वर्णन मिलता हे-- 
वायुमूलं वामगुल्फे संपीड्य दृट्यततः। 
याम्य पादं प्रसार्याथ केधृतं पादां गुलः। 
कंठ संकोचनं कृत्वा भुवोर्मध्ये निरीक्षयेत्‌। 
. महामुद्राभिधामुद्राकथ्यते चैव सूरिभिः॥ राः 
अर्थात्‌--गुदा स्थान को बाई एडी से दुढतापूर्वक दबाकर दाया पैर फट 
ओर दोनों हाथो से उस चैर की अंगुलियां पकड़कर कण्ठ को सिकोडं तथा भवां के 
मध्य स्थान में दृष्ट स्थापित करें । विद्वानों ने इसे महामुद्रा कहा है (घेरण्ड ऋषि र 
महामुद्रा में प्राणायाम के स्थान पर ध्यान को अधिक महत्त्वपूर्णं माना है) । 
महामद्रा के फल व प्रभावों के विषय मेँ ' हठयोग प्रदीपिका" मे कहा गया 
त-- 


इयं खलु महामुद्रा महासिद्धिः प्रदर्शिता । 
महाक्लेादयो दोषाः क्षीयते मरणादयः 
| 151 


अर्थात्‌- यह महामुद्रा महान सिद्धि को प्रत्यक्ष करने वाली है । इसके अभ्यास 
से महाक्लेश (अविद्या, राग, देष, अस्मिता तथा अभिनिवेश) आदि दोष एवं जन्म- 
मरणादि (आवागमन चक्र) नष्ट होते हँ ¦ (अर्थात्‌ अभ्यास सिद्ध हो जाने पर यह 
मुद्रा मोक्ष दायक तथा आत्मबोध कराने वाली है । इसीलिए इसको ' महामुद्रा ' कहा 
गया है)। 

“शाण्डिल्योपनिषद्‌' न इन फलों के अतिरिक्त अन्य फल भी कहे हें । यथा-- 

तेन सर्वक्लेश हानिः । ततः पीयूषमिव विषं जीर्यते । 

क्षयगुल्म गुदावर्तजीर्णत्वागादिदोषा नण्यन्ति। एष प्राणज योपायं 


 स्वमृत्युपघातकः ॥ 


अर्थत्‌-इससे सभी क्लेशो का नाश होता हे । विष भी अमृत के समान पच 
जाता हे। क्षय, गुल्म, गुदावर्त, पुराने चर्मरोग नष्ट होते हँ (रक्त शोधन होता है) । 
प्राण को जीतने का यह उपाय सर्वं मृत्यु नाशक हे। 

इसके गुण प्रभावों तथा महततव के सम्बन्ध में ' गोरक्च संहिता के निर्दश भी 


ध्यान देने योग्य हेँ-- 


तर्हिं पथ्यमपथ्यं वा रसाः सर्वेऽपि नीरसाः । 
अपि भुक्तं विषं घोरं पीयूषमिव जीर्यते ॥ 
क्षयकुष्ठमुद्रावर्तगुल्माजीर्णपुरोगमाः | 
रोगास्तस्य क्षयं यान्ति महामुद्रां चयोऽभ्यसेत्‌। 
कथितेयं महामुद्रा महासिद्िकरी नणाम्‌। 
| गोपनीया प्रयतेन न देया यस्य कस्यचित्‌॥ 
अर्थात्‌-महामुद्रा के अभ्यास के दृट्‌ हो जाने पर पथ्य, अपथ्य, रसीले या 
नीरस आदि का कुछ भी विचार शेष नहँ रहता। (अर्थात्‌ जो भी, जैसा भी खा 
लिया जाए पच जाता है, तथा आहार की ही भाति गुण देता है) । यदि घोर विष का 
भी पान कर लिया जाए तो बह भी अमृततुल्य हो जाता है । इससे क्षय, कुष्ठ, उदावर्त 
गृल्म्‌, अजीर्णं आदि रोगो का शमन होता है ! यह महामुद्रा अत्यन्त ही सिद्धि करने 
वाली (उपलब्धा प्रात कराने वाली तथा योग के लक्षय- कुण्डलिनी जागरण व 
मोक्ष को सिद्ध करने वाली) है। इसे प्रयल पूर्वक गुप्त रखें ओर कभी भी 
अनाधिकारी को न दे ( क्योकि अपात्र व अयोग्य के हाथ में गए मंत्र, विद्या, 
शक्ति, पद्‌, अधिकार, धन, स्त्री तथा शस्त्र दुरुपयोग मेँ आते हैँ तथा स्वयं 
उसके व पुरे समाज के लिए घातक होते है ) | 
अतः महामुद्रा ही नहीं सम्पूर्णं योग विद्या ही गुह्यविद्या/गुप्तविद्या कही गई है 
ओर सुयोग्य व्यक्ति को ही इसका उपदेश करने के निर्देश शास्त्र में स्पष्ट रूप से 
मिलते हे । 


152 


नभोमुद्राखेचरी मुद्रा . 
खेचरी मुद्रा(नभोमुद्रा को सभी योग विषयकं ग्रन्थों ने अति सम्मान पूर्णं स्थान 
दिया है तथा प्रमुखता से उपयोगी व महत्त्वपूर्णं बताया है । विशेष रूप से पातंजल 
योग. प्रदीप, हठयोग प्रदीपिका, गोरक्ष संहिता, शाण्डिल्योपनिषद्‌ तथा योग 
कुण्डल्योपनिषद्‌ में इस सम्बन्ध में विस्तृत जानकारी मिलती है । अनेक तन्त्र ग्रन्थों 
मे भी इसकी प्रशंसा एवं स्तुति है । इस मुद्रा मे सिद्धि प्राप्त करने के लिए जिह्वा का 
दोहन, मंथन आदि करना पडता है । इसका विस्तृत विवरण पातञ्जल योग प्रदीप में 
उपलब्ध है तथापि यह इतना कष्टपूर्ण, कठिन तथा नाजुक है कि गुरु के मार्गदर्शन 
के निनाइस मुद्रा का अभ्यास निरापद नहीं कहा जा सकता, लेकिन साथ ही यह 
। तथ्य भी विचारणीय है कि यह महामुद्रा से भी अधिक प्रभावी व लाभकारी मुद्रा है । 
इस मुद्रा को साधे बिना लोभ में लक्ष्य प्राति सुनिश्चित नहीं कही जाती । अतः 
पाठकों को ज्ञान वर्धन तथा विषय कौ सम्पूर्णता के लिए हम इस मुद्रा का विवरण 
। दे रहे है। परन्तु दोहन मंथन आदि के घातक कार्यो का वर्णन नहीं कर रहे है । 
इच्छुक पाठक ' पातञ्जल योग प्रदीप' से इन्हें प्राप्त करें । | 
खेचरी मुद्रा के वर्णन से पूर्वं सहस््रारचक्र से निरंतर इ्ञरने वाले अमृत के विषय 
मेँ चर्चा करना आवश्यक हे । क्योकि खेचरी मुद्रा इसी अमृत के पान की विधि है । 
इस अमृत के विषय में यद्यपि सातो चक्रों के वर्णन के समय सहस्रार चक्र प्रकरण 
में प्रारम्भ में ही प्रसंगवश संक्षिप्त चर्चा हो चुकी है । किन्तु यहां उसका विस्तृत वर्णन 
आवश्यक है । क्योकि बिना इस तथ्य को भली प्रकार जाने ' खेचरी मुद्रा" का महत्त्व 
नहीं जाना जा सकता। ओर न ही उसकी उपयोगिता जानी जा सकती है । 
| ` सहस्रार चक्र में उपस्थित सोलह दल की कमल कर्णिका मेँ एक चन्द्र निम्ब 
। है जिससे निरन्तर अमृत खाव होता है । तालुमूल मे स्थित चन्द्रमा से होता हुआ यह 
। सुधा नीचे गिरता है ओर नाभि में स्थित अग्नि (जठराग्नि) रूपी सूर्यं हारा ग्रस लिया 
जाता है । इस प्रकार व्यर्थ चला जाता है। जब तक जीवन रहता है यह अमृतसखाव 
| सतत चलता हे । जन्‌ यह अमृत ज्ञरना बन्द्‌ हो जाता है, तब मूत्यु होती हे । सहस्रार 
| चक्र मेँ परमशिव का कुण्डलिनी रूपी शवित से अभेदात्मक मिलन होता है । यही 
परमशिव का स्थान है । अतः कोई बडी बात नहीं कि शिव की जटाओं से निकलने 
वाली गंगा की धारा की कथा के माध्यम से इसी अमृतसखराव का मर्म समञ्ञाया गत! 
हो। इस अमृत की रक्षा करने के लिए ही विपरीत मुद्रा, खेचरी मुद्रा आदि का 
प्रावधान है । इस अमृत का मान जरा मृत्यु विनाशक तथा दिव्य उपलन्धियो 
वाला हे। जैसा कि कहा गया है-- 
यत्किचित्स्रवते चन्द्रामृत॒ दिव्यरूपिणः। 
तत्सर्वग्रसते सूर्य॑ स्तन पिंडो जरायुतः ॥ 
-- हठयोग प्रदीपिका 
अर्थात्‌-' दिव्य सुधामय रूप वाले तालुमूल मेँ स्थित चन्द्रमा से जो अमृत 
153 











गिरता है, उसको नाभि में स्थित अग्नि रूपी सूर्य ग्रस लेता है। जिससे शरीर 
वुद्धावस्था को प्राप्त हो जाता हे।' (अमृत का निरंतर क्षय होने से) । 
अथवा प्रतीक के रूप में इस अमृत को ग्रहण करने की प्रेरणा भी शस्त्रो में 
यदा-कदा मिलती हे। यथा- 
एक स्त्री भुज्यते द्वाभ्यामागता चन्द्र मंडलात्‌। 
तुतीयो यः पुनस्ताभ्यां सभवेदजरामरः॥ 
अर्थात्‌-एक स्त्री चन्द्रमंडल से प्राप्त होकर दो के द्वारा भोगी जाती हे। उसे 
यदि तीसरा भोग तले तो वह अजर ओर अमर हो जाता हे। (वृद्धावस्था व मृत्यु 
उसके पास नहीं आते) । 


व्याख्या | 

यहां बताई गई स्त्री वास्तव में चन्द्रमंडल से रने वाला अमृतदहेजोदोके 
द्वारा यानि चन्र ओर सूर्य के द्वारा भोगी जाती हे । यदि उसे तीसरा (योगी/साधक) 
भोग ले (स्वयं ग्रहण कर ले) तो अजर अमर हो जाता है । 

' गोरक्ष संहिता ने तो इस अमृतपान को इतना महत्त्वपूर्ण माना हे कि इसे ही 
प्रत्याहार ' कौ संज्ञा दी हे । यथा-- 

चन्द्रामृतमयी धारा प्रत्याहरति भास्करः। 
प्रत्याहरणं तस्याः प्रत्याहारः स उच्यते॥ 

अर्थात्‌- चन्द्रमा कौ अमृतमयी धारा को सूर्यं ग्रसता हे । उसे सूर्य से नचाकर 
स्वयं ग्रस लेना ही प्रत्याहार है। 

इसी सतत रने वाले अमृत को नाभि में स्थित अग्नि रूपी सूर्य से बचाकर 
स्वयं ग्रहण करने के उपायों मे एक है-' खेचरी मुद्रा ' अथवा ' नभोमुद्रा ' । अब इस 
मुद्रा के विषय, विधि तथा लाभ-प्रभाव के विषय मेँ चर्चा की जा सकती हे। 

जिह्वा को ऊपर की ओर पलटकर कपालरन््र (हलक के ऊपर) मेँ प्रवेश 
कराना ही संक्षेप मे खेचरी मुद्रा है । अत्यंत प्रभावशाली होने से समस्त सिद्धं व 
योगियोँ दवारा यह पूज्यनीय हे । इस मुद्रा से जिह्वा कपाल कुहर मेँ ञ्रने वाले अमृत 
का पान कर सकने में सक्षम हो जाती हे। इसी अमृतपान के प्रभाव से साधक 
अजर-अमर हो जाता हे। जो पांच आकार कहे गए हैँ, उनमें जिह्वा इस मुद्रा से 
विचरण करती हे। अतः इसको ' नभो मुद्रा" भी कहा जाता हे। परन्तु प्रायः यह 
खेचरी के नाम से अधिक प्रसिद्ध है । क्योकि "ख ' आकाश के लिए प्रयुक्त होता है । 
जसा कि- पक्षी को ' खग' कहते हैँ (ख+ग~-खग), यानी-- आकाश में गमन करने 
वाला। अतः ' नभोमुद्रा' को ' खेचरी मुद्रा' कहते हैँ । क्योकि जिह इस मुद्रा मेँ 'ख' 
(आकाश) में चरती (विचरण करती) है, अतः उसे ' खेचरी ' कहते हैँ । 


154 


कपालकुहरे जिह्मा प्रविष्टा विपरीतगा। 
श्रुवोरन्तर्गता द्ृष्ठिमुद्रा भवति खेचरी ॥ 
न रोगान्मरणं तस्य न निद्रा न क्षुधा तुषा। 
न मूर्च्छा तु भवेतस्य यो मुद्रां वेत्ति खेचरीम्‌॥ _ | 
--( गोरख संहिता 
अर्थात्‌-जीभ को उलर कर कपाल कुहर में प्रविष्ट करा कर दृष्टिको 
भृकुरियो के मध्य स्थिर कर लेना ही खेचरी मुद्रा है । जो योगी इसे जानता हे (इस 
मुद्रा के अभ्यास में प्रवीण है) उसे रोग, मृत्यु, निद्रा, भूख, प्यास ओर मूर्छ आदि 
से पीडित नरह होना पड्ता। 
पीड्यते न च शोकेन न च लिप्यते कर्मणा। 
बाध्यते न स केनापि यो मुद्रां वेत्ति खेचरीम्‌॥ 
(अर्थात्‌ उसे ना तो शोक ही होता है, ना ही कर्मबन्धन। इस मुद्रा को सिद्ध 
कर लेने वाला भव बन्धन से मुक्त होता है) । 
' श्ाण्डिल्योपनिषद' में खेचरी का वर्णन थोडा ओर भी विस्तार से प्राप्त होता 
है । यथा-- 





इडा पिंगलयोर्मध्ये शून्यं चेवानिलं ग्रसेत्‌। 
तिष्ठन्ती खेचरी मुद्रा तत्र सत्यं प्रतिष्ठितम्‌॥ 
अर्थात्‌--इडा व पिंगला के मध्य जो शून्य भाग है, वह वायु को ग्रस लेता हे। 
वहीं खेचरी मुद्रा रहती है ओर वहीं सत्य रहता है । (यहां कपाल रन्ध्र" के.विषय 
मे बताया गया है । आगे कहते है-- ) | 
छेदनं चालनंदोहनं कसां परा जिह कृत्वा दृष्टि भरूमध्ये स्थाप्य कपाल 
कुहरे जिह्ा विपरीतगा यदा भवति तदा खेचरी मुद्रा जायते । ` 
जिह्वा नित्तं चखे चरती तेनोर्ध्वचिह्वः पुमानमृतौ भवति ॥ 
अर्थात्‌-केदन, चालन, दोहन द्वारा जिह को नोकदार (लम्बा) वे 
भृकुरियों मे मध्य भाग में दृष्टि स्थिर करके जब जिह्वा उलरी होकर कपाल कुहर मे 
प्रविष्ट होने के योग्य हो जाती है-- तब खेचरी मुद्रा बनती है । इस मुद्रा से चित्त व 
जिह्वा दोनों कपाल कुहर रूपी आकाश में विचरण करते हँ । तब ऊपर पहुंचाई गईं 
जिह्वा वाला पुरुष अमर हो जाता है। 


व्धाख्या । 


जीभ को पलटकर कपाल कुहर में ले जाना कोई मामूली कार्यं नहीं हे । यह 
मात्र अभ्यास से भी सम्भव नहीं हो पाता, जब तक कि तकनीक द्वारा जिह्वा को इस 
योग्य न बना लिया जाए । जिह्वा को इस योग्य बनाने के तकनीकों को भी यहां विधि 


। वलाभके साथ संक्षेप में कह दिया है । यह तकनीके-छेदन, चालन व दोहन/म॑थन 
है। 











155 


"का 








जीभ को यदि ऊपर उठाएं तो पाएंगे कि वह एक पतले से तन्तु या लगाम द्वारा 
नीचे जुडी रहती है । यह मांस तन्तु जीभ को उलटकर कपाल कुहर में पहुंचने 
लायक बन पाने में बहुत बड़ी बाधा होता हे । इसे विधि पूर्वक ओषधियों के प्रयोग 
के साथ शस्त्र या शीशे द्वारा शनैः शनैः काट दिया जाता हे । यह क्रिया कई दिनों में 
सम्पनन की जाती है। इसी को "छेदन ' कहते हैँ । (पाठकों द्वारा भावातिरेक, 
जल्दबाजी, जिज्ञासा आदि के कारण खेचरी मुद्रा में सफलता प्राप्ति करने के लिए 
विना समर्थ गुर के मार्गदर्शन के खुद ही छेदनक्रिया कर लेने कौ सम्भावना को दृष्ट 


में रखकर हम इस क्रिया की विधि व ओषध आदि को चर्चा नहीं कर रहे है । गुरु 


को दीक्षा ही इस विषय में प्रशस्त होगी ) । मथन या दोहन क्रिया के अन्तर्गत गाय 
के मक्खन को जीभ पर मलकर दोनों हाथों के अंगूठों व तर्जनी के प्रयोग से जीभ 
को अगे कौ ओर खीचा/द्हा जाता है । इस अभ्यास से जीभ शनैः शनैः लम्बी 
पतली व नोकदार होने लगती है । यही क्रिया मंथन/दोहन कही जाती हे । ' चालन 
क्रिया" के अन्तर्गत जिह्वा द्वारा कुक व्यायाम किए जाते ह जो जीभ को लम्बा व 
लचीला बनाने में सहायक होते हैँ । जैसे जीभ को मुख से बाहर निकालकर ठोडी 
पर लगाने का प्रयास अथवा मुख से बाहर निकालकर नासिकाग्र से जीभ लगाने का 
प्रयास आदि। इन प्रयासों में हाथ का प्रयोग वर्जित है । जीभ को स्वतः अपनी ही 
शक्ति से धकेल खींचकर यह व्यायाम करने होते हे । अतः इसे जीभ का चलाना 
या ' चालन' कहते दह । 
जेसा कि स्पष्ट है ' चालन' का प्रयोग पाठक कर सकते हे । दोहन या मंथन 
क्रिया को भी सावधानी पूर्वक किया जा सकता है किन्तु छेदन क्रिया को समर्थं गुरु 
को छत्रकछाया-मे ही किया जाना चाहिए। अन्यथा वाकृशक्ति का लोप, तुतलाहरः, 
हकलाहट आदि के अलावा अन्य उपद्रवं की सम्भावना भी होती है, जो घातक भी 
हो सकते हैँ । 
खेचरी मुद्रा के अन्य गुण प्रभावों के लिए निनलिखित श्लोकों को भी 
देखिए, ' जो गोर्च सहिता मेँ आए है- 
विन्दूमूलं शरीराणां शिरास्तत्र प्रतिष्ठिताः । 
भावयन्ति ङरीराणामापादतलमस्तकम्‌॥ 
खेचरी मुद्रया येन विवरं लम्बिकोर्ध्वतः। 
न तस्य क्षरते विन्दुः कामिन्यालिङ्धितस्य च ॥ 
यावद्बिन्दुः स्थितो देहे तावन्मृत्यौरभयंकुतः। 
यावद्बद्धा नभोमुद्रा तावद्बिन्दुर्न गच्छति ॥ 
अर्थात्‌- बिन्दु (वीर्य) शरीर का मूल (आधार) है। यह पांव से सिर तक 
शरीर में प्रतिष्ठित रहता है । इसी से शिराओं मे सजीवता आती है तथा हाथ पैरो व 
मस्तिष्क की सामर्थ्य बनी रहती हे । जिसने खेचरी मुद्रा को उस कण्ठ छिद्र को 
156 | 


लम्बिका के ऊपर रोक लिया उस योगी का बिन्दु कामिनी के जआलिंगन से भी क्षरित 
नहीं होता । जब तक शरीर में बिन्दु स्थित है, तब तक मृत्यु का भय कहां > ओर जब 
तक नभोमुद्रा दृढता से बंधी हे, तब तक बिन्दु चलायमान नहीं होता। (अर्थात्‌ 
खेचरी मुद्रा विन्दु कौ रक्षा करके भी मृत्यु को पास नहीं आने देती । ओर कण्ठ छिद्र ` 


मे अमृत पान करते रहने के कारण भी मृत्यु को नाशक हो अतः यह अमरत्व प्रदान 
करती है) । 


व्याख्या । 
परन्तु जेसा कि गीता में भगवान कृष्ण ने कहा हे--'जातस्य हि श्ुवो मृत्यु 
वं जन्म मृतस्य च 1 (जन्मने वाले कौ मृत्यु अवश्य होती है ओर मरने वाले का 
जन्म भी अवश्य होता है ) । इस न्याय के अनुसार मरण तो निश्चित हे फिर अमरता 
की बात कैसे सम्भव है ? इसका यही एक उत्तर हे कि व्यक्ति इच्छा मृत्यु हो जाता 
हे अथवा अतिदीर्घजीवी हो जाता हे । वह हजासों वर्षो तक या जब तक मरना न चाहे 
जीवित रह सकता है । किन्तु फिर पुनः जन्ममें न लोर कर निर्वाण/मोक्ष प्राप्त कर 
लेता दे । 
` खेचरी मुद्रा चित्त मे चंचलता नहीं आने देती । अतः बिन्दु/वीर्य भी चालायमान 
नहीं होता । बिन्दु की स्थिरता का कारण मन कौ स्थिरता ही हे । जिह्वा द्वारा बिन्दु को 
क्षरित होने से रोकने का भावार्थ यही हे । जेसा कि ' योगकृण्डल्योपनिषद्‌' मे कहा 
हे- 
मनसोत्पद्यते विन्दुर्यथा क्षीर धृतात्मकम्‌। 
न च बन्धन मध्यस्थं तद्व कारणमानसम्‌॥ 
अर्थात्‌-- यह बिन्दु मन से ही उत्पन होता हे । जसे दूध से घी उत्न होता 
हे। उस बिन्दु मेँ कुक भी बन्धन नहीं है, जो बन्धन है, वह सब मन काही हे। 
( विज्ञानानुसार वीर्य की उत्पत्ति रक्त से व रक्त की आहार से होती हे । परन्तु इस 


` स्थूल अध्ययन में मन का संयोग आहार के साथ होने पर ही यह सब सम्भव होता 


ठे । यथा अनन तथा मन ' इसीलिए कहा है-- यदि मन प्रसन न रहे तो पौष्टिक 
आहार लेने के बाद भी रक्त- वीर्य को वृद्धि नहीं होती । मन को अप्रसननता अवसाद, 
ईर्ष्या, क्रोध, चिंता आदि इसीलिए रक्त एवं वीर्य का नाश करते हँ । अब यह कहना 


, ठीक ही है कि मन ही बिन्दु की उत्पत्ति का कारण है । मन में उत्साह हो तो नपुंसक 


भी "जोश ' मे आ जाता है । उत्साह न हो तो पौरुष युक्त व्यवित भी " उत्तेजित नहीं 
होता, यह एक मनोवैज्ञानिक तथ्य है") | 

भगवान शिव जिस मुद्रा मे ( शाम्भवी मुद्रा) -- सदैव ध्यान मग्न रहते ह, 
उसमे खेचरी भी सम्मिलित रहती है । इसलिए उन्हे परमात्मा या महादेव कहते द । 
ओर संकल्प शक्ति के महास्वामी के रूप में उन्हें जाना जाता हे । उन्ह महायोगी 


157 











| कहा जाता है । कुण्डलिनी को सहस्रार मेँ पहुंचाने का विज्ञान परमशिव से परमशक्ति 
को मिलाने का ही विज्ञान हे। अतः महा या परम विज्ञान है । इसे जान लेने के बाद 
कुछ भी जानना शेष नहीं रह जाता। जो कुछ विज्ञानवादी बाहर खोजना जानना 
चाहते हँ, वह सब ओर उसके अलावा भी सन कुक समाधिस्थावस्था में कालजयी 
हुआ योगी स्वतः ही जान लेता है। किसी भी विषय पर ध्यान एकाग्र कर उसके 
विषय मं समूचा जान लेना योगी के लिए सम्भव हो जाता है-जेसा कि ' विज्ञान 
भैरव" मे कहा गया है- 
देहाभिमाने गलिते विक्ञाते परमात्सनि। 
| यत्र॒ यत्र मनो याति तत्र तत्र समाधयः॥ 
अर्थात्‌ देह में अहं भाव नष्ट हो जाने पर ओर परमात्मा के स्वरूप का ज्ञान 
हो जाने पर जहां-जहां मन जाता हे, वहीं- वहीं पर समाधि लग जाती है। (इस 
विषय को पुस्तक के अन्त में विस्तार से लंगे। यहां प्रसंगवश चर्चा हो गई हे) । 
“ विज्ञान भैरव मेँ खेचरी मुद्रा के व्यावहारिक व वेन्ञानिक पक्ष को भी ध्यान 


मे रखा है- 





मध्यजिह रफारितास्ये मध्ये निक्षिप्य चेतनाम्‌ 
होच्यारं मनसा कुर्वस्ततः शान्ते प्रलीयते ॥। 

यानि--अपने मुंह को फैलाकर, जिह्वा को उलट कर ऊपर तालु मेँ प्रविष्ट 
कराने से खेचरी बनती हे । इस मुद्रा में अपनी बुद्धि को स्थिर करके मन से स्वररहित 
^ हकार ' का उच्चारण करने से साधक शान्तावस्था में लीन हो जाता है अर्थात्‌- 
उसका शान्त स्वरूप अभिव्यक्त हो जाता हे । 

(यह बताई गई 112 धारणाओं में ऽ7रवीं धारणा है। इस ग्रन्थ में 112 


धारणाओं का उल्लेख है) । 


व्याख्या 
प्राण कौ उच्छवास दशा मे स्वभावतः "ह ' तथा निश्वास दशामें'सः' का 
उच्चारण होता हे (सकारेण बर्हियाति हकारेण विशेत्‌ पनः ) पहले बता आए है । 
इस तथ्य के अनुसार ' सकार ' के साथ बाहर निकला प्राण ' हकार ' का ही उच्चारण 
होता हे । यही व्यावहारिक व वैज्ञानिक तथ्य इस श्लोक मेँ कहा गया है । इस मुद्रा 
को साधना मं दृष्ट को भूमध्य में स्थिर रखना चाहिए, जिससे ध्यान लग सके । इस 
बात को अनेक ग्रन्थों मँ कहा गया हे । खेचरी मेँ जीभ का पलटकर कपाल कुहर मेँ 
लगाना ओर दृष्ट का भ्रूमध्य में स्थिर रखना दोनों ही क्रियाएं शामिल रहती है । एसा 
^ विवेक गा्तण्ड' मे भी कहा गया है- 
कपाल कुहरे जिह्वा प्रविष्टा विपरीतगा। 
भ्रुवोरन्तगता दृष्टिर्मुद्रा भवति खेचरी ॥ 
अर्थात्‌-- जिह्वा को उलट कर तालु प्रदेश में स्थित कपाल कुहर में प्रविष्ट करा 
158 





{1 त ष क क क ` > 


देना तथा दृष्टि को भ्रूमध्य में स्थिर कर लेना-- यही खेचरी मुद्रा है । 

रखेचरी मुद्रा पर पर्याप्त प्रकाश डाला जा चुका हे । अब हम कुण्डलिनी जागरण 
के अन्य उपाय विपरीतकरिणी मुद्रा कौ चर्चा करेगे । इस मुद्रा को पहले इसलिए ले 
रहे है, क्योकि इस मुद्रा मे खेचरी का प्रयोग भी किया जाता है ओर यह मुद्रा भी 
सतत ल्यरने वाले अमत के पान के उपाय रूप मेँ प्रयुक्त होती है । 
विपरीतकरिणी मुद्रा 

जेसा कि नाम ही से स्पष्ट हो जाता हे कि यह मुद्रा शरीर की स्थिति को उल्टी 
या विपरीत कर देने वाली हे। अतः इसको ' विपरीत करिणी ' कहते हैँ "हठयोग ' के 
अन्तर्गत यह मुद्रा भी आती हे । इस मुद्रा द्वारा कपाल कुहर में गिरने वाले अमृत कौ 
रक्षाकी जाती हे। 


[त 


\ 














विपरीतकरणी मुद्रा 
नाभिदेशे वसत्येको भास्करो देहनात्मनः। 
अमृतात्मा स्थितो नित्यं तालुमूले न चन्द्रमा॥ 
वर्षत्यधोमुखश्च्रोग्रसत्युध्वंमुखो रविः। 
ज्ञातव्याकरणी तत्र॒ यथा पीयुषमाप्यते॥ 
गोरक्षसंहिता 


159 


अर्थात्‌-अग्निरूपी एक सूर्य नाभि मेँ रहता है ओर अमृत रूपी आत्मा वाला 
चन्द्रमा सदा तालुमूल मे निवास करता हे । तालुमूल मे नीचे कौ ओर मुख किए रहने 


वाला चन्द्रमा जिस अमृत को वर्षा करता है उसे ऊपर को मुंह किए रहने वाला 


अग्निरूपी सूर्य नाभि में अवस्थित रहते हुए पी लेता हे । परन्तु विपरीतकरिणी मुद्रा 
को जो योगी जानता है, वह उस अमृत को अग्नि के मुख से चाकर स्वयं अपने 
मुख में ले लेता हे । (जिससे रोग आदि का नाश होकर आयुवृद्धि होती है तथा मृत्यु 
भय नहीं रहता) | 
उर्ध्वं नाभिरधस्तालुरुर्ध्व सूर्यरधः शशी । 
करणी विपरीताख्या गुरुपदेशेन लभ्यते ॥ 
 अर्थात्‌- नाभि में स्थित अग्नि रूपी सूर्य को ऊपर तथा तालु मूल में स्थित 
अमृतमयी चन्द्रमा को नीचे (विपरीत) करना ही विपरीतकरणी नामक मुद्राहै, जो 
गुरु के उपदेश से ही प्रप्त हो पाती हे (अर्थात्‌ विना गुरु के उपदेश, आज्ञा व निर्देशन 
के इस मुद्रा मेँ सफलता नहीं मिलती) । 
यहां गुरु के उपदेश को महत्त्व इसलिए दिया गया है-- क्योकि मात्र शरीर को 
उल्टा कर लेने से ही यह मुद्रा सिद्ध नहीं हो जाती। पहले प्राणायाम तथा खेचरी 
आदि मुद्राएं सिद्ध कौ जाती हैँ । फिर विपरीतकरिणी मुद्रा में खेचरी का समावेश 
किया जाता हे । प्राणवायु कौ नासिका के उर्ध्वविवर में तथा जीभ को जिहा मूल से 
पलटकर्‌ ब्रह्मरध्र कौ ओर पहंचाने का अभ्यास किया जाता है । यह अत्यंत कठिन 
अभ्यास हे । ' शाण्डिल्योपतिएद्‌' मेँ संध्या के समय वायु को खींचकर पीने का 
निर्देश मिलता हे । उससे तीन महीने मेँ अभ्यासी की वाणी सरस्वती स्वरूपा हो 
जाती हं । छः महीने मेँ समस्त रोग दूर हो जाते है । अतः इस अवस्था मेँ जिह्वा द्वार 
प्राणवायु को खीँचा भी जाता है । जेसा कि इसी उपनिषद्‌ में आगे कहा गया है- 
जिहयया वायुमानीय जिह्वामूले निरोधयेत्‌ 
यः पिवेदमृतं विद्वान्‌ सकलभद्रमञ्नुते॥ 
अर्थात्‌-जो विद्वान योगी जिह्वा से वायु खींचकर उसे जिह्वा मूल में रोककर 
अमृत का पान करता है । उसका सब प्रकार से कल्याण होता हे । (किन्तु गुरु के 
मागदर्शन में ही इसे करे) । 
बद्धं सोमकलाजलं सुविमलं कण्ठस्थलादूर्ध्वतो । 
नासान्ते सुषिरे नयेत्व गगनद्वारान्ततः सर्वतः। 
उरध्वास्यो भुविसनिपत्यनितरामुत्तानपादः पिबेदेवं यः 
कुरुतेजितेन्धिय गणोनैवास्तितस्य क्षयः ॥ 
ऊर्ध्वं जिहां स्थिरीकृत्य सोमपानं करोतियः 


मासद्धेन न सन्देहो मत्युं जयति योगविद्‌॥ 


( गो. संहिता 
160 कुण्डलिनी शक्ति कैसे जागृत करे --10 


अर्थात्‌- कण्ठ के उर्ध्वं भाग में स्थित स्वच्छ चन्द्रकलामृत को रोककर 
नासिका से ऊपर के विवर में भरे ओर वायु के समस्त द्वारो को रोककर आकाश में 
प्राणापन युक्त पूरक करे तथा पृथ्वी पर उत्तान लेकर पांवों को उत्तान करके 
(विपरीत करिणी) इस अमृत का पान कर । जो जितेन्द्रिय योगी सदा एेसा करता हे, 
उसका क्षय कभी नहीं हो सकता। जीव को ऊर्ध्व स्थित कर सुधापान करने वाला 
साधक पंद्रह दिनों मेही म॒त्यु को जीतने वाला हो जाता हे। (किन्तु जेसा कि कहा 
गया है, विना गुरु को कृपा के यह कार्य सम्भव नहीं होता) | 


शक्ित्तिचालिनी मुद्रा व शक्तिचालन 
इस मुद्रा का सीधा सम्बन्ध कुण्डलिनी शाक्त को जागृत कर उसे ऊपर चढ़ाने 
से हे। अतः इसे ' शक्तिचालिनी मुद्रा" कहा गया हे । स्पष्ट हे कि यह भी अत्यधिक 





शक्तिचालिनी मुद्रा 
161 


आवश्यक हे । प्रायः समस्त योग विषयक ग्रन्थों ने इसे सम्मानपूर्वक मान्यता दी हे । 
परन्तु ' घेरण्डसहिता मे इसका विस्तृत विवेचन मिलता दे । 
कृत्वा सम्पुटितौ करौ दृढरं बध्वा तु पद्मासन । 
गाढं वक्षसि सनिधाय चिबुकं ध्यानं च तच्येति। 
लारंबारम पानमूर्ध्व मनिलं प्रोच्यारयेत्पूरितं। 
मुञ्च्प्राणमुपेतिबोधमतुलं  शक्तिप्रभावादतः ॥ 
| -- गोरक्ष संहिता 
अर्थात्‌-- दोनों हाथों कौ अञ्जली बांधकर दोनों कुहनियों को दृढता से हदय 
पर रखकर पद्मासन करे । ठोडी को हदय से दृढृतापूर्वक लगाकर ज्योतिरूप ब्रह्य 
का ध्यान करें । प्राणायाम द्वारा वायु खींचकर उसे जपानवायु से मिलाएं ओर कुम्भक 
द्वारा धारण करके शनैः शनैः छोड दे । एेसा करने से साधक को कुण्डलिनी शक्ति 
के प्रभाव का अतुलित बोध होता है अथवा शक्ति जागृत होती हे। 
यह शक्तिचालिनी मुद्रा कुण्डलिनी शक्ति को जागृत करती हे । इसीलिए इसे 
शक्तिचालिनी कहते हे । परन्तु यह लम्बे अभ्यास से सिद्ध होती है । परिचयके रूप 
में ' गौरश्च संहिता' का श्लोक ऊपर दिया हे । किन्तु पूर्ण विस्तृत रूप से इसका वर्णन 
` घैरंड संहिता में आता हे, जो पाठकों के लिए अधिक उपयोगी होगा । 
नाभिं सम्बेष्टय वस्त्रेण न च नग्नो बहिः स्थितः। 
गोपनीयगृहे स्थित्वा शक्तिचालनमभ्यसेत्‌ ॥ 
वितस्तिमितं दीर्घ विस्तारे चतुरंगुलम्‌। 
मृदुलं धवलं सुश््मं॒वेष्टनाम्बर लक्षणम्‌॥ 
एवंमम्बरयुक्तं च कटि सूत्रेण योजयेत्‌। 
भस्मनागात्र संलिप्तं सिद्धासनं समाचरेत्‌ ॥ 
नासाभ्यां प्राणमाकृष्य अपानेयोजमेदबलात्‌। 
तावदाकुञ्चयेद्‌ गुह्यं श़नैरश्िविनिमुद्रया ॥ 
यावद्गच्छेत सुषुम्नायां वायुः प्रकाशयेत्‌ हठात्‌। 
तदावायुप्रबन्धेन कुम्भिका च भुजद्धिनी॥ 
बद्धर्वासस्तोभूत्वा उर्ध्वमा्ग प्रपद्यते । 
शक्तीविनाचालनेन योनिमुद्रा न सिद्धयति ॥ 
- घेरंड सहिता 
अर्थात्‌- नाभि को वस्त्र से लपेटकर शक्तिचालिनी मुद्रा का एकान्त स्थान मे 
अभ्यास करं । नग्नावस्था मेँ इस मुद्रा का साधन कभी बाहर न करं । बालिश्त भर 
चोडा ओर चार अंगुल लम्बा (कोमल, स्वच्छ) वस्त्र नाभि पर रखकर उसे करिसुत्र 
(नादे आदि) से कमर पर बाधं (यदि पूरा वस्त्र न लपेट रहे हँ तो) । शरीर पर 
भस्म मलकर सिद्धासन पर वैटकर प्राण को खींचकर अपान से मिलाएं । सुषुम्ना के 
162 


द्वार से गमन करती वायु जब तक प्रत्यक्ष न हों, तब तक * अश्विनी मुद्रा' से गुदा 
संकोचन करे । इस प्रकार वायु के रुकने से सर्पाकार कुण्डलिनी जागृत होकर ऊर्ध्व 
मार्ग में बढती हे । इस शक्तिचालिनी मुद्रा के विना योनिमुद्रा (मूलबन्ध) कौ सिद्धि ` 
नहीं होती । (घेरण्ड ऋषि ने गोरखनाथ के मुकाबले शक्तिचालिनी मुद्रा को अधिक 
- स्पष्ट किया है ओर पदमासन के स्थान पर सिद्धासन का निर्देश दिया है। विभिन्न 
ऋषियों ने विभिन्न मार्गो एवं मुद्राओं से लक्ष्य प्राप्ति को थी। अतः अपने-अपने 
अनुभूत मार्ग पर उन्होने अधिक प्रकाश डाला है । इसका कारण मात्र इतना ही है) | 
व्यारस्या 
पद्मासन के स्थान पर सिद्धासन का प्रयोग इस मुद्रा मे अधिक लाभकारी 
रहेगा क्योकि अश्विनी मुद्रा तथा योनिमुद्रा में यही सिद्धासन अधिक सहयोगी रहता 
हे ओर कम प्रयाससे ही मुद्रा को सिद्ध करता है। शरीर पर भभूत मलने के तीन 
सम्भावित कारण हैँ । पहला- नग्नावस्था को ठकना। दूसरा वैराग्य भाव को उदित 
करने के बाह्य प्रयास एवं तीसरा इस क्रिया में शरीर पर आने वाले पसीने को सोखने 
की सुविधा प्राप्त करना। क्योकि पसीने के अधिक बहने कौ अनुभूति भी मुद्रा के 
स्थायित्व मे बाधक हौ सकती है । यह भी सम्भावना है कि शिव को ईष्ट मानने के 
कारण घेरण्ड ऋषि शिव की ही भांति देह पर भभूत मलने को आवश्यक समञ्ते 
होँ। 
नाभि पर वस्त्र लपेटने अथवा वस्त्र को नाधि पर रख कटि सूत्र से बंधने के 
पीछे दो उदेश्य संभावित हैँ । पहला उड़यान बन्ध में सहयोग एवं नाभिमंडल को 
भीतर दबाकर उद्रेलित करना । दूसरा नाभिमंडल पर ध्यान लगाने मे सहयोग प्राप्त 
करना । सुषुम्ना में.वायु को प्रत्यक्ष करने का अर्थ वायु को वहां अनुभव करन से हे। 
तब तक ' अश्विनी मुद्रा' का निर्देश दिया है! * अश्विनी मुद्रा' अपने आप मं 
कुण्डलिनी शवित को उत्तेजित करने मँ सहायक हे । 
अश्विनी मुद्रा 
घोडी जिस प्रकार अपनी योनि को बार-बार संकुचित करती तथा विस्तृत 
करती है, उसी प्रकार उपस्थ सहित गुदा को बार-बार संकुचित करना तथा टीला 
` छोडना अश्विनी मुद्रा कही जाती हे । यह कुण्डलिनी को जागृत कर पाने मे समर्थ 
भले ही न हो अथवा चलाने में सक्षम भले ही नहीं किन्तु उसको थपथपा कर या 
केडकर उत्तेजित अवश्य करती हे । इसीलिए घेरण्ड ऋषि ने वायु के सुषुम्ना के द्वार 
पर अनुभव करने तक अश्विनी मुद्रा के प्रयोग का निर्देश दिया हे । अश्विनी मुद्राका 
अभ्यास स्तम्भन सामर्थ्य भी बढाता है ` 
इन समस्त विवेचनोँ से सिद्ध होता है कि कुण्डलिनी को जागृत करके सुषुम्ना 
मं चढ़ाने के लिए वायु को सुषुम्ना मेँ चाना आवश्यक है । क्योकि वायुं अथवा 
163 








अश्विनी मुद्रा 
अग्नि ही कुण्डलिनी जगाकर चलाने मेँ समर्थ है। वायु के साथ प्राणव मन भी 
एकाग्र होकर सुषुम्ना में जाते हे । अन्ततः आज्ञाचक्र तथा सहस्रार चक्र पर जा 
पहुंचने पर सम्प्ज्ञात समाधि व असम्प्रज्ञात समाधि कौ स्थिति प्राप्त होती हे । जैसा 
कि ' योगक्त्वोपतिषद्‌' में कहा गया हे- 
वायुना सहचित्तं च प्रविशेच्य महापथम्‌ 
यस्य चित्तं स्वपवनः सुषुम्नां प्रविरोदिह ॥ 
भूमिरापोऽनलोवायु आकाश चेति पंचकः। 
येषु पंचसु देवानां धारणा पंचधोच्यते ॥। 
अर्थात्‌- जिसका चित्त वायु के सहित सुषुम्ना में प्रविष्ट हो जाता हे । उसके 
लिए-- पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु ओर आकाश इन पांच महाभूत रूपी देवताओं कौ 
धारणा स्वतः हो जाती हे । (धारणा व समाधि कौ चर्चा अगले अध्याय में करेगे) | 


विन्दु व रज को, चन्द्र व सूर्य को अथवा प्राण व अपान को मिलाना 
अब तक के उपायों एवं विधियो को पढ़कर प्रबुद्ध पाठक जान गए होगे कि 
प्राण व अपान को मिलान से अथवा चन्द्र व सूर्य या बिन्दु एवं रज को मिलान से 
ही कुण्डलिनी का जागरण होता है । समस्त प्राणायाम प्राण व अपान को मिलाने के 
उपाय हं तथा विपरीतकरिणी, शक्तिचालिनी, खेचरी आदि मुद्रां चन्द्र व सूयं मे 
एकात्म स्थापित करने के उपायहें। 
प्रत्येक व्यवित मेँ बिन्दु (वीर्य) तथा रज रहता हे । ओर प्रत्येक स्त्री मेँ भी। 
किन्तु स्त्रियो मे रज कौ प्रमुखता रहती है ओर पुरुषों मे वीर्य की । आयु्वेदीय ग्रन्थो 
व आधुनिक चिकित्सा विज्ञान ने भी इसे माना है । ' चरक संहिता! में तौ यहां तक 
बताया गया है कि स्वप्न कौ अवस्था मेँ उत्तेजित होने पर क्षरित स्त्री कौ योनि मं 
यदि वायु प्रविष्ट हो जाए ओर उसका रज उसमें मौजूद वीर्य के अंश से मिल जाए 
गर्भाधान हो जाता है । किन्तु वह अर्थ, अस्थि, नख व केशों से हीन (मांसपिंड 


रूपी) होता हे। 
164 





रज एवं बिन्दु का संयोग सुजनात्मक होता है-भले ही बाह्य हो अथवा 
आन्तरिक । अघोरी सम्प्रदाय में इसी उपाय पर विशेष जोर दिया जाता है ओर 
सम्भोग को इसीलिए योग साधना का पर्याय माना जाता है । 
शरीर में विन्द्‌ व रज दोनों रहते हें । बिन्दु का स्थान चन्द्र एवं रज का स्थान 
नाभिमंडल में अवस्थित सूर्य माना गया हे । विन्दु कारंग श्वेत वरज कारंग लाल 
कहा गया हे । बिन्दु को शिव ओर रज को शिवा/शक्ति का प्रतीक माना हे । जेसा कि 
' गोरक्ष संहिता" में प्रमाण मिलते हँ 
स पुनद्विविधो बिन्दुः पाण्डुरो सोहितस्तथा। 
पाण्डुरः शक्रमित्यहलोँहिताख्यो महारजः ॥ 
सिन्दूरद्रवसंकाशं नाभिस्थाने स्थितं रजः। 
रशिस्थाने स्थितो विन्दुस्तयोरेक्यं सुदुर्लभम्‌॥ 
अर्थात्‌--यह बिन्दु दो प्रकार का होता हेै। पाण्डुर वर्णं तथा लोहित वर्ण। 
पाण्डुर वर्णं वाला ' शुक्र' तथा लोहित वर्णं वाला ' महारज! कहा जाता है । तेल 
मिश्रित सिंदूरी द्रव के समान रज नाभिमंडल मे ओर बिन्दु चन्र स्थान मेँ रहता हे । 
इन दोनों का एक हो पाना अति दुर्लभ हे। 
विन्दुः शिवो रजः शकितिर्चन्द्रोविन्दु रजो रविः । 
अनयोः संगमादेव प्राप्यते परमं पदम॥ 
वायुना शक््तिचारेण प्रेरितं तु यदा रजः। 
याति विन्दोः सहैकत्वं भवेदिदूव्यं वपुस्ततः ॥ † 
अर्थात्‌-- विन्द्‌, शिव तथा रज शवित है अथवा बिन्दु चन्द्रमा ओर रज सूर्य ह । 
इन दोनों के संयोग से परम शरीर प्राप्त होता है । वायु द्वारा शक्ति चालन से जब रज 
आकाश में प्रेरित होकर बिन्दु से मिल जाता है तब शरीर दिव्य बन जाता है (अर्थात्‌ 
तेजस्वी हो जाता हे) । 
शक्रं चन्द्रेण संयुक्तं रजः सूयेण संयुतम्‌। 
तयोः समरसैकत्वं यो जानाति सयोगविद्‌॥ 
- गोरक्षसंहिता 
अर्थात्‌--शुक्र बिन्दु रूपी चन्द्र से युवत है ओर रज सूर्य से समन्वित हे । जो 
इन दोनों की समरसता को जानता है (इन दोनों को मिलाना जानता है) वही योग 
काज्ञाताहे। 
अतः चन्द्र व सूर्य को, बिन्दु एवं रज को अथवा प्राण व अपान को मिलान 
ही कुण्डलिनी जागरण के मार्गं है। 
आक्षिप्तो भुजदण्डेन यथोच्छलतिकन्दुकः। 
प्राणापान समाधिप्तस्तथा जीवो न तिष्ठति ॥ 
अर्थात्‌- जैसे हाथ द्वारा पृथ्वी पर परटकी गई गेंद, ताडित होकर स्वयं ऊपर 
165 


उकछलती है। वैसे ही प्राणवायु की प्राप्ति में जीव को आकर्षित करके अपानवायु 
ठहरने नहीं देता। (जैसे गेंद खेलने वालों के वश में रहती है वैसे हौ जीव अविद्या 
के वशा मेँ रहता है । प्राणापान के मध्य जीव स्थिर नहीं रहता । प्राण व अपान को 


मिलाकर ही उसे स्थिर किया जाता है)। 
कुण्डलिनी भेदन के लिए षट्चक्रं का समस्त विवरण प्रारम्भ मे ही दे दिया 


गया हे । तथापि इस खण्ड को पटने पर पाठकों को तालु एवं कंठ का महत्त्व भी 
समद मे आया होगा । बहुतों को तालु या कण्ठ विवर अन्य चक्रं कौ अपेक्षा अधिक 
महत्त्वपूर्णं भी लगा हो सकता हे । परन्तु एेसा नहीं है । चक्रों का अपने स्थान पर पूर्णं 
महत्त्व है तथापि तालु का महत्त्व भी कम नहीं है क्योकि शरीर के चार पवित्र अंगों 
मे एक यह भी है । इसकी पवित्रता का कारण यहां रुद्र का निवास होना है । जैसा कि 
निनलिखित श्लोक से सहज सिद्ध होता है- 
ब्रह्मणो हदयस्थानं कण्ठे विष्णुः समाश्रितः । 
तालुमध्ये स्थितो रुद्रो ललाटस्थो महेश्वरः ॥ 
-- ब्रह्मविद्या उपनिषद्‌ 
अर्थात्‌-हदय स्थान मे ब्रह्मा का तथा कण्ठ स्थान में विष्णु का निवास होता 
हे। तालु मध्य में रुद्र स्थित है ओर ललाट में महेश्वर/परमशिव का निवास है। 
(अतः कण्ठ व तालु का महत्व स्पष्ट हे) । 
इसके अलावा मूलद्वार भी अत्यंत महत्त्वपूर्ण है । क्योकि सुप्त कुण्डलिनी का 
मार्ग यहीं से आरम्भ होता है । इसके अलावा अनेक मुद्राओं आदि में इसका प्रयोग 
होता हे । कोई भी आसन या उपाय बिना मूलबन्ध के सिद्ध नहीं होता। अतः मूलद्ार 
का योग मेँ अत्यधिक महत्व है ' गोरक्ष सहिता" में तो यहां तक कहा गया है कि- 
वद्धं मूलबिलं येन तेन विघ्नो विदारितः 
अजरामरमाप्नोति यथा पञ्चमुखीहरः ॥ 
अर्थात्‌-जो योगी मूलद्वार को रोकने मेँ सफलता प्राप्त कर लेता है, उसके 
सभी विघ्र नष्ट होकर (यही कारण है कि मूलाधार के प्रहरी देवता गणेश हँ) 
अजरत्व एवं अमरत्व प्राप्न होती हे । जैसे पंचमुखी भगवान शिव अजर ओर अमर 
है (अथवा वह पंचमुखी शिव के समान हो जाता है) । 


प्रणवाभ्यास 

ॐकार वैदिक प्रणव है । हकार शेवागम सम्मत प्रणव है ओर हकार 
ज्नाक्तागत सम्मत प्रणव । तन्त्रशास्त्र में अनेकों प्रणवो का वर्णन हे । इनमे ॐकार 
सर्वश्रेष्ठ कहा गया है। प्रणव के पर्याय के रूप मेँ इसीलिए यही एक प्रचलित हो 
गया है । उकार में-- अकार, उकार ओर मकार परब्रह्म के स्वरूप को ब्रह्मा, बिष्णु 
एवं शिव की त्रिशवित के रूप में दशति है । अतः प्रणवोच्चारण मेँ हस्व, प्लुत्‌, दीर्घ 


166 


आदि मात्राओं के उच्चारण, उत्पन तरगों के प्रभाव तथा पदों के मनन के प्रभाव 
कुल मिलाकर चमत्कार दिखाने वाले होते हें । एक ज्ञान से दूसरे ज्ञान को उपलब्धि 
होती हे । इसके अलावा मृच्छनात्मक स्वरों को अवस्थिति दीर्घकाल तक रहने 
से, अन्य उपायों के मुकाबले चित्त की एकाग्रता यहां अधिक सरल होती हे । 
(स्वरों के नियमित क्रम से आरोह व अवरोह की प्रक्रिया को संगीत शास्त्र में 
मूर्च्छना कहते हें ) । इसीलिए कहा गया हे कि शब्द ब्रह्य मे निष्णात व्यक्ति 
परब्रह्म को प्राप्त कर लेता हे अथवा संगीतश्ास््र में प्रवीण व्यक्ति अनायास 
ही मोक्ष को प्राप्तकर लेता दहै। जैसा कि महर्षिं याज्ञवल्क्य ने कहा हे- 
वीणावदनतत्त्वन्ञः स्वरजातिवि्ारदः। 
तालज्ञ्चाप्रयासेन मोश्च मार्ग नियच्छति} 

(वीणा वादन को तत्तव से जानने वाले, स्वरों के विशारद तथा ताल का ज्ञाता 
अपने प्रयासों से मोक्ष को प्राप्त कर लेता है । अर्थात्‌ लय, स्वर ओर तालं का एकात्म 
मोक्षकारी होता हे ।) 

प्रणव की मात्राओं को ' विज्ञान भेरव' के अनुसार परमशिव को अवस्था तक 
पहुंचने के लिए इस प्रकार सोपान बनाया जाता है-अकार को नाभि मे, उकार को 
हदय में, मकार की मुख मे, बिन्दु की भ्रूमध्य मे, अर्धचन्द्र कौ ललाट मे, निरोधिनी 
की ऊर्ध्वललाट में, नाद की शिर मे, नादान्त कौ ब्रह्मरन्ध्र मे, शक्ति की त्वक मं 
व्यापिनी कौ शिखा के मूल मे, समना कौ शिखा मेँ ओर उन्मना की शिखा के अत 
भाग में स्थिति रहती है । उकार को पिण्ड मन्त्र इसीलिए कहा जाता है कि यह 

नाभि से द्वादशान्त तक इस पिण्ड में विभक्त है । ' सोहं ' भी प्रणव का ही स्वरूप 
है क्योकि सकार ओर हकार रूपी हल्‌ का लोप हो जाने पर ॐ का स्वरूप ही शोष 
रहता है । इसीलिए ' शिवोपाध्याय' में कहा हे- 
ओमिति स्फुरदुरस्यानाहतं गर्भगु्फित समस्तवाड्मयम्‌। 
दन्ध्वनीति हदि यत्परं पदं तत्सदक्षरमुपास्महे महः ॥ 
अर्थात्‌- समस्त वाङ्मय को अपने उदर मेँ समेटे हुए यह- ॐकार प्रत्येक 
प्राणी के हदय में अनाहत नाद के रूप में ध्वनित होता रहता हे । हदय मे विद्यमान 
प्रणव रूप सदक्षर ही परम पदस्थानीय दै । हम इसी तेज की उपासना कसते द । 
यद्यपि यह तन्त्रागतं अथवा मन्त्र सम्बन्धी उपाय ही है तथापि क्योकि इसका 
मानसिक जाप किया जाता है अतः इसे हमने ध्यान सम्बन्धी उपायों के अन्तर्गत 
रखा है । प्रणव के अभ्यास के लिए ' गोरक्ष संहिता' के निनलिखित श्लोक मार्गदशंन 
के लिए पर्याप्त है-- 
पद्मासनं समारूह्य समकायशिरोधरः । 
नासाग्रदृष्ठिरिकान्ते जपेदोड्कारमव्ययम्‌ ॥ 


1617 





भ भवः स्वरिमेलोकाः सोमसूर्याग्निदिवताः। 
यस्य मात्रासुः तिष्ठन्ति तत्परं ज्योतिरोमिति ॥ 
अर्थात्‌--एकान्त प्रदेश में दृढतापूर्वक पद्मासन लगाकर अपनी देह, कंठ व 
सिर को समसूत्र करं ओर दृष्टि को नाक की नोक पर स्थापित कर ओंकार स्वरूप 
अव्यय ब्रह्म का जप करे जिसके तीन वर्णो (अ, उ, म्‌) मे-- भूः, भुवः व स्वः इन 
तीनों लोकों सहित सूर्य, अग्नि व चन्द्र देवताओं का निवास हे (ये तीनों क्रमशः 
ब्रह्मा, विष्णु व शिव के भौतिक प्रतीक भी हें ।) । यह ओंकार परम ज्योति स्वरूप 
 है। | 
ॐकार के अकार, उकार तथा मकार में सूर्य चन्द्र तथा अग्नि कौ कल्पना 
करने का कारण क्या है, इस ओर ' ब्रह्मविद्या उपनिषद्‌" में स्पष्ट संकेत दिया गया हे । 
जेसा कि कहा है- 
सूर्यमण्डल मध्येऽथ ह्यकारः शंखमध्यमः। 
उकारचन्द्रसंकाश्ञस्तस्य मध्ये व्यवस्थितः ॥ 
मकारस्त्वग्निसंका्ो विधूमो विद्युतोपमः। 
त्रिसो मातास्तथाज्ञेयाः सोमसूर्याग्नि रूपिणः ॥ 
अर्थात्‌-शंख में मध्य का (अकार ' सूर्यमण्डल मेँ स्थित हे । चन्द्र के समान 
"उकार ' चन्द्रमा मेँ ही रहता हे ओर निर्धूम अग्नि तथा विद्युत ' मकार ' के समान हे। 
इस प्रकार ओंकार कौ तीनों मात्राओं को चन्द्र, सूर्य ओर अग्नि स्वरूप जाने । 
ओंकार में ओर भी क्या-क्या निहित हैँ इस ओर ' गौरश्च संहिता' मे संक्षि 
संकेत तथा ' ्रह्मविदोतिषद्' में व्यापक वर्णन मिलता है। पाठकों के लाभार्थं 
श्लोकों को संक्षिप्त कर उनके अर्थो को पूर्ण रूप से संकलित किया है-- 
त्रयः कालास्रयो वेदास्रयो लोकास्रः स्वरा। 
त्रयोदेवाः...त्रिधाः ज़क्ति...त्रिधामात्रा... 
स्थिता. यत्रतत्परं ज्योतिरोमिति ॥ 
(गोसः, 
अर्थात्‌-"उस ॐकार मेँ तीन काल, तीन वेद, तीन लोक, तीन स्वर ओर 
तीन देवता स्थित हे । वह परम ज्योतिस्वरूप है । उसी में इच्छा, ज्ञान व क्रिया शक्ति 
व ब्राह्मी, रोद्र ओर वैष्णवी शक्तियां स्थित हैँ । वह परम ज्योतिस्वरूप हे । अकार्‌, 
उकार ओर बिन्दु रूप मकार यह तीनों मात्राएं जिसमें स्थित हैँ-- वह ॐकार ज्योति 
स्वरूप हे ।' | | 
ओमित्येकारं ब्रहम सदुक्तं ब्रह्मवादिभिः। 
छरीरतस्य वक्ष्यामि...कालत्रयं... 
तत्रदे वास्त्रयः...वेदास्त्रयो...तिस््रो मात्रा... 


168 


...्यक्षरस्य...ब्रहावादिधभि...उपकारः.... 
ईर्वरः परमो देवो मकारः परिकौतितः॥ 
-त्रह्मविद्ोपनिष्द 
(उपर्युक्त श्लोक काफी बडे हे अतः संक्षिप्त कर दिए हं) । अर्थात्‌ ब्रह्मवादियों 
ने जिस ब्रह्य को ओंकार के अक्षर रूप मे कहा हे, उसके शरीर स्थान व तीन काल 
का वर्णन करता हूं । उसमें सूर्य, चन्द्र, अग्नि तीन देवता, भूः भुवः स्वः ये तीन 
लोक, भूत, भविष्य ओर वर्तमान ये तीन काल, ऋग्‌, यजुर्‌ ओर साम ये तीन वेद, 
गार्हपत्य, दक्षिण ओर आहवानीय ये तीन अग्नि, शिव स्वरूप अक्षर को तीन- ब्रह्य, 
विष्णु व शिव अथवा अकार, उकार एवं मकार तथा आधी चन्दर को (परव्रह्य) कुल 
सादे तीन मात्राएं हे । पृथ्वी, आकाश ओर अग्नि ये तीन तत्व (पृथ्वी के साथ जल 
ओर आकाश के साथ वायु संयुक्त रहते ही हँ अतः पाचों मात्राएं), तीन शक्तियां-- 
ब्राह्मी, रौद्री व वैष्णवी अथवा ज्ञान, इच्छा व क्रिया, अवस्थित हं । इन्हीं शवितयों से 
उत्पत्ति, प्रलय तथा स्थिति होती है। (यह शक्तियां ब्रह्मस्वरूपिणी तथा प्रकृति 
पुरुषात्मक है- जेसा कि देवी स्वयं कहती हँ अहं ब्रह्मस्वरूपिणी, मत्तः प्रकृति 
पुरुषात्मक जगच्छून्यं च) यानि मेँ ब्रह्म स्वरूपिणी व आनन्दमयी या आत्मरत हू । 
यह प्रकृति पुरुषात्मक जगत्‌ मुञ्चसे ही उत्पन हुआ हे । 
उकार का जाप वैराग्य एवं ज्ञान उत्पन करने वाला ह । इसे साधना के समय 
ही नहीं हर समय मानसिक जाप में प्रयुक्त करना चाहिए । इससे साधक संसार मे 
रहता हआ भी संसार में लिप्त नहीं होता, जेसा कि कहा हे- 
शुर्धिवाप्यश॒चिर्वापि योजयेत्प्रणवं सदा। 
न सा लिप्यति पापेन पद्मपत्रभिवाम्भसा ॥ 
अर्थात्‌-- बाह्य शोच किया हो अथवाना भी कियाहोतो भी उकार का जप 
करता रहे । इससे कमलपत्र के जल में लिप्त न होने के समान साधक पापों से लिप्त 
नहीं होता। 
मानसिक जाप सदेव मन कौ एकाग्रता को बढाता है अतः मानसिक जाप का 
ही प्रणवाभ्यास में विधान हे। मन का निरोध करना ही इस जाप का एकमात्र लक्ष्य 
हे। तभी तो कहा जाता है कि- 
तावदेव निरोद्धव्यं यावद्धृदिगतं क्षयम्‌। 
एतज्नानञ्च  शेषऽत्यो ग्रन्थविस्तार ॥ 
अर्थात्‌--जब तक वासनां नष्ट न हो जाएं तब तक मन का निरोध करना 
चाहिए । यही ज्ञान है, यही ध्यान है । शेष सब तो ग्रन्थ का विस्तार मात्र दे । 
यह समूचे योगशास्त्र का निष्कर्ष दो लाइन मे कह दिया गया हे । मन कभी 
इच्छाओं वासना ओं से उसी प्रकार तृप्त नहीं होता जिस प्रकार समुद्र नदियों 
से, अग्नि काष्ठ से अथवा चरित्रहीन स्त्रियां पुरुषों से तृप्र नहीं होती । 
- चाणक्य 


169 





मन कौ इच्छाओं को पूर्णं करते रहने से अग्नि में डाले गए घृत कौ भाति 
इच्छाएं ओर बलवती होती है । अतः उनको पूर्तिं नहीं उनका शमन ही इस अग्नि को 
शांति का एकमात्र उपाय है । इसीलिए कृष्ण ने गीतामें कहा है-' कर्मण्येवाधिकारस्ते 
मा फलेषु कदाचन।' (कर्म करने मात्र में तेरा अधिकार हे, फल का इच्छा मे कभी 
नहीं ) । ओर इसीलिए ' अष्टावक्र गीठा' में अष्टावक्र महर्षिं ने राजा जनक को उपदेश 
दिया है- 

"मुक्तिमिच्छसि चेत्तातविषयान विषवत्यज। ' (मुक्ति चाहता हे तो विषयों 


को विषय कौ भांति त्याग दे)। 
110 


170 


ध्यान्‌, धारणा आर समाधि 


अब तक के विवेचन से सहज ही स्पष्ट हो जाता है कि मन को जीते बिना, 
उसका संयम किए बिना, उसकी एकाग्रता शक्ति को बढाए बिना ओर उसका 
निरोध किए बिना न तो कुण्डलिनी जागरण ही सम्भव है, न ही मोक्षप्रापि । प्राण, 
विन्दु, प्रणव आदि के माध्यम से मन को एकाग्र करने के उपाय अब तक आपने 
जाने । इनमें कोई सा भी उपाय कारगर हो सकता हे । यह आवश्यक नहीं कि सभी 
उपायों को किया जाए । विधान पूर्वक, तन्मयतापूर्वक, धेर्यपूर्वक तथा पात्रता उत्पन्न 
करके कोई भी एक उपाय निरन्तर करते जाना सफलता या सिद्धि को प्राति करा देने 
मे सक्षम हे। तथापि विभिन्न मार्गो की जानकारी इसलिए दी जा रही है कि अपने 
गुण, स्वभाव, प्रकृति, रुचि, सामर्थ्य आदि के अनुसार पाठक अपना मार्गं चुन सके। 
अन मन को सीधा ही साधने का उपाय कहते हँ । यह उपाय पद्ने या सुनने 
में यद्यपि सबसे सरल लगता है- तथापि करने में सबसे कठिन है । क्योकि मन को 
वश में करना अत्यंत दुष्कर है । प्राण, विन्दु, प्रणव आदि के माध्यमों के सहारे 
यद्यपि यह कार्य अपेक्षाकृत सरल हो जाता हे । 
ध्यान, धारणा, समाधि के प्रयास सीधे फिर भी नहीं करने चाहिए । इससे पूरं 
शेष प्रयासों के अभ्यास से मन को इस योग्य बना लेना चाहिए कि ध्यान का उपाय 
करने पर बिना किसी सहारे के ही उसे सीधे साधा जा सके । जेसा कि कहा है- 
आसनेन रुजो हन्ति प्रणयामेन . पातकम्‌। 
विकारं मानसं योगी प्रत्याहारेण मुच्यति॥। 
धारणाभिमतो धैर्य ध्यानाच्चैतन्यमद्‌ भुतम्‌। 
समाधौ मोक्षमाप्नोति व्यक्त्वाकमं शुभाशुभम्‌ ॥। 
अर्थात्‌-- आसनो से रोग नष्ट होते हैँ (शारीरिक सामर्थ्य उत्पन होती हे), 
प्राणायाम से समस्त पाप नष्ट होते हँ-- (शारीरिक सामर्थ्यं उत्पन होती है), प्राणायाम 
से समस्त पाप नष्ट होते है । (शोधन होता है), प्रत्याहार से मन के विकार नष्ट होते 
है । (निर्विकारता एवं पात्रता उत्पन्न होती है) । धारणा से धैर्य की वृद्धि होती है । 
ध्यान से अदभुत चैतन्य शक्ति कौ प्राप्त होती हे, तथा समाधि से समस्त शुभाशुभ 


171 





कर्मो का त्याग होने से मोक्ष प्रापि होती हे। (अतः यह समस्त उपाय ही किए जाने 
चाहिए । इनसे पूर्व यम-नियम का पालन पात्रता व भूमिका के लिए अथवा योग 
मार्ग की यात्रा के लिए स्वयं को " तैयार ' करने के लिए आवश्यक ह ) । ओर- 
प्राणायाम द्विष्टकेन प्रत्याहारः प्रको्तितः। 
प्रत्याहार द्विष्टकेन जायते धारणा शुभां ॥ 
धारणा द्वाद् प्रोक्ता ध्यानाद्धयानविशारदैः। 
ध्यानद्वादशकेनैव समाधिरभिधीयते ॥ 
| ( गोसः.) 
अर्थात्‌-- बारह प्राणायामो से प्रत्याहार तथा बारह प्रत्याहारो से धारणा होती 
हे । बारह धारणाओं से ध्यान ओर बारह ध्यानों से समाधि होती हे । (जतः समस्त 
अंग क्रमशः जरूरी है) | 


व्याख्या 
प्राणायामो के बारह प्रकार हें (कुछ शास्त्र 8 मानते हें ) । इन प्राणायामो के 
अभ्यास से प्रत्याहार (इन्दिय निग्रह) में सफलता मिलती है । प्रत्याहार भी बारह हं 
( पांच ज्ञनेन्धिय, पांच कर्मेन्धिय, एक मन ओर एक बुद्धि/अहं--इन बारहो को 
विषयों कौ ओर भागने से रोकना ही प्रत्याहार ह ) । इनसे धारणा को योग्यता प्राप्त 
होती हे । बारह धारणाओं (यद्यपि कुल 112 धारणाएं कही गई हँ । किन्तु बारह 
प्रमुख हें) से साधक ध्यान करने योग्य बनता है । फिर बारह ध्यानं से (सात चक्र 
व पांच महाभूत) समाधि के योग्य साधक बन पाता है। (अतः सीधे ध्यान या 
समाधि लगा पाना असम्भव हे) | 
बारह प्राणायामो से प्रत्याहार ओर बारह प्रत्याहारो (अथवा 12.12=144 
प्राणायामो से) धारणा तथा बारह धारणाओं से (अथवा 14412 या 
12>.12.12=1728 प्राणायामो से) ध्यान ओर बारह ध्यानं से (जथवा-1728.12 
या 12:.12:.12>.12=20736 प्राणायाम) समाधि होती है । क्योकि शास्त्र के अनुसार 
प्राणायाम से 12 गुना फल प्रत्याहार का होता है । इसी प्रकार, प्रत्याहार का 12 गुना 
फल धारणा का, धारणा का बारह गुना ध्यान का ओर ध्यान का 12 गुना फल 
समाधि का होता है । अतः मात्र कुण्डलिनी जागरण या चमत्कारिक उपलब्धियां तो 
पूर्ववर्णित किसी भी उपाय से पाई जा सकती हैँ परन्तु योग का चरम लक्ष मोक्ष 
समाधि तक पहुंचे निना सम्भव नहीं है क्योकि योग यात्रा का यही अंतिम पड़ाव है । 
धारणा, ध्यान व समाधि पर चर्चा करने से पूर्व यह चर्चा इसलिए आवश्यक 
थी कि पुने मेँ सरल लगने से पाठक कूद कर सीधा ध्यान लगाने का प्रयास न करे 
अन्यथा लाभ तो कुछ होगा नही, अहंकार भले ही बढ जाएगा अथवा लाभ न होने 
पर मोहभंग होगा । 


172 





धारणा 
मन को समस्त विषयों से रोककर, ज्ञानेन्दरियों को भी उनके समस्त प्रिय व 
अप्रिय विषयों से रोककर-- (प्रत्याहार) मन को किसी एक बिन्दु पर रोकना ही 
धारणा हे । ' चित्तस्य निश्चलीं भावो धारणा धारण बिदुः ' (त्रिशिख ब्राह्मण 
उपनिषद्‌ ) के अनुसार मन को निश्चल बना लेना ही धारणा है । अथवा जैसा कि 
' शाण्डिल्योपनिष्द' में कहा है-' आत्मनिमनोधारणां दहराकाश बाह्याकाशं 
धारणां प॒थिव्यप्ते जो बाह्यऽकाेष पंचमूति धारणां चेति।' अर्थात्‌- आत्मा मे 
मन की धारणा, दहराकाश में बाह्याकाश कौ धारणा ओर पंचमहाभूतों को पृथक्‌ 
पृथक्‌ धारणा--यह धारणा के तीन प्रमुख प्रकार है । अथवा 'मनसोधारणां 
यत्तद्युक्तस्य चयनादिभिः ' (यमादि के द्वारा मन का धारण करना हौ धारणा हे) । 
' गोरक्ष खंहिता' के अनुसार-- | 
हदये पंचभूतानां धारणा च पृथक्‌ पृथक्‌ । 
मनसो निश्चलत्वेन धारणां साभिधीयते ॥। 
अर्थात्‌--हदय में मन कौ निश्चलता के साथ पंचभूतों को पृथक्‌-पृथक्‌ 
धारण करना ही धारणा हे । 
आदि अनेक उदाहरण हैँ जो धारणा के सम्बन्ध में उपलब्ध होते ह । जिस 
ऋषि ने जिस मार्ग से धारणा की, वैसा ही कहा। वस्तुतः धारणा मेँ चित्त को 
निश्चलता ही प्रमुख है । उस किस बिन्दु पर धारा गया हे, यह गौण है । वह बिन्दु-- 
पंचमहाभूत हो, सप्तचक्र हो अथवा अन्य भाव या सत्ता हो प्राण हों या फिर शून्य ह। 
वयो न हो । उदेश्य मात्र इतना है कि मन को समस्त विषयों से रोककर एक ही स्थान 
पर निश्चल रखने के लिए कोई बिन्दु या लक्ष्य तो चाहिए। वह बिन्दु या ल्य 
अपनी रुचि के अनुसार कु भी हो सकता है । जैसा कि महर्षि पतञ्जलि ने कहा 
है- देशबन्धश्चत्तस्य धारणा ।' अर्थात्‌--चित्त को (भीतर या बाहर) किस 
एक देश में ठहराना धारणा है । इसीलिए ' विज्ञान भैरव' ने दो, चार, दस नहीं पूरी 
112 धारणाणएं गिनाई हे । तथापि पंचभूतों आदि कौ धारणा वयोकि विशेष फलदाई 
रहती हे अतः पंचभूतों पर अधिक जोर दिया गया है क्योकि इनसे पंचतत्व को जीत 
लिया जाता है तथा उनके अनुसार विभिन्न प्रकार कौ सिद्धियां भी साधक को प्राप 
होती चली जाती हैँ । इनके विषय में कु चर्चा करने से पूर्व यह दुहराना आवरयन 
ठे कि धारणा से पूर्वं अन्य प्रारम्भिक अंगों को सिद्ध कर लेना चाहिए । जेसा कि 
कहा भी है- 
आसनेन समायुक्तः प्राणायामेन संयुतः। 
प्रत्याहारेण सम्पन्नो धारणां च समभ्यसेत्‌ ॥ 
| ( गोरक्षसंहिता) 
अर्थात्‌- आसन, प्राणायाम ओर प्रत्याहार का अभ्यास सिद्ध हो जाने पर ही 
173 


धारणा का अभ्यास करना चाहिए्‌। (यहां आसन से पूर्व यम व नियम का वर्णन 
इसलिए नहीं हे क्योकि गोरखनाथ जी ने योग को पातञ्जिल आदि कौ भाति अष्टाग 
- नहीं माना। वे योग को षडांग मानने वालों मे थे)। 
पंचमहाभूतों कौ धारणा द्वारा चित्त व प्राण को सुषुम्ना मे ले जाएं अथवा चित्त 
व प्राण को अन्य उपायों से सुषुम्ना में ले जाएं मगर चित्त व प्राण का सुषुम्ना मे आना 
स्वतः ही पंचमहाभूतों को धारणा का फल प्रदान कर देता हे जेसा कि ' योगतत्वोपतिषट्‌ 
मं कहा है- 
भूमिरापोऽनलो वायुराकाश्श्चेति पंचकः। 
येषु पंचसु देवाना धारणा पंचधोच्यते ॥ 
अर्थात्‌- (जिस योगी का चित्त वायु के साथ सुषुम्ना में प्रवेश कर जाता हे) 
उस योगी को भूमि, जल, अग्नि, वायु ओर आकाश इन पांचों देवताओं (महाभूतो ) 
की धारणा (स्वतः) हो जाती हे। 
बहरहाल...पंचमहाभूतों कौ धारणा के सम्बन्ध में ' गोरक्षखंहिता' तथा 
' योगतत्वोणतिषद्‌" मे खासा वर्णन मिलता है । पाठकों के लाभार्थं उसे संक्षेपमें दे 
रहे हे। 
पृथ्वी तत्व की धारणा 
पृथिवी चतुरश्रं च पीतवर्णं लवर्णकम्‌। 
पाथिवे वायुमारोप्य लकारेण समन्वितम्‌ ॥ 
ध्यायंश्चतुभुजाकारं चतुर्वक्त्रं हिरण्मयम्‌। 


धारयेत्यञ्चघटिकाः पृथिवीजयमाप्नुयात्‌॥ 
-- योगतत्वौएनिषट्‌ 


अर्थात्‌- पृथ्वी चार कोण वाली, पीत वर्णा ओर ! लं ' अक्षर से युक्त हे । पृथ्वी 
तत्व मे वायु का आरोप कर ओर "लं ' को उसमें संयुक्त करके स्वर्ण जैसे वर्णं वाले 
चतुर्भुज ब्रह्मा का ध्यान करं । एसा पांच घडी तक करने से पृथ्वी तत्त्व जीत लिया 
जाता हे। 

इस तथ्य को ' गोरक्ष सहिता ने भी स्वीकारा हे-- 

'..प्राणांस्तत्र विलीय पचघरिका चित्तान्वितान्धारयेदेषास्तंभकारी सदा 
क्चितिजयं कुर्याद्भुवो धारणा।' अर्थात्‌ मन सहित प्राण को भूमंडल में लीन कर 
लं । इस प्रकार यह धारणा पांच घड़ी तक स्तम्भन करने से पृथ्वी तत्त्व जीता जाता 
हे । (परथ्वी तत्त्व के जीतने के साथ मूलाधार चक्र का भेदन भी हो जाता है) । 
क्योकि यह चक्र पृथ्वी तत्व का प्रमुख स्थान हे, पीतवर्णं चतुष्कोण हे । ' लं ' इसका 
तत्व बीज है । ओर ब्रह्मा इसके अधिपति देवता हँ- जेसा कि चक्र प्रकरण में पहले 
बताया जा चुका है । पृथ्वी तत्व विजित हो जाने पर भय, असुरक्षा आदि कौ समाति 


174 


होती है ओर केन्द्रीयकरण बढता है । पाच घडी का अर्थदो घंटे हे। 
जल तत्त्व की धारणा 
अपोऽर्धचन्द्र शुक्लं वं बीजं परिकोतितम्‌। 
वारूणेवायुमारोप्य वकारेण समन्वितम्‌ 
स्मरेन्नारायणं देव चतुर्बाहुं किरीटिनम्‌। 
शुद्ध स्फटिकसंकाशं पीतवासमच्युतम्‌॥। 
धारयेत्येचघटिकाः सर्वपापैः प्रमुच्यते । 
ततो जलाद्‌भयं नास्ति जले मृत्युर्न विद्यते ॥ 
- योगतत्वोपतिषद्‌ 
अर्थात्‌-- जल तत्व अर्धचन्द्रकार ' वं ' बीज से युक्त हे । इस तत्त्व मे वायु का 
आरोप करके (प्राणों को संयुक्त करके) ' वं" को समन्वित करे ओर चतुर्भुज शुद्ध 
स्फटिक जेसे वर्णं वाले, पीताम्बर धारी भगवान विष्णु का ध्यान कर । पांच घडी 
एेसा करने पर समस्त पापों से मुक्ति होती हे । इस धारणा के समय जल से भय नहीं 
रहता ओर ना ही जल से मृत्यु होती हे। 
' गोरक्ष संहिता के अनुसार इस धारणा से विषय का भी पाचन हो जाता है । 
अर्थात्‌ पाचन तंत्र अत्यंत सशक्त हो जाता है जेसा कि कहा हे- 
' . प्राणं तत्र विलीय पञ्च घटिका चिंतान्वितं धारयेवेषा दुःसहकाल 
कूटदहनो स्याद्वारूणी धारणा ॥' 
अर्थात्‌ ..मनप्राण को पांच घडी तक जल तत्व मे लीन कर लेने पर जलतत््व 
की सिद्धि होती हे । इसके अभ्यास से कालकूट विष भी भस्म होता हे । (इस धारणा 
व तत्त्व की सिद्धि से ' स्वाधिष्ठान चक्र ' का भेदन या उस पर अधिकार हो जाता 
हे । क्योकि पाठकों को याद होगा, इस चक्र का बीज “ वं ' हे । रूप चन्द्राकार है तथा 
वर्ण श्वेत ओर अधिपति देवता विष्णु है । जल तत्तव का यह प्रधान स्थान हे । पाप 
तथा रोग नाश के साथ पाचन तंत्र कौ सबलता, विवेक, प्रफुल्लता आदि का लाभ 
साधक को प्राप्त होता हे)। 


अग्नि तततव की धारणा 
यत्तालुस्थितमिन्द्रगोपसदृशं तत्त्वं त्रिकोणानलं। 
तेजो रेफयुतं प्रवाल रुचिरं रुद्रेण सत्सद्घतम्‌॥ 
प्राणं तत्रविलीय पंचघटिकं चित्तान्वितंधारयेदेषां 
वह्िजयं सदा वितनुते वैश्वानरी धारणा ॥ 


-- गोरक्षसंहिता 
अर्थात्‌- इन्द्रगोप के समान लाल वर्ण, त्रिकोणकार, प्रवाल जैसा रुचिर 
तेजस्वरूप, बीज में "र्‌ ' बीज को वायु से युक्त कर प्राण मन सहित रुद्र का ध्यान 


175 





करते हृए--अग्नि तत्त्व मेँ पांच घड़ी लीन रहने पर वैश्वानरी धारणा सिद्ध होती हे । 
इसके अभ्यास से अग्नितत्तव जीता जाता है । ( ओर)-- 
...धारयेत्पंच घटिका वदहधिनाऽसौ नदद्यते। 


न ह्ययते शारीरं च प्रविष्ठस्याग्नि कुण्डके ॥ 
-- योगतत्वोपत्निषट्‌ 


अर्थात्‌ ..पांच घडी (दो घंटे) मेही अग्नि कौ धारणा सिद्ध होती हे। तब 
साधक अग्नि में नहीं जलता। दहकते हए अग्नि कुण्ड में प्रवेश कर जाने पर भी 
नहीं जलता। (इस अग्नितत्त्व कौ विजय करने पर मणिपूरक चक्र पर अधिकार हो 
जाता हे । क्योकि "रं ' मणिपूर चक्र का बीज है । आकृति त्रिकोण ओर वर्णं लाल हे । 
अग्नि तत्त्व का यह प्रमुख स्थान है ओर इस चक्र के अधिपति देवता रुद्र हे । इस 
चक्र पर अधिकार होने से जठराग्नि, ऊर्जा, आयु व बल बढते हें तथा साधक में तेज 
उत्पन होता है) | 
वायु तत्व की धारणा 
यदिभननाजगपुंज सनिभमिदं स्यूतं भुवोरन्तरो। 
तत्त्वं वायु मयं यकारसहितं तनेश्वरी देवता ॥ 
प्राणं तत्र॒ विलीय पंचघटिकं चिन्तान्दितं धारये। 
देशा रवेगमनं करोति यामिनः स्याद्रायवी धारणा ॥ 
--गोरक्च संहिता 
अर्थात्‌-सुरमे के समान रंग वाले, वर्तुलाकार, ' यं ' बीज से युक्त वायु तत्त्व 
का उसके अधिष्ठाता देवता ईश्वर (ईशान) सहित भवो के मध्य ध्यान करता हुआ, 
मन प्राण सहित स्वयं को भी वायुं तत्व मेँ लय कर देने पर पांच घड़ी के बाद वायु 
तत्त्व जीत लिया जाता है । इससे आकाश गमन की शक्ति प्राप्त होती है । (साथ ही 
अनाहत चक्र का भेदन भी हो जाता हे । क्योकि यह चक्र वायुतत्व का प्रमुख स्थान 
हे । इसके अधिपति ईशान रुदर है । इसका बीज "यं ' हे । यह धूम्रवर्णाय व षट्कोणाकार्‌ 
हे । शास्त्र का मर्म समञ्ने कौ शक्ति तथा आकाशगमन की शवित आदि भी साधक 
को इससे प्राप्ति होती है) । 
इस सम्बन्ध मे ' रातज्जलयोगर प्रतीप" का यह सूत्र 'उदानजयाजलपड्क 
कण्टकादिष्वूसद्क उत्क्रान्तिश्च।' (उदान वायुं को जीत लेने पर जल, कोौचड, 
कण्टक आदि से साधक के शरीर का संयोग नहीं होता ओर उसे ऊर्ध्वगति/ऊपर को 
गमन करने कौ शक्ति प्राप्त होती है) । कहना भी उचित होगा, वैसे इस सम्बन्ध मे 
"योग तत्त्वोपनिषद्‌' मँ आया वर्णन खासा रोचक व ज्ञानपूर्ण हे । देखिए- 
ततोऽपि धारणाद्रायोः क्रमेणैव नैः ऱनैः। 
कम्पो भवति देहस्य आसनस्थस्य देहिनः ॥ 


176 कुण्डलिनी शक्ति केसे जागृत कर-- 11 


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1 


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त्रिवन्थ लगाए वायु तत्व की साधना मे आसन से 
ऊपर उठा हआ योगी 


177 





ततोऽधिकतराभ्यासात्‌ दर्दुरीस्वेन जायते। 
यदा च दर्दुरीभाव उत्प्लुत्योप्लुत्य गच्छति ॥ 
पद्मासन स्थितो योगी. तथा गच्छति भूतले । 
ततोऽधिकतराभ्यासात्‌ भूमित्यागश्च जायते ॥ 
पदासनस्थ एवासौ भूमि मृत्युज्य गच्छति । 
अतिमानुषचेष्टादि तथा सामथ्यं ॑मुद्ध्रवेत्‌॥ 
अर्थात्‌-फिर वायु कौ धारणा शक्ति के शनैः शनैः बने पर आसन पर बेठे 
हए योगी के शरीर में कम्पन होने लगता है । अधिक अभ्यास होने पर मेंढक जेसी 
चेष्टाएं होती हैँ । अर्थात्‌ जैसे मेंढक उछलकर पुनः भूमि पर आ जाता हे, वेसी ही 
दशा पदासन पर बेठे योगी की होती है । जब अभ्यास ओर बट जाता है तब वह 
भूमि से ऊपर उठ जाता हे । पद्मासन में बेटा हुआ ही वह ऊपर उठता रहता है । इस 
प्रकार अतिमानवीय चेष्टाएं योगी करने लगता हे । 
वायु तत्त्व की धारणा के समय वायु ( आंधी/तूफान) का प्रकोप नहीं रहता। 


(पाठक इससे सहज ही जान सकते हैँ कि योगी मौसम, भूख, निद्रा, वृद्धावस्था 


तथा मृत्यु आदि से केसे सुरक्षित रहते थे 2 अथवा पौराणिक कथाओं के अनुसार 
इन्दर द्वारा डाले गए विभिन विघ्नाँ--आग, वर्षा, तूफान, हिमपात आदि से केसे 
सुरक्षित रहते थे) | 


आकाश तत्व की धारणा 

व्योमवृत्तं च धप्रं च हकाराक्षर भासुरम्‌। 

आकाशे वायु मारोप्य हकारोपरि शंकरम्‌॥ 

विन्दु रूपं महादेवं व्योमाकारं सदाशिवम्‌ 

शुद्ध स्फटिक संकाशं धृतवालेन्दुमोलिनम्‌॥ 

सर्वायुधैर्धृताकारं सर्पभूषण भूषितम्‌। 

उमार्धदेहे वरद सर्वकारण कारणम्‌॥ 

आकाश धारणात्तस्य खेचरत्वं भवेदध्चुवम्‌। 

यत्र कुत्र स्थितो वाऽपि सुखमत्यन्तश्नुते ॥ 
-- योगतत्वोपिषद्‌ 
अर्थात्‌-व्योम वृत्ताकार धूम्रवर्ण, ' हकार ' से प्रकाशित है । आकाश तत्तव को 
वायु से आरोपित कर महादेव सदाशिव जो शुद्ध स्फटिक के समान बालचन्द्र 
मस्तक पर धारे है । सब प्रकार के शस्त्रास्त्र तथा सर्पाभूषणों से सुशोभित, उमा के 
अर्धाग, वरदायक, समस्त कारणों के कारण हैँ-- की आकाश तत्त्व मेँ धारण करने 
से आकाश तत्त्व सिद्ध होता है तथा साधक कहीं भी रहे अत्यधिक सुखी रहता है 

(यानि आनन्द से परिपूर्णं हो जाता है) | 


178 


आकाशं सुविशुद्धवारिसदूशं..प्राणं 
तत्र विलीय पंघटिक चित्तान्वितं धारयेदेषा 
मोक्षकपाटपाटनपदटुः प्रोक्त न भोधारणा। 
-- गोरक्ष संहिता 
अर्थात्‌-- स्वच्छ जल के समान वर्ण, वर्तुलाकार, ' हकार" बीज युक्त आकाश 
ततव को सदाशिव के सहित चिन्तन करे । मन प्राण सहित उन्दी मे लीन हो जाने पर 
पांच घडी मे आकाश तत्त्व पर अधिकार हो जाता हे । इसके प्रभाव से मोक्ष.के बन्द 
कपाट खुल जाते हैँ । (साथ ही विशुद्ध चक्र पर भी अधिकार हो जाता हे । क्योकि 
आकाश तततव का यह प्रमुख स्थान है| इसका बीज ‹ हं" हे । यह रंगहीन तथा 
गोलाकार है ओर इसके अधिष्ठाता पंचमुखी सदाशिव है ) । 
मोक्षद्वार खुलने को बात इसलिए कही हे क्योकि पाठकों को याद होगा-- 
चक्र प्रकरण में विशुद्ध चक्र को ' ब्रह्य दार होना बताया गया है । इसी पर चन्द्र बिम्ब 
से अमृत स्राव होता हे । इसी के आगे सर्वोच्च तीर्थ स्थल, तीर्थराज, त्रिवेणी अर्थात्‌ 


(प 


' आज्ञा चक्र ' हे । आकाश तत्त्व को सिद्धि के सम्बन्ध में ' पातञ्जलयोग प्रदीप' के 
यह दो सूत्र भी देखे-- 
' श्रोत्राकाशयोः सम्बन्ध संयमाद्‌ दिव्यं श्रोत्रम्‌ ।' 
अर्थात्‌-- कान ओर आकाश के सम्बन्ध में संयम कर लेने से योगी के कान 
दिव्य हो जाते हँ । (यहां कान का संयम "प्रत्याहार ' का विषय है ओर आकाश का 
' धारणा" का विषय है) । | 
"कायाकाशयोः सम्बन्ध संयमाल्लघुतूलसमापत्तेश्चाकाशगमनम्‌।। 
(शरीर ओर आकाश के सम्बन्ध मे संयम करने से तथा हल्कौ वस्तु मे संयम 
करने से आकाश गमन कौ शक्ति आ जाती है ।) 
इस प्रकार पंचमहाभूतों पर विजय पा लेने से अणिमा आदि 8 सिद्धिया, 
सुन्दर, स्वस्थ, निरोगी व तेजस्वी शरीर का प्राप्त होना ओर भूतो के धर्म से निर्बाधता 
(यानि आग से न जलना, जल से गीला न होना, पत्थरों या कठोर पदार्थ के वार से 
शरीर का आहत न होना आदि) यह तीन प्रभाव होते है । जेसा कि कहा है-- 
^ततोऽणिमादिप्रादुर्भावः कायसम्पत्तदर्मानभिघातश्च ' -- (योगदर्शन) अर्थात्‌-- 
भूत जय से अणिमादि आठ सिद्धियां, कार्य सम्पत्ति ओर भूतों के धर्म से बाधित न 
होना, यह तीनां प्रभाव होते हैँ । (अणिमा--अणु के समान सूक्ष्म रूप बना लेना, 
लघिमा-- शरीर को हल्का बना लेना, वायु में उड़ जाना । महिमा -- शरीर को बडा 
बना लेना, गरिमा-- शरीर को भारी बना लेना, अथवा किसी अंग विशेष को भारौ 
बना लेना, प्राभि-- इच्छित पदार्थं कौ संकल्प मात्र से प्राप्ति, प्राकास्य-- अनायास 
एवं निर्विघ्र इच्छा की पूर्तिं हो जना, या जैसा चाहे वैसा हो जाना, वशित्व-- 
पंचभूतों व जीवों आदि का वश में हो जाना तथा ईशशत्व-- भौतिक पदार्थो व भूतं 
179 





को नाना रूप में उत्पन करने व उन पर शासन करने कौ सामर्थ्य प्राप्त हो जाना। यह 
8 सिद्धियां हं ।) - 
इसके अलावा जेसा कि ' गोरक्च संहिताः में कहा हे- 
स्तम्भिनी, द्राविणी चेव दाहिनी भ्रामिणी तथा। 
शोषिणी च भवत्येषा भूतानां पंच धारणाः ॥ 
कर्मणा मनसा वाचा धारणाः पञ्चदुर्लभाः। 
विज्ञान सततं योगी सर्वदुःख प्रमुच्यते ॥ 
अर्थात्‌-- पृथ्वी का धारणा स्तम्भन केरने वाली, जल कौ धारणा द्राण करने 
वाली, अग्नि कौ धारण दाहन करने वाली, वायु कौ धारण भ्रमण करने वाली तथा 
आकाश को धारण शोषण करने वाली होती हे । इस प्रकार यह पंचभूतों कौ पांच 
धारणाएं मानी गई हें । कर्म, मन व.वचन से इन पांचों दर्लभ धारणाओं का अभ्यास 
दृढ हो जाने पर सभी दःखों से मुक्ति मिल जाती हे। 


विशेष । 

आज्ञा चक्र का भेदन अथवा उस पर अधिकार गुरु को आज्ञा के बिना सम्भव 
नहीं हे । आज्ञा चक्र के बीज ॐ का ध्यान करने से तथा मन, प्राण सहित भावना 
द्वारा कुण्डलिनी को आज्ञा चक्र में प्रेषित करना ही चक्र भेदन का उपाय हे। 
' आज्ञाचक्र ' पर पहुंचे हृए साधक का फिर पतन नहीं होता । वह सम्प्रज्ञात समाधि 
को अवस्था में आकर चिदानन्दमयी, निर्विकार, शुद्ध, बुद्ध तथा शिव स्वरूप हो 
जाता हे। आगे सहस्रार चक्र मेँ प्रविष्ट होने या असम्प्रज्ञात समाधि को प्राप्त करने के 
लिए उसे विशेष श्रम नहीं करना पडता । वह मोक्ष का अधिकारी व आत्म साक्षात्कार 
कर लेने वाला कर्म बन्ध से निर्लिप्त हो जाता है। 


ध्यान 
ध्यान के दो रूप हें । सगुण व निर्गुण अथवा साकार व निराकार या मूर्तं ओर 
अमूतं--किसी रूप्‌, आकार अथवा गुण मेँ चिन्तन या ध्यान करना सगुण ध्यान है । 
शून्य, महाशून्य अथवा अमूर्तं या अनन्त मेँ ही ध्यान लगाना निर्गुण ध्यान है । सरल 
शब्द मे सगुण ध्यान मेँ ध्यान का कोई लक्ष्य होता है किन्तु निर्गुण ध्यान मेँ ध्यान का 
कई विषय या लक्षय प्रकट रूप मेँ नहीं होता । स्पष्ट है कि निर्गुण ध्यान बहुत कठिन 
हे किन्तु सगुण ध्यान सिद्धियों तक ही जाता है ओर निर्गुण ध्यान मोक्ष तक जाता हे । 
जैसा कि ' योग तत्वोएतिषद्‌' मे कहा है- | 
सगुण ध्यान मेतत्स्यादणिमादिगुणप्रदम्‌। 
निर्गुण ध्यान युक्तस्य समाधिश्च ततो भवेत्‌ ॥ 
अर्थात्‌- सगुण रूप का ध्यान करने पर अणिमा आदि सिद्धियां प्राप्न होती हँ 
ओर निर्गुण का ध्यान करने से समाधि (असम्प्रज्ञात समाधि, अंततः मोक्ष) प्राप्त 
180 


४५ 


1 











होती है। (अतः निर्गण ध्यान ही श्रेष्ठ हे)। 
इस तथ्य को ` गोरक्ष संहिता' ने भी स्वीकारा हे ' द्विविधं भवति ध्यानं 
सकलं निष्फलं तथा ।' ( ध्यान दो प्रकार का होता है-सकल तथा निष्कल, । 
देशबन्धश्चित्तस्य ` धारणा) 
तत्र प्रत्ययैकतानता ध्यानम्‌ ॥ 
--पातजल योग प्रदीप 
अर्थात्‌-- चित्त को (अन्दर या बाहर) किसी एक देश में ठहराना धारणा हे । 
( ओर जहां चित्त को ठहराया जाए) उसी में चित्त को वृत्ति का एक तार्‌ चर 
(बीच में दूसरी वृत्ति का उत्सनन ही न होना) ध्यान हे । (पाठक ध्यान दे कि- 
दूसरी वृत्ति का उत्नन ही न होना अथवा धारण कौ गई वृत्त मे एकतार चलना 
ध्यान है-- दूसरी वृत्ति उत्पनन हो जाए ओर बुद्धि या विवेक के द्वारा उस वृत्ति को 
हटाकर पुनः पहली वृत्ति को स्थिर कर लिया जाए-- यह घ्ना नहीं है । यह कच्चा 
ध्यान हे । अथवा ध्यान की स्थिति मे पहुंचने का प्रयास हे ध्यान का हीना नहीं) । 
मन, बुद्धि, इन्द्रियों का प्राण सहित एक साथ एक ही बिन्दु यादेश में केनत 
बने रहना ध्यान हे । इन चारो का संयोग ही फलदाई है । यदि इनं चक्रों पर केन्द्रित 
करे तो कुक समय के अभ्यास से चक्र जागृत हो जाएंगे । पंच महाभूतो पर केन्द्रित 
कर तो अभ्यास से वे वश में आ जाएंगे । मूलाधार मेँ सुप्त पड। कुण्डलिनी पर 
केन्द्रित करे ओर उसके जागृत होने कौ भावना कर तो कुण्डलिनी जागत हौ 
जाएगी । किसी भी अन्य विषय पर केन्द्रित कर उसे समडने की भावना करे तो वह 
विषय समञ्च मेँ आ जाएगा। आत्मदर्शन की भावना से भृकुटियों क मध्य केन्द्रित 
कर तो आत्म साक्षात्कार हो जाएगा । मन्त्र पर केन्द्रित कर तो मन्त्र का साषात्क ` हो 
जाएगा। शुन्य/अनन्त में केन्ित कर तो समाधि लग जाएगी ओर परब्रह्म क! 
साक्षात्कार हो जाएगा । अर्थात्‌ मन, बुद्धि, प्राण व इन्द्रियो को जिस भी बिन्दु, विषय 
या सत्ता पर भावना के साथ केन्द्रित कर देंगे वही प्रत्यक्ष होता चला जाएगा । 
इसीलिए ध्यान मे सिद्ध हो जाने पर साधक त्रिकाल, सर्ववेतत, मनोरवाछत कोपा 
लेने बाला, वरदान व श्राप मे समर्थं तथा अनेक सिद्धियो का स्वामी हो जाता ह। 
संक्षेप में यही ध्यान का फलस्वरूप हे । 
सुखासन में बैठकर मूलाधार चक्र का नासाग्र मं ध्यान कर कुण्डलिनी जागर 
की भावना से कुण्डलिनी जागृत होती है तथा समस्त पापों एवं विकारो का नारा 
होता हे। जैसा कि कहा है- 
आधारं प्रथमं चक्रं स्वर्णाभं च चतुर्दलम्‌! 
कुण्डलिन्या समायुक्तं ध्यात्वा मुच्येत किल्विषे ॥ 
जबकि स्वाधिष्ठान चक्र का ध्यान नासाग्र मे करने से स्वाधिष्ठान चक्र सक्रिय 
होकर साधक सुखी होता दै । जैसा कि कहा है- 
181 


स्वाधिष्ठाने च षट्पत्रे सन्माणिक्य सम प्रभो। 
नासा ग्रहष्टिरात्मनं ध्यात्वा योगी सुखी भवेत्‌॥ 
इसी प्रकार उपर्युक्त विधि से मणिपूर चक्र का ध्यान करने से जगत को 
क्षुभित करने की सामर्थ्य प्राप्त होती हे । जैसा कि कहा है- 
तरुणादित्यसंकाशो चक्रे च मणिपूरके। 
नासाग्रदृष्टिरात्मनां ` ध्यात्वा संक्षोभयंजगत्‌ 
अनाहत चक्र पर ध्यान से साधक ब्रह्ममय हो जाता है। (हृदयाक्ाज् 
स्थितं...ध्यात्वा ब्रह्ममयो भवेत्‌।) इसी प्रकार विशुद्ध चक्र का ध्यान योगी को 
आनन्दमय करता हे । (सततं...विशुद्धे दीपकप्रभे...ध्यात्वानन्दमयो भवेत्‌ ।) 
आज्ञाचक्र पर ध्यान करने से ब्रह्म व जीव मेँ एकता स्थापित होती हे । अर्थात्‌ आत्म 
एवं ब्रह्मसाक्षात्कार होता हे तथा ' अहं ब्रह्मास्मि" मे ही ब्रह्य हूं का बोध होता है। 
(भुवोरन्तर्गत...आत्मानं विजित प्राणो...) आदि । 
उपर्युक्त विवरण विस्तार से गोरक्ष खंहिता' में उपलब्ध हे । ' गराण्डिल्योपनिषद्‌ 
के अनुसार--' वह ब्रह्य मे ही हूं । ध्यान मेँ एसी भावना करने वाला साधक ब्रह्मवेत्ता 
हो जाता हे ।' (सोऽहमिति स ब्रह्मविदभवति) आदि समस्त विवेचनं से स्पष्ट 
प्रमाणित होता है कि जेसा ध्यान साधक करेगा, वेसी ही उपलब्धि हो जाएगी। 
इसीलिए ध्यान योग को समस्त यजतो से श्रेष्ठ कहा है । यथा- 
अश्वमेधसहस्राणि वाजपेयशतानि च। 
एकस्य ध्यान योगस्य तुलां नार्हन्ति षोड्शीम्‌॥। 
अर्थात्‌- सहस्रो अश्वमेध ओर सैकड़ों वाजपेय यज्ञं का फल भी अकेले 
ध्यान योग के सोलहवें अंश के समकक्ष भी नहीं हो सकता। (ध्यान योग सर्वश्रेष्ठ 
यज्ञ है) । 
किन्तु जब तक यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार व धारणा आदि द्वारा 
पात्रता ओर सक्षमता प्राप्त न कर ली जाए तब तक ध्यान में एेसी समग्रता या 
सम्पूर्णता नहीं आ सकती कि चित्त मेँ दूसरी वृत्ति उत्सन ही न होने पाए ओर जहा 
चाहं मन, प्राण, इन्दियोँ व बुद्धि को वहीं स्थिर कर सक ओर इतनी प्रबल व गहन 
भावना कर सके । संक्षेप मेँ यही ध्यान योग हे । विस्तार में जाने पर इसी पर पचास 
पृष्ट भी लिखे जा सकते हँ । किन्तु उससे व्यर्थ का उलज्ञाव होगा। समञ्चने योग्य 


सारांश इतना ही हे । 


समाधि 
सरल शब्दो मं कहं तो ध्यान की परिपक्वास्था अथवा अत्यधिक प्रगाढता ही 


समाधि टहै। ध्यान मेँ मन, एक ही वृत्ति में प्राण, बुद्धि, इन्दियों सहित निश्चल 
अवश्य रहता हे किन्तु चित्त मे ओर उस वृत्ति में भेद बना रहता है। समाधि मेँ यह 


182 





भेद समाप्त हो जाता हे । ज्ञाता, ज्ञेय ओर ज्ञान (अर्थात्‌ जो जाने, जिसको जाने ओर. 
जैसा जाने) का अन्तर ध्यान में रहता दै । “भै चिन्तन कर रहा हूं ' ' केवल अमुक 
काही चिन्तन कर रहा हूं ।' आदि का भाव मन मेँ सृक्षम रूप से ध्यान मेँ रहता हं 
किन्तु समाधि में मात्र चिन्तन ही रह जाता हे । मात्र लक्ष्य अथवा ज्ञेय/ध्येय ही रह 
जाता है । बाकी सब ओर "मै ' भाव लुप हो जते दँ । जैसा कि महर्षि पातञ्जलि ने 
कहा है- 
' तदेवार्थमात्रनिभासं स्वरूपशुन्यमिव समाधिः ॥ 
अर्थात्‌-जिस अवस्था मे केवल ध्येय मात्र की ही प्रतीति होने लगे वह 
अवस्था समाधि हे। अथवा जैसा कि ' गोरक्ष संहिता' मे कहा गया है-- 
न गन्धं न रसं न रूपं न च स्प न निःस्वनम्‌। 
जात्मानं न परस्वं च योगी युक्तः समाधिना ॥ 
अर्थात्‌-- जो योगी समाधि मे लीन हो जाता है--उसे गन्ध, रस, सूप, स्पर्शं, 
शब्द इन पांच विषयों का तथा अपने पराए का ज्ञान नही होता । ( अर्थात्‌-जञनेन्द्रियो 
के अति अधिक केन्द्रीयकरण से उनके विषयो का होना, नं होना उनके लिए कोई 
अर्थं नही रखता ओर मन व बुद्धि की अति अधिक लीनता से अपने-पराए सुख 
दुःख, प्रिय-अप्रिय आदि भेदो का अभाव हो जाता हे) । 
शब्दादीनां च तन्मात्रं यावत्कर्णादिषु स्थितम्‌ 
तावदेवं स्मतं ध्यानं समाधिः स्यादतः परम्‌ ॥ 
अर्थात्‌-शब्द आदि तन्मात्राओं का कर्णं आदि सनिन्द मे जब तक किचित्‌ 
भी अंश विद्यमान रहता है, तब तक साधक ध्यानावस्था मं रहता हे । किन्तु जब 
पांचो इन्द्रियों (मन, बुद्धि सहित) की वृत्तियां निःशेष भाव से आत्मा मे लीन हो 
जाती है, तब समाधि होती हे। 
समाधि चित्त की निर्विकल्पावस्था हे । तब किसी प्रकार का संकल्प-विकल्प 
साधक मे नहँ रहता । "मै क्या कर रहा हं ?' यह ज्ञान ते दूर "म ह। एसी अनुभूति 
भी नहीं रहती । साधक का ' मँ ' अपने ध्येय से एकाकार हो जाता है ओर १ ध्येय 
मात्र ही की प्रतीति रहती है । तभी समाधि होती है, जैसा कि ' गोरख संहिता' मे कहा 
ह- 





अम्बुसैन्धवयोरेक्यं यथा भवति योगत । 
यदात्मनसोरेक्यं समाधिः सोऽभिधीयते ॥ 
अर्थात्‌-जैसे जल व सेधा नमक आपस मे मिलकर एक हो जते है, वेसे ही 
आत्मा (ध्येय) व मन (ध्याता) का एक हो जाना ही समाधि (ध्यान की पराकाष्टा) 
हे। 
इसके अलावा अवधि का अन्तर भी विचारणीय होता हे । जेसा कि ' गौरखे 
संहिता' में कहा है- 
183 





| 


धारणा पंचनाडीभिर्ध्यानं च षष्टनाडीभिः। 
दिनद्राक्ष्गकेन स्यात्समाधिः प्राण संयमात्‌॥ 
अर्थात्‌- प्राणवायुं का पांच घड़ी तक अवरोध करना--धारणा, साठ घडी 
तक चित्त को एकाग्र रखना-- ध्यान, ओर वारह दिनों तक चित्त व प्राणों का निरंतर 
संयम समाधि कहा जाता है (12 दिन कम से कम) । 
' योगतत्वोफतिकद्‌' ने भी स्वीकारा है- 
दिनद्रादशटकेनैव समाधि समवाप्नुयात्‌। 
| वायुं द्रुध्य मेधावी जीवन्मुक्तो भवत्ययम्‌॥ 
अर्थात्‌- साधक वारह दिनों मेँ समाधि सिद्ध कर लेता है । इस प्रकार प्राण का 
निरोध करने वाला मेधावी युरुष जीवन मुक्त हो जाता है । (यानि मोक्षाधिकारी हो 
जाता हे)। 
समाधि कौ विशेषताओं के सम्बन्ध मेँ“ गोरश्च संहिता' के निनलिखित श्लोक 
ध्यान देने योग्य हैँ | 
अभेद्यः सर्वशस्त्राणामवध्यः सर्वदेहिनाम्‌। 
अग्राह्य पन््रयन्त्राणां योगी युक्तः समाधिनाः॥ 
वाध्यते न स कालेन लिप्यते न स कर्मणा। 
साध्यते न च केनापि योगीः युक्त समाधिना ॥ 
अर्थात्‌- समाधि युक्त योगी शत्रो के द्वारा नहीं छेदा जा सकता। वह किसी 
भी शरीरधारी द्वारा मारा नहीं जा सकता। उस पर मन्त्र, यन्त्र आदि का प्रयोग भी 
प्रभावहीन रहता हे । वह काल द्वारा भी बाधित नहीं होता ओर न ही कर्मो मेँ बह 
लित होता है। जो योगी समाधि में लीन हो जाता हे, उसे कोई किसी प्रकार भी वश 
मँ नहीं कर सकता। 
निराद्य॑तं निरालम्बं निष्प्रपञ्चं निरामयम्‌। 
निराश्रयं निराकारं ' तत्त्वं जानाति योगविद्‌॥ 
अ्थात्‌- योगी समाधिस्थ होकर आदि अन्त से रहित, अवलम्ब, प्रपच से 
रहित, विशुद्ध, आश्रय ओर आकार से हीन परमतत्त्व को जान लेता है । (यह 
असम्रज्ञात समाधि ह, जहां से योगी वापस लौट सकता है । किन्तु सम्रज्ञात समाधि 
मे परमतत्त्व को जानकर योगी उसी मेँ विलीन हो जाता है ओर सागर मेँ मिले जल 
कौ भाति सागर मे ही लन होकर स्वयं सागर बन जाता है। यही मोक्ष है) । 


शून्य मे ध्यान क्यो? । 
अतः समाधि कौ सिद्धि, कल्याण व मोक्ष के लिए शून्य मे ही धारणा व ध्यान 


करने चाहिए जैसा कि ' चन्द्रा" नामक आगमं ग्रन्थ में कहा गया है- 
शून्यात्‌ प्रवत॑ते शक्तिः शक्तेर्वणाः प्रज्ा्िरे। 


184 





वर्णेभ्यश्च तथा मन्त्रा मन््रेभ्यः. सृष्टिरव्यया ॥ 
तस्माच्छून्यं जगद्‌ ध्यायेद्यनन नश्येत्‌ कदाचन्‌॥ 
अर्थात्‌--इस शून्य में ही शक्ति कौ प्रवृत्ति होती है। शक्ति से वर्णं पैदा होते 
हें । वर्णो से मन्त्र ओर मन्त्रों से यह कभी न नष्ट होने वाली सृष्टि होती हे । अतः इस 
जगत्‌ कौ शून्य के रूप में ही उपासना करनी चाहिए। 


योगी का चरम लक्ष्य 

सहस्रार में परमशिव से कुण्डलिनी रूपा शक्ति का अभेद्यात्मक मिलन 
समाधि की अवस्था में ही सम्भव होता है । जब तक शविति से संयुक्त न हो जाए तल 
` तक सहस्रार चक्र में निवास करने वाला शिव शव ' कौ ही भांति रहता है । शक्ति 
का संयोग ही शव को शिव बना देता है। अतः समाधि ही योगी का चरम लक्ष्य 


है । 
निष्कर्षं 


किन्तु जैसा कि बता चुके है । समाधि, ध्यान अथवा धारणा- कुछ भी तब 
तक सिद्ध नहीं होता जब तक अभ्यास द्वारा मन विषयों से दूर होकर संयत न हो 
जाए । अतः मन को विषयों से विरत व निश्चल करना हौ योगशास्त्र कौ आत्मा ह । 
योगशास्त्र का मूल संदेश है । जैसा कि महिं अष्टावक्र ने राजा जनक को संक्षेप मे 
सम्पूर्णं अध्यात्म विद्या का निष्कर्षं कहा है- 
मोक्षो विषयवैरस्यं बन्धो वैषयिके रसः। 
एतावदेव विज्ञानं यथेच्छसि तथा कुरु॥ 
-- अष्टावक्र गीता 
अर्थात्‌-- विषयों में विरसता मोक्ष है । विषयों में रस बन्ध हे । इतना ही विस्लान 
हे। (अब) तू जैसा चाहे वैसा कर । 





(1) 


185 








प्रभाव विवेचन 
भुवन, तत्तव, कला, मन्त्र, पद ओर वर्ण-- ये 6 तन्त्रशास्त्र में ' षडध्व' नाम से 
प्रसिद्ध है । वास्तव में यह वाच्य (कहा गया) ओर वाचक (कहने वाला) के रूप 
में विद्यमान शब्द ओर अर्थ का ही विस्तार हे । शब्द से वर्ण, पद्‌ ओर म्र को 
तथा अर्थ से कला, तत्व ओर भुवन कौ उत्पत्ति होती हे । स्थूल व सूक्ष्म ओर पर 
रूप में विद्यमान इन षडध्वो से यह सम्पूर्ण जगत व्याप्त हे । शब्द ब्रह्म ही षडध्व के 
रूप में परिणित होता हे। इनमें वर्ण का विश्व के साथ अभेदात्मक, मन्त्र का 
भेदाभेदात्मक तथा पद का भेदात्मक सम्बन्ध रहता हे । 
मन््रो में इसीलिए सृष्टि की शक्ति निहित रहती है ओर वे सिद्धिदायक होते 
हें । जेसा कि ' योगदरन' कहता है-'जन्मोषधि तपो म्र समाधिजा सिद्धयः 
(जन्म से, ओषधि से, तप से, मन्त्र से तथा समाधि से सिद्धि प्राप्त होती है) । अतः 
सिद्धि प्रपि का एक उपाय 'मन्त्र' भी है । सूष्टिसंकल्प से हुई है ओर संकल्प ही 
उसमें परिवर्तन भी कर सकता दे । अतः मन्त्रो के साथ संकल्प/इच्छा/भावना का 
समावेश भी आवश्यक हे ओर संकल्प या भावना मन का धर्म है । अतः मन का पूरण 
संयोग मंत्र के साथ होना चाहिए । मंत्र को मंत्र ही इसलिए कहा जाता है कि वे 
मनन करने पर त्राण ( मुक्ति ) देते हँ । (मनन करने पर, मात्र रटने पर नही) । 
किन्तु बीज मन्त्र उच्चारण मात्र से प्रभाव करते है । जैसा कि-' वृहद्गन्धर्व तन्त्र मे 
कहा गया हे- | 
श्रुणु देवि प्रवक्ष्यामि बीजानां देवरूपताम्‌। 
मन्त्रोच्चारणमात्रेण देवरूपं प्रजायते ॥ काः 
(देवी! सुनो, मे बीजों का देवरूपता का प्रतिपादन करता हूं । मन्त्रौ ( बीजमन्त्र) 
के उच्चारण मात्र से साधक को देवता का (तत्सम्बंधित का) सारूप्य प्राप्त हो जात 
हे (अथवा साक्षात्कार हो जाता है) । । 
किन्तु उच्चारण के साथ भावना अथवा संकल्प का सहयोग तो रहना ह 
चाहिए। 
वर्णो अथवा अक्षरो से पद अथवा शब्द या मन्त्र बनता हे । अतः मतर शब्द 
वर्ण मे दो शवितयां छिपी रहती है--शब्दशक्ति ओर अर्थशक्ति। लक्षणा, व्यजन 


186 


आदि शक्तियां अर्थ शक्ति का ही विस्तार हैँ। साथ में निहित रहती है उनकी 
बनावट/आकृति,/रूप कौ वैज्ञानिकता। इसीलिए शब्द को शिव व अर्थं को शवित 
कहा गया हे । क्छाष्ठ में जिस प्रकार अग्नि अथवा तिलो मे जिस प्र्छार तेल 
चिप रहता हे उसी प्रकार शब्द में अर्थ छिपा रहता हे । 
` पद काअर्थनाम याउपाधिसेहै। ओर पद का अर्थ करने वाला (पद+अर्थ) 
पदार्थ कहलाता हे । ' पदस्य अर्थ प्रकट्यते सः पदार्थः ' (जो पद का अर्थं प्रकर 
करता हे- वही पदार्थ हे) । अतः शब्द या पद भले ही सार्थक हों या निरर्थक- 
उसमें अर्थशक्ति फिर भी निहित रहती हे । इस तथ्य को थोडा विस्तार से समञ्चना 
होगा । 

संतरे के स्वरूप को देखते ही उसका नाम स्मरण हो आता हे! इस प्रकार 
अपने स्वरूप से अपने पद को प्रकट कर देने के कारण संतरा पदार्थ हे । किन्तु वायु 
। के स्वरूप को समञ्चा नहीं जा सकता अतः उसके पद कायानाम का स्मरण होना 
। सम्भव नहीं इसलिए वायु पदार्थ नहीं ' तततव ' हे। लाल कांच की शीशी मे भरा 
हुआ पानी भी जिस प्रकार लाल प्रतीत होता हे किन्तु वास्तव मे वह लाल नहीं 

होता । इसी प्रकार उपाधि या पद्‌ तत्तव के स्वरूप को समञ्ने मे भ्रमित भी कर देते 
हें । किन्तु ' तत्त्व कौ ओर संकेत भी अर्थ से ही मिलता हे । मन्त्रों या बीज मन्त्रौ में 
उपाधि का संयोग न रहने से तत्तव के विषय मे भ्रम उत्पन नहीं होता। अतः 





व्याकरण की दृष्ठ से अथवा सार्थकता की दृष्टि से अक्सर मन्त्र अटपटे होते 

है । अर्थपूर्ण नहीं होते किन्तु शब्द शक्ति के कारण प्रभावशाली ओर सीधे 

तत्तव पर पहुचाने वाले होते दँ, उपाधि या पद में उलञ्चा देने वाले नहीं । विशेषतः 

शानर मन्त्र। 
अक्षर या शब्द कौ शक्ति ओर उसके उच्चारण से उत्पन होने वाली तरणे 

। प्रभावकारी होती है । इच्छित प्रभाव के लिए तदनुसार अर्थशक्ति वाले शब्द ओर 
आवश्यक तरंग उत्पन्न करने योग्य शब्दों का चयन करना पडता है साथ ही उन्हं 
एक विशेष स्तर या फ्रीक्वसी पर उच्चरित करना भी आवश्यक होता है जिससे 
उतनी ओर वैसी तरंगे या कम्पन उत्पनन हो सकै- जेसी ओर जितनी इच्छित प्रभाव 
के लिए आवश्यक हे । इसमें अक्षरो की रचना या बनावट का विज्ञान भी सहायक 
सिद्ध होता हे। 

' वाइत्रेशन्स ' से सृष्टि हरई- आधुनिक विज्ञान मानता हे । भारतीय दर्शन ' नाद! 
से सृष्टि कौ उत्पत्ति मानता है । अर्थात्‌ तरंगो/कम्पन।स्वरलहरियों से सृष्टि होने को 
बात पर दोनो ही सहमत हें । बात ठीक भी हे। कम्पन या तरंगे निर्माण ओर ध्वंस 
दोनों कार्यो मेँ सक्षम हैँ । मन्त्र के प्रभाव में यह सिद्धांत भी भूमिका निभाता द 
ओर अर्थजक्ति के सु प्रभाव भी । इसके अलावा नाम, रूप ओर गुणमें जो 
एक निश्चित व अटृट सम्बन्ध होता है, वह सम्बन्ध भी सिद्धि मे उपयोगी 

187 | 








~" "णा 





भूमिका निभाता हे । क्योकि व्यवहार, पहचान या ज्ञान के लिए- नाम, रूप व 
गुण।स्वभाव स्पष्ट हो जाते हैँ अथवा किसी वस्तु को देखकर ही उसका नाम 
मस्तिष्क में सहज ही उभर आता है । क्योकि नाम, रूप व गुण का एक निश्चित 
सम्बन्ध है । यही किसी सत्ता या वस्तु को पहचान होते हे । अतः इनमें से एक घटक 
का भी पकड़ मेँ आ जाना शेष दोनों घटकं तक पहुंचकर उस सत्ता वस्तु को जानने 
या उसके साक्षात्कार करने के लिए पर्य होता हे । 
उदाहरण के तौर पर ' नींबू" कहते ही हम नींबू नामक पदार्थं के रूप, गुण 
आदि को समञ्च लेते हैँ ओर हमारे मस्तिष्क में नीबू का चित्र स्पष्टहो जाता है। 
अनगिनत पदार्थो में से नीब कौ ही छवि हमारे मस्तिष्क मेँ क्यों स्पष्ट हुई ? नाम के 
प्रभाव से। ' नीबू" नामक पद या उपाधि के प्रभाव से। इसी प्रकार यदि यह कहा 
जाए कि “पीले रंग का गोल छोटा-सा फल जिसके भीतर बीज व रस रहते हैँ ।' तब 
भी मस्तिष्क अनगिनत पदार्थो, फलों आदि मे से नीबू कौ पहचान कर उसका नाम 
स्मृत कर लेता हे । व्यक्ति जान जाता है कि सामने वाला ' नींबू ' के विषय में बात 
कर रहा हे । क्योकि नाम का रूप से निश्चित सम्बन्ध हे । इसी प्रकार गुणस्वभाव 
काभीहे। क्योकि यदि कहा जाए-- अति खट्रे रस वाला, जिसका छिलका कडवा 
होता है आदि। तब भी गुण स्वभाव को जानकर व्यविति उसके नाम रूप को पहचान 
जाएगा ओर नींबू उसके मस्तिष्क मेँ प्रत्यक्ष हो जाएगा । क्योकि नींबू या कोई भी 
सत्ता एक निश्चित नाम, निश्चित आकारस्वरूप ओर निश्चित गुणदोषौ 
का संगठन या समूह मात्र है। अतः नाम यारूपयागुण के माध्यमसे ही उसे 
जाना जा सकता है । 
कुण्डलिनी को, आत्मा को, चक्रं को, परमात्मा को, मन को, प्राण को अथवा 
जीव आदि को हम देख नहीं सकते फिर ऋषियों ने उनके स्वरूप का वर्णन कैसे 
कर दिया ? क्योकि समाधि कौ अवस्था में, ध्यान की अवस्थामें नामयागुणका 
निरन्तर मनन करके उन्होने स्वरूप को प्रत्यक्ष किया । ईश्वर का नाम हमें पता है । 
गुण हमं पता हे परन्तु रूप नहीं पता। तब नाम ओर गुणों का ही गहन चिन्तन करके 
उसके रूप का साक्षात्कार करते है । क्योकि नाम, रूप व गुण का एक निश्चित 
सम्बन्ध है । यही संक्षेप में मंत्र जाप विज्ञान है। मनन करने से त्राण होना-- यही दै । 
नाम व गुण का मनन, चिन्तन बार-बार गहनता से करना ही मन्त्र का जाप 
करना है जिससे अन्ततः प्रकाश उत्पन होता है या साक्षात्कार होता है । स्वरूप 
समञ्च में आ जाता हे अथवा स्वरूप को समञ्ने की योग्यता प्राप्त हो जाती है। 
नकौोल शायर-- 
सनको आंखों पे परदा पडा दै । 
तेरे चेहरे पर परदा नहीं दे। 
वह माया (अविद्या का परदा हरते ही देखने कौ योग्यता आ जाती हे । किन्तु 
188 





चर्मचक्षुओं से नहीं अर्न्तचक्षुजं या दिव्यदृष्टि से ही परम या आत्म का साक्षात्कार 
होता हे। शायरी ही कौ जुबान मे-- 
वहां होता है आगाज तेरे जल्वों का। 
जहां निगाह को मंजिल तमाम होती हे। 
अर्थात्‌-- तेरे दर्शन/्जलक का आरम्भ ही वहां से होता हे । जहां नेत्रं कौ दृष्ट 
सीमा समाप्त टो जाती है। (यानि इन्द्रियो द्वार तुञ्े जाना नहीं जा सकता, तू 
अतीन्द्रिय हे) । 
इसीलिए तो ' दुलसी' ने भी कहा-' गो गोचर जंह लगि मन जाइ । तंह 
लगि माया जानेहु भाई ।' ( इन्द्रियां व इन्द्रियं के विषय,प्रभाव-क्षत्र ओर मन कों 
जहां तक पहु च है वहां तक तो माया का ही विस्तार जानना चाहिए) । 
नाम के प्रभाव से रूप प्रत्यक्ष हो जाता है । इसीलिए वुलसीने कहा-रामसे 
बड़ा राम का नाम अतः मन्त्र विज्ञान कोई कपोल कल्पना नहीं हे । यह बाकायदा 
प्रभावशाली विज्ञान हे । यद्यपि यह मेरे अधिकार क्षत्र में नहीं जता, फिर भी पाठकों 
करी मन्त्र प्रयोग में तथा मन्त्र उपायों के प्रति श्रद्धा एवं विश्वास उत्पन हो सके अतः 
सामर््यानुसार मन्त्र विज्ञान का विवेचन कर रहा हूं । यदि गुणी जन इसमे कोई त्रुटि 
पाएं तो मेरे अनधिकार चेष्टा कौ धृष्टता के लिए क्षमा करे। 
समूची सृष्टि पंचमहाभूतात्सक है । पंच तत्त्वो से ही सारी सृष्टि बनी है। 
(आकाश, वायु, अग्नि, जल तथा पृथ्वी) । दुनिया मे जो भी सत्ता है--उसमं 
उपर्युक्त पांचों मे से कम-से-कम एक तो अवश्य ही है । यद्यपि आधुनिक विज्ञान 
तत्वों की संख्या 100 से ऊपर मानता है। (प्रारम्भ में 36 मानता था। जैसे-जैसे नए 
तत्त्व खोजे जाते गए, गिनती बढती गई । किन्तु यह भ्रम है । क्योकि ज्ञान को प्रप्त 
करने के 5 ही माध्यम है । (5 ही ' सस ' है) अतः ' तत्व' (एेलीमेन्ट) 5 से अधिक 
मूल रूप से नहीं हो सकते। योगिक (कम्पाउन्ड) अलबत्ता अनेक हो सकते ह । 
पांच ज्ञानेन्दियां हैँ । उनके अनुसार स्पर्श, श्रवण, गन्ध, रूप, रस, यह पाच 
ही अनुभूतियां या ज्ञान पाने के साधन या माध्यम हैं । अतः मूल तत्व पांच ही होगे 
अधिक नहीं । आधुनिक विज्ञान की दृष्ट मेँ ' जल ' त्व (एलीमेन्ट) नही, यौगिक 
(कम्पाउन्ड ) ह । क्योकि (11,0) हार्ईडोजन व ओक्सीजन का मिश्रण हे । किन्तु 
यह उपाधि या नाम से उत्पन होने वाला भ्रम हे । (जैसे लाल बोतल मेँ बंद पानी को 
भी लाल समञ्च लिया जाता हे) । ' जल तक््व' का जल महाभूत का अर्थं #५^7६7 
या पानी से नहीं हे । ' जल तक्त्व' का अर्थ उस महाभूत या तत्त्व से है जो "रस ' 
के गुण से युक्त है । जो "रस ' की अनुभूति कराता हे । क्योकि जल तत्त्व की 
तन्मात्रा ( गुण ) "रस ' है ओर इस न्याय से उसकी ज्ञानेन्दिय जिह है-- जो रस 
या स्वाद का अनुभव करती हे। 





189 


इसी प्रकार अग्नि तत्व-रूप या तेज के गुणों को प्रकट करने वाला तत्त्व है 
न कि 6९६ है । आकाश महाभूत 9।<१ नहीं हे अपितु शब्द के गुण से युक्त तत्तव 
ठे । इसी प्रकार वायु महाभूत ओर पृथ्वी महाभूत-- क्रमशः \॥५0 या ८^ति।+ नहीं 
अपितु क्रमशः स्पर्शं ओर गन्ध के गुणों से युक्त तत्त्व हें । जहां- जहां गन्ध कौ 
अनुभूति है वहां- वहां पृथ्वी तत्त्व अवश्य हे । इसी प्रकार अन्य महाभूतो को तन्मात्राएं 
या गुण जहां-जंहां हँ, वहां-वहां वे महाभूत अवश्य हें । इसलिए मूल तत्त्व पांच ही _ 
हें क्योकि ज्ञान के अनुभव के माध्यम ही पांच हे । यह बात समञ्चने कौ हे । ` 
तो समूची सृष्टि पंचभूतात्मक हे । यदि हम जानते हँ कि अमुक पदार्थ में 
फलां-फलां तत्व इतनी-इतनी मात्रा में होते है तो हम मन्त्र द्वारा, संकल्प द्वारा 
अथवा ध्यान द्वारा वही -वही तत्त्व उतनी-उतनी मात्रा में मिलाकर उसी पदार्थ 
की सृष्टि कर सकते दैँ। या किसी पदार्थ को इसी सिद्धां तानुसार उसको 
संरचना के क्रम व व्यवस्था में परिवर्तन कर उसे अन्य इच्छित पदार्थ मे बदल 
सकते हँ । मगर इसके लिए पंचभूतों पर हमें अधिकार होना चाहिए अथवा परिवर्तन 
मे समर्थ मन्त्रौ का ज्ञान होना चाहिए । इसीलिए मन्त्रवेत्ता अथवा योगी (ध्यान करने 
वाला) मनोवांछित सृष्टि करने में समर्थ होता है । ठीक वैसे ही जैसे कोई वेज्ञानिक 
अणुओं की संस्चना में परिवर्तन करके किसी पदार्थं को अन्य पदार्थ मे बदल 
सकता हे (यदि वह सक्षम हो तो हालांकि विज्ञान अभी इतना समर्थ नहीं हो पाया 
हे । फिर भी सिद्धांत अपनी जगह हे) । 
यह बात ठीक वैसी ही है जैसे कोई कुशल चित्रकार मात्र तीन मूल रंगों से 
सेकडों अन्य रंग व शेड्ज बना सकता है । पर उसे कम-से-कम तीन मूल रग तो 
चाहिए। वैज्ञानिक अणुओं की संरचना की क्रम व्यवस्था बदलने मेँ सफल हो भी 
जाए तो भी उसे मूल अणु तो चाहिए्‌। मगर योगी या मन्त्रवेत्ता को मूल (पंच 
` महाभूत) तत्व भी नहीं चाहिए्‌। वह तो उन पर अधिकार पा जाने के नाद स्वयं 
ही उनका सृजन करने मे समर्थं होता हे । पुराणों में इसके सैकड़ों उदाहरण मिलते 
ह । जिनमें एक विश्वामित्र दारा त्रिशंकु के लिए ' पृथक्‌ सृष्टि ' करने का प्रसंग 
तो सभी को स्मरण होगा। अतः मन्त्र की शवित पर शंका नहीं कौ जा सकती । 
संकल्प व ध्यान की शक्ति प्र शंका नहीं कौ जा सकती । फिर भी हम शंका कते 
है तो यह हमारी अल्पक्ञता, अज्ञान, हठधर्मिता अथवा मूर्खता ही होगी । 
यदि मंत्र के प्रति शका हो, तो मंत्र सम्बन्धी उपायों में हरगिज न जाए, 
वर्योकि शंकासंदेह सफलता या सिद्धि मे बाधक होते हैँ । विश्वास व श्रद्धा हौ 
संकल्प को उत्यनन करते है, जिससे सफलता मिलती है । संशय सदैव ही, ओर 
प्रत्येक क्षेत्र में असफलता ही दिलाने वाला होता है अतः सर्वप्रथम संशय का त्या] 


करे | 


190 





मन्त्र प्रक्रियाए- कुण्डलिनी जागरण 
गुरु वंदना 

शुभ मुहूर्तं आदि का विचार कर, स्नानादि से शुद्ध-बुद्ध हो, एकान्त स्वच्छ 
स्थान पर कुण्डलिनी को प्रतिमा के आगे शुद्ध घी का दीपक जलाकर आसन पर 
बेठे ओर सर्व प्रथम गुरु का स्मरण करें । ' ॐ श्री गुरुवे नमः मन्त्र से गुरु का 
अभिनन्दन करे, फिर गणेश जी का स्मरण करे 
गणेश वंदना ॑ 
| ॐ गजाननं भूतगणादि सेवितं । 
कपित्थजम्नृफल चारु भक्षणम्‌ ॥ 
उमासुतं शोक विनाश कारकं। 
नमामि विधेश्वर पाद पंकजम्‌॥ 
वक्रतुण्ड महाकाय, सूर्यकोटि समप्रभ। 
निर्विघ्ं कुरु मे देव सर्वं कार्येषु सर्वदा ॥ 

इस प्रकार गणेश की प्रार्थना कर उनसे सिद्धि प्राति ओर निर्विघ्नता को याचना. 
करे। 
संकल्प | 

सिद्धि प्राति के लिए संकल्प करं । देवताओं को साक्षी मानकर संवत्‌, मासः 
शुक्ल या कृष्ण पक्ष, तिथि, वार, राज्य, नगर/ग्राम के नाम के उच्चारण के साथ 
अपना नाम, आयु, पिता का नाम, दादा का नाम, गोत्र, साध्यदेव का नाम, मत्र का 
नाम, जप संख्या व साधना कौ अवधि (कितने दिन में अनुष्ठान पूरा करना है) आदि 
का उल्लेख करते हए संकल्प किया जाता हे । 
पूजन 

संकल्प के बाद मां कुण्डलिनी की प॑चोपचार मानसिक पूजा करं । उसके 
विधि इस प्रकार है- 

ॐ लं पृथ्वी तत््वात्म के गन्धं श्री महाकुण्डलिनी । 
पादुकाभ्यां नमः अनुकल्पयामि ॥ 

इस मंत्र के पाठ के नाद अंगूठे को कनिष्ठा उंगली (दाएं हाथ कौ) मिलाकर 

गन्ध मुद्रा दिखाए । फिर ॑ 


3ॐॐ हं आकाश तत्त्वात्मक, 
पुष्पं श्री महाकुण्डलिनी; 
पादुकाभ्यां नमः अनुकल्पयामि ॥ 


अथवा तर्जनी व अंगे का प्रथम पोर मिलाकर मंत्र को पटकर पाचों उगलियों 
191 





को ऊर्ध्वमुख मिलाकर दाएं हाथ से देवी को पुष्प मुद्रा दिखाए । फिर - 
ॐ यं वायु तत्त्वात्मकं धूपं श्री महाकुण्डलिनी 
` पादुकाभ्यां नमः  अनुकल्पयामि। 
मंत्र का उच्वारण कर मध्यमा उंगली ओर अंगूठे के प्रथम पोरों को मिलाकर 
दाएं हाथ से धूप-मुद्रा दिखाएं । फिर- 
ॐ रं अग्नि तत््वात्मकं दीपं श्री महाकुण्डलिनी 
पादुकाभ्यां नम अनुकल्पयामि ॥ 
मंत्र का उच्वारण कर दाएं हाथ कौ अनामिका व मध्यमा को मिलाकर अंगूठे 
को उनके दूसरे पोर पर लगा कर दाएं हाथ से नैवेद्य मुद्रा देवी को दिखाएं। 


विनियोग 
फिर दाहिनी हथेली मे जल लेकर निन मन्त्र से विनियोग करे 
ॐ अस्य सर्व ॒सिद्ि श्री कुण्डलिनी, 
महामंत्रस्य भगवान श्रीमहाकाली । 
ऋषि विश्वव्यापिनी महाशक्ति, 
श्री कुण्डलिनी देवता त्रिष्टुप छन्दः। 
हीं बीजम्‌ सिचि शक्ति प्रणव कोलकं 
चतुर्वर्ग प्रीत्यर्थं जपे विनियोगः॥ | 
त ओर हथेली का जल भूमि या रिक्त पात्र मे डाल दे । फिर चार गलियों ओर 
ट को मिलाकर दाहिने हाथ से अपने सिर का स्पर्शं करते हुए ऋषियों का न्यास 


----- 


ऋषिन्यास 

ॐ भगवान श्री महाकालो ऋषये नमः शिरसि। (सिर पर हाथ लगाएं) । 
ॐ त्रिष्टुप छन्दसे नमः मुखे। (मुख पर हाथ लगाएं) । ॐ महाशक्ति श्री 
कुण्डलिनी देवतायै नमः हदये । (हदय को छुं) । ॐ हीं बीजाय नमः गुहयो। 
(गह्याग कौ ओर हाथ कर मन से उसे छने की भावना करें ) । ॐ सिद्धिः शक्तये 
नमः पादयो। (पेयो का स्पर्शं करं) । ॐ प्रणय कीलकाय नमः नाभो । (नाभि 
का) ॐ विनियोगाय नमः सवगि। (दोनों हाथों से सिर से पैर तक समस्त अंगो 
का स्पर्श कर) । इस प्रकार ऋषियों का न्यास पूर्णं होने के बाद ' करन्यास! करे। 
इसको विधि व मन्त्र इस प्रकार है- 


करन्यास 
ॐ हां हीं हं है ह हः अंगुष्ठाभ्यां नमः । 
(दोनों हाथों की तर्जनी से दोनों हाथो के अंगूटो को एं ।) 
192 कुण्डलिनी शक्ति कैसे जागृत करं 12 


ॐ ह्ांदहींहंहें हों हः तर्जनीभ्यां नमः। 

(दोनों हाथों के अंगृठों से तर्जनी उगलियों का स्पर्श करें ।) 
ञ्ह हौं हः मध्यमाभ्यां नमः। 

(दोनों अंगूठों से अनामिका उगलियों का स्पर्शं करें ।) 

ॐ हादी हं दै हौं हः अनामिकाभ्यां नमः। 

(दोनों अंगृूठों से अनामिका उगलियों का स्पर्शं करें ।) 
ॐ हां हींहं हें हों हः कनिष्ठिकाभ्यां नमः, 

(दोनों अंगृठों से कनिष्ठिका उगलियो का स्पर्शं करे ।) 
ञॐ्हांद्ींहुहें हों हः कर तलकर पृष्ाभ्यां नमः। 
(दोनों हाथों कौ हथेलियों के पृष्ठभाग को द्ुएं ।) 
“करन्यास ' के पश्चात्‌ उपरोक्त विधि से ही- 

' कडगन्यास' करें । प्रारभ्भिक मंत्र (ॐ हां ह हं हं हँ हः) वही रहेगा अन्त 


में अगो के नाम बदलते रहेंगे । ओर जिन अंगों के नाम का उच्चारण किया जाएगा, 
दाएं हाथ की पांचोँ उगलियोँ से उन्हीं अंगों को दुआ जाएगा । यथा- 





षडगन्यास 


ञॐ हां हीह दहे हः हृदयाय नमः । (हदय को) 
ञ्हांद्ींहंदहंहो हः शिरसे स्वाहा। (सिर को) 

ॐ हां हीं हं दँ हौं हः शिखायै वषट । (शिखा स्थान को) 

ॐ हां हीं हं हें हौं हः नेत्रयाय वौषट्‌ । (दोनो नेत्रो व ललाट मध्य) 
ॐ हां हीं हं हें हयौ हः कवचाय हू । ( दाई उगलिया से बाई) 

( ओर बाई उगलियों से दाई भुजा को एक साथ) । ¢, + ^ 
ॐ हृं हीं हृ है हौं हः अस्त्राय फट्‌। (दाएं हाथ को सिर के ऊपर से बाई 


ओर पीके की तरफ ले जाकर दाई आर से सामने लाकर उसकी तर्जनी व मध्यमा से 
बाएं हाथ पर ताली मारे) । 


(इस प्रकार न्यास क्रियाओं द्वारा हम अपने हाथ से निकली विद्युत से उन 


अंगों को चैतन्य करते है तथा पवित्र भाव से भरते है, जिन मन्त्रोच्चार के साथ चूते 








न्यास के पश्चात्‌ देवता का  ध्यान' करते है । क्योकि आराधना कुण्डलिनी 


देवी की हे । अतः उनके स्वरूप का ध्यान हदय या भकुटियों के मध्य करते हुए 
निन मन्त्रों का उच्चारण करे- 


मूलाधारे स्मरेदिव्यं त्रिकोणं तेजसां निधिम्‌। 
शिखा आनीय तस्याग्नेरथ ऊर्ध्वं व्यवस्थिता ॥ 
193 


तस्या शिखाया मध्ये परमात्मा व्यवस्थितः । 
स ब्रह्मा स शिवः सेन्द्रः सोक्षरः परम स्वराट्‌ ॥ 
स एवं विष्णुः स कालोऽग्निः चन्द्रमा) 
इति कुण्डलिनी ध्यात्वा सर्व पापैः प्रमुच्यते ॥ 

अर्थात्‌- मूलाधार मेँ दिव्य त्रिकोण तेजपुंज, उर्ध्वगामी तेज शिखा के बीच 
परब्रह्म अवस्थित हे। वह तेज ही ब्रह्मा, विष्णु, शिव, इन्द्र, अक्षर, काल, अग्नि, 
चन्द्रमा हें । इस प्रकार कुण्डलिनी का ध्यान सब पापों को नष्ट करने वाला है। 
(मन्त्रोच्चार के सार्थं अर्थं को भावना भी करे)। 

ॐ प्रसुप्त भुजगाकारां स्वयं भू लिंगमाश्रितां, 
विद्य॒तकोटि प्रभां देवीं विचित्र वसानान्वितां। 
शृगारादि रसोल्लासां सर्वदा कारण प्रियाम्‌॥। 

( वह सोई हुई भुजंग के आकार को कुण्डलिनी स्वयं उत्पन्न होने वाले लिंग 
के आश्रित हे। करोड़ों विद्युतो की चमक के समान वह देवी विचित्र वस्त्र धारण 
किए, शृंगारादि से परिपूर्ण, रस व उल्लास से पूर्ण ओर सदेव प्रिय करने वाली है) | 

पमररुदण्डे वह्धिना शब्दात्‌ पदं तेजोमयीति च, 
सिद्धि प्रापि सिद्धिः सर्वकाम पदात्‌ पुनः। 
सर्वे्ञा परिपुरेति चक्र स्वामिनीति च, 
गुप्त योनिन्यनगा च कुसुमेडनग मेखले । 
सर्वं मंत्रमयीत्युक्ता सर्व ॑द्रन््र॒ क्षयकारी, 
सर्वज्नानमयीत्युक्तात्वा सर्वं व्याधि विनाशिनी, 
सर्वानन्दमयी देवी सर्वं रधा स्वरूपिणी। 
महाशक्ते महागुप्ते ततश्चैव महा-महा, 
कुल कुण्डलिनी देवी, कन्दे मूल निवासिनी ॥ 

अर्थात्‌- मेरुदण्ड मेँ अग्नि रूप, शब्द, पद व तेजस्वी सिद्धि प्रदान करने 
वाली, सर्वकामनाओं को पूर्ण करने वाली सबक स्वामिनी, चक्रसंस्थानों की स्वामिनी 
ओर गुप्त योनि कामशक्ति, पुष्प मेखला/अनंग मेखला, समस्त मंत्रं से युक्त, समस्त 
दरदो का नाश करने वाली, सब सौभाग्यो को देने वाली, समस्त विघ्रं का निवारण 
करने वाली, सर्वज्ञा व ज्ञानदायिनी, समस्त व्याधियों को नष्ट करने वाली, आनन्दमयी 
देवी सदा रक्षा करने वाली महाशक्ति, महा रहस्यमयी/महागोपनीय होने से महानतम, 
कुण्डलिनी दवी जो कन्द के मूल मेँ निवास करने वाली है-- उनका मेँ ध्यान करता 

हू | 
गायत्री जप - 
ध्यान के पश्चात्‌ कुण्डलिनी देवौ को प्रणाम कर गायत्री मनर कौ एक माला 


काजाप करे। ॥ 














ॐ भ्रूभुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं 
भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्‌ ॥ 
कुण्डलिनी मंत्र जाप 
फिर कृण्डलिनी सह्यसन्त्र का जप आरम्भ करे जो इस प्रकार हँ 
ॐ दहं दां न हू ह हः कुण्डलिनी 
जगन्मातः सिद्धिं देहि देहि स्वाहा। 
अथवा इस महामंत्र का जाप आरम्भ करे 
कुण्डलिनी महामंत्र 
णे दंहांद्ींदहं हें हौं हः जगन्मातः 
सिचं देहि देहि स्वयंभू लिंगमाश्रिताये 
विद्यत क्छोटि प्रभाये महाबुद्धि प्रयायै 


सहस्र दल गामिन्ये स्वाहा । 
(दोनो म॑त्रोंमेंसेकिसीएक काजाप करे) । 


जप संख्या, रथानादि 
कुण्डलिनी महामंत्र का कुल जाप 24 लाख को संख्या मे करना चाहिए 

प्रतिदिन कम-से-कम तीन हजार मंत्रों का जाप अवश्य ही करना चाहिए । अथवा 
जितने दिनों में 24 लाख मंत्रों के जाप का संकल्प साधना के प्रारम्भमे किया 
उसके हिसाब से प्रतिदिन का जाप तिर्धारण करे! समय प्रातः 4 बजेसेहो तो अति 
उत्तम हे। अन्यथा रात्रि नौ बजे के बाद हो, ताकि व्यवधान न पड्‌। यदि जाप 
अधिक संख्या में करने हों, तो प्रातः व रत्नि दोनों समय जाप किया जा सकता हे । 
इस साधना के लिए सर्वोत्तम स्थान श्मशान माना गया हे, क्योकि वहां शांति, एकात 
ओर वैराग्य का भाव बना रहता हे । संकल्प पहले ही दिन करना होता है किन्तु शोष 
क्रम (प्रार्थना, प्रजा, विनियोग, न्यास आदि) वही रहता है। साधना काल में 
अनुष्ठान पूर्णं होने तक यम, नियम व संयम का पालन अनिवार्य हे । उसी से पात्रता 
उत्पन होती हे। 
क्षमा प्रार्थना 

जाप के अन्त में क्षमा- प्रार्थना करनी चाहिए्‌। जिससे कोई त्रुटि या भूल रह 
गईं हो तो उसको पूर्तिं हो सके । क्षमा-प्रार्थना शुद्ध मन से वैसे भी की जा सकती हे । 
किन्तु मन्त्रौ के साथ कौ जाए तो ओर भी अच्छा रहता है । क्षमा प्रार्थना के मन्त्र इस 
प्रकार ह- 

अपराध सहस्राणि क्रियन्तेऽहर्मिशम मया। 
दासोऽयामिति मां क्षमस्व परमेश्वरि॥ 
195 








आवाहनं न जानामि न जानामि च विसर्जनम्‌ 
पूजां चैव न जानामि क्षम्यतां परमेश्वरि ॥ 
मन्त्रहीनं क्रियाहीनं भक्तिहीनं सुरेश्वरि । 
यत्पूजितं मया देवी परिपूर्णं तदस्तु मे॥ 
अपराध शतम्‌ कृत्या देवेर्वरि चोच्यरेत । 
यां गति समवाप्नोति न तां ब्रह्मादयः ` सुराः ॥ 
सापरोधोऽस्मि शरणं प्राप्तस्त्वां परमेश्वरि। 
इनानीमनुकम्पयो अहं यथेच्छसि तथा कुरु ॥ 
अज्ञानाद्विस्मृतेर्भान्त्या यन्न्यूनाधिकं कृतम्‌। 
तत्सर्वं श्चम्यतां देवी प्रसीद परमेश्वरि ॥ 
कामेश्वरिजगत देवी सच्चिदानन्द विग्रहे । 
गुह्याति गुह्या गोप्वी तवं ग्रहाणास्मत्कृतं जपं । 
सिद्धि भवतु में देवी त्वत्प्रसादात्सुरेश्वरि॥ 
अर्थात्‌-हे परमेश्वरी ! म रात दिन सहस्रं अपराध करता हूं । अपना दास 
समञ्च मेरे अपराधो को कृपापूर्वक क्षमा कोजिए। हे परमेश्वरी ! में आहवान, विसर्जन 
ओर पूजा को विधि नहीं जानता, क्षमा करो । हे सुरेश्वरी ! मने जो मंत्रहीन, क्रियाहीन, 
भक्तिहीन पूजन किया हे- वह आपको कृपा से पूर्ण हो । सैकड़ों अपराध कर के 
भी जो आपका शरणागत हो जाता हे उसे वह (सद्‌) गति प्राप्त होती है, जो ब्रह्मादि 
देवताओं को भी सुलभ नहीं । परमेश्वरी ! मेँ अपराधी हूं, किन्तु आपका शरणागत हूं 
अतः दया का पात्र हू । (अव) आप जसा चाहे करें । देवी ! अज्ञानवश, भूलवश या 
वुद्धिभ्रान्त हो जाने के कारण मेने जो कमीबेशी की हो, उसे क्षमा करके प्रसन 
होओ। सच्विदानन्द रूपिणी परमेश्वरि ! कामेश्वरि! आप प्रेमपूर्वक मेरी पूजा को 
स्वीकार कर मुञ्च पर प्रसन रहिए । देवी! देवताओं कौ भी देवी ! आप गोपनीय से 
भी गोपनीय ओर सबकौ रक्षा करने वाली हो । मेरे निवेदित जप को ग्रहण (स्वीकार) 
करो । आपकी कृपा से मुञ्चे सिद्धि प्राप्त हो। 
इस प्रकार देवी को जप सर्पण करके ओर क्षमा-याचना करके फिर कुण्डलिनी 
देवी का स्तुति, अष्टक, कवच एवं स्तोत्रादि का पाठ करें । अन्त मेँ देवी का 
पुनः ध्यान कर, दण्डवत्‌ प्रणाम करं ओर फिर गुरु को प्रणाम कर देवी को आसन 
से उठाए 
कुण्डलिनी देवी कौ उपासना चर्मासन- मृग/बाघ आदि पर बैठकर करनी 
चाहिए तथा जप माला 108 सद्राक्ष कौ होनी चाहिए । प्रातः पूर्व कौ ओर तथा रत्र 
पं पश्चिम कौ ओर मुख करके बेठना चाहिए। ओर साधना का समय व स्थान 
निश्चित रखना चाहिए।) 


196 














मानसिक संत्र जाप विधि 
एक अन्य विधि के अनुसार दोनों परो कौ एडियों पर शरीर को तोलकर | 
स्वास्तिकाखन में वेदे (वापं पैर कौ एडी को सिद्ध आसन की भांति योनि प्रदेश।सीवन 
पर दूढता से लगाएं ओर फिर दाहिने पैर कौ एडी को बाएं पैर को एडी पर स्थापित 
कर परे शरीर को दोनों एड्यों के आधार पर तोल लें । सिद्धासन ओर इसमें यही 
अन्तर है कि सिद्धासन मे एक एडी योनि प्रदेश को दबाती है जबकि दूसरी उपस्थ 
पर रहती हे ओर स्वास्तिकासन में दोनो एडियां ही योनि प्रदेश व गुदा को दबाती/खरीर 
के नीचे रहती हैँ । इस प्रकार मूलाधार पर भरपूर दबाव पडता है । किन्तु इस आसन 
को लगाने से पूर्व मूललन्ध का प्रबल अभ्यास आवश्यक है) । इस आसन को 
यदि मूलबन्ध के विना लगाएं तो नपुंसकत्व कौ सम्भावना भी रहती है ओर मूलाधार 
के या कुण्डलिनी के जागरण कौ सम्भावनाएं भी न्यून हो जाती ह । कमर, गर्दन व 
सिर समसूत्र मे रखें । तीनों बन्धं को दृढतापूर्वक लगाएं अथवा जालन्धर को छोड 
रोष दो बन्धों को ही लगाएं । इन्द्रियों को मन सहित अन्तर्मुखीकर दृठ को भाति 
निश्चल होते हए अधखुले नेत्रो से भ्रूमध्य पर देखें ( शाम्भवी युद्रा) । इसी मुद्रा मे 
खेचरी मुद्रा शामिल रहे तो प्रभाव ओर बद्‌ जाता है फिर 
! सिव सिद्ध छरणं" मन्त्र को मनमेंही 7 बार बोलकर मन ही मे सात बार 

सुनें । तब * ॐ ए हीं श्रीं क्लीं स्वाहा ' मन्त्र को मन ही में बोलते व सुनते रहें । शनैः 
शनैः ठेसा अभ्यास करें कि बोलें एक ही बार ओर बार-बार उसको प्रतिध्वनि भीतर 
से सुनते रहें (इसके लिए ध्यान कौ तीव्रता की आवश्यकता होती हे) । एेसा सम्भव 
नहो तो इस मन्त्र को भी सात बार बोलकर भीतर से ही सुनने के बाद " सोऽदम्‌ 
मन्त्र का ही चिन्तन करते रहना चाहिए्‌। इस प्रकार कुण्डलिनी जागरण को यह 
विधि ध्यान योग ओर मन्त्र उपाय दोनों ही का सम्मिलित रूप हे । अनुभवियों के 
अनुसार इस प्रक्रिया में सर्वप्रथम दिव्य गन्धो कौ ओर फिर दिव्य प्रकाश की 
अनुभूति होती है । अंततः कुण्डलिनी जागृत हो जाती हे । 


शिव पुराण मेँ वर्णित एक अन्य विधि | 

रात्रि के दूसरे प्रहर (अर्धरात्री) में श्मशान अथवा किसी निर्जन एकात्‌ स्थान 
पर, अथवा घर्‌ ही के शुद्ध, हवादार, एकांत कक्ष मे ( पर्वत की चोटी, पवित्र नदी 
का तट, वन, तीर्थं स्थान, सरोवर, शमशान, भूगभं ( तहखाना ) या गुप 
आदि ध्यान साधनाओं के सर्वोत्तम स्थान माने गणए दै.) । पासन अथवा सिद्धासन 
लगाकर चर्मासन पर बेटे । 

तीन प्राणायामों द्वारा मन को स्थिर करं । फिर त्रिबन्ध लगाकर दोना हाथो के 
अगूठो को कानों मे डालें, तजर्नियों से दोनों नेत्रां को ठक तथा मध्यमाओं से दोनों 
नासापुरों को दबाएं ओर अनामिकाओं से मुख को बन्द कर। (यदि प्राणायान का 


197 





अभ्यास है तो अन्तर्कुम्भक करके एेखा करं । यदि नहीं हे तो उगलियों को इस प्रकार 
स्थापित करे कि नासिका से श्वास ली जा सके.व छोडी जा सके । किन्तु श्वास 
प्रश्वास यथा सम्भव गहरे ओर धीमी गति में विलम्ब के साथ हों, जिससे मन कौ 
एकाग्रता में सहायता मिले) । अव अपने कानों के भीतर होने वाली गड़गड़ाहट 
अथवा अग्नि के धधकने के समान उत्पन्न होने वाली ध्वनि पर ध्यान केन्द्रित करे । 
मन से अन्य सभी विकल्प हटा दे 


८. ॐ छि 9 













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(4 
र 


@ 9 => प 


शिव पुराण मे वर्णित विधि 


ब्रह्माण्ड सन्तके देहे यथा दें व्यवस्थितः ।' ( शिव संहिता) के सूत्रानुसार 
शरीर ब्रह्मांड सं्ञक हे । जो कुछ इस ब्रह्मांड में है, वह सब इस शरीर मे भी है । अतः 
ध्यान द्वारा शरीर ही में ब्रह्मांड दर्शन हो जाता दै। 

अभ्यास के दृढ हो जाने पर शरीर के भीतर कौ गड़गड़ाहर समाप्त होकर 
नदियों मेँ जल बहने कौ ध्वनि के समान स्पष्ट नाडियों में रक्त बहने की ध्वनि सुनाई 


198 








ऋणया प्षयीययाणणणषणणणणणणिय पष निन 





देने लगती हे । जैसे-जैसे श्रोत्र शक्ति व केद्दियकरण बढता है अन्य भीतरौ सुक्ष्म 
ध्वनियां भी स्पष्ट होती चली जाती हैँ । अन्त मेँ जब शंख, घंटा आदि के नाद सुनाई 
देने पड तो साधक को सिद्धि के निकट समञ्चना चाहिए। | | 


रुद्रयामल तन्त्र में वर्णित विधि 
रुद्रयामल तन्त्र में कुण्डलिनी साधना कौ एक अन्य संत्रविधि भी दी गयी हे। 
संकल्प, न्यास, विनियोग आदि कौ विधि पूर्ववत्‌ है। पर मन्त्र बदल जाएगे। 
सर्वप्रथम गुरु पूजन गुरु णाद्का यनत्रसे करे 
तेजोमय-महाविद्या शेखराञ्चितमस्तकाम्‌। 
रक्तां चतुर्भुजा वन्दे श्रीविद्यागुरुपाट्काम्‌॥। 
उपर्युक्त मन्त्र से गुरु पादुका का ध्यान कर निम्न मंत्र बोले-- 
ॐ हंसः शिवः सोहं सोहं हंसः शिवः हंसः शिवः सोहं हंसः दस््फे 
हसक्षमललवरयू नमः ॥ 
फिर विघ्नेश्वर का स्मरण कर ' ॐ गं गणपतये नमः ।' कहें । 
प्राणवायु का निरोध करके मूलाधार में चतुर्दल कमल के बीच त्रिकोण रूप 
पीठ में स्थित ज्योतिर्लिंग को आवेष्टित कर वहां विराजमान साढे तीन वलयवाली 
कुण्डलिनी को ॐ हूं ' बीज द्वारा जागृत करे ओर 'एे हीं श्रीं ' मन्त्र का जप कसते 
हए ध्यान करें । विनियोग के लिए निन मन्त्र है- 
विनियोग 
(अस्य श्रीकुण्डलिनी मन्त्रस्य शक्तिः ऋषिः गायत्रीच्छन्दः चेतना 
कुण्डलिनी शकतर्देवता एँ बीजं श्रीं शवित्तः हीं कीलकं मम श्रीकुण्डलिनी 
प्रीत्यर्थे जपे विनियोगः ।) 
न्यासादि के सन्त्र निननलिखित हे- 


ऋष्यादिन्यास 

(शक्ितितऋरवये नमः ( शिरसि ), गायत्रीच्छन्दसे नमः ( मुख ), चेतना 
कुण्डलिनी शक्ति देवतायै नमः ( हृदये ), ए बीजाय नमः ( गुह्यो )' श्री शक्तये 
नमः ( पादयोः ), हीं कौलकाय नमः ( नाभो ), विनियोगाय नमः ( सवबगि )।) 


कर-ह दयादिन्यास 
ए, ही, श्री,षे, ही, श्रीं। 
(इन छः बीजं से क्रमशः अंगूठे, तर्जनी, मध्यमा, अनामिका, कष्ट ५ र 
करतल- करपृषठ मेँ तथा हदय, सिर, शिखा, कवच, नेत्रत्रय ओर अस्त्रन्यास कर) । 
फिर निम्न मंत्रसे ध्यान करे 


199 





ध्यान 

सिन्दूरारुण विग्रहां त्रिनयनां माणिक्य मोलिकस्फुटत्‌तारानायक्छ शेखरां 
स्मितमुखी मापीनवक्षोरुहाम्‌। 

पाणिभ्यापलिपूर्णं रत्न चषकं रक्तोत्पलं बविश्रतीं, सौम्यां रत्न घटस्थ 
सखव्यचरणां वन्दे पराम्विकाम्‌। 


जाप 
फिर मानसिक पूजा के ब्राद मूलमन्त्र ए हं श्रीं ' का यथा शक्ति रुद्राक्ष 
माला पर जाप करं । ओर अन्त में जप-समर्पण कर क्षमा प्रार्थना करं । फिर कुण्डलिनी 
स्तोत्राष्टक आदि का पाठकर, गुरु को प्रणाम करं । वैसे भी प्रातः उठते ही कुण्डलिनी 
स्तोत्राष्टक का ध्यान करते हुए पाठ करने से योगक्ति क्र प्राि होती हे। 
( कुण्डलिनी स्तोत्राष्टक, कुण्डलिनी कवच एवं स्तुति व स्तोत्रादि अन्त में दिए गए 
हे) 
विशेष 
इस साधना को रात्रि में ही कर, क्योकि यह ' रुद्रयामल तन्त्र ' के अन्तर्गत 
हे । ओर ' यामल ' तन्त्र ही रत्रि में किए जाने वाले कर्म से सम्बन्धित होता है । जेसा 
कि यामल कौ परिभाषा में कहा गया है-- 
' यामिनी विहितानि कर्माणि समाश्रीयन्ते तत्‌ तन्त्रं नाम यामलम्‌ ।' (रात्रि 
मं विहित कर्मो का जिसमे आश्रय लिया जाए वह तन्त्र यामल कहलाता है) | 
मन्त्र जाप के साथ कवच स्तोत्रादि का पाठ इसलिए किया जाता है कि कवच 
से साधक का कवचीकरण (सुरक्षा) हो जाती है ओर विजय निश्चित हो जाती हे। 
इसीलिए ' दगसिप्त्रती' मे कहा हे- 
...तस्मात्‌ सर्वप्रयतेन कवची भवसर्वदा॥ 
कवचेनावृतो नित्यं यत्र यत्रापि गच्छति ।... 
(अतः सन प्रकार से कवचीकरण सदा करना चाहिए विना कवच से आवृत्त 
हुए कहीं भी न जाना चाहिए । सदैव/नित्य कवच पाठ करना चाहिए) । 
इसी प्रकार- सहस्रनाम, अष्टक आदि के प्रयोग से 72000 नाडयो में 
चेतना जागृत होती है, जिससे साधना मे सफलता मिलती है ओर स्तोत्र के पाठसे 
मन को प्रसनता, कष्ट से मुविति तथा देवता कौ कृपा या प्रसन्नता प्राप्त होती है । 
जैसा कि 'कृलाणवि तन्त्र में कहा गया है-स्तोक, स्तोकेन मनसः. 
परमरप्रीतिकारणात्‌। स्तोत्रसन्दरणाद्‌ दविः स्तोत्रमित्यभिधीयते ॥ 
2110 


200 











सिद्द्रिदायक कवच व स्तोत 


आधारे परदेवता भवानताधः कुण्डली देवता, 
देवानामधिदेवता त्रिजगतामानन्दपुञ्जस्थिता । 
मूलाधार निवासिनी त्रिरमणी या ज्ञानिनी, मालिनी, 
सा मे मात॒मनुस्थिता कुलपथानन्देकबीजानना॥ 
इस स्तोत्र को प्रणव से सम्पुटित करके पाठ करने पर सर्वसिद्धि व सर्व॑सुख 
होता हे, साथ ही पाठटकर्ता ' कुण्डली पुत्र ' ही बन जाता हे अर्थात्‌ मां कुण्डलिनी उसे 
अपना लेती है । कुण्डली कवच का प्रातः तीन बार, दोपहर 2 बार ओर सायं एक 
लार पाठ करने का भी विधान हे। 
ॐ ईश्वरी जगतां धात्री ललिता सुन्दरी परा। 
कुण्डली कुलरूपा च पातु मां कुलं चण्डिका॥। 
इस कवच के साथ विभिन अंगों में रक्षा की भावना से पाठ करने ओर इसं 
भोजपत्र पर लिखकर धारण करने से भी सर्वसिद्धि होना कहा गया हे । 
ध्यान योग अआथवा तंत्र-मंत्र किसी भी उपाय से सर्वप्रथम कुण्डलिनी जागृत 
करनी चाहिए । तभी अन्य मन्त्रादि व पूजनादि कुछ प्रभाव देते है । बिना कुण्डलिनी 
जागृत हए यह सब व्यर्थ सिद्ध होते हैँ जैसा कि ' गौतमीय तन््र' मे कहा है-- 
मूलपदमे कुण्डलिनो यावनिद्रायिता प्रभो। 
तावत्‌ किंचिन्न सिद्धयेत्‌ मन््र-यन्त्रार्थनादिकम्‌॥ 
जागर्ति यदि या देवी बहुभिः पुण्यसंचयेः। 
तत्‌ प्रसादमायाति मन््र-यन्त्रार्चनादिकम्‌॥ 
अर्थात्‌-- मूलाधार में कुण्डलिनी जब तक सुप्त रहती हे, तब तक मन्त्र, यन्त 
भजन-पूजनादि कुछ भी सिद्ध नहीं होते। ओर जब उनके पुण्यो के प्रभाव से यहं 
देवी जागृत हो जाती है तो उसकी कृपा से मन्त्र, यन्त्र, भजन- पूजनादि सभी सफल 
हो जाते हैँ। | 
ज्ञानेश्वरी गीता' में कुण्डलिनी जागरण कौ विधि एवं प्रक्रिया का उत्पन! 
होने वाले परिवर्तनं तथा प्रभावों के साथ विस्तृत वर्णन मिलता हे। पाठकों के 
ज्ञानवर्धन के लिए उसे हम ज्यों का त्यों प्रस्तुत कर रहे हँ । व| 
ज्ञानेश्वरी गीता में श्रीकृष्ण ने अर्जुन को इस प्रकार उपदेश दिया दै-' पंडली 





201 


को जंघा के साथ मिलाते हुए पैर को इस प्रकार मोड ओर तलुए को इस प्रकार टदा 
कर कि तलवे ऊपर को ओर हो जाएं । इस प्रकार एक-दूसरे के ऊपर पैर इस प्रकार 
स्थापित करें कि एडी से सीवन का स्थान दबा रहे ओर तलवे शरीर के नीचे हो 
जाएं । फिर दृढतापूर्वक मूलवबन्ध लगाकर शरीर को एडयों पर तोलते हुए नितम्बो 
सहित शरीर के पिछले भाग को थोडा-सा ऊपर इस प्रकार उठाए कि यह पता भी 
न चले कि उन्हें उठाया गया है । इस प्रकार शरीर का समस्त भाग एडियों पर आ 
जाने से मूल स्थान पर पूरा दबाव पडता हो । यह मरूलवंध नामक आसन हे । इसी को 
वच्रासन भी कहते हें ।' (वस्तुतः यह वज्रासन का विलोम प्रकार हे । कुछ विद्वान 
इसे ' स्वस्तिकासन ' का नाम देते हं | 
इस आसन के प्रभाव से आंत में संचरण करने वाला अपान वायु पीछे को 
हटने लगता है । हाथों की हथेलियां द्रोणाकार होकर अंक में अवस्थित हो जाती है 
(एेसा करना चाहिए इससे सुविधा रहती हे इस आसन में स्थित होने में) । शरीर 
दण्ड की भाति सीधा हो जाता है। आंखों कौ ऊपरी पलक बन्द हो जाती हैँ किन्तु 
निचली खुली रहती हें । अतः आंखें अधखुली हो जाती हें । दृष्टि नासिकाग्र या 
नासिका संधि लगाकर मनोवृत्तियां शान्त हो जाती हं । अपानवायु पीछे को चलने 
लगती हे ओर दबाव पड़कर फूलकर कुपित होती हई मत्त हो जाती हे । बन्धो के 
कारण मार्ग न मिलने पर वह उसी बन्ध स्थान में गडगडाने लगती हे ओर नाभि 
स्थान मे मणिपूर चक्र को बीच-बीच में धक्के देती हे। 
इसके बाद उसकी उमड़न या घुमडन शांत होती हे । तब वह सारे शरीर मे 
विचरकर बाल्यावस्था से तब तक जितना मल शरीर में संचित हो चुका है, वह सब 
निकाल देती हे। कफ ओर पित्त को आधार स्थल से निकाल देती है, रुधिर आदि 
सातो धातुओं को उलट देती है, भेद के संग्रहं को चूर्णं करती हे । हडयों में व्याप्त 
मलज्ा तक बाहर निकाल देती हे। वायु मार्ग कौ नाली का शोधन करती है। इस 
प्रकार समस्त अवयवो को शिथिलता प्राप्त हो जाती हे । नौसिखिए एेसे उपद्रवं से 
भयभीत हो जाते हं । परन्तु भयभीत नहीं होना चाहिए । बलगम, शिथिलता आदि 
व्याधियां मलों के शोधन स्वरूप उस काल मेँ उत्पनन होती हैँ पर यही अपान वायु 
उन व्याधिं का परिहार भी करती चलती है । अन्ततः यह वायु कुण्डलिनी शक्ति 
को अपने आघातों से जागृत कर डालती है । 
कातिक से फाल्गुन अथवा नवम्बर से मार्च तक का समय इस योगाभ्यास के 
लिए सर्वोत्तम हे । (किन्तु वस्ति या एनिमा द्वारा उदर शुद्धि करते रहं जिससे शरीर 
के उखडे मल बाहर निकलते रहे) ओर साधना काल में होने वाले उपद्रवं से 
भयभीत बिल्कुल नहीं हो । 
कुण्डलिनी जागृत होकर जब सुषुम्ना नाडी में प्रवेश करती है तन प्रथम 
आघात मूलाधार पर होता है । यदि तब मूलबन्ध दृढता से न लगा हो तो मल, मूत्र 
202 








यावीर्यनिकल जाता दे। भृकृटि में स्थित प्राण वायुं का प्रवाह कुण्डलिनी में खिच 
जाताहे जओौर प्राण व जपान का संयोग कुण्डलिनी को सुषुम्ना में चदा देता है । किन्तु 
उस समय भूख सरे कुपित वह अपना मुंह फैलाए आगे बढती हे ओर सर्वप्रथम 
सामने मिले अपान वायु काही भक्षण करती हे। फिर समस्त वायु का भक्षण कर 
वहां जहां - जहां अधिक मांस होता हे, वहां-वहां से मांस का भक्षण करती हई हदय, 
केभीदोएक कौर खा जाती है। शरीर के किसी अंग को वह नहीं छोडती। हाथ- 
पाव के नाखूनों तक का रस चूस लेती हे । त्वचा का सत्त्व चूस डालती है, हड़यों 
को नालियों को चूस शिरां के जाल को भी साफ कर डालती हे। इस प्रकार 
कुम्भकरणी नींद से जागी यह महाशक्ति सर्वप्रथम अपनी क्षुधा को शांत करने का 
प्रयास करती हे । परिणामतः शरीर के रोमकूप तक बन्द हो जाते हें । 

अतः तब साधक का शरीर सूखकर कृश ओर नीरस हो जाता है । उसका मानो 
सारा खून निचुड्‌ जाता हे । कुण्डलिनी शरीर से पृथ्वी ओर जल तत्तव का समस्त 
अंश खा जाती है। तब तृप्त होकर वह सुषुम्ना नाडी के पास विश्राम कर जो विष 
उगलती है शरीर में शोष रह गई प्राण वायु उस विष से अमृत के समान लाभान्वित 
होती है । उस अमृत के ही प्रभाव से प्राणवायु जीवन धारण करती है ओर शरीर को 
बाहर भीतर दोनों पार्श्वो से शीतल कर देती है ओर शरीर के नष्ट हए धर्म फिर से 
जीवन्त होने लगते हें । | 

इडा पिंगला मिलकर एक हो जाती हैँ । उनकी तीनां गांठे खुल जाती हँ ओर 
छहों चक्रों को ठकने वाले आवरण फट जाते है, बुद्धि कौ चंचलता नष्ट हो जाती हे । 
प्राणवायु कुण्डलिनी सहित सुषुम्ना में प्रविष्ट हो जाती है । इसी मध्य चन्द्रमा का 
सत्रहवीं कला के अमृत का सरोवर जो ऊपर की ओर रहता है, शनैः ङनैः टेढा 
होकर कुण्डलिनी के मुंह से लग जाता हे । उस अमृत का पान कुण्डलिनी करती हे 
ओर प्राणवायु के साथ वह अमृत समस्त अंगों मेँ व्याप्त हो जाता है । तन साधक के 
शरीर का पोषण होता है ओर वह दिव्य तेज व रूप से लाभान्वित हो, आरोग्य व 
हल्का हो जाता ठे तथा विभिन्न प्रकार की सिद्धियां सहज ही प्राप हो जाती टं । 

उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि साधना काल मेँ विभिन व्याधियां उत्पन ह 
सकती हे । किन्तु दवाओं के प्रयोग की अथवा घबराने की जरूरत नहीं हती । 
समस्त विकारौ के निकल जाने पर शरीर स्वयं स्वास्थ लाभ करता है, अंगो म॑ 
शिथिलता, कृशता, शरीर का सूखकर कांटा हो जाना आदि लक्षण भी उत्सन होते 
ठे ओर शरीर प्रायः निष्प्राण-सा हो जाता है किन्तु अभ्यास कौ निरंतरता से अंततः 
सफलता मिलती हे । सिंह को साधने के समान इसीलिए कुण्डलिनी को साधना 
न दुष्कर है ओर असावधानी, भय या अपूर्णता से स्वयं के लिए घातक ह 
जी हे | 


203 


भयमोक्षण 
कुण्डलिनी जागरण काल मे यदि भय लगे तो विष्णु भगवान के निन स्वरूप 
का ध्यान करना चाहिए-- 
शान्ताकारं भुजगशयनं पद्मनाभं सुरेशं । 
विश्वाधारं गगनसदृशं मेघवर्णं शुभांगम्‌ ॥ 
लक्ष्मीकान्तं कमलनयनं योगधिध्यान गम्यम्‌ 
वन्दे विष्णुं भव भय हरणं, सर्वलोकैक नाथम्‌ 
अर्थात्‌--शान्त स्वरूप, .शेषनागशायी, नाभि में कमल वाले, देवताओं के 
स्वामी, विश्व के आधार, गगन के समान व्यापक, विशाल, अनन्त ओर शुद्ध, 
निर्मल, मेघ के समान सांवले रंग वाले, शुभ अंगों से युक्त, लक्ष्मी के पति, कमल 
नेत्र वाले, योगियोँ के सदा ध्यान में रहने वाले, सम्पूर्ण विश्व के भय को हरने वाले 
समस्त लोगों के स्वामी श्रीविष्णु भगवान को मेँ वन्दना करता हू । 
भय मुक्ति के लिए साधना से पूर्व नित्य कुण्डलिनी देवी के कवच का पाठ 
करना भी उत्तम रहता है । | 


योग सिद्धि/सफलता प्रापि के लक्षण 
दिव्य गन्धो के अनुभूति होना, विचित्र एवं दिव्य दृश्य दिखाई पड़ना, प्राकृतिक 
रमणीय दृश्यों का दिखाई पड्ना, कभी-कभी भयानक दृश्यो का भी दिखाई पडना, 
इरन, नदी, कलरव आदि कौ ध्वनयो, संगीत लहरियों, वीणा, मृदंग आदि के स्वरो 
अथवा घंटा आदि वादों या दिव्य ध्वनियोँ का सुनाई पडना, विभिन प्रकाशो की 
अनुभूति होना आदि लक्षण योगमार्ग मे/साधना काल मेँ हों तो साधक को स्वयं को 
सिद्धि के निकट समञ्चना चाहिए । जैसा कि ' गोरक्च संहिता" में कहा गया है- 
गगन वदने प्राप्ते ध्वनिरूत्पद्यते महान्‌। 
घन्टा दीनां प्रवाद्यानां तदा सिद्िरदूरतः॥ 
अर्थात्‌-- प्राणवायु के गगन में पहुंचने पर घंटा आदि वाद्यं की महाध्वनि 
उत्पन होती हे । उस समय योगी को अपनी सिद्धि निकर जाननी चाहिए । (व्यक्तियों 
के अपने स्वभाव संस्कारादि के अनुसार लक्षणों में विभिनता भी रहती है) | 








मंत्र साधना के अन्य उपाय 
ललिता या भुवनेश्वरी देवी का एकाक्षण मनर है-- हीं '। तरयक्षरी मन्त्र है 
हीं ॐ हीं ' । ओर पज्वाक्षरी मंत्र है-एे हीं श्रीं ए हीं ।' भुवनेश्वरी का एकाक्षर 
मन्त्रं ' देवी प्रणव! के रूप मे भी प्रसिद्ध हे । इन मन्त्रँ मे से भी किसी एक मन्त्र का 
जाप कर भुवनेश्वरी उपासना कौ जा सकती हे । मन्त्र जाप के बाद-' भुवनेश्वरी 
अष्टोत्तर ़तनामस्तोत्र ' का पाठ करना चाहिए । ओर जप से पूर्वं संकल्प, विनियोग, 
न्यास आदि पूर्व वर्णित विधि से करने चाहिए । उनके मंत्र आगे पाठकों के लाभार्थं 


दे रहे हैँ (रुद्रयामल तत्र से) । 
204 


[ऋ 


विनियोग 
अस्य श्री भुवनेश्वरीमन्त्रस्य शक्तिक्रषिर्गायत्रीच्छन्दों भुवनेश्वरी देवता 
हकारो बीजम्‌, ईकारः शक्तिः रेफः कोलकं चतुर्वर्गसिद्धयर्थ जपे विनियोगः । 


ऋष्यादिन्यास 

ऋषये नमः ( शिरसि )। गायत्रीच्छन्दसे नमः ( मुखे )। श्रीभुवनेश्वरी 
देवतायै नमः ( हदये )। 

हकारबीजाय नमः ( गुह्ये )। ईकार शब्दाय नमः ( पादयोः 2 
रकारकीलाय नमः ( नाभौ )। विनियोगाय नमः ( सवगि )। 


करषडद्ग न्यास 
हा, ही, हूं, हं, हयौ, हः । (इन छः बीजों से यह न्यास करना चाहिए) । 


भुवनेश्वरी-अष्टोत्तर शतनामस्तोत्र 
(रुद्रायमल तन्त्र से उर्द्धत) 


विनियोग 
अस्य श्रीभुवनेश्वर्य्टोत्तरशतनामस्तोत्रस्य शक्ततक्रषिः गायत्रीच्छन्दः। 

श्री भुवनेश्वरी देवता मम चतुर्वर्गसाधनार्थ पाठे, पूजने विनियोगः । 

न्यास | 3 . 

(न्यास ध्यानादि उपरोक्त वणित एकाक्षर यंत्र विधि के समान ही रहेंगे) । 

स्तोत्र | | 
महामाया महाविद्या महायोगा महोत्कटा। 
माहेश्वरी कुमारी च ब्रह्माणी ब्रहारूपिणी॥1॥ 
वागीश्वरी योगरूपा योगिनी कोटिसेविता। ` 
जया च विजया चैव कौमारी सर्वमङ्कला॥2॥ 
दिङ्कला च विलासी च ज्वालिनी ज्वालरूपिणी। 
ईश्वरी क्रूरसंहारी कुलमार्गप्रदायिनी ॥ 3 ॥ 
वैष्णवी सुभगाकारा सुकुल्याकुल पूजिता। 
वामाङ्ा वामचारा च वामदेवप्रिया तथा॥4॥ 
डाकिनी योगिनीरूपा भूतेशी भूतनायिका। 
पद्मावती पद्मनेत्रा प्रलुद्धा च सरस्वती ॥5॥ 
भूचरी खेचरी माया मातङ्खी भुवनेश्वरी । 
कान्ता पतिव्रता साक्षी सुचक्षुः कुण्डवासिनी ॥ 6 ॥ 


205 ` 


उमा कुमारी लोकेश्ी सुकेशी पद्मरागिणी। 
इन्द्राणी ब्रह्मयाचाण्डाली चण्डिका वायुवल्लभा।। 7 ॥ 
सर्वधातुमयी मूतिर्जलरूपा जलोदरी । 
आकाश्ी रणगा यैव नृकपाल-विभूषणा॥ 8 ॥ 
नर्मदा मोध्दा येव कामधर्मार्थदायिनी । 
गायत्री चाथ सावित्री त्रिसन्ध्या तीर्थगामिनी॥9॥ 
अष्टमी नवमी चैव द्रम्येकाद्ी तथा। 
पौर्णमासी कुदूरूपा तिधिमूरति-स्वरूपिणी ॥ 10 ॥ 
सुरारिनाशकारी च उग्ररूपा च वत्सला। 
अनला अर्धमात्रा च अरुणा पीतलोचना। 11॥ 
लजना सरस्वती विद्या भवानी पापनाशिनी । 
नाग पाश्धरा मूतिरगाधा धृतकुण्डला। 12॥। 
क्षत्ररूपा क्षयकरी तेजस्वी  शचिस्मिता। 
अव्यक्ता व्यक्तलोका च शम्भुरूपा मनस्विनी ॥ 13 ॥ 
मातङ्खी मत्तमातङ्खी महादेवप्रिया सदा । 
देत्यक्नी चैव वाराही सर्वशटस्त्रामयी शुभा॥ 14॥ 


2 ()6 


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योगी क्ीीचयाःव साधना 
मै सावधानिया 





योगी की चर्या 
अंगानां मर्दनं कृत्वा श्रमसञ्जात वारिणा। 
कट्‌वम्ललवण त्यागी क्षीर भोजनमाचरेत्‌॥ 
ब्रहाचारी मिताहारी त्यागी योगपरायणः 
अब्दादर्ध्व भवेत्सिद्रो नात्र कार्यो विचारणा ॥ 
संदिग्धो मधुराहारी चतुर्थाशिविवजिताः। 
मुञ्चते स्वरस प्रीत्यं मिताहारी स उच्यते॥ 
कन्दोर्ध्वं कुण्डली शक्तिः शुभ मोक्ष प्रदायिनी । 
लन्धनाय च नूढ़ानां यस्तां वेत्ति वेदविद्‌ ॥ 
-- गोरक्ष संहिता 
अर्थात्‌--उक्त मुद्रा (अभ्यास) के कारण शरीर पर जो भी पसीना आए उसे 
शरीर पर ही मल लेना चाहिए । लवण ओर अम्ल रसं से युक्त भोजन न करे वरन 
दूध (गाय का) पीकर ही रहे । इस प्रकार अल्पभोजी तथा सर्वत्यागी व योगपराण 
रहे । इस प्रकार एक वर्ष से अधिक अभ्यास करने पर सिद्धि होती हे । इसमें कोई 
विचार (संशय) नहीं करना चाहिए । सुखद, स्निग्ध, मधुर ( सात्विक एवं सुपाच्य) 
आहार करे । चौ थाई पेट खाली रहं । (आधा पेट भोजन से ओर शेष आधे का आधा 
वाद में पानी से भरे। चौथाई पेट खाली रखे) । भोजन से पूर्वं ईष्टदेव को निवेदन 
 करे-वह योगी मिताहारी कहलाता है । कन्द के ऊपर शुभ मोक्ष देने वाली कुण्डलिनी 
शविति स्थित है । वह अज्ञानियोँ के लिए बन्धकारी है । उसे जो जानता है वही वेदं 
को जानने वाला है। 
योगी को साधना काल में समस्त यम, नियम व संयम का पालन करते हए 
अल्प एवं सतोहारी रहना चाहिए । अपना विहार, निद्रा व आहार संतुलित रखना 
चाहिए। सद्‌ संगति में रह अथवा एकान्त में रहँ तो ओर भी अच्छा हे । सद्‌ ग्रन्थो का 
स्वाध्याय कर, धर्म चर्चा करें । कुसंग व कुसाहित्य से बचें । व्यसनों से दूर रहं । 
ब्रह्मचर्य का विशेष ध्यान रखें । 


201 


साधना काल में सावधानियां 

¬ शुभ मुहूर्त आदि का विचार कर साधना आरम्भ करै, जिससे मन का 
उत्साह तथा विश्वास दृट्‌ हो तथा विघ्न न पड़ | 

2) मन्त्र या तन्त्र कौ साधनाएं रात्रि मे करें । ध्यान योग कौ साधना करनी हो 
तो ब्रह्म मुहूर्त में (प्रातः सूर्योदय से पूर्व) करें। 

¬ साधना के समय लंगोर धारण करें । सम्भव हो तो अन्य वस्त्र न पहनें 
मात्र कोई हल्का स्वच्छ व सूती वस्त्रं ओदें । यदि ठण्ड हो तो वस्त्र पहनें किन्तु कम ` 
से कम। कम्बल ओढा जा सकता है । 

0 आसन के लिए मृगक्लाला सर्वोत्तम हे ओर जाप के लिए रुद्राक्ष को माला। 
किन्तु जाप मं सुमेर का उल्लंघन निषिद्ध होता हे । सुमेरु आ जाने पर नेत्रो से माला 
लगाकर फिर माला पलट कर दुबारा जपना चाहिए ओर माला को मध्यमा अंगुली 
से भीतर को चलाएं (अंगूटे व अनामिका के आधार पर ।) तर्जनी का स्पर्श माला 
से जाप के समय वर्जित माना जाता है। 

0 साधना का स्थान समतल, स्वच्छ, शान्त, एकान्त, हवादार तथा रमणीय 
होना चाहिए (प्राणायामादि के अभ्यास में तो विशेष तौर पर) धूप या अगरबत्ती 
आदि का प्रयोग नहीं करना चाहिए । परन्तु देसी घी का दीपक जलाया जा सकता 
हे। साधना से पूर्वं (शंखनाद करने से, जहां तक शंख ध्वनि जाती है वहां तक 
वायुमंडल में कोटाणु नष्ट हो जाते हें अतः शंखनाद करना श्रेष्ट रहेगा) । 

¬ साधना काल में किसी व्यक्ति आदि का कक्षया उस स्थान मेँ प्रविष्ट होना 
प्रारम्भ में ध्यान भंग करता है । अतः कक्ष में प्रवेश निषेध रखें अथवा निर्जन एकान्त 
का चुनाव करे । समय एेसा रखें कि किसी के आने-जाने, दरवाजे या फोन कौ घंटी 
बजने, शोर कोलाहल होने अथवा अन्य व्यवधानों कौ सम्भावना ना के बराबर रहे । 

¬ भूगभं, सरोवर, वन, उपवन, पर्वत, नदी तट, मंदिर, तीर्थं तथा श्मशान 
आदि साधना के श्रेष्ठ स्थान होते हैँ । 

¬ दिन में जब रजोगुण प्रधान सूर्य स्वर चल रहा हो तो योग साधना न कर । 
रात्रि मं जब तमोगुण प्रधान चन्र स्वर चल रहा हो तब भी योगाभ्यास न करें । दिन 
रात दोनों अर्थात्‌ सूर्य व चन्द्र दोनो स्वरों का निरोध करके-- सुषुम्ना के समय 
योगाभ्यास करें । (अभ्यास हो जाने पर इच्छानुसार स्वर चालन को सामथ्यं उत्पनन 
हो जाती है, तब कोई दिक्कत नहीं है) जैसा कि कहा है-- 

दिवा न पूजये लिंग रात्रावपि न पूजयेत्‌। 
सर्वदा पूजयेलिंग दिवा रात्र निरोधः॥ 
| -- पवन निजय स्वरोदय 
1 चन्द्र स्वर मे एसे कार्य करं जिनमें अल्पश्रम की आवश्यकता हौ तथा सूर्य 
स्वर मेँ कठिन या अधिक श्रम वाले कार्य करें । ओर जब सुषुम्ना चले तब योग 
208 कुण्डलिनी शक्ति केसे जागृत कर 13 




















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॥ ती 14|| न्‌ 22 222 


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८3 


क ॥ ध्यान योग्य स्थान | । 
, सात्विक कार्य अथवा धर्म पूजन आदि के कार्य करने चाहिए । 
¬ साधना मे शुद्ध, धुले हए वस्त्र पहनने चाहिए तथा स्नान शौचादि स शु 
होकर साधना करनी चाहिए्‌। 
 त्रिबन्धों का तथा मेरुदण्ड के सीधे रहने का विशेष रूप से ध्यान रखे 
नतु शरीर कड़े नही, (१६।५९६)हो। 
क ¬) सात्त्विक साधनाओं मे कुशासन, रजोगुणी साधना मेँ सूत का आसन त 
गुणी साधना मे ऊन का आसन ्रष्ठ रहता हे । कुण्डलिनी जागरण की साधना 


चर्मासन 
| 209 





` 


¬ साधना निश्चित समय पर, नियमित रूप से, नियत स्थान पर ओर निश्चित 
विधि से ही होनी चाहिए। 

¬ कुण्डलिनी साधना मेँ पूर्वं दिशा में मुख करके बैठना उचित रहता हे । 
परन्तु रात्रि मे साधना करं तो पश्चिम दिशा में मुख करके वेदं । 

0 जप के समय कंठ में ध्वनि हो, होट भी हिलें परन्तु पास में बेटा व्यक्ति 
उसे सुन न सके, इतनी ही शक्ति से उच्चारण करके मंत्र बोलने चाहिए । परन्तु इस 
प्रयास से मत्र का उच्वारण अस्पष्ट या अशुद्ध न हो । 

¬ साधना काल के अपने अनुभव, मन्त्र तथा प्रक्रिया आदि को गुप्त रखना 
चाहिए । मात्र गुरु से ही परामर्श लेना चाहिए। 

0 विश्वास तथा श्रद्धा न टूटनी चाहिए । संकल्प, लगन, धैर्य तथा आत्मविश्वास 
बने रहना चाहिए । | 

¬ साधना काल में होने वाले अनुभवं कौ भयंकरता अथवा उत्पन्न होने 
वाली व्याधियो, कृशता या शिथिलता आदि से घबराना नहीं चाहिए । न ही साधना 
छोडनी चाहिए । शनैः शनैः स्वयं ही सब कुछ ठीक हो जाता है । न ही साधना काल 
मे होने वाले रमणीय अनुभवं मे आसक्त होना चाहिए। मात्र दृष्टा बनकर उन्हं 
देखना चाहिए। 

¬ साधना काल में अह, क्रोध, ईर्ष्या, लोभ, मद, मात्सर्य, काम, मोह, लिप्सा 
आदि से यथा सम्भव दूर रहना चाहिए। 

प्राप्त होने वाली उपलब्धियों अथवा सिद्धियों का प्रदर्शन नहीं करना चाहिए 
नाही किसी को बतानी चाहिए ओर न ही उनका बार-बार प्रयोग करके स्वयं 
देखना चाहिए ओर न ही उनका उपयोग ( दुर अथवा सद्‌) करना चाहिए । अन्यथा 
कलता वहीं रुक जाती हे तथा प्राप्त हुई शक्तियां लुप होने लगती हैँ । दुरुपयोग से 
साधक को अति भय उपस्थित हो जाता ठे। 

¬ लेटकर, अध बैठे होकर, खड होकर, जैसे मर्जी ओर जब मजी वाला 
सहज योग ' सिद्धांत ' तब तक हरगिज लागू न करे जब तक अभ्यास में परिपक्वता 
न हो जाए। अपितु हमारे विचार से तो इनका प्रयोग परिपववावस्था मेँ भी नही करना 
ही निरापद है। | | 

1 एक बार कुण्डलिनी जागृत हो जाए ओर भय आदि कारणों के प्रभाव से 
पुनः वापस लौट आए तो पछतावा ही रह जाता है । आवश्यक नहीं कि वह शीघ्र ही 
पुनः जागृत ह । अतः अवसर बिल्कुल न चूके । 

¬ मांस, मदिरा, तम्बाकू्‌, गांजा, सुल्फा आदि नशो, जु ओं, परस्त्रीगमन आदि 

दुर्व्यसनों तथा आत्मा को पतित करने वाले कार्यो- इट, बेरईमानी, दलाली, कपर 
आदि से साधना काल में सर्वदा दूर रहं । वैसे तो जीवन भर ही इनसे दूर रहना 
श्रेयस्कर होता है । | 

210 











अगा 211 


1 योग मागं को प्रदर्शन, प्रचार, आत्मप्रशेखा, आडम्बर, कृत्रिमता, बनावट, 
दिखावा, यश पाने को इच्छा या प्रशंसा पाने की चाह, आदि से बचते हुए अपनी 
साधना, मंत्र तथा साधना में प्राप्त होने वाले अनुभवो, उपलब्धियों, शक्तियो व. 
चमत्कारो को यथासम्भव गुप्त रखना चाहिए । जेसा कि समस्त अध्यात्म विषयक 
ग्रन्थों ने एक स्वर में स्वीकारा है- 

| यं न सन्तं न चासन्तं नाश्रुतं न बहुश्रुतम्‌ । 

न सुवृतं न दुवृतं, वेद कश्चित्‌ स दाहाणः \। 
गृढधर्माश्रितो विद्भानन्ञातचरितं चरेत्‌) 
अन्थवक्व जङवचापि घृक्लन्ध महीं चरते ॥ 
अर्थात्‌- जिसको न सन्त, न असंत, न आश्रुत, न बहुश्रेत (गुखनाम व प्रसिद्ध), 
न सुवृत (सजन), न दुर्वृत (दुर्जन) दही जानता हौ (अर्थात्‌ इनमें से कोड जिसे न 
जानता हो यानि जिसको योग्यता, विद्रता, साधना व शक्तियां सभी प्रकार के लोगों 
से गुप हों) वही ब्रह्मनिष्ठ योगी है । गूढ धर्म का पालन करता हुओं विद्वान योगी 
दूसरों से अज्ञात चरित रहे । अन्ध के समान, जड़ के समान ओर मूक के समन ` 
पृथ्वी पर विचरण करे । . 
1 सिद्धियों व शक्तियों को प्रापि के लिए विशेष चक्रं अथवा पंचमहाभूतं 
पर भावना सहित ध्यान किया जाता है। परन्तु सात्विक साधना करने बाले पाठकों 
को इस लम्बे तन्त्र मार्ग मे न पड़कर मात्र ध्यान ही करना चाहिए । जैसा कि कहा 
है-"यदि तननोपक्चास्यात्‌ मोक्षाद्‌ श्रष्टः ।' ' योगयुश्चाकर' (यदि इन सिद्धियों को 
आकांक्षां रही तो साधक मोक्ष पथ से भ्रष्ट हो जाएगा) । ओर- से सषाधातुपसगां 
व्युत्थाने सिद्धयः । -- योगदर्छन 
(ये सिद्धियां समाधि में विघ्न रूप हँ । जागृत अवस्था में सिद्धियां है) 
निरुदेश्य साधना अधिक फलदायिनी होती दै ओर चरम लक्षय तक जा पर्हुचती हे । 
निरुदेश्य होने से उसके नियमों मे थोडा बहुत योल भी पड़ जाए तो चल जाता हे। 
जबकि सोदेश्य साधना कठोर नियम का पालन चाहती है ओर सिद्धि प्रापि तक ही 
प्रगति करती है । जैसा कि ' त्रिपुरा तन्त्र' मे आया है- जो देवता भोग देते हे वे मोक्ष 
नहीं देते, जो मोक्ष देते दँ वे भोग नहीं देते, परन्तु कुण्डलिनी दोनों ही प्रदान करती 
है ।' 
0 भोजन के सम्बन्ध में अवश्य सावधान रहँ, क्योकि भोजन के स्थूल भाग 
कामल, मध्यम भागका मांस व सुक्ष्म भाव कामन बनता हे । इसीलिए यथा 


अन तथा मन ' कहते हैँ । जैसा अननं मनुष्य खाता है उसके देवता भी वैसा ही अन 
राते हे | 


(1 ¬ 


कूण्डलि नी स्तुति 


(' कुण्डलिनी सिद्धि मत्र साधना' से) 
ॐ नमस्ते देव॒ देवेशि, योगीश प्राणवल्लभे । 
सिच्िदे वरदे मातः, स्वयंभू लिंग वेष्ठिते॥ 
ॐ प्रसुप्त भुजंगाकारे सर्वदा कारण प्रिये। 
काम कलान्विति देवि, ममाभीष्ट कुरुष्व च॥ 
ॐ आसारे घोर संसारे भव रोगात्‌ कुलेश्वरि। 
सर्वदा रक्ष॒ मां देवि, जन्म संसार सागरात्‌॥ 
मूलोनिद्र॒ भुजंगराज सदृशी यान्तीं सुषुम्नान्तर, 
भित््वाआधार समहमाश॒ विलसत्सोदामिनी सनिभाम्‌। 
 व्यामोम्भोज गतेन्द॒ मण्डलगलद्‌ दिव्यामृतौधे पलुतंपतिं, 
सम्भाव्य स्वगृहागतां पुनरिमां संचिन्तयेत कुण्डलीम्‌।। 1॥ 
हसं नित्य मनन्त मद्रयगुणं स्वाधारतो निर्गता, 
शक्तिः कुण्डलिनी समस्त जननी हस्तेगृहीत्वा च तम्‌। 
याता शम्भुनिकेतनं परसुखं तेनानुभूय स्वयं, 
यान्ति स्वाश्रयमर्क कोरि रुचिका ध्येया जगन्मोहिनी ।॥ 2 ॥ 
अव्यक्तं परविम्बमंयित रुचिं नीत्वा शिवस्यालयं, 
शक्ति कुण्डलिनी गुणत्रय व पुर्विद्युल्लता सनिभा। 
_ आनन्दामृत कन्दगं पुरमिदं चन्द्रार्क कोटि प्रभ, 
संवीक्ष्य स्वगृहं गता भगवती ध्येयान वद्या गुणैः ॥ 3 ॥ 
मध्ये वर्त्म समीरण द्रयमिथस्लध्यद संक्षो भज, 
शब्दस्तोममतीव्य तेजसि तडित्कोटि प्रभाभास्वराम्‌। 
उद्यन्तीं समुपास्महे नवजप सिन्दूर सानद्रासुणां, 
सान्द्रानन्द सुधामयीं परशिवं प्राप्तं परां देवताम्‌॥ 4॥ 
गगनागमनेषु जा लांधिनी सा, तनुयाद योग फलानि कुण्डली । 
मुदिता कुल कामधेनु रेषा, भजतां वांछित कल्पवल्लरी ॥ 5 ॥ 
आधारस्थित शक्ति विन्दु निलयां नीवारशुकोयमां, 
नित्यानन्दमयीं गलत्पर सुधावरषे प्रनोधप्रदैः। 


212 











प्णयकययाकयययणणथणाणणयणणणणणकक 





सिक्त्वा षट्‌सरसीरुहाणि विधिवत्कोदण्ड मध्योदितां, 
ध्यायेद्‌ भास्वर बन्धु जीव रुचिरां संविन्मयी देवताम्‌॥ 6 ॥ 
हत्पंकेरूह भानुबिम्ब निलयां विद्युल्लता मन्थरां, 
ल्रालाकर्णि तेजसा भगवती निर्भत्सयन्ती तमः। 
नादाख्यां परमर्धचन्द्र॒ कुटिलां संविन्मयीं शाश्वतीं, 
यान्तिमक्षर रूपिणीं विमलधीर्ध्यायेद्िण्भुं तेजसाम्‌।। 7 ॥ 
भालेपूर्ण निश्ापति प्रतिभटां नीहारहारत्विषा, 
सिंचन्तीम्‌ मृतेन देवममितेना नन्दयन्ती तनुम। 
वर्णानां जननी तदीयवपुषा संव्याप्य विश्वं स्थितां, 
ध्यायेत्‌ सम्यगनाकुलेन मनसा सविन्यमयीमम्बिकाम्‌।। 8 ॥ 
मले भाले हदि च विल सदर्णरूपा सावित्री, 
पीनो तुंगस्तनभरनम तननमध्यादेछा महेशी । 
चक्रे चक्रे गलित सुधया सिक्तगात्नी प्रकामं, 
दद्या दद्या श्रियमविकलां वाडमयी देवतां बः॥ 9॥ 
आधारबन्ध प्रमुख क्रियाभिः समुत्थिता कुण्डलिनी सुधाभिः 
त्रिधाम बीज शिवमर्चयन्ती, शिवांगना वः शिवमातनोत्‌॥ 10 ॥ 
निजभवन निवासा दुच्यरन्ती विलासैः, 
पथि-पथि कमलां चारुहासं विधाय। 
तरुण तरणि कान्तिः कुण्डली देवता, . 
सा शिव सदन  सुधाभिर्दीपयेदात्पतेजः ॥ 11 ॥ 
सिन्दूर पुञ्जनि भमिन्दु कलावतं, समानन्द पूर्णनयन त्रय शोभिवक्म्‌ 
आपीनतंग कुचनम्रमनंगतन्त्रम्‌, शम्भोः कलत्रममितां श्रिया मातनोतु॥ 1 ॥ 
वर्णैर्णविषड्दिशार विकला चक्षु विभक्तेः क्रमा, 
दाद्यैः सादिभिरावृतान्‌ क्षहयुतेः षट्‌चक्र मध्यानिमान। 
डाकिन्यादिभिराश्चितान्‌ परिचितान्‌ ब्रह्मादिभिर्देवते, 
भिन्दाना परदेवता त्रिजगतां चित्ते विधतां मुदम्‌॥ 13 ॥ 
आधाराद्‌ गुणवृत्तशोभिततनुं लिंगत्रयं सत्वर, 
भिन्दन्तीं कमलानि चिन्मय घनानन्द प्रबोधोत्तराम्‌। 
संक्षुब्ध धुव मण्डलामृतकर प्रस्यन्द मानामृत, 
स्तोत्रः कन्दलिता ममन्दतडिदाकारां शिवां भावयेत्‌ ॥ 14 ॥ 
मूलाधारे त्रिकोणे तरुण तरुणि भाभास्वरे विभ्रमन्तं, 
कामं बालार्क कालानल जरठ कुरगांक कोरि प्रभाभम्‌। 
विद्युन्माला सहस््रद्युति रुचिरलसद्रन्धु जीवाभिरापं ॥ 15 ॥ 


213 


तस्योध्वं विस्फुरन्तीं स्फुट रुचिरतडित्प॑ज भाभास्वरांगी, 
मुदगच्छन्तीं सुषुम्नामनु सरणि शिखामालातेन्दु बिम्बम्‌ । 
चिन्मात्रां सूक्ष्म रूपां जगदुदयकरीं भावनामात्र गम्यां, 
मूलं सा सर्वधानां स्फुरति निरूपमा हुंकृतोदंचितोरः ॥ 16 ॥ 
नीता सा शनकैरधौमुख सहस््रारारुणान्जोदरे, 
रच्योतत्पूर्ण शशांक विम्ब मधुनः पीयूष धारा स्त्रतिम्‌। 
रक्तांमन्रमयीं निपीय च सुधानिष्यन्द रूपा विषोद्‌, 
सूयोऽप्यात्म निकेतनं पुनरपि प्रोत्थाम पीत्वा विषोत्‌॥ 17 ॥ 


यो अभ्यस्यनु दिनमेवमास्मनो, 
अन्तबीजाश्म्‌ दुरितं जराप मृत्यु रोगान्‌ 
जित्वासौ स्वयमिव मूर्ति माननंग, 
संजीवेच्चिरमति नीलकेशा जाल ।॥ 18 ॥ 
कुण्डलिनी कवचम्‌ ` 
आनन्द भेरवी 


अथ वक्ष्ये महादेव! कुण्डली कवचं शुभम्‌ 
परमानन्दं सिद्धं सिद्ध-वृन्द निषेवितम्‌ 
यद्धृत्वा योगिन! सर्वे धर्माधर्म-प्रदर्शकाः। 
ज्ञानिनो मानिनो धीरा विचरन्ति यथा नराः ॥ 
सिद्धयोऽप्यणिमाद्यार्च करस्थाः सर्वदेवताः । 
एतत्‌ कवच-पाठेन देवेन्द्रो योगि-राड्‌ भवेत्‌॥। 
ऋषयो योगिनः सर्वे जटिलाः कुल-भैरवाः। 
प्रातः काले त्रिवारं च मध्याह्ने वार युग्मकं ॥ 
सायाह्ने वारमेकं तु पठेत्‌ कवचमुत्तमम्‌। 
पाठादेव महायोगी कुण्डली -दर्शन लभेत्‌। 
विनियोग 
ॐ अस्य श्रीकुलऽकुण्डली-कवचस्य ब्रह्मा ऋषिः गायत्री छन्दः, 
भ्रीकुल-कुण्डली देवता, सर्वाभीष्ट-सिद्रयर्थे पाठे विनियोगः । 
कवच 
ॐ ईश्वरी जगद्धात्री ललिता सुन्दरी परा। 
कुण्डली-कुल-रूपा तु पातु मां कुल चण्डिका॥ 
शिरो में ललिता देवी पातुग्राख्या कपोलकम्‌। 
ब्रह्म-रन्धेण पुटिता भ्रूमध्यं पातु मे सदा॥ 
214 





नेत्र-ज्रयं महाकाली कालाग्नि-भकषिका शिखां। 
दन्तावलीं विशालाक्षी ओष्ठमिष्टान वासिनी ॥ 
काम-बीजात्मिका विद्या अधरं पातु मे सदा। 
ल-युगस्था गण्ड-युग्मं माया-बीजा रस प्रिया॥ 
भुवनेशी कर्णयुग्मं चिबुकं ` कनकेश्वरी। 
कपिला में गलं पातु सर्व-बीज-स्वरूपिणी॥ 
मातुका-वर्ण-पुटिता कुण्डली कण्ठमेव च। 
हदयं काल-पुत्री च कङ्काली पातु मे मुखम्‌॥ 
भुज-युग्मं चंड-दुर्गां चण्ड-दोर्दंण्डखण्डिनी । 
स्कन्ध-युग्मं स्कन्द्-माता कपोलं क्रोध कालिका॥ 
अंगुल्यग्रे कुलानन्दा श्रीविद्या नख-मण्डलम्‌। 
कालिका भुवनेशानी पष्ठ-देशं सदाऽवतु ॥ 
पाश्व-युग्मं महा-वीरा वीरासन-धराऽभया। 
पातु मां कुल-दर्भस्था नाभिमुद्रमम्बिका॥ 
कटि देण पृष्ठ-संस्था महा-महिष-घातिनी) 
लिंग स्थानं महा-मुद्रा भग-माला मनु-प्रिया॥ 
भगीरथ-प्रिया धूम्रा मूलाधारं गणेश्वर । 
चतुर्दलं काम-विद्या दलाग्रं मे वसुन्धरा 
धीर्धरा धारणाख्या च ब्रह्माणी पातु मे मुखम्‌। 
मेदिनी पातु कमला वाग्देवी पूर्वेगं दल॥ 
छेदिनी दधक्चिणे पाश्वे पातु चण्डा महा-तपा। 
चण्ड-घण्टा सदा पातु योगिनी वारुणं दल॥ 
उत्तरस्थं दलं पातु पृथिवीमिन्द्र-लालिता। 
चतुष्कोणं काम-विद्या ब्रह्म॒ विद्ाष्ट कोणकं ॥ 
अष्ट॒ दलं सदा पातु सर्व-वाहन-वाहना॥ 
चतुर्भुजा सदा पातु डाकिनी कुल चज्चला॥ 
सेदस्था मदनाधारा पातु मे चारु पकजम्‌। 
स्वयम्भ लिंगं चार्वगी कोटराक्षीो पमासनम्‌॥ 
कदम्बं बनगा पातु कदम्ब वन वासिनी 
वैष्णवी परमा पमाया पातु मे वैष्णवं पदम॥ 
षड्दलं राकिणी पातु रगिनी काम वासिनी । 
कामेश्वरी कामरूपा कृष्णं मे पीत वासस ॥ 
धनुः सा वन दुर्गा मे शंख मे शंखिनी शिवा। 
चक्रं चक्रेश्वरी पातु कमलाक्षी गदां मम॥ 
215 


पद्यं मे पद गन्धा च पदम माला मनोहरा। 
लादि लान्ताक्षरं पातु लाकिनी लोक पावनी ॥ 
षड्दले स्थित देवांश्च पातु कैला वासिनी। 
अग्नि वर्णां सदा पातु गलं ये परमेश्वरी ॥ 
मणिपूरं सदा पातु मणि-माला-विभृषणा। 
दा पत्रं दश वर्णं डादिकान्तं त्रि-विक्रमा।॥ 
पातु नीला महाकाली भद्रा भीमा सरस्वती। 
अयोध्या वासिनी देवी महा पीठ निवासिनी ॥ 
वाग्भवाद्या महाविद्या कुण्डली कालरूपिणी । 
दश्च्छद शतं पातु सुद्र रुद्रात्मकं मम॥ 
सूक्ष्मा सुक्ष्मतरा पातु सुक्ष्म स्थान निवासिनी। 
राकिनी लोक जननी पातु कूटाक्षरान्विता॥ 
तेजसं पातु नियतं रजकी राज पूजिता। 
विजया कुल बीजस्था तवर्ग तिमिरापहा॥ 
चद्धात्मिका मणि ग्रन्थि भेदिनी पातु सर्वदा। 
भग माला भृगु सुता पातु मां नाभि वासिनी ॥ 
नन्दिनी पातु सकलं कुण्डली काल कल्पिता। 
हत्‌ पदां पातु कालाख्या धूम्र वर्णां मनोहरा॥ 
दल द्वादश्ञ वर्णं च भास्करी भाव सिद्िदा। 
पातु मं परमा विद्या कवर्ग काम चारिणी ॥ 
चवर्ग चारु रसनां व्याघ्रास्या टंक धारिणी। 
टकारं पातु कृष्णाख्या हाकिनी पातु कालिका ॥ 
ठंकुरागी ठकारं मे बीज भाषा महोदया। 
इश्वरं पातु विमला मम हत पदा वासिनी॥ 
कणिकां काल सन्दर्भां योगिनी योग॒ मातरं। 
इनद्राणी वारुणी पातु कुल माला कुलांतरं॥ 
तारिणी शक्ति माता च कण्ठ वाक्यं सदाऽवतु । 
विप्रचित्ता महोग्रोग्रा प्रभा दीप्ता घनामला॥ 
वाक्‌ स्तम्भिनी वज्र देहा वैदेही वृष वाहिनी, 
उन्मत्तानन्द चित्ता च कुले्ी सा भगातुरा॥ 
मम॒ षोडश पत्राणि पातु मातृतया स्थिता। 
सुरान्‌ रक्षतु वेदज्ञा सर्वभाषा च कालिका॥ 
ईश्वरददासन गता प्रपायान्मे सदाशिव, 
शाकम्भरी महामाया शाकिनी पातु सर्वदा॥ 
216 


भवानी भव माता च पयादू भ्रूमध्य पंकजं। 
द्विदलं व्रत कामाख्या अष्टाग सिद्धि दायिनी ॥ 
पातु मामखिलानन्दा मनोरूपा जप प्रिया। 
लकारं लक्षणाक्रान्ता सर्वं लक्षण लक्षणा॥ 
करष्णा जिन धरा देवी क्षकारं पातु सर्वदा। 
द्वि दलस्थं सर्वदेवं सदा पातु वरानना॥ 
बहुरूपा विश्वरूपा हाकिनी पातु चण्डिका। 
हरा पर शिवं पातु मानसं पातु पञ्चमी ॥ 
षट्‌ चक्रस्था सदा पातु षट्‌ चक्र कुल वासिनी। 
अकारादि क्षकारान्ता विन्द॒ सर्वं समन्विता ॥ 
मातुकार्णां सदा पातु कुण्डली ज्ञान कुण्डली । 
पूर्णं काली गति प्रेता पूर्ण गिरि तटं शिवा॥ 
उद्खीयानेश्वरी देवी सकलं पातु सर्वदा। 
कैलास पर्वतं पातु कैलास गिरि वासिनी ॥ 
डाकिनी शाकिणी शक्तिर्लाकिनी काकिनी कला। 
शाकिनी हाकिनी देवी षट्‌ चक्रादीन्‌ प्रपातु मं॥ 
कैलासाख्यं सदा पातु पञ्चानन दनूदभवा। 
हिरण्या वर्णां रजनी चन्द्र सूर्याग्नि भक्षिणी॥ 
सहस्र दल पदां मे सदा पातु कुलाकुला। 
सहस दल पदास्था दैवतं पातु भरवी॥ 
काली तारा षोडशाख्या मातंगी पदावासिनी । 
शशि कोटि गलद्‌ रूपा पातु मे सकलां तनुम्‌, 
रणे घोरे जले दोषे युद्ध वादे श्मशा के। 
सर्वत्र गमने ज्ञाने सदा मां पातु शेलजा॥ 
पर्वते विविधाव से विनाशे पातु कुण्डली। 
पापादि ब्रह्म रन्धरान्तं सर्वाकारं सुरेश्वरी ॥ 


सदा पातु सर्वं ॒विद्या सर्वं॑ज्ञानं सदा मम। 

नव॒ लक्ष महा-विद्या दशदिक्षु प्रपा माम्‌॥ 

फल श्रुति | 
प्रसिद्धद । 


इत्येतत्‌-कवचं देव! कुण्डलिन्याः 
ये पठन्ति ध्यानयोगे योग-मार्ग-व्यवस्थिताः " 
ते यान्ति मोक्ष-पदवी मेहिके नात्र सशयः, 
मूल पदो मनोयोगं कृत्वा हदायसन-स्थितः ॥ 


217 


मन्त्री ध्यायेत्‌ कुण्डलिनीं सृक्ष्म-पद्य-प्रकाशिनीं । 
धर्मोदयां द्यारुूढामाकाश-स्थान-वासिनीं ।। 
अमृतानन्द-रसिकां विकलां सकलां सितां। 
असितां रक्त-रहितां विरक्तां रक्त विग्रहाम्‌॥ 
रक्त-नेत्रां कुल-क्षिप्तां ज्ञानाकुल-जलोज्ज्वलां । 
विश्वाकारां मनोरूपां मूले ध्यात्वा प्रपूजयेत्‌ ॥ 
यो योगी कुरुते एव स सिद्धो नात्र संशयः। 
रोगी रोगात्‌ प्रमुच्येत बद्धो मुच्येत बन्धनात्‌॥ 
वस्तु-प्रियमवाप्नोति वस्तु हीनं पठेद्यादि। 
पुत्र-हीनो लभेत्‌ पुत्रं योग-हीनो भवेद्‌ वी ॥ 
कवचं धारयेद्‌ यस्तु शिखायां दक्षिणे भुजे। 
वामा वामकरे धृत्वा सर्वाभीष्टमवाप्नुयात्‌॥ 
स्वं रोप्ये तथा ताग्रे स्थापयित्वा प्रपूजयेत्‌। 
स भूयात्‌ कुण्डली पुत्रो यदि ध्यानं दृढ भवेत्‌॥ 


(रुद्रयामल तन्त्र से) 


218 


) () 


कुण्डलिनी अष्टक 


(सद्रायमलतन्त्र से) 
जन्मोद्धार निरीक्षणीय तरुणी वेदाहि बीजादिमा, 
नित्यं चेतसि भाव्यते भुवि कदा सद्वाक्यं संचारिणी ॥ 
मां सा तु प्रिय दास भाव कपटं संघायते श्रीधरे, 
धात्रि! त्वं स्वयमादि देव वनिता दीनाति दीनं पशुम्‌॥ 1॥ 
रक्ताभाम॒त॒ चद्िका लिपि मयी सर्पाकृतिर्निदिता, 
जागत कूर्म समाश्रिता भवती त्वं मां समालोकय॥ 
मांसोद्गन्ध कुगन्ध दोष जडितं वेदादिकार्यान्वितं, 
स्वल्पान्यामल चन्द्र कोटिकिरणे नित्यं शरीरं कुरु॥ 2॥ 
सिद्धार्थी निज दोष वित्‌ स्थल गतिर्व्याजीयते विद्यया 
कुण्डल्याकुल मार्ग मुक्तनगरी माया कुमार्गः श्रिया। 
यदेवं भजति प्रभात समये मध्याह कालेऽथवा, 
नित्यं यः कुल कुण्डली जप पदाम्भोजं स सिद्धो भवेत्‌॥ 3 ॥ 
वायव्याकाशञ चतुर्दलेऽति विमले वाञ्छा फलान्यालके, 
नित्यं सम्प्रति नित्य देह घटिता सांकेतिता भाविता। 
विद्या कुण्डलमानिनी स्वजननी माया क्रिया भावव्यते, 
यैस्तैः सिद्ध कुलोद्भवः प्रणतिभि सत्‌ स्तोत्रके शम्भुभिः॥ 4॥ 
वेधः छ़रंकरमोहिनीं त्रिभुवनच्छायापटोद्गामिनी, 
संसारादिमहाऽसुखप्रहरणी तत्र॒ स्थिता योगिनी। 
ब्रहयज्ञान-विनोदिनी स्वभुजगा सृक्ष्मातिसृक्ष्मा परा, 
ब्रहयज्ञान-विनोदिनी कुलकुटी-व्याघातिनी भाव्यते ॥ 5॥ 
वन्दे श्रीकुलकुण्डलीं त्रिवलिभिः सागेः स्वयम्भुव-प्रियां, 
प्रावेष्टयाम्बर-मार-चित्तचपलां बालाबलां निष्कलाम्‌। 
या देवी. परिभाति वेद वदना सम्भावनी तापिनी, 
स्वेष्ठानां शिरसि स्वयम्भु वनिता तां भावयामि क्रियाम्‌॥ 6 ॥ 
वाणीकोरि-मृदंगनादमदना-निःणिकोटि- ध्वनिः, 
प्राणेशी रसराशिमूलकमलोल्लासैक -पूर्णानना । 


219 


आषाढोद्‌भव-मेघवाज-नियुत-ध्वान्तानना स्थायिनी, 
माता सा परिपातु सुक्ष्मपथगा मां योगिनां शटंकरी॥7॥ 
त्वामाश्ित्य नरा व्रजन्ति सहसा वैकुण्ठ-केलासयो 
रानन्देक-विलासिनी शशिशतानन्दाननां कारणाम्‌। 
मातः श्रीकुलकुण्डलि प्रियकर काली-कुलोदीपनेः, ` 
तत्स्थानं प्रणमामि भद्रवनिते मामुद्धर त्वं पशुम्‌।॥ 8॥ 
फलश्रुति 
कुण्डली-शक्ति-मार्गस्थं स्तोत्राष्टक-महाफलम्‌। 
यः पठेत्‌ प्रातरुत्थाय स वै योगी भवेद्‌ ध्रुवम्‌॥ 
क्षणदेव हि पाठेन कवि-नाथो भवेदिह। 
पावित्री कुण्डली योगी ब्राह्मणी नो भवेन्महान्‌॥ 
इति ते कथितं नाथकुण्डली-कोमलं स्तवम्‌। 
एतत्‌ स्तोत्र प्रसादेन देवषु गुरु गष्पितिः॥ 
स्वे देवा सिद्धि युतः अस्या स्तोत्र प्रसादतः। 
द्वि परार्ध चिरञ्जीवी ब्रह्मा सर्व सुरेश्वरः॥ 
त्वष्टापि मम निकटे स्थितो भगवती पतिः। 
मां विद्धि परमां शक्तिं स्थूल सुम स्वरूपिणीम्‌॥ 
सर्व॑ प्रकाश करणीं विन्ध्य पर्वत वासिनीम्‌। 
हिमालय सुतां सिद्धां सिद्ध मन््र॒ स्वरूपिणीम्‌ 
स्वभूता महा बुद्धि दायिनीं दानवा पहाम्‌। 
स्थित्युत्पत्ति लयकरीं करुणा सागर स्थिताम्‌॥ 
ज्ञानदां वृदधिदां ज्ञान रत माला कला पदाम्‌। 
सवं तेजः ` स्वरूपा भामनन्त॒ कोटि विग्रहाम्‌॥ 
दरिद्र धनदां लक्ष्मीं नारायण मनोरमाम्‌। 
सदा भावय शम्भो! त्वं योग॒ नायक पण्डितः॥ 
कुल मा्गं॑स्थितो मन्त्री सिद्धिमाप्नोति निश्चितम्‌। 
वीर र भाव प्रसादेन दिव्य भावमाप्नुयात्‌॥ 
दिव्यं भावं वीर भावं ये गृह्णन्ति नरोत्तमाः। 
तच्छा कल्पटुम लता पतयस्ते न संशयः॥ 
भव ग्रहण मात्रेण मम ज्ञानी भवेन्नरः 
अवश्यं सिद्धिमाप्नोति सत्यं सत्यं न॒ संशयः॥ 


220 








लघु स्तुतिः: कुण्डलिनी 
मूलोनिद्रभुजङ्कराज सदृशीं यान्तीं सुषुम्नान्तरं। 
भित्वाधारसमूहमाशु विलसत्‌ सौदामिनी सन्विभाम्‌॥ 
व्योमाम्भोजगतेन्दुमण्डलगलद्‌ दिव्यामृतौधेः पतिं। 
सम्भाव्य स्वगृहागतां पुनरिमां सच्िन्तये कुण्डलीम्‌॥ 
उद्घाटन कवच 
प्रार्थना-चक्र नायिकाओंचक्रावरणगत देवियों को, ' रुद्रायमलतंत्र 
मूलाधारे स्थिता देवि, त्रिपुरा चक्रनायिका। 
न॒जन्म॒ भीति-ना्ार्थ, सावधान सदाऽस्तु मे॥1॥ 
स्वाधिष्ठानाख्य चक्रस्था, देवी श्री त्रिपुरेशिनी। 
पशुबुद्धिं नाशयित्वा, सर्वेश्वर्यप्रदाऽस्त॒ मे॥ 2॥ 
मणिपूरे स्थित देवी, त्रिपुरेणीति विश्रुता। 
स्त्री जनमम-भीतिनाशार्थं, सावधाना सदाऽस्तु मे॥ 3॥ 
स्वस्तिके संस्थिता देवी, श्रीमतत्रिपुरसुन्दरी। 
श्लोक भीति-परित्रस्तं, पातु मामनद्यं सदा॥4॥ 
अनाहताख्य-निलया, श्रीमत्‌ त्रिपुरवासिनी। 
अन्ञान भीतितो रक्षा, विदधातु सदा मम॥5॥ 
त्रिपुराश्रीरिति ख्याता विशुद्धारण्य स्थलस्थिता। 
जरोद्‌भव-भयात्‌ पातु, पावनी परमेश्वरी ॥ 6 ॥ 
आज्ञा चक्रस्थिता देवी त्रिपुरमालिनी तु या। 
सा मूत्युभीतितो रक्षा, विदधातु सदा मम।।7॥ 
ललाट-पदा-संस्थाना, सिद्धा या त्रिपुरादिका। 
सा पातु पुण्यसम्भूतिभीति संद्यात्‌ सुरेश्वरी ॥ 8॥ 
त्रिपुराम्बेति विख्याता, शिरः पद्मे सुसंस्थिता । 
सा पाप भीतितो रध्चां, विदधात सदा सम॥१॥ 
ये पराम्बापदस्थान गमने विध्॒ सम्ययाः। 
तेभ्यो रक्षतु योगेशी, सुन्दरी सकलार्तिहा ॥ 10 ॥ 


विशेष 
(यदि चक्र साधानाएं करनी दै तो ' कुण्डलिनी कवच' से पूं इस 
"उद्घाटन कवच ' को अवश्य करे । क्योकि इसमें चक्रों कौ देवियों से पर्थना क 
गइ हे ।) जेसा कि पहले कह आए हैँ, बहुत से ग्रन्थों मे चक्रों की संख्या 8, बहुत 
मे 9, बहुतों मे 10 मानी गई है । तथापि प्रमुख चक्र 7 ही है । सम्भवतः सात चक्र 

के बीच पड़ने वाली तीन ग्रन्थियों को ही बहुत से विद्वानों ने चक्र माना दै अथवा 
221 


प्रमुख चक्रों के अलावा जो अन्य द्ुटपुर चक्र हैँ उन्हे भी मुख्य को गिनती में ही 

- माना है । बहरहाल- यहां 10 चक्रों के गणित से उनकी दस देवियों से प्रार्थना की 

हि । इस दृष्टि से दस चक्र उनकी दस देवियां तथा उनके भय (जिनका वे नाश करती 
है) इस प्रकार है- 


च्ल [` चना 


` मूलाधार चक्र त्रिपुरा नृजन्म 
स्वाधिष्ठान चक्र त्रिपुरेशिनी पशुबुद्धि 
मणिपूरक चक्र त्रिपुरेशी स्त्रीजन्म 
स्वास्तिक चक्र त्रिपुरसुन्दरी शोक 
अनाहत चक्र त्रिपुरवासिनी अ्लान 
विशुद्ध चक्र ` त्रिपुराश्री जरा (बुढापा) 
आज्ञा चक्र ` त्रिपुरामालिनी मृत्यु 
| ललारपद्म चक्र त्रिपुरासिद्धा भीतिसंघ 
| सहस्रार चक्र  त्रिपुराम्बा पाप 
` | बिन्दु चक्र सुन्दरी योगेशी विघ्न 


( भुवनेश्वरी, ललिता, त्रिपुर सुन्दरी आदि कुण्डलिनी देवी के ही पर्याय नाम 
हे । साधक इनसे भ्रमित न हों ।) 





भुवनेश्वरी-अष्टोत्तर शतनामस्तोत्र 
( * रुद्रायमल तन््र' से उर्दछधत ) 
विनियोग 
अस्य श्रीभुवनेश्वर्यष्टोत्तरशतनामस्तोत्रस्य शक्तिकऋऋषिः गायत्रीच्छन्दः । 
 श्रीभुवनेश्वरीदेवता मम चतुर्वर्गसाधनार्थ पाठे । पूजने विनियोगः । 


न्यास 
| (न्यास ध्यानादि उपरोक्त वर्णित एकाक्षरी मंत्र विधि के समान ही रहेगे)। 
स्तोत्र | 

महामाया महाविद्या महायोगा महोत्कटा । 

महोश्वरी कुमारी च ब्रह्माणी ब्रह्माणी ब्रह्मारूपिणी ॥ 1 ॥ 
वागीश्वरी सोगरूपा योगिनी कोटिसेविता। 
जया च विजया चैव कौमारी सर्वमङ्कला॥ 2॥ 
हिङ्ुला च विलासी च ज्वालिनी ज्वालरूपिणी। 


ईश्वरी क्रूरसंहारी कुलमार्गं प्रदायिनी ॥3॥ 
222 





वैष्णवी सुभगाकारा सुकुल्याकुलपूजिता। 
वामाङ्ा वामचारा च वामटेवप्रिया तथा ॥4॥ 
डाकिनी योगिनीरूपा भूतेशणी -भूतनायिका। ` 
पद्मावती पद्मनेता प्रबुद्धा च सरस्वती ॥ 5॥ 
भूचरी खेचरी माया मातङ्खी भुवनेश्वरी । 
कान्ता पतिव्रता साक्षी सुचक्षुः कुण्डवासिनी ॥6॥ 
उमा कुमारी लोकेशी सुकेशी पदमरागिणी। 
इन्द्राणी ब्रह्माचाण्डाली चण्डिका वायुवल्लभा ॥ 6 ॥ 
सर्वधातुमयी मूर्तिर्जलरूपा  जलोदरी। 
आकाी रणगा चैव नृकपाल-विभूषणा॥ 7॥ 
नर्मदा मोक्षदा चैव कामधर्मार्थदायिनी। 
गायत्री चाथ सावित्री त्रिसन्ध्या तीर्थगामिनी॥9॥ 
पौर्णमासी कुहूरूपा तिथिमूर्ति- स्वरूपिणी ॥ 10 ॥ 
सुरारिनाशकारी च उग्ररूपा च वत्सला। 
अनला मर्धमात्रा च अरूणा पतिलोचना॥ 11॥ 
लजना सरस्वती विद्या भवानी पापनाशिनी। 
नागपाशधरा मूर्तिरगाधा धृतकुण्डला॥ 12॥ 
क्षत्ररूपा क्षयकरी तेजस्विनी शुचिस्मिता, 
अव्यक्ता व्यक्तलोका च शम्भुरूपा मनस्विनी ॥ 13 ॥ 
मातद्घी मत्तमातद्खी महादेवप्रिया सदा। 
दैत्यघ्नी चैव वाराही सर्वशस्त्रमयी शुभा॥ 14॥ 


 सिद्धकुञ्जिकास्तोत्र 
(शीघ्र मन्त्रसिद्धि के लिए "रुद्रयामल त्र ' से). 


अथ मन्त्र ` 
ॐ एँ हीं क्लीं चामुण्डायै विच्ये ॥ ॐ ग्लौ हं क्लीं जूं सः ज्वालय 
ज्वालय ज्वल ज्वल प्रज्वल प्रज्वल 
ए हीं क्लीं चामुण्डायै विच्ये ज्वल हं सं लं क्षं फट्‌ स्वाहा। 
इतिमन्त्र ` | 
नमस्ते स्द्ररूपिण्यै नमस्ते मधुमर्दिनि। 
नमः कैटभहारिण्यै नमस्ते महिषार्दिनि॥ 1॥ 
नमस्ते शम्भहवच्ये च निशुम्भासुरघातिनि॥ 2 ॥ 
जाग्रतं हि . महादेवि जपंसिद्धंकुरुष्व मे। 
कारी सृष्टिरूपायै हीकारी प्रतिपालिका॥ 3 ॥ 








क्लींकारी कामरूपिण्ये बीजरूपे नमोरस्तु ते। 
चामुण्डा चण्डघाती च यैकारी वरदायिनी 4॥ 
विच्ये चाभयदा नित्यं नमस्ते मन्त्ररूपिणी ॥ 5 ॥ 
धां धीं धं धूर्जटेः पत्नी ( वां वीं वृं वां वीं वृं वागधीर्वरी । 
क्रांक्रीं क्र कालिका देविशांशींशुं मं शुभं कुरु॥6॥ 
हं हं हंकाररूपिण्ये जं जं जं जम्भनादिनी। 
भ्रां श्रीं भ्रुं भैरवी भद्रे भवान्यै ते नमो नमः।।7॥ 
अंकचंयटंनतंपंयंणशंवींद्ूंषे वीं हं क्ष 
धिजाग्रं धिजाग्रं त्रोटय त्रोटय दीप्रं कुरु कुरु स्वाहा। 
पांपींपुं पार्वती पूर्णां खां खीं खूं खेचरी तथा 8॥ 
सां सीं सं सप्ती . देव्या मन्त्रसिद्धिं कुरुष्व मे। 
इदं तु कुञ्जिकास्तोत्रं म्र जागतिहेतवे। 
अभक्ते नैव दातव्यं गोपितं रक्ष पार्वति॥ 
यस्त॒ कुञ्जिकया देवि हीनां सप्ततीं पठत्‌। 
न तस्य जायते सिदधिरण्ये रोदनं यथा॥ 
(शिव पार्वती संवाद) 


श्री कुण्डलिनी सहस्रनाम स्तोत्र 
(रुद्रायमल तन्त्र से) 
विनियोग 


अस्य श्रीमहाकुण्डली-साष्टोत्तरशत-सहस्रनाम स्तोत्रस्य ब्रह्मा-ऋषिः, 
जगती छन्दः, भवगती श्रीमहाकुण्डली देवता, सर्व योग-समरद्धि-सिद्धयथं 
पाठे विनियोगः। 
ऋष्यादि-न्यास 


श्रीब्रह्मषये नमः शिरसि । जगती-छन्दसे नमः मुखे । भगवती श्रीमहा- 
कुण्डलिनी -देवताये नमः हदि । सर्व-योग-समृद्धि-सिद्धयर्थे पाठे विनियोगाय 
नमः अञ्जलौ) | 

(विनियोग एवं न्यास आदि कौ विधियां पूर्ववत दही रहेंगी । मन्त्र बदल जाए, 
जो कि ऊपर दे दिए गए हं । इसके बाद कुण्डलिनी देवी का हदय मेँ ध्यान करते हुए 
निनलिखित स्तोत्र का पाठ करे) । 


स्तोत्र 


कुलेश्वरी कुलानन्दा कुलीना कुल-कुण्डली, 
श्रीमन्महा-कृण्डली च कुल-कन्या कुल-प्रिया॥1॥ 
224 कुण्डलिनी शक्ति केसे जागृत करें -14 


कुल-क्षेत्र-स्थिरता कोलो कुलीनार्थ-प्रकाशिनी, 
कुलाया कुल-मार्गस्था कुल-शास्त्रार्थ-पातिनी॥ 2 ॥ 
कुलज्ञा कुल-योग्या च कुल-पुष्प-प्रकाशिनी, 
सुकुलीना कुलाध्यक्षा कुल-चन्दन-लेपितां ॥ 3 ॥ 
कुल-गर्भासना कुल्ला कुलच्छात्रा कुलात्मजा, 
कुलीना नाग-ललिता कुण्डली कुल-पण्डिता ॥ 4॥ 
कुल-द्रव्य-प्रिया कौला कलि-कन्या कुलान्तरा, 
कुल-काली कुलामोदा कुलश्गब्दोत्भवाकुला॥ 5 ॥ 
कुल-रूपा कुलोदभूता कुल-कुण्डलिवासिनी, ` 
कुलाभिनना कुलात्पनना कुलाचार-विनोदिनी॥ 6 ॥ 
कुल-दृक्ष-समुद्भूता  कुल-माला कुल-प्रभा, 
कुलज्ञा कुल-मध्यस्था कुल-कङ्कण-शोभिता॥ 7 ॥ 
कुलोत्तरा कोल-पूजा कलालापा कुल-क्रिया, 
कुल-भेदा कुल-प्राणा कुल-देवी कुल-स्तुतिः।॥ 8 ॥ 
कौलिका कालिका काल्या कलि-भिना कलाकला, 
कलि-कल्मष-हन्री च कलि-दोष-विनाशिनी ॥। 9॥ 
कट्काली केवलानन्दा कालज्ञा काल-धारिणी, 
कोतुको कौमुदी केका काका काक-लयान्तरा॥ 10 ॥ 
कोमलांगी करालास्या कन्द-पूज्या च कोमला, 
कशोरी काक-पुच्छस्था कम्बलासन-वासिनी ॥। 11॥ 
केैकेयी-पूजिता कोला कोल-पुत्री कपिध्वजा, 
कमला कमलाक्षी च कम्बलाश्वतर्‌-प्रिया॥ 12॥ 
कलिका-भग-दोषस्था कालज्ञा काल-कुण्डली, 
काव्यदा कविता-वाणी काल-सन्दर्भ-भदिनी ॥ 131 
कुमारी करूुणाकारा कुरु-सेन्य-विनाशिनी, 
कान्ता कुलागता कामा कामिनी काम-नाशिनी ॥ 14 ॥ 
कामोद्धवा काम-कन्या केवला काल-घातिनी, 
केलास-शिखरारूढा केलास-पत्ति-सेविता ॥ 15 ॥ 
कैलाश-नाथ-नमिता केयूर-हार-मण्डिता, 
कन्दपां कठिनानन्दा कुलगा कोच-कृत्यहा । 16 ॥ 
कमलास्या कटोरा च कोट-रूपा कटि-स्थिता, 
कन्देर्वरी कंद-रूपा कौलिका कंद्-वासिनी ॥ 17 ॥ 
कटकस्था काम-नीजा कृच्छाकृच्छगुणोदया, 
कृच्छानन्दा कृच्छ-पूज्या कृच्छहा कुच्छ रक्षिका ॥ 18 ॥ 
225 





कारणांगी कृच्छ-वर्णां कलिता ` कोकिल-स्वरा, 
कांची-पीठ-स्थिता कांची काम-रूप-निवासनी ॥ 19 ॥ 
कूटास्था कूट-भक्षा च काल-कूट विनाशिनी, 
कामाख्या कमला काम्या कामराज-तनूद्धवा । 20 ॥ 
कामरूप-धरा कम्रा कमनीया कविप्रिया, 
कञ्जानना कञ्ज-हस्ता कञ्च-पत्रायतेश्चषणा। 21 ॥ 
काकिनी कामरूपस्था कामरूप-प्रकाशिनी, 
कोला-विध्वंसिनी कड्का कलङ्का्क-कलद्धिनी।॥। 22 ॥ 
म्रहाकुल-नदी कर्णां कर्ण-काण्ड-विमोहिनी, 
काण्डस्था काण्ड-करूणा कर्मकस्था कुटुम्बिनी ।॥ 23 ॥ 
कमलाभा कल्पा कल्ला करुणा करुणामयी, 
करुणे्ी करा-कत्रीं कर्तृ-हस्ता कलोदया ।॥। 24 ॥ 
कारुण्य-सागरोद्‌भूता कारुण्य-सिंधु-वासिनी, 
कातिकेश्ी कार्तिकस्था कातिक-प्राण-पालिनी । 25 ॥ 
करुणा-निधि-पूज्या च करणीया क्या कला, 
कल्पस्था कल्प-निलया कल्पातीता च कल्पिता ॥ 26 ॥ 
कुलपा कुल-विक्ञाना करपिणी काल-रात्रिका, 
कैवल्या कोकरस्था कल-मंजीर-रञ्जिनी ॥ 27 ॥ 
कलयन्ती काल-जिहा किकरासन-कारिणी, 
कुमुदा कुलानन्दा कोशल्याकाश्-वासिनी ॥ 28 ॥ 
कसापहास-हन्त्री च केवल्य-गुण-सम्भवा, 
एकाकिनी अक-रूपा कुवला कर्कट-स्थिता।। 29॥ 
कर्काटका कोष्ठ-रूपा कूट-वहि-कर-स्थिता, 
कूजन्त मधुर-ध्वानं कामयन्त सुलक्षणा ॥ 30 ॥ 
केतकी -कुसुमानन्दा केतकी -पुष्प-मण्डिता, 
कपूर-पूर-रुचिरा कपूर-भक्षण-द्विया ॥ 31 ॥ 
कपाल-पात्र-हस्ता च कपाल चद्ध धारिणी, 
कामधेनु स्वरूपा च कामधेनुः क्रियान्विता ॥ 32 ॥ 
कश्यपी काश्यपा कुन्ती केश्णान्ता केण मोहिनी, 
काल क्त्री कूप कत्री कुलपा काम चारिणी ।॥ 33 ॥ 
कुकुमाभा कजलस्था कमिता कोप घातिनी, 
केलिस्था केलि कलिता कोपना कर्पट स्थिता॥ 34॥। 
कालातीता कालविद्या कालात्म-पुरुषोद्धवा, 


कष्स्था कष्ट कष्टस्य कुष्टह कष्टहा कुशा ॥ 35 ॥ 
226 


कलिका स्फुट कत्रीं च काम्बोजा कामला कुला, 
कुशलाख्या काक कुष्ठा कर्मस्था कूर्मं मध्यगा। 36 ॥ 
कुण्डलाकार चक्रस्था कुण्ड गोलोद्धवा कषणा, 
कपित्थाग्र वसाकाशा कपित्थरोध कारिणी।॥ 37॥ 
काहोडी, काहड़ा, क्ाडा ककला भाषकारिणी, 
कनका कनकाभा च कनकाद्रि निवासिनी ॥ 38॥ 
कार्पास यज्ञ॒ सूत्रस्था कूट ब्रहयार्थं साधनी, 
कलञ्ज भकषिणी क्रूरा पुञ्जा कपि स्थिता 39॥ 
कपाली साधना रता कनिष्टाकाश्ला वासिनी, 
कुञ्जरेश्ी कुञ्जरस्था कुञ्जरा कुञ्जरां गतिः॥ 40 ॥ 
कञ्जस्था कुञ्ज रमणी कुञ्ज मन्द्र वासिनी, 
कुपिता कोप शून्या च कोपाकोप तिव्िता॥ 41 ॥ 
कपिजलस्था कापिजा कपिजल तरुद्धवा, 
कुन्ती प्रेम कथाविष्टा कुन्ती मानस पूजिता॥ 42 ॥ 
कुन्तला कुन्त हस्ता च कुल कुन्तल मोहिनी, 
कान्तांधरि सेविका कान्त शुक्ल कोशलावती ॥ 43 ॥ 
केशि हन्त्री ककुत्स्था च ककुत्स्थ वनं वासिनी, 
कैलास शिखरानन्दा कैलास गिरि पूजिता 44॥ 
कीलाल निर्मलाकारा कीलाल सुग्ध कारिणी, 
कुतुका कुटुनी कुंडा कूटनामोद कारिणी! 45 ॥ 
क्रौकारी क्रौकरी काशी कुहू शब्दास्था किरातिनी, 
कूजन्ती सर्व वचनं कारयन्ती कृताकृतं ॥ 46 ॥ 
कृपा निधि स्वरूपा च कृपा सागर वासिनी, 
केवलानन्दा निरता केकव्लानन्द कारिणी}! 47॥ 
कयिला कृमि दोषघ्ी कृपा कपट कुटिता, 
कृश्चांगी क्रम भंगस्था किंकरस्था कट स्थिता॥ 48॥ 
कान्त रूपा कान्त रता काम रूपस्य सिद्धिदा, 
काम रूप पीठ देवी काम रुपाकुजा कुजा।॥ 49॥ 
काम रूपा काम विद्या काम रूपादि कालिका, 
काम रूप कला काम्या काम रूप कुलेश्वरी ॥ 50 ॥ 
काम रूप जनानन्दा काम रूप कुशाय धीः, 
काम रूप कराक्छाणा काम रूप तसु स्थिता।॥ 51॥ 
कामात्मजा काम कला काम रूप विहारिणी, 
काम शास्त्रार्थं मध्यस्था काम रूप क्रिया कला।॥ 52 ॥ 
227 


काम रूप महा काली काम रूप यञो मयी, 
काम रूप रमानन्दा काम रूपादि कामिनी ॥ 53 ॥ 
कुल मूला काम रूप पदा _ मध्य निवासिनी, 
कृतांजलि प्रिया कृत्या देवी स्थिता कटा॥ 54॥ 
कटका काटका कोटि कटि घण्ट विनोदिनी, 
कटि स्थूल तरा काष्ठा कात्यायन सु सिद्धिदा ॥ 55 ॥ 
कात्यायनी काचलस्था काम चन्द्रानना क्था, 
काश्मीर देश निरता काश्मीरी कृषि कर्मजा ॥ 56 ॥। 
कृषि कर्म॑स्थिता कौर्मं कूम पष निवासिनी, 
काल चण्टा नारद रता कल मञ्जीर मोहिनी । 57॥ 
कलयन्ती शत्र वर्गान्‌ क्रोधयन्ती गुणागुण, 
कामयन्ती सर्वं कामं काशटयन्ती जगत्‌ त्रय।॥ 58 ॥ 
कौल कन्या काल कन्या कौल काल कुलेश्वरी, 
कोल मन्दिर संस्था च कुल धर्म विडम्विनी ॥ 59॥ 
कुल धर्म रताकारा कुल धर्म विनाशिनी, 
कुल धर्म पण्डिता च कुल धर्म समृद्धिदा॥ ८0 ॥ 
कौल भोग मोश्चदा च कौल भोगेन्द्र योगिनी, 
कौल कर्मा नव कुला वेत चम्पक मालिनी ॥ 61 ॥ 
कुल पुष्पं माल्य कान्ता कुल पुष्प भवोद्मवा, 
कोल कोल हरा करा कौल कर्म प्रिया परा॥62॥ 
काशी स्थिता काश कन्या काशी चक्षु प्रिया कुशा, 
काष्ठासन प्रिया काका काक पश्चक कालिका।॥ 64॥ 
कपाला कुल कत्री च कपाल शिखर स्थिता, 
कथना कूपणा श्री दा कृपी कृपण सेविता ॥। 65 ॥ 
कर्मनी कर्म गता कर्माकर्म विवर्जिता, 
कर्मं सिन्द रता कामी कर्मज्ञानं निवासिनी । ८6॥ 
कर्म धर्मं सुज्लीला च कर्म धर्म व्शंकरी, 
कनकान्न सुनिर्माण महासिंहासन स्थिता॥ 67॥ 
कनक ग्रन्थि माल्याद्या कनक ग्रन्थि भेदिनी, 
कनकोद्धव कन्या च कनकाम्भोज वासिनी । 68 ॥ 
काल कूटादि कूटस्था किटि शब्दान्तर स्थिता, 
कक पश्चि नाद मुखा कामधेनुद्धवा कला।॥ 69॥ 
कंकणाभा धरा करदा कर्मदा कर्दम स्थिता, 
कर्टमस्थ जलाच्छनना कर्मस्थ जन प्रिया॥ 70॥ 
228 


कमटस्था कार्मुकस्था कम्रस्था कंस नाशिनी, 
कस प्रिया कंस हन्बी कसान्ञान क्रालिनी॥71॥ 
काञ्चनाभा काञ्चनदा कामदा क्रमदा कदा, 
कान्त भिन्ना कान्त चिंता कमलासन वासिनी ।॥ 72 ॥ 
कमलासन सिद्िस्था कमलासन देवता, 
कुत्सिता कुत्सित रता कुत्सा शाप विवजिता॥ 73॥ 
कुपुत्र रक्षिका कुल्ला कुपुत्र मानसा पहा, | 
कुज रक्ष करी कौजी क्ुव्जाख्या कुल्ज विग्रहा ॥ 74 ॥ 
कुनखी कूप विक्षुस्था कुकरी कुधनी कुदा, 
कु-प्रिया कोकिला नन्दा कोकिला काम दायिनी ॥ 75 ॥ 
कु कामिनी कुबुद्धिस्था कूपं वाहन मोहिनी, 
कुलका कुल लोकस्था कुशासन सिद्धिदा ॥ 76॥ 
कौशिकी देवता कस्या कन्नाद नाद सुप्रिया, 
कु सोष्ठवा कु मित्रस्था कुभित्र शत्रुं घातिनी।। 77॥ 
कु ज्ञान निकरा कुस्था कुजिस्था कर्जदायिनी, 
ककर्जां कर्ज कारिणी कजं बद्ध विमोहिनी ॥ 78॥ 
कर्ज शोधन क्त्री च कालास््र धारिणी सदा, 
कु गतिः काल सुगतिः कलि बुद्धि विनाशिनी ॥ 79 ॥ 
कलि काल फलोत्यना कलि पावन कारिणी, 
कलि पाप हरा काली कलि सिद्धि सु सुश्ष्मदा॥ 80॥ 
कालिदास वाक्य गता कालिदास सु सिद्धिदा, 
कलि-शिक्षा-काल-शिक्षा कन्द्-शिक्षा-परायणा ।॥ 81 ॥ 
कमनीय भावरता कमनीया कमनीय सु भक्तदा, 
कर काजन-रूपा च कक्षा वाद कराकरा॥ 82॥ 
कञ्चु-वर्णां काक-व्णां क्रोष्ट॒रूपा कपामला, 
कोष्ठ नाद रता कीता कातरा कातर प्रिया॥ 83॥ 
कातरस्था कातराज्ञा कातरानन्द कारिणी, 
कार मर्द तरुद्भूता का मर्द विभक्चिणी। 84॥ 
कष्ठ हानिः कष्ट दात्री कष्ट लोक विरक्ति दा, 
काया गता काय सिद्धिः काया नन्द प्रकाशिनी ॥ 85 ॥ 
काय गन्ध हरा कुम्भा काय कुम्भा कठोरिणी, 
कठोर तरु संस्था च कठोर लोक नाशिनी ॥ 86॥ 
कुमार्ग स्थापिता कुत्रा कार्पास तरु सम्भवा, 
कार्पास वृक्ष सूत्रस्था कु वर्गस्था करोत्तरा\' 87॥ 
229 | 


कर्णाट कर्णं सम्भूता कार्णाटी कर्णं पूजिता, 
कणस्त्रि रक्षिका कर्णां कर्णा कर्णं कुण्डला ।॥ 88 ॥ 
कुन्तलादेा नमिता कुट्म्बा कुम्भ कारिका, 
करणास रासना कृष्टा कृष्ण हस्ताम्बुजाजिता ।॥ 89 ॥ 
कृष्णांगी कृष्ण ॒ देहस्था कु देशस्था कु मंगला, 
क्रूर कर्म॒ स्थिता कोरा किरात कुल कामिनी । ०0 ॥ 
काल वारि प्रिया कामा काव्य वाक्य प्रिया क्रुधा, 
कंज लता कौमुदी च कुज्योत्सना कलन प्रिया ॥ 91 ॥ 
कलना सर्वं भूतानां कपित्थ वन वासिनी, 
कटु निम्ब स्थिता काख्या क वर्गाख्या का वर्गिका 1 92 ॥ 
किरातच्छेदिनी कार्या कार्य कार्य विवजिता, 
कात्यायनादि कल्पस्था कात्यायन सुखोदया ॥ 93 ॥ 
कुक्षेत्रस्था कुलाविघ्ला करणादि प्रवेशिनी, 
कांकाली किकला काला कीलिता सर्वं कामिनी ।॥। 94 ॥ 
कीलितापेक्षिता कूटा कूट कुंकुम चययिता, 
कुकुमागन्ध निलया कुटुम्ब भवन स्थिता॥ 95॥ 
कुकृपा कारणानन्दा कविता रस मोहिनी, 
काव्य शास्त्रानन्द रता काव्य पूजा क वीरवरो ॥ 96 ॥ 
कटकादि हस्ति रथ हय दुन्दुभि शब्दिनी, 
कितवा क्रूर धूर्तस्था केका शब्द्‌ निवासिनी ॥ 97 ॥ 
कै केवलाम्बिता केता केतकी पुष्प मोहिनी 
कै कैवल्य गुणोद्वास्या कैवल्य धन दायिनी ॥ 98 ॥ 
करी धनीद्ध जननी काश्चताश्च कलंकिनी 
कुडुवान्ता ` काति शांताकांक्चषा पारम दहंस्यगा। ००॥ 
कत्री चित्ता कांत वित्ता कृष्णा कृषि भोजिनी 
कुकुमासक्त॒हदया केयूर हार मालिनी ।। 100 ॥ 
कोश्वरी केशवा कुम्भा कैशोर जन पूजिता, 
कालिका मध्य निरता कोकिलं स्वर गामिनी । 101 ॥ 
कुर देह हरा कुम्बा कुदुम्बा कुर मेदिनी, 
कुण्डलीश्वर संवादा कुण्डलीश्वर मध्यगा ॥ 102 ॥ 
काल सृक्ष्मा काल यज्ञा काल हार करी कहा, 
कहलस्था कलहस्ता कलहा कलहं करी ॥ 103 ॥ 
कुरंगी . श्री कुरगस्था कोरंगी कुण्डलपहा, 
कुल लक्ष्मीः कृष्ण बुद्धिः कृष्णा ध्यान निवासिनी ॥ 104 ॥ 
230 


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कुतवा काव लता कृतार्थं करणी कुसी, 
कलनकस्था कःस्वरस्था कलका दोष भंगजा॥ 105 ॥ 
कुसुमाकार कमला कुसुम स्रग्‌ विभूषणा, 
किजल्का केतवाका्ा कमनीय जालोदया॥ 106 ॥ 
ककार कूट सर्वागी ककाराम्बर मालिनी, 
काल भेद करा काटा कपं वासा ककुत्स्थला॥ 107 ॥ 
कुवासा कवरी करवां कूसवी कुरु पालिनी, 
कुरु पृष्ठा कुरु श्रेष्ठा कुरूणां ज्ञान नाशिनी ॥ 108 ॥ 
कुतूहल रता कांता कुव्याप्ता क्ट बन्धना, 
कषायण तरुस्था च कषायण रसोद्धवा ॥ 109 ॥ 
कवि विद्या कुष्ट हन्त्री कुष्ठ॒ शोक विसर्जनी, 
काषठासन गता कार्याश्रया काश्रय कोलिका॥ 110 ॥ 
कालिका कालि संत्रस्थ कोलिक ध्यानवासिनी 
क्लप्तस्था क्लप्त जननी क्ल॒प्तच्छन्ना कपिध्वजा ॥ 111 ॥ 
केावा केशवानन्दा केश्यादि दानवापहा, 
केशवांगज कन्या च केशवांगज मोहिनी ॥ 112 ॥ 
किशोरार्चन योग्या च किशोर देव देवता, 
कांतश्री करणी कुल्या कपटाप्रिय घातिनी ॥ 113 ॥ 
कुकाम जनिता कौचा कोचास्था कोच वासिनी, 
कूपस्था कूप बुदधिस्था कूप माला मनोरमा॥ 114 ॥ 
कुल पुष्पाश्रया काति क्रमदा क्रमदा क्रमा, 
कुविक्रमा कुक्रमस्था कुण्डली कुण्ड देवता ॥ 115 ॥ 
कौण्डिल्य नगरोद्धूता कौडिल्य गोत्र पूजिता, 
कपिराज स्थिता कापी कपि बुद्धि बलोदया॥ 116 ॥ 
कपिध्यान परा मुख्या कुव्यवस्था कुसाक्षिदा, 
कुमध्यस्था कुकल्पा च कुल पंक्ति प्रकाशिनी ॥ 117 ॥ 
कुल भ्रमर देहस्था कुल भ्रमर नादिनी, 
कुलासंगा कुलाक्षी च कुल मत्ता कुलानिला॥ 118 ॥ 
कलि चिह्ा काल चिह्वा कण्ठ चिह्वा कवीन्द्रजा, 
करीन्द्र कमलेश श्रीः कोटि कन्दर्पं दर्पहा॥ 119॥ 
कोटि तेजो मयी कोट्या कोटीर पद्य मालिनी, 
कोरटीर मोहिनी कोटिः कोटि विधूद्धवा।॥ 120 ॥ 
कोटि सूर्य समानास्या कोटि कालानलोपमा, 
कोटीर हार ललिता कोटि पर्वत धारिणी ॥ 122॥ 
231 


कुल-युग्म-धरा-देवी कुच-काम प्रकाशिनी, 
कुचानन्दा कुचाच्छनना कुल-काठिन्य-कारिणी ।। 123 ॥ 
कुच-युग्म-मोहनस्था कुच-मायातुरा-कुचा, 
कुच-योवन-सम्मोहा कुच-मर्दन-सोख्यदा ॥ 124 ॥ 
काचस्था काच-देहा च काच-पूर निवासिनी, 
काचग्रस्था काच-पर्णां कीचक-प्राण-नाशिनी । 125 ॥ 
कमला-लोचन-प्रेमा कोमलाश्ची-मन-प्रिया। 
कमलाक्षी कमलजा कमलास्थ्सया करालजा।॥ 126 ॥ 
कमलाप्रि-द्रया काम्या कराख्या कर-मालिनी, 
कर-पद्य-धरा कन्दा कन्द-बुद्दि-प्रदायिनी। 127 ॥ 
कमलोद्धव-पुत्री च कमला-पुत्र-कापिनी, 
किरन्ती किरणाच्छनना किरण-प्राण-वासिनी ॥ 128 ॥ 
काव्य-प्रदा काव्य-चित्ता काव्य-सार- प्रकाशिनी, 
कलाम्बा कल्प-जननी कल्प-पमेदासन-स्थिता ॥ 129 ॥ 
कालेच्छा काल-सारस्था काल-मरण-घातिनी, 
किरण-क्रम-दीपस्था कर्मस्था क्रम-दीपिक्ा।॥ 130॥ 
काल-लक्ष्मीः काल-चण्डा कुल-चण्डेश्वर प्रिया, 
काकिनी-शक्ति-देहस्था कितवा किंत-कारिणी ।॥ 131 ॥ 
करञ्चा कंचुका कोज्या काम-चंचु-पुट-स्थिता, 
काकाख्या काक-शरब्दस्था कालाग्नि-दहनाधिक्ा ॥ 132 ॥ 
कुचक्ष-निलया कुत्रा कुपुत्र ऋतु-रकषिका, 
कनक -प्रतिमाकारा कर-बन्धाकृति-स्थिता ॥ 133 ॥ 
कृति-रूपा कृति-प्राणा कृति-क्रोध-निवारिणी, 
कुक्षि-रक्षा-करा कुक्षा कुक्च ब्रह्माण्ड-धारिणी॥ 134 ॥ 
कुचि-देव-स्थिता कुक्षिः क्रिया-दक्षा* क्रियातुरा, 
क्रिया-निष्ठा क्रियानन्दा क्रतु-कर्मा क्रिया प्रिया ॥ 135 ॥ 
कुशलासव-संसक्ता कुशारिप्राण-वल्लभा, 
कुशारि-वृक्ष-मदिरा काी-राज-वशोद्यमा ॥ 136 ॥ 
काशी-राज-गृहस्था च कर्तु-भात्‌-गृह-स्थिता, 
कर्णाभरण भूषादट्य कण्ठ भृषा च कण्ठिका॥ 137 ॥ 
कण्ठटस्था-गता कण्ठा कण्ठ पद्य निवासिनी, 
कण्ठ-प्रकाश-कारिणी कण्ठ-माणिक्य-मालिनी ॥ 138 ॥ 
कण्ठ पद्य सिद्धि करी कण्ठाका्ा निवासिनी, 
कण्ठ पद्य साकिनीस्था कण्ठ षोडश पत्रिका 139 ॥ 
232 


कृष्णाजिन धरा विद्या कृष्णाजिन सु-वाससी 
कुतकस्था कुखेलस्था कुण्डवालं कृताकृता॥ 140 ॥ 
कल गीता काल ध्वजा कल भंग परायणा 
काली चन्द्रा कला काव्या कुचस्था कुचल प्रदा॥ 141॥ 
कचोर घातिनी कच्छा कच्छास्था कजातना 
कञ्जा छद मुरी कञ्जा कञ्ज तुण्डा कजीवनी ॥ 142 ॥ 
काम राजीव खाद्यस्था कियद्‌ हकार नादिनी, 
कणाद यज्ञ॒ सूत्रस्था कोलालमज्ञ संज्ञका॥ 143॥ 
कटि हासा . कपास्था. कु. धूम निवासनी, 
करि नाट घोर तरा कुडुला पालि प्रिया॥ 144॥ 
कामचाराल्जन नेत्रा च कामचोद्गार संक्रमा, 
काष्ठा पर्वत सन्दाहा कष्टकष्ट॒ निवारिणी ॥ 145 ॥ 
कहोड मन्त्र सिद्धस्था काहला डिण्डिम प्रिया, 
कुल डिण्डिम वाद्यस्था काम डामर सिद्धिदा॥ 146 ॥ 
कुलामार मध्यस्था कुल केका निनादिनी, 
कोजागर ढोल नादा कास्य वीर रण स्थिता॥ 147॥ 
कालादि करणच्छिद्रा .करुणानिधि वत्सला, - 
क्रतु श्री दा कृतार्थ श्रीः काल तारा कुलोत्तरा॥ 148 ॥ 
कथा पूज्या कथानन्दा कथना कथन प्रिया, 
कार्थं चिंता कार्थं विद्या काम मिथ्यापवादिनी ॥ 149 ॥ 
कदम्ब पुष्प सङ्कशा कदम्ब पुष्य मालिनी, 
कादम्बरी पान तुषा काय दम्भा कदोद्यमा॥ 150 ॥ 
कंकुले पत्र मध्यस्था कुलाधार धरा प्रिया, 
कुल देव शरीरार्धां कुल धामा कला धरा॥ 151॥ 
काम राग भूषणाढ्या कामिनीरगुण प्रिया, 
कुलीन नाग हस्ता च कुलीन नाग वाहिनी ॥ 152 ॥ 
काम पूर स्थिता कोपा कपाली वन्दनीद्धवा, 
कारागार जना पाल्या कारागार प्रपालिनी॥ 153॥ 
क्रिया . शक्ति काल पंक्तिः कर्णं पक्तिः कफोदया, 
काम फुल्लारविन्दस्था काम रूप फलाफला ॥ 154 ॥ 
काय फला काय फेणा कान्ता नाडी फलीश्वरा, 
काम फेरू गौरी काय वाणी कुवीरगा॥ 155॥ 
कबरी मणि बन्धस्था कावेरी तीर्थं संगमा, 
काम भीति हरा कांता काम वाकु भ्रमातुरा॥ 156 ॥ 
233 


कवि भाव हरा भामा कमनीय भया पहा, 
काम गभं देव माता काम कल्प लतामरा॥ 157 ॥ 
कमठ प्रिय मांसादा कमठा कामठ प्रिया, 
किमाकारा किमाधारा कुम्भ कार मनः स्थिता॥ 158॥ 
काम्य यज्ञ॒ स्थिता चण्डा काम यज्ञोपवीतिका, 
काम यज्ञ सिद्ध करी काम मैथुन यामिनी ॥ 159॥ 
कामख्या यम लासस्था काल यामा कु योगिनी, 
कुरु याग हतायोग्या कुरु मांस विभक्षिणी।॥ 160॥ 
कुरु रक्त॒प्रियाकारी कंकर प्रिय कारिणी, 
कत्रीश्वरी कारणात्मा कवि भक्षा कवि प्रिया॥ 161॥ 
कवि ़त्रु प्रष्ठ लग्ना कैलासोपवन स्थिता, 
कलि त्रिधा त्रिसिदधिस्था कलि त्रिदिन सिद्धिदा॥ 162 ॥ 
कलंक रहिता काली कलि कल्मष कामदा, 
कुल-पुष्प-रंग-सूत्र-मणि-ग्रन्थि- सुशोभना ॥ 163 ॥ 
कम्बोज-वंग-देशस्था कुल-वासुकि-रक्षिका, 
कुल-शास्त्र-क्रिया-शातिः कुल-श्ांतिः कुलेश्वरी ॥ 164 ॥ 
कुशल-प्रतिभाः काशी कुल-षट्‌-चक्र-भदिनी, 
कुल-षट्‌-पद्य-मध्यस्था कुल-षट्‌-पद्य-दीपिनी ।। 165 ॥ 


कृष्ण-मार्जार-कोलस्था कृष्ण-मार्जार-षष्ठिका, 
कुल-मार्जार- कुपिता कुल-मार्जार षोडश्ञी॥ 166 ॥ 
कालांत-कवलोत्पननना कपिलांतक-घातिनी, 
कल-हासा कालह-श्री कहलार्थां कलामला ॥ 167 ॥। 
कक्षप-पक्ष-रक्षा च कुक्ेत्र-पक्ष-संक्षया, 
काक्षरक्षा-रक्षिणी च महामोक्ष प्रतिष्ठिता॥ 168॥ 
अर्क-कोटि-रतच्छाया आन्वीधि-किकरायिता, 


कावेरी तीर-भूमिस्था आग्नेयाकस्त्र-धारिणी ॥ 169 ॥ 
इ किं श्रीं काम-कमला पातु कैलास-रक्षिणी, 
मम श्री ई बीजरूपा पातु काली शिर-स्थलम्‌॥ 170॥ 
अरू-स्थलान्नं सकलं तमोल्का पातु कालिका, 
उदू-मूलाक-रमणी उष्टोग्र कुल-मातृका॥ 171॥ 
कृतापक्षा कृत-मती कुङ्कारी किं-लिपि-स्थिता, 
कु-दीर्घ-स्वरा क्तृप्ा के-केलास-करार्धिका॥ 172 ॥ 
कशोरी कै करी कै कै वीजाख्या नेत्र-युग्मकं, 
कोमा-मतंग-यजिता कोशल्यादि-कुमारिका॥ 173 ॥ 
234 


पातु मे कर्णयुग्मं तु क्रौं क्रों जीव-करालिनी, 
गण्ड-युग्मं सदा पातु कुण्डली-स्वांक-वासिनी ॥ 174 ॥ 
अक-कोरटि-रताभासा अश्चराक्षर-मालिनी, 
आशुतोष-करी हस्ता कुल-देवी निरञ्जना ॥ 175 ॥ 
पातु मे कुल-पुष्पाद्या पृष्ठ-देशं सुकरृत-तमा 
कुमारी कामना-पूर्णं पा्व-देशटं सदावतु ॥ 176 ॥ 
देवी कामाख्यका देवी पातु प्रत्यंगिरा कटि, 
कटिस्थ देवता पातु लिंग मूलं सदा मम॥ 177॥ 
गृह्य देशं काकिनी मे लिंगाधः कुल सिंहिका 
कुल नागेश्वरी पातु नितम्ब देशमुकत्तमं॥ 178॥ 
कंकाल मालिनी देवी मे पातु चोरु मूलकं, 
जंघा युग्मं सदा कीर्तिः चक्रापहारिणी।॥ 179॥ 
पाद युग्मं पाक संस्था पाक शासन रक्षिका, 
कुलाल चक्र भ्रमरा पातु पादांगुलीर्मम॥ 180॥ 
नखाग्राणि दश विद्या तथा हस्त द्यस्य चः, 
विं रूपा काललाक्षा सर्वदा परि रक्षतु।॥ 181॥ 
कुलच्छत्राधार रूपा कुल मण्डल गोपिता, 
कुल कुण्डलिनी माता कुल पण्डित मण्डिता ॥ 182 ॥ 
काकानना काक तुण्डी काकायुः प्रखरा्कजा, 
काम ज्वरा काक जिह्वा कपि क्रोधासन स्थिता॥ 183॥ 
कपि ध्वजा कपि क्रोशा कपि वाला कपि स्वरा, 
काल कांची विंशतिस्था सदा विंश नखाग्रहं ॥ 184 ॥ 
पातु देवी काल रूपा कलि काल फलालया, 
वाते वा पर्वते वापि शून्यागारे चतुष्पथे॥ 185॥ 
कुलेन समयाचारा कुलाचार जन प्रिया, 
कुल पर्वता संस्था च कुल कैलास वासिनी ।॥ 186 ॥ 
महा दावानले पातु कुमार्गे कुत्सिता ग्रहे, 
राज्ञोऽप्रिये राज वश्ये महा शत्र विनाज्टने॥ 187 ॥ 
कलि काल महालक्ष्मीः क्रिया लक्ष्मीः कुलाम्बरा, 
कवीन्द्र कीलिता कोला कीलाल स्वर्गं वासिनी ।॥ 188 ॥ 
दा दिक्षु सदा पातु इन्द्रादि दश्ञ लोकपा, 
नवच्छिननैे सदा पातु सूर्यादिकं नव ग्रहाः ॥ 189॥ 
पातु मां कुल मांसादट्या कुल पद्य निवासिनी, 
कुल द्रव्य प्रिया मध्या षोडशी भुवनेश्वरी ॥ 190 ॥ 
235 | 


विद्या वादे विवादे . च मत्त-काले महा भये, 
दुभिक्षादि भये चैव व्याधि संकर. पीडिते 191॥ 
काली कुल्ला कपाली च कामाख्या काम चारिणी, 
सदा मां कुल संसर्गे पातु कौले सु संगता।॥ 192॥ 
-सर्वत्र सर्वं देशो च कुल रूपा सदावतु, 
इत्येतत्‌ कथितं नाथं! मातः प्रसाद टहेतुना॥ 193 ॥ 
अष्टोत्तर शतं नाम सहस्रं कुण्डली प्रियं, 
कुल कुण्डलिनी देव्याः सर्वं मन्त्र सुसिद्धये ॥ 194 ॥ 
फलश्रुति 

स्वं देव॒ मनूनां च चैतन्याय सु सिद्धये। 
अणिमादष्ट॒ सिद्धयर्थ साधकानां हिताय च॥ 
ब्राह्मणाय प्रदातव्यं कुल द्रव्य पराय च। 
अकुलीनेऽब्राहमणे च न देयः कुण्डली स्तवः॥ 
परवृत्ते कुण्डली चक्रे सर्वे वर्णां द्विजातयः। 
निवृत्ते भेरवी चक्रे स्वे वर्णां पृथक्‌ पृथक्‌ ॥ 
कुलीनाय प्रदातव्यं साधकाय विशेषतः| 
दानादेव हि . सिद्धिः स्यान्ममाज्ञा बल हेतुना ॥ 
मम क्रियायां यः तिष्ठेत्‌ स॒मे पुत्रो न संशयः। 
स॒ आयाति मम॒ पदं जीवन्मुक्त स मानवः॥ 
आसवेन स मांसानि कुल वहो महा निशि। 
नाम प्रत्येक मुच्यार्य जुहुयात्‌ काय सिद्धये ॥ 
-गज्वाचार रतो भूत्वा ऊर्ध्वरेता भवेद्‌ यतिः 
सतत्सरान्मम स्थाने आयाति नात्र संशयः॥ 
एहिके कार्य सिद्धिः स्यात्‌ दैहिके सर्व सिद्धिदः! 
वशी भूत्वा त्रि मार्गस्थाः स्वर्ग भूतल वासिनः ॥ 
अस्य॒ भूत्याः प्रभवन्ति इन्द्रादि लोक पालकाः, 
स॒ एव योगी परमो यस्यार्थेऽयं सु निश्चलः ॥ 

लोकः प्रजपत्येवं स॒ शिवो नच मानुषः। 
सा समाधि गतो नित्यो ध्यानस्थो योगि वल्लभः । 
चतुर्व्यह॒ गतो देवः सहसा. नात्र संशयः, 
चः प्रधारयते भक्त्या कण्ठे वा मस्तके भुजे | 
स. भवेत्‌ कालिका पुत्रो विद्या नाथः स्वयं भुवि। 
धनेशः पुत्रवान्‌ योग॒ यतीशः सर्वगो भवेत्‌॥ 
यदि पठति मनुष्यो मानुषी वा महत्या। 
सकल धन जनेशी पुत्रिणी जीव वत्सा॥ 


236 





कुल पतिरिह लोके स्वर्गं ॒मोक्षेक दहेतुः। 
स॒ भवति भव नाथो योगिनी कल्लभेराः॥ 
पठति य इह नित्यं भक्ति भवेन मत्यां। 
हरणमणि करोति प्राण विप्राण योगः॥ 
स्तवन पठन पुण्यं कोटि जन्माद्य नाश्ं। 
कथितुमपि न शक्तोऽहं महा मांस भक्षा॥ 


दत्तात्रेय स्तोत्र 
(योग सिद्धि तथा विश्च निवारण के लिए देवर्षिं नारद कृत) 


जगदुत्पत्तिकत्रे च स्थिति संहार हेतवे। 
भवपाशविमुक्ताय दत्तात्रेय नमोऽस्तुते ॥ 1॥ 
जराजन्म विनाशाय देहशुद्धिकराय च। 
दिगंबर दयामूर्ति दत्तात्रेय नमोऽस्तुते ॥ 2 ॥ 
कपूरकान्तिदिहाय ब्रह्ममूतिधराय च। 
देवशात्रपरिज्ञाय दत्तात्रेय नमोऽस्तुते ॥ 3 ॥ 
हस्वदीर्घं कृस्थूल नाम गोत्र विवसितः। 
पंचभूतैकदीप्ताय दत्तात्रेय नमोऽस्तुते ॥ 4॥ 
यज्ञभेक्त्रे च यज्ञाय यज्ञरूपाय तथा चूं वे। 
यज्ञ प्रियाम सिद्धाय दत्तात्रेय नमोऽस्तुते॥ 5 ॥ 
आद्यो ब्रह्मा मध्ये विष्णुरंते देव सदाशिवः 
मूर्तिमय स्वरूपाय दत्तात्रेय नमोऽस्तुते ॥ ९॥ 
भोगलयाय भोगाय भोगयोग्याय धारिणे) 
जितेद्रिय जितन्नञाय दत्तात्रेय नमोऽस्तु ॥7॥ 
दिगंवराय दिव्याय दिव्यरूपधराय च। 
सदोदित परब्रह्म दत्तात्रेय नमोऽस्तुते ॥ ९॥ 
भिक्षाटनं गहे ग्राम पात्रं हेममयं करे। 
नाना स्वादमयी भिश्चा दत्तात्रेय नमोऽस्तुते ॥ १॥ 


रुद्रमृत्युञ्जय स्तोत्र 
आनन्द भैरव के आग्रह पर यह स्तोत्र आनन्द भैरवी ने प्रकट किया था। 
साधना मार्ग मे रोगमुक्त रहने के लिए इसका नित्यपाठ एक प्रबल सम्बल हो यह 
रुद्रयामल तन्त्र' से लिया गया है । इसके नित्य पाठ से योग साधना में रोग, विकार्‌ 
नहीं सताते। यदि मणिपूरक चक्र मेँ कुम्भक कर इसं स्तोत्र का पाठ किया जाए तो 
साधक जीवनमुक्त हो जाता है, ठेसा कहा जाता है । इस स्तोत्र में सुख व मोक्ष के 
लिए्‌ शिव कौ स्तुति की गई हे। 


231 


विशेष 


लेकिन केवल मन्त्र पाठ ही सफलता के लिए काफी नहीं होते, यम, नियम, 

संयम द्वारा पात्रता का उत्सन कर लेना आवश्यक होता हे । दुर्भावनाएं, तामसिक वृत्ति 

ओर अशुद्धि या विकार सदेव साधना में घातक होते हं । जेसा कि कहा गया है- 
जिहा दग्धा पराननेन हस्तौ दग्धो परिग्रहात्‌ 
परस्त्रीभिर्मनोदग्धं मन््रसिदधिः कथं भवेत्‌॥। 

पराये अन को ग्रहण करने८अनधिकार चेष्टा द्वारा छीन या हडप लेने से जीभ 

जल जाती है । पराये (धन आदि) को उठा लेने पर हाथ जल जाता हे । पराई स्त्री पर 

कुदृष्टि रखने से मन जलता हे, फिर मंत्र सिद्धि (एसे लोगों के लिए) कैसे संभव है । 


स्तोत्र पाठ 
ॐ भजामि शम्भु सुखमोक्षदेतं रुद्र॒ महाशक्ति समाकुलाङ्म्‌। 
रोद्रात्मकं चारु हिमांशुशेखर कालं गणेश्सुमुखाय शंकरम्‌ 1 ॥ 
मृत्युजञ्जययं जीवनरक्षकं परे शिवं परब्रह्ाररीरमगलम्‌। 
हिमांशु कोटिच्छविमादधानं भजासि पद्मद्वयमध्यसंस्थितम ॥ 2 ॥ 
सर्वात्मकं कामविनाशमूलं तं चन्द्रचूडं मणिपूरवासिनम्‌। 
चतुर्भुजं ज्ञानसमुद्रयाठयं पाशं मृगाक्षं गुणसूताव्याप्तम्‌॥ 3॥ 
धरामयं तेजसमिन्दुकोटिं वायु जलेशं गगनात्मकं परम्‌। 
भजामि रुद्रं कुललाकिनीगतं सर्वागयोगं जयदं सुरेश्वरम्‌॥ 4 ॥ 
शुक्तं महाभीमजयं पुराणं प्राणात्मकं व्याधिविनामूलम्‌। 
यज्ञात्मकं कामनिवारणं गुरू भजामि विश्वेर्वरशरंकरं शिवम्‌॥ 5 ॥ 
वेदागमानामतिमूलदेशं तदुद्भवं भद्रहितं परापरम्‌। 
कालान्तकं ब्रह्मासनातमप्रियं भजायि शम्भुं गगनाधिरूढ्म्‌॥ 6 ॥ 
शिवागमं शब्दमयं विभाकरं भास्वत््रचण्डानलविग्रहं ग्रहम्‌। 
ग्रहस्थितं ज्ञानकरं करालं भजामि शम्भु प्रकृतीश्वरं हरम्‌॥ 7 ॥ 
छायाकरं योगकरं सुखेन मत्तं महामत्तकुलोत्सवाद्यम्‌। 
योगेश्वरं योगकलानिधिविधिं विधानवक्तारमहं भजामि ॥ 8 ॥ 
हेमाचलालंकृत  शुद्धवेषटं  वराभयादाननिदान मूलम्‌ । 
भजामि कान्तं वनमालश्ोभितं चामूलपद्यामलमालिनं कुलम्‌॥ ५॥ 
स्वय_ पुराणं पुरूषेश्वरं गुरु मिथ्यामयाह्वादविभाविनं भजे 
भावप्रियं प्रमकलाधरं शिवं गिरीश्वरं चारूपदारविन्दम्‌॥ 10 ॥ 
ध्यानप्रियं ज्ञानगभीरयोगं भाग्यास्यदं भाग्यसमं सुलक्षणम्‌ 
शूलायुधं शूलविभूषितांगं श्रीशटंकरं मोश्चफलप्रियं भजे॥ 11॥ 
नमो नमो रुद्रगणेभ्य एवं मृत्युञ्जयेभ्यः कुलचञ्चलेभ्यः। 
शक्तिप्नियेभ्यो विजयादिभूतये शिवाय धन्याय नमो नमस्ते ॥ 12 ॥ 


238 





बाह्यं त्रिशूलं वरसुक्ष्म भावं विश्ालनेत्र तनुमध्यगामिनम्‌। 
महाविपददुःखविनाशनीजं प्रज्ञादयाकान्तिकरं भजामि॥ 13॥ 
पुरान्तकं पूर्णारीरिणं गुरु स्मरारिमाद्यं निजतर्कमार्गगम्‌। 
अनादिदेवं दिविदोषधातिनं भजामि पञ्चाक्षरपुण्य साधनम्‌ ॥ 14 ॥ 
दिगम्बरं पदूममुखं करस्थं स्थितिक्रियायोग नियोजनं भवम्‌। 
भावात्मकं भद्रारीरिणं शिवं भजामि पञ्चाननमर्कवर्णम्‌॥ 15 ॥ 
मायामयं पंकजदामकोमलं दिग्व्यापिनं दण्डघरं हरेश्वरम्‌। 
त्रिपक्षकं व्यक्षरबीजभावं त्रिपदममूलं त्रिगुणं भजामि॥ 16॥ 
विद्याधरं वेदविधानकार्य कायागतं नीतिनि नादतोषम्‌। 
नित्यं चतुर्वर्गफलादिमूलं वेदादिसूत्रं प्रणमामि योगम्‌॥ 17॥ 
वेदान्तवेद्यं कुलणशास््रविज्ञं क्रियामयं योगसुधर्मदानम्‌। 
भक्तेरुवरं भक््तिपरायणं वरं भक्तं महाबुद्धिकरं भजाम्यहम्‌ 18 ॥ 
गतागतं गम्यमगम्यभावं समुल्लसत्कोटि कलावतं सम्‌। 
भावात्मकं भावमयं सुखासुखं भजामि भर्ग प्रथमारूणप्रथम्‌॥ 19 ॥ 
बिन्दुस्वरूपं परिवादवादिन मध्याह्न सूर्यायूतं सन्िभं नवम्‌। 
विभूतिदानं निजदानदानं दानात्मकं तं प्रणमामि देवम्‌॥ 20॥ 
कुम्भापहं शत्रुनिकुम्भघातिनं देत्यारिमीशं कुलकामिनीशम्‌। 
प्रीत्यान्वितं चिन्त्यमचिन्त्यं भावं प्रभाकरह्ादमहं भजामि॥ 21॥ 
त्रिमूर्तिमूलाय जयाय शम्भवे हिताय लोकस्य वपुर्धराय। 
नमो भयच्छिन्नविद्यातिने पते नमो नमो विश्वङरीरधारिणे ॥ 22 ॥ 
तपः फलाय प्रकृतिग्रहाय गुणात्मने सिद्धिकराय योगिने। 
नमः प्रसिद्धाय दयातुराय, वाज्छाफलोत्साह विवर्धनायते ॥ 23 ॥ 
शिवममरमहान्तं पूर्णं योगाश्रयन्तं धरणिधर करान्भैर्वर्धमानं त्रिसर्गम्‌। 
विषममरणधातं मृत्युपूज्यं जनेशं विधिगणपतिसेत्यं पूजये भावयामि ॥ 24॥ 


गणेश साधना 
विशेष-- कोई भी पूजा, आराधना, साधना तन तक विघ्न-बाधाओं के कारण 

अनिश्चित ही रहती हे, जब तक कि विघ्नेश्वर गणेश की आराधना न कौ जाए। 
योगसिद्धि के लिए भी गणेश जी कौ प्रसनता अनिवार्य है । अतः हम अपने पाठकों 
के कल्याणार्थ छोरी-सी गणेश साधना भी दे रहे है । पाठक अवश्य इसका लाभ 
उटाएगे। 
गणपति महामन्त्र 

प्रणवं कमलां लजां कन्दर्पं मठ-बीजकम्‌। 

शंकरं षट्‌ शिरोमन््रं ततः पल्लवमुद्धरेत्‌॥ 

गणपति पश्चाद्‌ वाच्यं वर-वरदमेव च। 

सर्वजनं ततः पश्चान्मे वछ्ामानयेति च॥ 

239 


"सुद्रायमल तन्त्र' के अनुसार इस मन्त्र का मूलमन्त्र इस प्रकार है-' ॐ श्रीं 
हीं क्लीं ग्लीं गं गणपतेय वर वरद्‌ सर्वजनं में वशमानय स्वाहा ।' 

उपर्युक्त मन्त्र का जाप करना हो तो इसके विनियोग ओर न्यासादि व ध्यानादि 
इस प्रकार हेँ-- 


विनियोग 


ॐ अस्य श्रीमहागणपतिमन्त्रस्य गणक ऋषिर्निचृद्गायत्रीच्छन्दो महागणपति 
दवता गं बीजं स्वाहा शक्तिः ग्लौ कीलकं खम श्रीमहागणपति- प्रसाद सिद्धयर्थे जपे 
विनियोग : | 
ऋष्यादिन्यास 


गण ऋषिये नमः (शिरसि), निचृदगायत्रीच्छन्दसे नमः (मुखं) महागणपति 
दवताये नमः (हृदये), गं बीजाय नमः (गृह्यं ), स्वाहा शक्तये नस: (पादयोः ) 
ग्ला कोलकाय नमः (नाभो), महागणपति-प्रसाद्‌ सिद्धयर्थं जपे विनियोगाय नम 
( स्वांगे) | 


षडद्न्यास ( कर ) प्रथम बार( षडंग ) दूसरी लार 


उश्रीहींक्लींग्लोगां (अंगुष्ठाभ्यां नमः) (हदयाय नमः) 
उश्रीहीं क्लींग्लोंगीं (तर्जनीभ्यां नमः) (शिरसे स्वाहा) 
ॐ श्र हीं क्लीं ग्लो गुं (मध्यमाभ्यां नमः) (शिखाय वषट्‌ ) 


32 श्री हीं क्लीं ग्लौं गँ (अनामिकाभ्यां नमः) (कवचाय हुम्‌) 
2 श्र हीं क्लीं ग्लो गौं (कनिष्ठिकाभ्यां नमः) (नेत्राभ्याम्‌ वौषट्‌) 
2 श्रीं हीं क्लीं ग्लो गः (करतलकरपृष्ठाभ्यां नमः) (अस्त्राय फट्‌) 


बीजापुर गदेक्षुकार्मुकरुजा-चक्राल्जपाशोत्पला, 
ब्रीह्यग्रस्वविषाणरतल-कलश-प्रोद्यत्मकराम्भोरुहः 
ध्येयो वल्लभया सपद्मकरयाश्लिष्टो ज्वलदभूपया, 
विर्वोत्पत्ति-विपत्ति-संस्थितिकरो विघ्ने इ्टार्थदः ॥ 
( इसके बाद मानसिक पूजन करके जाप करें ।) 
वैसे गणेशजी का एकाक्षरी मंत्र ओर बीज मंत्र "गं ' हे । 
चरुकृपा 
गणेशजी के साथ गुरुकृपा भी आवश्यक है । गुरु न हो तो भगवान .शिव को 
हा गुरु मानँ ओर ' सराष्टक' का पाठ कर । वैस ' ॐ गं गुरूभ्यौ नमः ।' गुरु प्रणाम 
मन्त्र हें । जिससे संक्षिप्त गुरु पूजन हो जाता 
[} 2 ~ 
240 कुण्डलिनी शक्ति कैसे जागृत करें -- 15 








सव्ठ चक्र की युक्त खगत 


प्रमुख चक्रों को संख्या सात ही होना अधिक तर्कपूर्णं ओर युक्ति युक्त हे । 
क्योकि सृष्टि में प्रधान सत्ताओं का वर्गीकरण सप्तविभागो में ही हआ है ओर 
 यत्‌पिण्डत्तत्‌ ब्रह्याणे ' न्याय के अनुसार उसी सृष्टि का शरीर के भीतर होना भी 
सिद्ध होता हे, जो शरीर से बाहर है। जैसा कि अनेक धर्म, योग एवं ज्योतिष 
सम्बंधित ग्रन्थों में इगित किया गया है । 'शिव संहिता" में तो स्पष्ट ही कहा है- 
ब्रह्माण्ड सन्त के देहे यथा देशं व्यवस्थितः । (शरीर ब्रह्मांड सं्ञक है । जौ ब्रह्मांड 
मे हे, वही इस शरीर में भी स्थित है) । 

उदाहरणार्थ- सृष्टि में सात रंग (-इन्द्रधनुषीय या प्रकाश के), सात वार 
(सपाह के), सात प्रमुख पर्वत ८ विद्रूम, दयुतिमान, मंदराचल, हरिशेल, पुष्पवान, 
हिमशेल, कुशेशय) अथवा (सुमेरू, हिमवान या हिमालय, विन्ध्याचल, मन्दराचल, 
केलाश) सात समुद्र (मार्कण्डेय पुराण के अनुसार- लवण, इक्षु, सुरा, दुग्, दधि, 
घृत एवं जल) वर्तमान व्यवहारिक दृष्टि से सात (लाल, अरब, प्रशांत, हिन्द, मृत 
एवं बंगाल) सागर, सात द्वीप (पौराणिक दृष्टि से जम्मू. प्लक्ष, श्याल्मलि, कुश, 
क्रौच, शाक, पुष्कर), सात अग्नि (ब्रह्म, आत्म, योग, कालं, सूर्य, वैश्वानर ओर 
आतप), सात अग्नि जिह्धाएं (काली, कराली, मनोजवा, लोहिता, धूम्रवर्णा, 
स्फुलिंगनिी तथा विश्वरूचि- मुण्डकोपनिषद्‌ के अनुसार) सात हंवियज्ञ अग्निपुराण 
के अनुसार (अग्न्याधेय, अग्निहोत्र, पौर्णमास, चातुर्मास्य, आग्रहायण, निरु, 
सात चरू (वैदिक दष्ट से- पुरोष्टक, पार्वण, श्रावणी, अग्रहायणी, चैत्र, अश्व, 
युजी ) सात यन्न (अग्निस्तोत्र, अष्टवक्य, षोडसी, बाजपेयक, अतिरात्र, आ, 
याम) सात नदियां (देवत, श्यामक, रम्भ, उद्रक, जलधर, केश्य तथा अम्बिकेय) 
सात निप्र लोक (भूतल, सुतल, वितल, महातल, रसातल, पाताल आदि) सात 
उर्व लोक (स्वर्ग, सूर्य, ब्रह्म रुद्र, विष्णु, तप, सत्य), गायत्री कौ सात व्याहतियां 
तदनुसार-सप्तलोक (भूः, भुवः, स्तः, महः, जनः, तपः, सत्यम ), सात ऋषि 
(वशिष्ट, कश्यप, अत्रि, जमदग्नि, गौतम, विश्वामित्र तथा भारद्वाज), इसी प्रकार 
श्रतियों मे प्राण भी सात कहे गए हँ । इत्यादि अनेक उदाहरणं के आधार पर 
शरीरस्थ प्रधान चक्र की संख्या भी सात ही युवित संगत प्रतीत होती है । विशेष तौर ` 
पर जबकि प्रत्येक चक्र सात विवरणं के साथ है। यथा-बीज, वाहन, 


241 कुण्डलिनी शक्ति कैसे जागृत करं - 16 








अधिदेवता, दल, यन्त्र आकृति, शब्द ओर रंग । अतः 8, 9, 10 अथवा 6 के 
स्थान पर प्रमुख चक्रों को संख्या 7 ही माना जाना तर्कपूर्ण है । 
मन्त्र 
' विज्ञान भरव ' में वर्णित धारणा-28, ष्लोक-51 के अनुसार- 
कालाग्नि कालेपदादुत्थितेन स्वकं पुरम्‌। 
प्लुष्टं विचिन्तयेदन्ते श्ान्ताभा सस्तदा भवेत्‌॥। 
कालपदाद्‌ दक्षिणपादाङ्ुष्ठाद्‌ उत्थितेन कालाग्निना स्वकं पुरम्‌ आत्मीयं देहमेव 
गुग्गुलम्‌ "उ रक्षरय ऊ तनुं दाहयामि नमः'' इति मन्त्रोच्चारपूर्वक 
शरीरदाहादिचिन्तनयोगयुक्त्या आत्मभावनाया पलं विचिन्तयेन्‌ दग्धं विभावयेत्‌ 
तदा अन्ते स योगी शान्ता भासो भवेद्‌ अभिव्यक्तस्वात्मस्वरूपः स्यात्‌| ' शान्तामासः . 
प्रजायते ' इति पाठे योगिनश्चिन्मयमूर्तिमान्‌ विभावसुः प्रकाशत इत्यर्थः ॥ 
'उ्रक्षरय ऊ तनु दाहयामि नमः।' इस मंत्र का उच्चारण करते हुए 
कालपद्‌, अर्थात्‌ दाहिने पैर के अंगूठे से उठती हुई कालाग्नि का ध्यान करके, 
उसकी ज्वाला से मेरा पूरा शरीर भस्म हो गया हे-एेसी भावना करे । अपने शरीर 
को गुग्गुल समञ्घ। (जैसे गुग्गुल अग्नि में भस्म हो जाता है, वैसे ही अपने शरीर के 
कालाग्नि में भस्म हो जाने कौ भावना कर) । इस भावना के अभ्यास से साधक के 
सभी मल दग्ध हो जाते हँ ओर अपने शान्त स्वरूप को साधक प्राप्त कर लेता हे । 
श्लोक में ' पुर' नामक श्लिष्ट पद का प्रयोग किया गया हे। 'पुर' का अर्थ 
गुग्गुल भी होता हे ओर यह देह का भी बोधक है । गुणगुल जलकर जेसे वातावरण 
को सुगंधित करने के साथ-साथ उसे विषाक्त कीराणुओं से मुक्त करता है, उसी 
प्रकार उक्त भावना का अभ्यास साधक के दोष व मलों को नष्ट कर उसे उसके 
शान्त स्वरूप कौ प्राप्ति कराता है। यानि उसके समक्ष चिन्मय मूर्तिमान, अग्नि 
प्रकाशित हो जाती हे । जैसे ' महार्थ मंजरी ' में इसी प्रकार प्राणायाम के अभ्यास से 
शोष, दाह ओर आप्लावन प्रक्रिया के आधार पर साधक के देह को अमृतमय बना 
दने कौ बात कही गई है । यथा- 
| शोषा मलस्य नाशो दाह एतस्य वासनोच्छेदः। 
आप्लावनं तनूनां ज्ञान सुधासे कनि्मिता शुदधिः॥ 


योग साधना में पंचमकार 

तंत्र मार्ग में आध्यात्मिक साधनाओं में पंचमकारों का बहुत महत्व है । प्रायः ` 

अपने स्वार्था कौ पूर्तिं अथवा अल्पनज्ञान के कारण पंचमकारों से गलत अर्थ निकाले 

जाते हैँ । पंचमकायें मेँ व्णित-- मद्य, मांस, मीन, मुद्रा ओर मैथुन से प्रायः- मदिरा, 

मांसाहार, मछली खाना, शारीरिक मुद्रां अथवा धन ओर मैथुन का अर्थं निकाला 
242 





जाता ह । परन्तु यह इनका भावार्थ नहीं हे । ' रुद्रयामल तच््र ' मे भगवान शिव ने 
 ज्ञानमार्गोक्त पंचमकार- स्तोत्र ' के अन्तर्गत इन पंचमकायों के अध्यात्मिक अर्थ 
देवी को उनकी जिज्ञासा करने पर बताए हैँ । उसके अनुसार-- 

' कण्ठ मं 17 कलाओं वाले चन्द्रमा से रने वासे अमृत का पान ही सुरा/मद्य 
का सेवन हे। शेष अन्य तो मदिरा पात्र है । ज्ञान कौ तलवार से कर्म ओर अकर्म रूपी 
पशुओं कौ योग यज्ञ में बलि/हनन ही मांस का अर्थं हे। अन्य तो केवल 
मांसाहार/गोश्तखोरी है । मन रूपी मत्स्य (जो अत्यंत चपल है) का दमन करके 
व्यर्थ के संकल्पं को नष्ट करना ही "मीन ' का अर्थं है, अन्य नहीं । भक्ष्य, भोज्य, 
अन्न तथा इन्द्रियो का निग्रह ही "मुद्रा हे । ध्यान मुद्राएं व जप मुद्रां इनमें सहयोगिनी 
टं । इनका अर्थ मात्र शारीरिक मुद्राओं से लेना अल्पज्ञता तथा काममुद्रा या धन से 
लेना भ्रष्टता ह । ' हंसः ' या ' सोऽहं ' मन्त्र के आधार पर स्व को परम से संयुक्त करना 
अथवा शिव ओर शिवा का सामरस्य करना ही ' मैथुन ' है । उसका अर्थ यौन क्रोडा 
से नहीं है । अतः जहां कभी भी पंचमकार के समर्पण अथवा सेवन के निर्देश दिए 
गए हैँ । वहां पंचमकारों कौ आध्यात्मिकता के अनुसार उनका भावार्थं लेना चाहिए । 
शब्द जाल में नहीं उलञ्जना चाहिए।' $ 

पाठकों के लाभार्थ- “ज्ञान मार्गोक्त पंचमकार स्तोत्र" भी दिया जा रहा ह-- 


“ज्ञानमार्गोक्त पंचमकार स्तोत्र 


(“रुद्रयामल तन्त्र" से) 
कलाः सप्तदश प्रोक्ता अमृतं स््राव्यते शी । 
प्रथमा सा विजानीयादितरे मद्यपायिनः॥ 
कर्माकर्म पञ्चून्‌ हत्वा ज्ञानखड्गेन चैव हि। 
द्वितीयं विन्दते येन इतरे मांस भक्षकाः॥ 
मनोमीनं ततीयं च हत्वा संकल्प-कल्पनाः। 
स्वरूपाकार वृत्तिश्च शुद्धं मीन तदुच्यते ॥ 
चतुर्थं भक्षय भोज्यं न--भक्ष्यमिद्िय- निग्रहम्‌ । 
सा चतुथी विजानीयादिते शष्टकारकाः॥ 
हंसः सोऽहं शिवः शक्तिर्द्राव आनन्दनिर्मालाः । 
विन्नेया पञ्चमीतीद मिते तिर्यगामिनेः॥ 
स द्राव्चक्षुः-पात्रेण पूज्यते यत्र उन्मनी । 
दिद्युल्लेखाशिवै केमां साध्यन्ते देव साधकाः ॥ 
पूजकस्तन्मयानन्दः पूज्य-पूजक वसितः । 
स्वसंवेद्य-महानन्दस्तन्मयं पूज्यते सदा॥ 
243 


पंचदेवपूजन व गुरु उपासना 
पंचदेव पूजा-- पंचमहाभूतों की उपासना के इच्छुक अथवा पंच तत्त्वो पर 
अधिकार करने के इच्छुक साधकं को ' चक्र-साधना' अथवा ' तत्व साधना! के 
साथ ' पंचदेवोपासना' भी करनी चाहिए । वैसे तो गृहस्थो के लिए भी ' पंचदेवोपसना 
सर्वापयोगी कही गई हे । किन्तु ' पंचतत्व साधना ' में तो विरोष रूप से । पांच देवता 
पांच महाभूतो के स्वामी हे । (विष्णु, शिव, दुर्गा, गणेश ओर सूर्य) जेसा कि कहा 
ठे-- 
आकाश्रस्याधिपो विष्णुरग्नेष्चेव महेश्वरी । 
वायोः सूर्यः क्षितेरीश्नी जीवनस्य गणाधिपः ॥ 
अर्थात्‌-- आकाश तत्तव के अधिपति देवता विष्णु, अग्नि तत्व को अधिष्ठात्री 
महेश्वरी शक्ति, वायु तत्तव के स्वामी सूर्य, पृथ्वी तत्व के अधिष्ठाता भगवान शिव 
ओर जल तत्व के अधिपति गणेश है । 
इनमें जो ईर हों अथवा जिनकी साधना की जानी हो उनको मध्य भाग में 
स्थापित कर रेष चार दिशाओं मे अन्य प्रतिमाओं को स्थापित करना चाहिए्‌। 
 गुरुपूजा-- गुरु कौ कृपा बिना योग मार्गं में सफलता होनी असम्भव प्रायः 
ह । सभी ग्रन्थो ने एक कंठ से इसे स्वीकार किया है । "गुरुपाद विहीन्त ये, ये 
नश्यन्ति ममाज्ञया ' (गुरु कौ सेवा से विहीन मेरी आज्ञा से नष्ट हो जाते है )-एेसा 
स्वय भगवती भेरवी ने 'रुद्रायमल ' में कहा हे । इसके अतिरिक्त-- 
गुरुभक्तेः परं नास्ति भक््िशास्त्रेषु सर्वतः। 
गुरुपूजां लिना नाथ! कोरि पुण्यं वृथा भवेत्‌॥। 
अर्थात्‌- सभी भक्तिशास्त्र मेँ गुरु भवित से बहकर कोई भक्ति नहीं है । अतः 
हे नाथ! गुरु को पूजा किए विना करोडों पुण्य भी व्यर्थ हो जाते हँ । 
म एसा भी देवी ने स्वयं कहा है, अतः गुरु पूजा के लिए कुछ मन्त्र व स्तोत्र ओर 
५। द रहे है, जिनसे पाठक अवश्य ही लाभांवित होगे 


गुरु उपासना|मंत्र व स्तोत्र 
श ॐ (नाम ) आनन्दनाथाय गुरुवे नमः ॐ ' गुरु पूजा के लिए इस लघु 
मत्रका जाप किया जा सकता हे । गुरु गायत्री- (ॐ वेदादिगुरूदेवाय विद्महे, 
, पनगुरवे धीमहि, तन्नौ गुरुः प्रचोदयात्‌) द्वारा भी जप कर सकते हैँ । अथवा 
पुरुपादुका मंत्र से उपासना. करें 
रुपूजा स्तोत्र 
नमस्ते नाथ भगवन्‌! शिवाय गुरुरूपिणे। 
विद्यावतारसंसिद्धये स्वीकृतानेक -विग्रह ॥ 


नवाय नवरूपाय परयपार्थेक रूपिणे) 
244 


सर्वाज्ञान-तमोभेदभानवे चिद्धनाय ते॥. 
स्वतन्त्राय ` दयाक्लृप्त-पिग्रहाय परात्मने। 
परतन्त्राय भक्तानां भव्यानां भव्यरूपिणे॥ 
विवेकिनां विवेकाय विमशयि विमर्शिणाम्‌। 
प्रकाशिनां प्रकाशाय ज्ञानिनां ज्ञानरूपिणे॥ 
पुरस्तात्‌ पाश्बयोः पृष्टे नमस्कुर्यामुपर्यधः। ` 
सदा मच्ित्तरूपेण विधेहि भवदासनम्‌॥ 
अथवा ' रुद्राष्टक स्तोत्र" का ही पाठ करे। 


(अजपा-जपा-विधि) 

श्वांस प्रश्वांस के साथ हंस मंत्र पर ध्यान लगाना अजपा गायत्री है । इसके 
अर्न्तगत श्वांस प्रक्रिया का उसे परम सत्ता के आगे समर्पण किया जाता है, तन्त्र 
विधि से अजपा जप की प्रक्रिया “रुद्रयामल तन्त्र" में वर्णित हे। पाठकों के लाभके 
लिए उसे साविधि दे रहे है- 

1 मूलाधारे चतुर्दलपदमे वं शं षं सं चतुरक्षरे चतुष्कोण यन्त्रे एेरावत वाहने लं ` 
बीजे स्थिताय सिद्धि बुद्धि शक्ति सहिताय कुङ्कुम पर्याण महागणपतये 
षट्शतमजपाजपं निवेदयामि । 

1 स्वाधिष्ठाने षडदलपदमे बं भं मं यं रं लं षडक्षरे अर्धचन्द्र-यन्त्रे मकर ` 
वाहने वं बीजे स्थिताय सरस्वती शक्ति सहिताय सिन्दूर- वर्णाय ब्रह्माणे ` 
षट्सहस्रमजपाजपं निवेदयामि । 

2 मणिपूर चक्रे दशदलपदमे डंदंणंतंथंदंधंनंपं फं दशाक्षरे त्रिकोणयन्त्र 
मेषवाहन रं बीजे स्थिताय लक्ष्मी शक्तिसहिताय नीलवर्णाय विष्णवे-षटसहस्रमजपाजपं 
निवेदयामि । 

0 अनाहतचक्रे द्वादशदलपदमे कखंगंघंडचंछंजंञ्खंजंटंठं द्वादशाक्षर 
षट्कोणयन्तो हरिणवाहने यं वीजे स्थिताय पार्वतीशक्ति- सहिताय हेमवर्णाय परमशिवाय 
षर्सहस्रमजपाजपं निवेदयामि। 
| 0 विशुद्धचक्रे षोडशदलपदमे अं आं ई ईउऊक्रऋलुंलंएएेओंओंअं 
अः षोडशाक्षरे शून्ययन्त्रे हस्तिवाहने हं बीजे स्थिताय प्राणशक्ति सहिताय ` 
शुद्धस्फटिकसंकाशाय जीवाय सहस्रमेकमजपाजपं निवेदयामि । 

¬ आज्ञाचक्रे द्विदलपदूमे श्वेतवर्णे हं क्षं हयक्षरे लिंगयंत्रे नर-वाहने स्थिताय 
सानशक्ति सहिताय विद्युद्वर्णाय गुरवे सहस्रमेकमजपाजपं निवेदयामि। 

) ब्रह्यारन्धे सहस्रदलपदमे चित्रवर्णे अं आं ईई उङुऋऋलंलंएंएेंओं 

ओंअंअःमंखंगंघंडचंछजंञ्जजंटंठंडंदंणंतंथंदंधंनंपंफनंभंमंयं 
रलंवंशंषंसंहंलंक्षं--इति विंशति बारोच्यारिते सहस्ाक्षरे विसर्गयन्तो बिन्दुवाहने 


245 





पूर्णचन्द्र मण्डले आनन्दमहासमुद्रमध्ये चिन्मयमणिद्रीपे चित्सारचिन्तामणि मन्दिरे 
कल्पवृक्षाधघः स्थले अव्याकृत ब्रह्मामहासिंहासने स्थिताय नानावणाय वर्णातीवाय 
चिच्छक्ति सहिताय परमात्मने सहस्रमेकमजपाजपं निवेदयामि । 
इसके पश्चात्‌ कु क्षण तक "हसः सोऽहम्‌' कौ श्वास- निःश्वास के साथ 
भावना करं । तदनन्तर शरीर के चक्रों में जिन-जिन देवताओं का ध्यानपूर्वक आवाहन 
किया हे उनको मानसोपचार- पूजा करे-- 
¬ लं पृथिव्यात्मकं गन्धं समर्पयामि । (कनिष्ठा ओर अंगृष्ट मिलाकर) 
1 हं आकाशत्सकं पुष्पं समर्पयामि । ( अंगृष्ट ओर तर्जनी मिलाकर ) 
¬1 यं वाय्वात्मकं धूपमाघ्रापयामि। ( तर्जनी ओर अंगुष्ठ मिलाकर) 
1 रं वाहन्यात्मकं द्वीपं दर्शयामि। (अंगुष्ठ ओर मध्यामा मिलाकर) 
1 वं अमृतात्मकं नैवेद्यं निवेदयामि । ( अंगुष्ठ ओर अनामिका मिलाकर) 
1 सं सर्वात्मकान्‌ ताम्बूलादिसव)।पचारान्‌ समर्पयामि । ( अगृष्ट सहित सभी 
अगुलियों से) 
(मणिपूर विभेदकं रुद्रस्तोत्रम्‌) 
ॐ , नमः परमकल्याण नमस्ते विर्वभावन । 
नमस्ते पार्वतीनाथ उमाकान्त नमोऽतु ते॥ 
विश्वात्मनेऽविचिन्त्याय गुणाय निर्गुणाय च। ` 
धर्माय ज्ञानभक्षाय नमस्ते सर्वयोगिने॥ 
नमस्ते कालरूपाय त्रेलोक््यरक्चषणाय च। 
गोलोकघातकायैव चण्डेशाय नमोऽस्तु ते॥ 
सद्योजाताय देवाय नमस्ते श्रूलधारिणे। 
कालान्ताय च कान्ताय चैतन्याय नमो नमः॥ 
कुलात्मकाय कौोलाय चनद्रर्ेखर ते नमः। 
उमानाथ नमस्तुभ्य योगीन्द्राय नमो नमः॥ 
शर्वाय सर्वपूज्याय ध्यानस्थाय गुणात्मने । 
पार्वती प्राणनाथाय नमस्ते परमात्मने ॥ 
फलश्रुति 
एतत्स्तोत्रं पठित्वा, स्तौति यः परमेश्वरम्‌ 
याति रुद्रकुलस्थानं, मणिपूरं विभिद्यते ॥ 
एतत्स्तोत्र प्रपाठेन, तुष्टो भवति शंकरः। 
खेचरत्वपदं नित्यं, ददाति परमेवरः ॥ 
मणिपुर चक्र में अन्य तत्वों के साथ अमृत तत्व कौ भी स्थिति मानी गई हे। 
इस चक्र के अधिपति देवलाकिनी शवतत के साथ स्वयं मृत्यञ्चय दै । अतः इस चक्र 
246 





के भेदन का विशेष महत्व हे । इसलिए पाठकों के लाभार्थं यहां ' मणिपूर विभेदक 
स्तोत्र' दिया जा रहा हे । 


(संक्षिप्त श्रीयन्त्र पूजा) 
आचम्य प्राणानायम्य देशकालौ च संकौर्त्य । 
श्री गुरु महा-गणपति भगवतीं महात्रिपुर 
सुन्दरीं च प्रणस्य पूजयेत्‌। 





ध्यानम्‌ 
बालार्कारूण-तेजसं त्रिनयनां रक्ताम्बरोल्लासिनीं, 
नानालंकृतिराजमानवपुणं बालोदुराद-शेखराम्‌। 
हस्तेरिभ्रुधनुः सूर्णासुमशरान्‌ पाश॒ मुदा विक्षतं, 
श्रीचक्र स्थितसुन्दरी त्रिजगतामाधारभूता भजे॥ 
इति ध्यात्वा मानसोपचारैः सम्पूजयेत्‌ ततश्च- 
1ञॐदेह्ींरश्रीं अं आं सौः चतुरखत्रयात्मकतौलोक्यमोहनचक्राधिष्ठाय 
अणिमाद्यष्टर्विंशति शक्ति सहित-प्रकटयोगिनीरूपाय त्रिपुरदेत्ये नमः । ` 
1 ॐ त्रिवृत्तात्मकत्रि वर्गं साधक चक्राधिष्ठात्यै कालरात्रयादिसहित 
मातृकायोगिनीरूपाय त्रिपुरेशिनी देव्ये नमः। 


247 


0 ॐ ए क्लीं सौः षोडशदलपद्मात्मकसर्वाशापरिपूरक-चक्राधिष्ठात्यै 
कामाकर्षिण्यादि षोडशशक्ति सहित गुप्त योगिनीरूपाय त्रिपुरेश्वरी देव्यै नमः । ` 

०0 ॐ हीं क्लीं सौः अष्टदल पद्‌मात्मक सर्वसंक्षोभणचक्राधिष्ठात्रयै 
अनङ्खकुसुमाद्ष्टशक्ति सहित गुप्ततरयोगिनी रूपायै त्रिपुरसुन्दरी-दैत्यै नमः। 

013 ए ही श्रीं है हक्लीं हसौः चतुर्दशारात्मक- सर्व सौर्भाय-दायक 
चकाधिष्टात्रयै सर्वसंक्षोभिण्यादि चतुर्दशशक्ति सहित सम्प्रदाय-योगिनी रूपायै- 
त्रिपुरावासिनी देव्यै नमः। 

0 ॐ हसँ हस्क्लीं हस्सौः बहिर्दशारात्मक सर्वार्थसाधक-चक्राधिष्ठत्रयै 
सर्वसिद्धि प्रदादि दशशक्ति सहित-कुलेत्तर्णं योगिनी रूपाय त्रिपुराश्री देत्यै नमः। 

0 32 हीं क्लीं व्लंँ अन्तर्दशारात्मक सर्वरक्षाकर-चक्राधिष्ठा्यै सर्वज्ञादिदशशक्ति 
सहित- निगर्भयोगिनी रूपाय त्रिपुरमालिनी देव्यै नमः। 

` 0 ॐ हीं श्रीं सौः अष्टारात्मक सर्वरोग हर चक्राधिष्ठात्रयै वशिन्याद्यष्टशक्ति 
सहित रहस्य योयिगनी रूपायै-त्रिपुरासिद्धादेव्यै नमः। 

0 ॐ हसँ हस्क्ल्रीं हस्रोः त्रिकोणात्पक सर्वसिद्धि प्रदचक्रा-धिष्ठात्रयै 
कामेश्वर्यादि त्रिशक्तिसहितातिरहस्य योगिनी रूपाय त्रिपुराराम्बादेव्यै नमः । 

0 ॐ (मूलमन्त्रः) बिन्द्रात्मकसर्वानन्दमयचक्राधिष्ठात्रै षडङ्गायुधदशशक्ति 
सहित परापरातिरहस्य योगिनी रूपायै महात्रिपुर-सुन्दरी देव्यै नमः। 

इसके बाद नैवेद्यादि विधि करके नित्यकर्म पूर्णं करं । 

श्रीविद्या--'दशमविद्या' के अर््तगत षोडशी ' श्रीविद्या" भी आती है। 
` परशुराम कल्प, ' *श्रीविद्यार्णव, ' * तन्त्रराज, ' व ' षड्वानलतन््न ' आदि अनेकों 
ग्रन्थों में श्रीविद्यासाधना का विस्तृत वर्णन मिलता है, श्रीविद्या साधना का मूलाधार 
` श्रीयन्त्र ' है । इसी को ' श्रीचक्र ' भी कहते है । यह यन््र--1. विन्दु, 2. त्रिकोण, 
3. अष्टकोण, 4. दशकोण, 5: षटकोण, 6. चर्तुदशकोण, 7. अष्टदल, 8. षोडशदल, 
9. वृत्तत्रय ओर 10. भुपुर से बनता है । 'रुद्रयामलतन््र ' मे भी श्रीयन्त्र के माध्यक 
से शरीरस्थ चक्रं को जागृत करने का विस्तार से वर्णन मिलता है । इन प्रयोगो में 
एक "उदघाटन कवच' है। जो पाठकों के लाभार्थं हमने दे दिया है । साथ ही 
संक्षित श्रीयन्त्र पूजा ' भी दे दी गई है । विस्तार के इच्छुक पाठकों को ऊपर बताए 
मूलग्रन्थ देखने चाहिषएं। 

0 


248 





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प्रमुख योगासनं को करने का आदर्शं समय 


जीर्षासन 
मयूरासन 
हंसासन 
ऊर्ध्वं सर्वागासन 
पश्चिमोत्तानासन 
जानुशिरासन 
उत्तानपादासन 
पवनमुक्तासन 
भुजंगासन/सर्पासन 
शलभासन 
त्रिबन्धासन 
ताडासन 
पादहस्तासन 
सम्प्रसारण भू-नमनासन 
हदयस्तम्भासन 
शीर्षपादासन 
हलासन (सर्वागासन) 
कर्णपीडासन 
मस्तकपादागुष्टासन 
नाभ्यासन 
यानासन 
धनुरासन 
उष्ासन 
सुप्तवज्रासन 
मत्स्यासन 

249 


योगासन-समय तालिका 


20 मिनट कम से कम 
2 मिनट कम से कम 
3 मिनट कम से कम 

10 मिनट कमसेकम 

10 मिनट कम सेकम 

10 मिनट कम सेकम 
5 मिनट कम से कम 
4 मिनट कम से कम 
6 मिनट कम से कम 
4 मिनट कम से कम 
5 मिनट कम से कम 
5 मिनट कम से कम 
5 मिनट कम से कम 
5 मिनट कम से कम 
3 मिनट कम से कम 
4 मिनट कम से कम 
5 मिनट कम से कम 
4 मिनट कम से कम 
5 मिनट कम से कम 
5 मिनट कमसे कम 
5 मिनट कम से कम 
5 मिनट कम से कम 
5 मिनट कम से कम 

5 मिनट कम से कम 
10 मिनट कम से कम 


= 
2५. 


28. 
29. 
30. 
2 1 
3 
६. ॥ 
34. 
39 
36. 
(वि ~, 
38. 
ॐ. 
40. 
41. 
42. 
43. 
44. 
45. 
46. 
4८. 
48. 
49. 
90. 
| 
91 
53. 
०4. 
= 
6. 


54. 
98. 


अर्धमत्स्येन्द्रासन 
द्विपादमध्यशीर्षासन 
कपोतासन 
पार्वती आसन 
मत्स्येन्द्रासन 
वृश्चिकासन 
कन्दपीड़ासन 
सिंहासन 
बकासन/बगुलासन 
लोलासन 
एकपादागुष्ठासन 
जानुगमनासन 
आकर्णं धनुषासन 
आंजनेयासन 
कागासन 
उत्थित पद्यासन 
ऊर्ध्वपद्ासन 
कुक्कुटासन 
गर्भासन 
कूर्मासन 
तुलासन/दोलनासन 
एकपाद शिरासन 
वातायनासन 
गरुडासन 
द्विपाद मध्य शीर्षासन 
हस्तपादागुष्टासन 
कोणासन,त्रिकोणासन 
चन्द्रासन/अर्धचन्द्रासन 
चक्रासन 
शीर्षपादासन ` 
स्नायु संचालनासन 
पादागुष्ठनासाग्रस्पर्शासन 
सेतुबन्धासन 

250 








10 मिनट कमसे कम 
5 मिनट कम से कम 
4 मिनट कम से कम 
4 मिनट कम सेकम 
8 मिनट कमसेकम 
2 मिनट कम से कम 
2 मिनट कमसेकम 
3 मिनट कम से कम 
2 मिनट कम से कम 
2 मिनट कम से कम 
2 मिनट कम से कम 

सामर्थ्यानुसार 
4 मिनट कम से कम 


3 मिनट कम से कम 


आवश्यकतानुसार 
2 मिनट कम से कम 
5 मिनट कमसेकम 
2 मिनट कम से कम 
2 मिनट कम से कम 
3 मिनट कम से कम 
2 मिनट कमसेकम 
4 मिनट कम से कम 
4 मिनट कम से कम 
3 मिनट कम से कम 
2 मिनट कम से कम 
2 मिनट कम से कम 
5 मिनट कमसेकम 
4 मिनट कम से कम 
2 मिनट कम से कम 
2 मिनट कम से कम 
2 मिनट कम से कम 
2 मिनट कम से कम 
5 मिनट कमसे कम 








अ. 
60. 
61. 
62. 
6.3. 
64. 
> < 
66. 
64. 
68. 
6 %. 
70. 
2 4 
> 
५3. 
04. 
9. 
46. 
४८२ 
08. 
2 
80. 
छ |= 
84. 
१ 
84. 


योगनिद्रासन/द्विपादशिरासन 
शवासन/८विश्रामासन 
जानुशक्ति विकासकासन 
स्वस्तिकासन 

सिद्धासन 

समासन 

पद्मासन 

अर्धपद्मासन 

बद्धपद्यासन 

वीरासन 

गोमुखासन 

वच्रासन 
सरलासन८सुखासन 

समस्त बन्ध व मुद्राएं 
द्विपाद चक्रासन 

उत्थिद द्विपादासन 

उत्थित एकैकपादासन 
उत्थित हस्तमेरुदण्डासन 
शीर्षबद्धहस्तमेरुदण्डासन 
जानुस्पृष्ट भाल मेरुदण्डासन 
उत्थित हस्तपाद मेरुदण्डासन 
उत्थित पाद मेरुदण्डासन 
भाल स्पृष्ञ द्विजानुमेरुदण्डासन 
सरलहस्त भुजंगासन 
उत्थितैकपाद भुजंगासन 
उत्थित पादशीर्षं भुजंगासन 


251 


4 मिनट कम से कम 


10 मिनट कम से कम 


2 मिनट कम से कम 
30 मिनट कम से कम 
30 सिनट कम से कम 
30 मिनट कम से कम 
30 मिनट कम से कम 


` 60 मिनट कम से कम 


60 मिनट कम से कम 
30 मिनट कम से कम 
45 मिनट कम से कम 
30 मिनट कम से कम 
60 मिनट कम से कम 


सामर्थ्यानुसार अधिकाधिक 


5 मिनट कम से कम 
2 मिनट कम से कम 
2 मिनट कम से कम 
2 मिनट कम से कम 
सार्मथ्यानुसार 
2 मिनट कम से कम 
2 मिनट कम से कम 
2 मिनट कम से कम 
2 मिनट कम से कम 
5 मिनट कम से कम 
3 मिनट कम से कम 
2 मिनर कमसेकम 


(¬ () 


उपसहार तथा निष्कर्ष 


योग समस्त ज्ञानो में सर्वोत्तम हे । क्योकि योग के अंगों का अनुष्ठान करने से 
शुद्धि एवं विवेक ख्याति प्राप्त होती दै। जेसा की ` योगद्धन' मे कहा है- 
` योगाद्धानुष्ठानाद्शख्छिक्षये ज्ञानदीपि राविवेक ख्यातेः | (योग के अंग का अनुष्ठान 
करने से, अशुद्धि का नाश होने पर, ज्ञान का प्रकाश विवेक ख्याति तक हो जाता हे) 
इसीलिए ' गोरक्च संहिता में कहा है- 
योगशास्त्रं पठेनित्यं किन्मयेः शास्त्रविस्तरैः । 
यत्स्वयं चादिनाथस्य निर्गतं वदनाम्बुजात्‌॥ 
अर्थात्‌-- जो पुरुष नित्य प्रति योग शास्त्र को पदता हे, उसे किसी अन्य शास्त्र 
के विस्तार की क्या आवश्यकता हे ? क्योकि यह शास्त्र साक्षात्‌ आदिनाथ शिवजी 
के मुखारविन्द से ही निकला हे । 
योगश्नास्त्राध्ययने साधकस्य कृतकृत्यता । 
स्नातं तेन समस्ततीर्थं सलिलं दत्ता द्विजेभ्यो धरा॥ 
यज्ञानां च हृतं सहस्रमयुतं देवाञ्य संपूजिता: ॥ 
स्वाद्रनेन सुतर्पिताश्च पितरः स्वर्गं च नीताः पुनः 
यस्य ब्रहाविचारेण क्षणमापि प्राप्नोतिधर्य मनः॥ 
अर्थात्‌- जिसने योगशास्त्र का अध्ययन कर लिया, उसने मानो सभी तीर्थो के 
जल मं स्नान कर लिया, उसने मानो ब्राह्मणं को पृथ्वी का दान दिया ओर हजासं 
यज्ञो मेँ आहूतियां दे डाली । मानो सभी देवताओं का पूजन ओर पितरों का तर्पण 
करके उन्हें स्वर्गं कौ प्राति करा दी । क्योकि उक्त सभी फल इसके द्वारा ब्रह्मचिन्तन 
करने में क्षणभरमेंही प्राप्त हो सकते ह| 
(लेकिन पकर समञ्जना, गुनना ओर आचरण में लाना ही प्रभाव उत्पन 
करता हे । मात्र पटना या रटना नहीं । इसीलिए ' ककीर' ने कहा है-' पोथी पटि- 
पदि जग मुआ...') | 
प्राण शक्ति व समस्त शक्तियों कौ केन्द्रभूता शक्ति कुण्डलिनी का जागरण 
मात्र योगविद्या द्वारा ही सम्भव है जिसके बल पर मनुष्य स्वयं परमात्मा हो जाता है । 
(यानि आत्मा परमात्मा मे लीन होकर परमात्मा ही हो जाता हे) | 





252 





इसीलिए वेदों, उपनिषदो, शास्त्रों आदि में उन्मुक्त कण्ठ से कुण्डलिनी शक्ति 

कौ महिमा का गुणगान किया गया है। यथा-हे प्राणाग्नि! मेरे जीवन में उषा 
बनकर प्रकट हो ओर अज्ञान का अन्धकार दूर करो। एेसा बल प्रदान करो जिससे 
देवशक्तियां खिंची चली आएं ।' 
| -- ऋग्वेद 
हे आत्माग्नि ! तेरे हारा बल, प्रकाश, तेज, प्रतिभा, पराक्रम, ओज सभी मेरे 

भीतर से उभर रहे हैँ । हे अग्नि, तेरे तैंतीस विभाग (मेरुदण्ड की 33 कशेरुकाएं जो 

33 करोड देवताओं कौ ही प्रतीक हैँ) मुञ्च पर अनुग्रह करें ।' 

--अधर्कववेद 
जिसकी कुण्डलिनी जाग जाती है उसकी नखरी, मध्यमा, परा ओर पश्यन्ति ` 


वाणियां जागृत हो जाती हँ । अतः उसका कथन सत्य होकर रहता है ।' 
--महातन्तर 


^ हे दिव्याग्नि! तू आयु, वर्चस, सुसंतति, धन, मेधा, रति, पौरुष बनकर हमे 
अपना अनुग्रह प्रदान कर।' 
- यजुकेद 


कुण्डलिनी के जगते ही अन्तर मेँ छिपे वैभव अनायास ही दृष्टिगोचर होने 


लगते है। 
- योगिनीतन्त 


योग साधना द्वारा जगाई हुई कुण्डलिनी बिजली के समान तडपती चमकती 
है । उससे जो सोया है, सो जाग जाता है, जो जागा है, वह दौडने लगता है (अर्थात्‌ 


आत्मोत्थान एवं बहुविधि प्रगतियां होती है, अन्तः प्रेरणा व शक्ति मिलती है) । 
-- त्रिशिखव्राह्मण ¦ 


जिसकी मूलाधार शक्ति सार ही है । उसका सारा संसार सो रहा है, जिसको 


कुण्डलिनी जाग गई, समञ्लो कि उसका भाग्य जाग गया।' 
-- महा योग विज्ञान 


कुण्डलिनी मूलाधार चक्र मेँ स्थित आत्माग्नि तेज के मध्य मेँ अवस्थित है । 
वह जीव को जीवनी शक्ति है । तेजस ओर प्राण आकार है। 
 -- योग कृण्डल्युपनिषद्‌ 
यह कालाग्नि कुण्डलिनी जब अधोगामी होती है तो मनुष्य को अशक्त बना 
देती है । परन्तु जब ऊपर उठती है तो उच्च सिद्धियों को प्रदान करती हुई ब्रह्मलोक 


तक पहुचती है । 
-- वृह्नानालोपनिषद्‌ 


293 


= 


अतः योग ओर कुण्डलिनी का महत्त्व स्वतः सिद्ध है । इनके विषय मे अधिक 
कहना भी सूर्य को जुगनू दिखाने के ही समान होगा । बहरहाल-- योग या ध्यान, मत्र 
या समाधि, कुण्डलिनी या सिद्धियां, शांति या मोक्ष-सभी कुछ मन ओर प्राणों के 
निरोध से ही सम्बन्ध रखते हँ । मन से प्राण ओर प्राण से मन वामे आतादहे 
अतः दोनों में से एवः को साधे विना योग मार्ग में सफलता मिल ही नहीं सकती । 
अतः समस्त शस्त्रो ने मन के संयम पर विशेष बल दिया हे ओर सिद्धि प्रापि तथा 
उसे सहेज पाने के लिए पात्रता उत्पन करने का निर्देश दिया हे। 
जिस व्यक्ति का मन इद्धियों सहित जीत लिया गया है, वह तो जीता हुआ भी 
मुक्त या मोक्ष पाए हुए के समान ही है जैसा कि ‹ श्रीमद्‌ भागवत्‌ गीता" मेँ श्रीकृष्ण 
ने स्वयं कहा है-- 
इहैव तैर्जितः सर्गो येषां साम्ये स्थितं मनः| 
निर्दोषं हि समं ब्रहम तस्माद्रब्रह्माणि ते स्थिताः ॥ 
अर्थात्‌-जिनका मन समत्व भाव मेँ स्थित है, उनके द्वारा जीवितावस्थामें ही 
सम्पूर्ण संसार जीत लिया गया हो, अर्थात्‌ वे जीते हए ही संसार में मुक्त है । क्योकि 
सच्चिदानन्द घन परमात्मा निर्दोष ओर सम हैँ । अतः वे सच्चिदानन्द धन परमात्मा मे 
ही स्थित हें। 
इसके लिए सर्वप्रथम संशयो का नाश कर ज्ञान प्राप्त करना आवश्यक है! 
इसलिए ज्ञान के समान पवित्र कुछ भी नहीं माना गया-' न हि ज्ञानेन सदशं पवित्र 
मिह विद्यते ।' (ज्ञान के समान पवित्र इस संसार मेँ निस्संदेह कुछ नहीं है) । तभी 
गीता मे कृष्ण नै अर्जुन से कहा ठै- 
अपि चेदसि पापेभ्यः सर्वेभ्यः पापकृतम्‌। 
सर्वं ज्ञानप्लवेनैव वृजिनं संतरिष्यसि ॥ 
अर्थात्‌-"यदि तू सब पापियों से भी अधिक पाप करने वालाहै, तो भी 
सानरूपी नौका द्वारा निः सन्देह सम्पूर्णं पापों को अच्छी प्रकार तर जाएगा ।' 
अतः कल्याण चाहने वाले को सर्वप्रथम ज्ञान प्राप्त करना चाहिए । तब अविद्या 
रूपौ अन्धकार दूर होकर ओर ज्ञान का प्रकाश होकर वैराग्य उत्पन होता है । अतः 
ससार को निःसारता, माया का प्रभाव व ब्रह्म का महत्व सहज ही समञ्च आ जाता 
ह । भेद बुद्धि का नाश होने लगता है । आत्म तत्व को जानने कौ छटपटाहट उत्पन्न 
हीने लगती है । व्यविति भौतिक स्तयो से ऊपर उठ जाता है । पात्रता के लिए उपयुक्त 
धरातल प्रात हो जाता हे । अतः तब वह मन ध इन्दियो को विषयों से कलए के अंग 
सिकोड़ लेने के समान सिकोड कर अन्तर्मुखी करने मे सफल होता है । 
नो ईस प्रकार चित्त वृत्ति निरोध से विषयों कौ विरसता से तथा मन, प्राण व 
इन्द्रयां के अन्तर्मुखी हो जाने पर वह सहज ही ध्यानावस्था को प्राप्त करता हुआ 


254 


[प | 1 





अन्ततः समाधि तक पहुंचता है । तबं उसके लिए सम्भव, असम्भव, भोग, मोक्ष 
चमत्कार, सिद्धि आदि कुछ भी दुष्कर नहीं रहता । उसके समस्त मल, विकार, पाप 
आर कर्म तक योगाग्नि में भस्म हो जाते हैँ । तब वह कर्म बन्धन से मुक्त हो, 
सोगाग्नि में परिस्कृत हो, कुण्डलिनी के प्रकाश में आत्म तततव का साधात्कार करता 
दे । ओर बिन्दु से सागर अथवा स्व से परम हो जाता है । इसीलिए महर्षिं अष्टावक्र 
ने समस्त योगशास्त्रं का निचोड राजा जनक को दो पंक्तियों में कह दिया था। 

मोश्चो विषयवेरस्यं बन्धो वैषयिको रसः । 

एतावदेव विज्ञानं यथेच्छसि तथा कुरु ॥ 

अष्टावक्र गीता 
अर्थात्‌-- विषयों मेँ विरसता मोक्ष हे । विषयों मेँ रस बन्धन हे । इतना ही 

विज्ञान है । (अनब) तू जैसा चाहे वैसा कर । 


255 





ब्धाराः पकाश्त 


हर घर के लिए उपयोगी एवं ज्ञानवर्धक पुस्तकों का खजाना 





भारतीय ज्योतिष एवं लाल किताब | 120.00 
तंत्र मत्र यत्र द्वारा मनोकामना सिद्धि 50.00 
शकुन अपश्ञकुनन द्वारा भविष्य ज्ञान 50.00 
वृहद्‌ हस्तरेखा शास्त्र 50.00 
अनिष्टकारी ग्रहचाल कारण ओर निवारण 40.00 
श्री शिव महापुराण 40.00 
श्री विष्णु महापुराण 40.00 
श्रीमदभागवत पुराण 40.00 
जन्मदिन द्वारा भविष्य 40.00 
पांवरेखा शास्त्र 40.00 
अंक ज्योतिष | 40.00 
हिप्नोटिज्म के करिष्में 40.00 
गोल्ड एलोपैथिक चिकित्सा 75.00 प्राकृतिक चिकित्सा 50.८0 
गुणकारी जड़ी बूटियां 50.00 सूर्य रग रत्न द्वारा चिकित्सा 40.00 
सम्पूर्णं योग शास्त्र 50.00 सिगरेट, शराब, तम्बाकू केसे छोडं 30.00 
महिलोपयोगी पुस्तके 

स्वादिष्ट शाकाहारी व्यंजन 50.00 लेडीज दैल्थ एण्ड ब्युटी गाइड 40.00 
ज्ायकेदार नाशते 50.00 सफ़ल पत्नी केसे बनें 30.00 
लज्ीज मांसाहारी व्यंजन 50.00 गृह उपयोगी काम की बातें 

चटपटे अचार चटनी मुरब्बे 50.00 (101८ 17175) 30.00 
गभविस्था एवं शिशुपालन ` 40.00 गोल्ड होम टेलरिग कोर्स 80.00 

मेहनती 

साजन कौ मेहन्दी 10.00 दुल्हन की मेहन्दी 10.00 
मनभावन मेहन्दी 10.00 आ मेहन्दी सीखें 10.00 


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ककष्डचिनी शकि 
कंसे जागतं करर 


सशेलवनधात्रीणं यथा धरोऽहिनायकः। 
सर्वेषां योग त्राणां तथा धारोहि कुंडली । 
अति निस प्रकार पर्वत, वन, सागर आदि को धारण करले 
वाली पथ्वी का आधार अनन्त नाग हे, उसी प्रकार शरीर की 





प ¦| समस्त गति, क्रिया शक्ति ऊर्जा व समस्त योग तन्तं का आधार 





( ण उन चमत्कारी एवं आलोकिक शक्तियो को प्राप्त 






कुण्डलिनी शक्ति हे । 
सम्पूर्ण ब्रह्मांड मे नितनी भी शक्तियां विद्यमान ह उन 
सबको ईश्वर ने मनुष्य रूपी पिंड मं एक स्थान पर एकत्रित कर 
दिया हे यही शक्ति कुण्डलिनी शवतत हे । | 
“ह' अक्षर की भाति, साटे तीन लपेटे खाए हये सर्पिणी की 
भाति सुप्त पड़ी रहने वाली यह शक्ति जव योगिक उपायों दारा 
गति प्राप्त करने पर ऊपर की ओर बट़ती टै तब यह अदूभुत 
शक्त कुण्डलिनी जैसे-जैसे चक्रों का भेदन करती है, वैसे-वेसे ही 
रै व चमत्कारी एवं जआलोकिक शक्तियों को प्राप्त करता जाता 
| हे। "(आ 
| प्रस्तुत पुस्तक मे इस गुप्त महाविद्या का विस्तृत, सवित्र एवं 
सरल विवरण हे पुस्तक मे कुण्डलिनी परिचय, कुण्डलिनी जागरण ` 
कं उपाय, अष्टांग योग, ध्यानयोग, हट योग, सभी मदर्य, एवं तंत्र 
एवं मंत्र दारा कुण्डलिनी जागरण पर विस्त॒त प्रकाश ला गया है| 
प्रस्तुत पुस्तक पटकर कुण्डलिनी जागत कर अब आप भी 
त कर सकते है 


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